( सुशीला टाकभौरे की यह कहानी दलित स्त्रीवादी कहानी के दायरे में पढी जा सकती है. आज भी सरकारी फाइलों में ‘अपराधी जाति’ के तौर पर दर्ज कंजर जाति की महिला के साहस की कहानी जाति और स्त्री , दोनो ही विमर्शों के दायरे में पढी जा सकती है , जो स्त्री आंदोलन के हाशिये से कही गई है. )
बरहानपुरा गांव में बस स्टैण्ड से डाॅकबंगले की तरफ, रोड के पास ‘परिहार-निवास’ नाम की बड़ी बिल्डिंग है। बिल्डिंग में ऊपर निवास है, नीचे गॅरेज है। गॅरेज से लगकर छोटा कमरा है। इस एक कमरे के घर में सुमन
किराये से रहती है।
सुमन कंजर जाति की महिला है। कंजर जाति के विषय में लोग जानते हैं। इस घुमक्कड़ जाति के लोग बहुत ही निडर, साहसी और ताकतवर होते हैं। गांव-गांव में रहकर घूमते हुए अपना काम धन्धा करना, जंगलो में भटककर शिकार करना, बड़े, वजनदार सुअर आदि जानवर को अपने कंधो पर उठाकर लाना उनकी दिनचर्या में है। लड़ाई-झगड़े, खून-खराबे से वे कभी नहीं डरते, मरने-मारने से नहीं डरते। हँसते-हँसते जेल चले जाते, फिर वहाँ से लौटकर अपनी अदावत निकालते। सुमन का पति छेदीलाल ऐसा ही शूरवीर साहसी और निडर है।
इस जाति के लोगों को दूसरे काम धन्दे आसानी से नहीं मिलते। इस कारण छेदीलाल शराब बनाकर बेचने का धन्दा करता है। पुलिस हमेशा उसके पीछे पड़ी रहती है। आसपास के गांव में, कहीं भी चोरी होने, डाका डाले
जाने जैसी घटना होने पर पुलिस सबसे पहले उसे ही पकड़ती। बेकसूर होने पर भी उसे मारा पीटा जाता और जेल में डाल दिया जाता। ऐसे समय में सुमन कठिनाइयों का सामना करते हुये गुजर-बसर करती है। आठ-दस साल से यही क्रम चल रहा है-एक दो महिने के लिए छेदीलाल बाहर आता है फिर दो-तीन साल के लिए जेल के अन्दर डाल दिया जाता। सभ्य सवर्ण समाज द्वारा हमेशा इन्हें ही गुनहगार साबित किया जाता है। गुनाह
न करने पर भी छेदीलाल को सजा दी जाती, उसे जेल की यातना भोगनी पड़ती। सुमन को भी ऐसे जीवन की आदत हो गयी थी। यदि उसके पति को बार बार जेल नहीं भेजा जाता, तो उसका जीवन ऐसा नहीं होता। परिस्थितियों ने उसे विवश किया। सुमन भी बड़ी दबंग और हिम्मत वाली है। वह अपना जीवन अपने ढंग से जीने लगी। वह भी किसी की परवाह नहीं करती-‘‘ आता है तो आ, जाता है तो जा-’’ इस भावना और अपनी हिम्मत के बल पर सुमन जिन्दा है। कुछ घरों में वह कपड़े-बर्तन धोने का काम करती है और अपने घर में खुश रहती है।
सुमन का पति जेल में रहता है, वह हर दो साल में एक बच्चे को जन्म देती है। ऐसे जचकी के समय में चमार बलाई, ढीमर, भंगी जाति की महिलाएँ उसकी मदद करके उसे संभाल लेती हैं। वह भी उनका बड़ा एहसान मानती है।कई बार ये औरतें नवजात शिशु को गौर से देखते हुए मजाक के लहजे में पूछती हैं – ‘‘कौन के जैसे दिखे है ?… भंडारी के जैसे ?… नहीं, ये तो रामरतन घांई दिखे है।’’ ये दोनो ही गांव के बदनाम लोगों में गिने जाते
है। सुमन हँस देती। वे महिलाएं कहतीं – ‘‘तेरा घरवाला तो नहीं आया, लड़का कैसे हो गया ? किसका लाई है ?’’ सुमन हँसकर कहती – ‘‘छेदीलाल आया तो था।’’ फिर वह कहती – ‘‘लड़का तो मेरा है, मैंने पैदा किया है।
दिखने में किसी के जैसे भी दिखे, इससे क्या फरक पड़ता है ?’’
सुमन को किसी बात का फर्क नहीं पड़ता। जात-पंचायत का यह आदेश है-‘‘कोई उसके घर नहीं जायेगा, न ही कोई उसे अपने घर बुलायेगा।’’ उसकी जाति के लोगों ने उसे जाति से बाहर कर दिया है। पंचो के आदेश का उल्लंघन करने पर दंड के विधान निश्चित थे, जुर्माना -हर्जाना, जातिभोज। सुमन की जाति के नियम बहुत कठोर है। अकेली औरत का जीवन जाति समाज में कठिन ही रहता है। सुमन ने दूसरो की दया पर जीने के बदले स्वतंत्रता के साथ अपने बल पर जीवन जीना स्वीकार किया। समाज भला यह कैसे स्वीकार करता। दंड स्वरूप उसे जाति से बहिस्कृत कर दिया गया। सुमन भी अपनी जाति में किसी के घर नहीं जाती। जिन्दगी जीने की सुमन की अपनी जीवन शैली है। वह अपनी जाति की औरतों की तरह खानाबदोशो की जिन्दगी से अलग, एक ही गांव रहकर स्थायी जीवन जी रही है। वह अपने जाति समुदाय की औरतों की तरह पुरुष वर्ग के स्वामित्व में न रहकर, अपने दम पर अकेली जी रही है। सबसे हिल मिल कर रहने वाली सुमन को जब किसी पर गुस्सा आता है, तो झगड़ने और गालियां देने से वह कभी नहीं चूकती। अपनी इसी हिम्मत और ताकत से वह दमदार बन सकी है
गांव में लोग अपने मतलब के लिए उससे सम्बन्ध बनाते हैं। वह भी अपने मतलब से उनसे सम्बन्ध रखती है। उसकी पसंद ऊंची है। साधारण जिन्दगी जीने वाले साधारण आदमी उसे पसंद नहीं आते। हिम्मती, उपद्रवी, नामी और बदनामी वाले लोगों से ही उसके सम्बन्ध जुड़ते हैं।
हाँ तो, बहुत दिनों से वह गांव में जग्गू पहलान के चर्चे सुन रही थी। पागल औरत को मारने की बात सुनकर उसे जग्गू पर बहुत गुस्सा आया। वह गुस्से के साथ खुद से बोल पड़ी थी-‘‘ठठरी बंधा, मेरे पल्ले पड़ेगा तो सारी हेकड़ी निकला दूंगी।’’जब उसने सुना -‘‘नीचे बाजार में रामू सेठ की बेटी का हाथ पकड़कर जग्गू ने सड़क तक खींच लाया, फिर हाथ छोड़ दिया – ’’ तब सुमन को बड़ी हैरत हुई। उसने कहा – ‘‘हाथ आई चिडि़या कैसे छोड़ दी…?’’ उसने मन ही मन विचार किया-‘‘जरा मैं भी तो देखूं, इसमें कितना दम है ?’’
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कुछ दिनों से बरहानपुरा गांव में एक पागल-औरत गंदे, चीकट कपड़े पहने, बाल बिखेरे घूमती है। उसे देखकर बच्चे चिढ़ाते और पत्थर फेंककर मारते। वह भी चिढ़ाने वालों को दांत दिखाकर, मुंह चिढ़ाती और कंकर पत्थर
उठाकर मारती।एक दिन पागल औरत के सामने से जग्गू पहलवान निकला। जग्गू भग्गू पहलवान का छोटा भाई है। भग्गू ठाकुर शरीर और ताकत से पहलवान है। वह दिल और दिमाग से बहुत ही सज्जन नेक-दिल और शालीन व्यक्ति है। मगर उसका छोटा भाई जग्गू दुबला-पतला, मरियल, चरित्रहीन और एक नम्बर का गुण्डा-बदमाश है। वह बहुत ही निर्दयी और दुष्ट है। जग्गू के बड़े भाई भग्गू पहलवान को मान देने के लिए लोग जग्गू को जग्गू पहलवान कहते हैं।
हाँ तो, जग्गू पहलवान पागल औरत के सामने से निकला, पागल औरत ने उसकी तरफ देखा। जग्गू पागल की तरफ ही देख रहा था। अपनी तरफ देखने वाले को चिढ़ाने के लिए पागल ने बन्दर की तरह दांत दिखाये, फिर
जीभ दिखाकर वह हंसी। बीच बाजार की बात है। स्टेशन से बाहर तांगा स्टैण्ड से बाहर, चाय-नाश्ते की दुकाने हैं। इनमें सबसे बड़ी देवकरण की होटल है। होटल के सामने ‘जवाहर बगीचा’ है। बगीचे के बाजू से एक सड़क सामने बस स्टॅण्ड की तरफ गई है। इस सड़क के एक तरफ पूर्व में ‘नीचा बाजार’ है और दूसरी तरफ पश्चिम में ‘ऊपर बाजार’ है। ऊपर बाजार में कपड़े, किराने और अनाज की बड़ी-बड़ी दुकाने हैं। इन दुकानों के मालिकों के बड़े-बड़े घर, ‘नीचे बाजार’ में, सड़क के दोनों ओर एक कतार में हैं। यहाँ और भी हिन्दू महाजन रहते हैं। ‘जवाहर बगीचे’ की कम्पाऊन्ड दीवार से लगकर सब्जी और फल वालों की दुकानें हैं। शाम के समय सभी दुकानों मंे ग्राहकों की संख्या बढ़ जाती है।
देवकरण की होटल के सामने ‘जवाहर बगीचे’ की दीवार से टिककर पागल औरत बैठी थी। वह जग्गू को देखकर हँसी। पागल की हरकतों को देखकर कुछ लोग हँंस दिये। लोगों को हँंसते देखकर जग्गू ठाकुर को अपना बड़ा अपमान लगा। बीच बाजार में सरे-आम अपमान होते देखकर पहलवान का छोटा भाई जग्गू आपे से बाहर हो गया। उसने आव देखा न ताव, दौड़कर पागल के पास पहुंच गया। एक क्षण में उसने पागल औरत के बाल पकड़
लिये।
पागल औरत ने – ‘‘ऐ…..ऐं..…’’ करते हुए अपने बाल छुड़ाने की कोशिश की, तो बालों के साथ उसके हाथ भी पकड़कर जग्गू ने उसे घसीटना शुरू कर दिया। इसके साथ मुक्के, लात-जूते से उसकी पिटाई करने लगा।
लोग भौंचक होकर तमाशा देखने लगे। असहाय, गरीब पागल औरत के लिए सबके मन में सहानुभूति थी। कुछ लोगों ने जग्गू पहलवान को समझाने की कोशिश की – ‘‘भैय्या, जाने दो, पागल है, औरत है…. जाने दो….’’
मगर वह नहीं माना।
‘‘जग्गू नामी गुण्डा है। कौन उसके झंझट में पड़े, यह कहते हुये-लोग धीरे-धीरे वहां से जाने लगे। भरा बाजार सूना हो गया। दुकानदारों ने अपनी दुकानें बन्द कर दीं। ग्राहक बिना सामान लिए ही अपने घर लौट गये।बेचारी पागल औरत चीखती रही, चिल्लाती रही, मार खाते-खाते बेदम-बेहोश हो गई, तब भी वह उसे पीटता रहा। जग्गू को किसी ने कुछ नहीं कहा। उसका हौसला बढ़ता गया।अब तो वह और सीना तानकर चलने लगा। जमीन पर छोटी-मोटी कोई भी चीज देखता तो उसे ठोकर मारकर दूर फेंक देता। पागल को मारने की घटना से लोग भयभीत थे। उसकी इस शोहरत की खबर पूरे गांव में फैल गई। गांव में सभी लोग उससे और डरने लगे। जब वह ‘ऊपर बाजार’ की दुकानों के सामने से निकलता, तो लोग नजरें नीची करके अपने-अपने काम में व्यस्त दिखने लगते। वह गर्व के साथ इधर-उधर देखते हुए निकल जाता।जब वह ‘नीचे बाजार’ की सड़क से गुजरता, तो वहां के घरों के लोग अपने-अपने दरवाजे बन्द कर लेते। बाहर खेल रहे छोटे बच्चे अपने घर की तरफ चल देते। बहुएँ और बूढ़ी औरतें आंगन या बरामदे में बातें कर रही होतीं तो वे उसे देखकर तुरन्त सड़क की तरफ अपनी पीठ कर लेतीं। बहुएँ, बेटियाँ घर के भीतर चली जातीं। जग्गू पहलवान निरापद भाव से अभिमान के साथ गर्दन ऊंची करके निकलता।
एक बार रामू सेठ की बेटी प्रेमलता घर के बरामदे में खड़ी थी। वह कुछ चबाते हुए, सड़क की तरफ, इधर-उधर देख रही थी। तभी वहाँ से जग्गू पहलवान निकला। सोलह साल की प्रेमलता दसवीं पढ़ रही है। अपनी सुन्दरता
के अभिमान के साथ युवावस्था का भान भी उसे होने लगा है।हाँ तो, प्रेमलता अपने खुले बरामदे में लकड़ी की मेहराब से टिककर खड़ी थी। जग्गू पहलवान ने चलते-चलते उसकी तरफ देखा। लड़की भागी नहीं, झुकी नहीं, डरी नहीं -वैसे ही तनकर खड़ी रही और कुछ चबाते हुए मुंह चलाती रही-जग्गू पहलवान को अचम्भा हुआ – ‘‘यह कैसे….?’’ वह ठहरकर उसे देखने लगा। जग्गू पहलवान को देखकर लड़की थोड़ी इतराई, थोड़ी लहराई और थोड़ी सी मुस्कराई-जग्गू पहलवान के लिए इतना ही काफी था। वह चीते के समान तेजी से आगे बढ़ा। लड़की कुछ समझ नहीं पाई। जग्गू ने पलभर में उसका हाथ पकड़ा और खींचकर सड़क तक ले आया। लड़की डर गई। वह चीखने लगी।
लड़की की चीख सुनकर लोग घरों से बाहर आ गये। जवान लड़के, बड़े-बूढ़े, नौकर-चाकर सब उसे घेरकर खड़े हो गये। मगर जग्गू ने लड़की का हाथ नहीं छोड़ा। लोग चुपचाप खड़े रहे। सब इस शंका में थे कि पता नहीं आगे क्या होगा ?
जग्गू ने सबकी तरफ देखा, फिर लड़की की तरफ देखा – ‘लड़की नासमझ है, बच्ची है – ’यह सोचकर अथवा पता नहीं क्या सोचकर उसने लड़की का हाथ छोड़ दिया। लड़की रोती हुई अपने घर में चली गई। सब लोग भी वहाँ से चल दिये।
लड़की तो घर में चली गई, मगर बात पूरे गांव में फैल गई। कई दिनों तक लड़की स्कूल नहीं गई। लड़की के माँ-बाप रिश्तेदारों के घर नहीं गये। शादी-ब्याह, जन्मदिन जैसे सामाजिक समारोहों में नहीं गये। उन्हें इस बात की
लज्जा लगती थी कि उनकी बेटी के कारण, गांव में उनकी इज्जत चली गई, मगर वे जग्गू पहलवान को कुछ नहीं कह सके, उसका बाल भी बांका नहीं कर सके।जग्गू पहलवान से गांव के लोग और ज्यादा डरने लगे। बहू-बेटियाँ तो क्या, बड़ी-बूढि़याँ भी अपनी इज्जत के लिए डरने लगीं। जग्गू पहलवान और अधिक अकड़कर चलने लगा। वह अब गांव में ज्यादा चक्कर लगाने लगा।
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जग्गू पहलवान का घर बस स्टैण्ड से सीधे रेल्वे चैकी की तरफ है। सुमन सज-धज कर शाम के समय चैकी के तरफ जाती फिर घूमती-फिरती बाजर से सामान खरीदकर अपने घर आती।जग्गू की नजर सुमन पर पड़ी। तीन बच्चों की माँ होने पर भी सुमन दमदार औरत है, जग्गू को वह अच्छी लगी। जग्गू उसके पीछे-पीछे ‘परिहार निवास’ तक आने लगा। वह बेमतलब गॅरेज के पास खड़ा रहता। सुमन उसके मन को भा गई। सुमन भी उसे लुभाती रहती। एक दिन दोनों करीब आ गये। दोनों की रजामन्दी हो गई। अब जग्गू सुमन के घर आने-जाने लगा। गांव वालों को मालुम हुआ। जग्गू को किसी की परवाह नहीं थी। सुमन को भी किसी की परवाह नहीं थी। दोनों बेधड़क मिलने लगे। जग्गू रात में सुमन के घर आता और सुबह अपने घर चला जाता। चार महिने बड़े आराम से निकल गये।
एक दिन सुमन देवकरण की होटल के सामने, नीचे बैठकर चाय पी रही थी। दोपहर के बाद चार बजे की बात है, उधर से जग्गू पहलवान निकला। उसने सुमन को इस तरह बैठे देखा तो डांटकर कहा – ‘‘ऐ……ऐसी यहाँ
क्यों बैठी है ?’’
सुमन ने ऐंठकर कहा – ‘‘बैठी हूँ, मेरी मरजी -’’
जग्गू जोर से चिल्लाया – ‘‘तेरी मरजी ?… तेरी ऐसी की तैसी -’’
सुमन और जोर से चिल्लाई – ‘‘ऐ….गाली मत दे। मैं तेरी लुगाई नहीं हूँ। ज्यादा करेगा, तो सब निकल दूंगी। ठीक कर दूंगी… हाँ…’’
जग्गू गुस्से से बोला – ‘‘तू ठीक करेगी ? कंजरी… तू है ही कंजरनी, तुमको कोई शरम नहीं है। नीची जाति के लोग नीच ही रहते हैं-’’
अपनी जाति का अपमान होते देख, सुमन तनकर खड़ी हो गई – ‘‘क्या कहा ?… कंजरनी…? अरे कंजर, तू तो हमारे कंजरों से गया बीता है। दिन में आने से डरता है। रात में मेरे घर में घुसा रहता है। चार महिने से मुझे चाट
रहा है… आज मैं तुझे नीच कंजरनी दिख रही हूँ? … अरे, तू तो कंजरो के पांव की धूल भी नहीं है। काहे का पहलवान है तू…?’’ इन चार महिनों में सुमन जग्गू को अच्छी तरह समझ चुकी है। वह उसकी सब कमजोरियाँ जान चुकी है।झगड़ा होते देखकर आने-जाने वाले लोग ठहर गये। भीड़ बढ़ती गई। जग्गू को बहुत बुरा लगा। चार महिने से वह सुमन के साथ प्रेम से रह रहा था। आज उसे सुमन पर गुस्सा आ गया। यह वही जगह है, जहाँ उसने पागल औरत को मारा था। तब से वह पागल उसे देखते ही डर के कारण छिप जाती है। आज जग्गू को सुमन के ऊपर वैसा ही गुस्सा आया। वह लपककर सुमन के पास आया। उसने सुमन के बाल पकड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया -सुमन के शरीर में बहुत ताकत है। गुस्सा उसकी ताकत को और बढ़ा देता है। वह अपनी जाति के मर्दो की तरह रहती है। अच्छा खाती, अच्छा पीती है- मटन, मुर्गा, मछली, अंडे़ पराठे खाती है, डटकर शराब पीती है, खुश हती है। वह मेहनती है, फुर्तीली है। उसकी जाति के गुण उसके खून में हैं। हिम्मत, गुस्सा, ढीटपन, निडरता उसमें ठूंस-ठूंस कर भरे हैं। मरने-मारने से वह भी नहीं डरती। वह जग्गू की मंसा भांप गई।
‘‘तू मुझे, भरे बाजार में, कमजोर औरत-समझकर, बाल पकड़कर मारेगा ?’’
बस फिर क्या था। सुमन का गुस्सा आसमान छू गया। जग्गू के आगे बढ़े हाथ को सुमन ने एक ही झटके में अपनी तरफ खींचकर, उसे जमीन पर गिरा दिया और वह उसकी छाती पर चढकर बैठ गई। उसके दोनों हाथ सुमन ने अपने घुटनों के नीचे दबा लिये और उसकी कमीज, बनियान फाड़ डाली। वह दोनों हाथों से दुहत्थड़ बनाकर उसकी छाती, मुंह और सिर पर मारने लगी। जग्गू इस जीवट की औरत के सामने पार नहीं पा सका। सुमन ने उसके बाल पकड़कर खींचे, फिर अपनी चप्पल उसके मुंह और सिर पर फड़ा-फड़ मारते हुए बोली -‘‘साला, हरामी, कुत्ता, हमको नीच कहता है…’’
जग्गू किसी तरह उसे धकेलकर उठा। लुढ़कते-लुढ़कते भी सुमन ने जग्गू की कमर का बेल्ट और फुलपेन्ट कसकर पकड़ लिया और पूरी ताकत लगाकर फुलपेन्ट को अपनी तरफ खींचा। कमर का बेल्ट टूट गया, बटन टूट गये। फुलपेन्ट खुलकर नीचे आ गई। उसमें उलझकर जग्गू खुद नीचे गिर गया।
सुमन के मन में बहुत गुस्सा है, जैसे सदियों से इकट्ठा होता आ रहा है – ‘‘अभी तक आदमी ही सरे-आम औरतों को नंगा करके मारते-पीटते आये हैं। क्या, औरत आदमी को नंगा करके नहीं पीट सकती ?’’ फिर तो सुमन ने कोताही नहीं बरती। जहाँ उसे मारना था, उसी जगह पर दनादन देने लगी-प्रेमलता शाम को स्कूल से घर लौट रही थी। जवाहर बगीचे के पास भीड़ देखकर कारण जानने के लिए वह वहाँ गई। देवकरण की होटल के सामने, भीड़ के बीच उसने देखा-जग्गू धूल में पड़ा है। उसकी कमीज और बनियान तार-तार होकर बदन से अलग झूल रहे हैं। उसकी फुलपेन्ट उतर गई है। बिना कपड़ो का जग्गू बहुत ही दुबला, मरियल और कमजोर दिख रहा है। सुमन उसे पीटे जा रही है।
पता नहीं कैसे पागल औरत को इस झगड़े की भनक मिल गई। वह दौड़ती हुई आई। जग्गू को पिटते देखकर वह खुशी से चीख पड़ी। फिर भीड़ के बीच इधर-उधर भागते हुए उसने एक बड़ा पत्थर ढूंढ लिया। उसने दोनो हाथों से पत्थर अपने सिर से ऊपर उठा लिया। कई महिनों का आक्रोश और दबी हुई प्रतिशोध की भावना उसके चेहरे पर चमकने लगी। उसकी आँखों में गुस्से का लावा है, मगर होठों पर सफलता की खुशी झूम रही है। वह जग्गू के सिर की तरफ देखकर पत्थर का निशाना तकने लगी- जग्गू ने उसे देखते ही खुद को बचाने के लिए दोनों हथेलिया फैलाकर उसके सामने कर दी। पागल औरत को इन हाथों पर ही ज्यादा आक्रोश था। उसने बड़ा पत्थर जग्गू के हाथों पर दे मारा।
जग्गू चीख उठा-‘‘अरे भैय्या रे… भैय्या मुझे बचाओ रे…’’
भग्गू पहलवान भीड़ में खड़ा अपने भाई को पिटते हुए देख रहा है। कई दिनो से जग्गू के कारण वह खुद परेशान है। आज शोषित पीडि़त खुद उससे बदला ले रहे है, यह देखकर वह निश्चिन्त हो गया।
प्रेमलता को बहुत खुशी हुई, जैसे उसने भी जग्गू से अपना बदला ले लिया। कितने महिने हो गये थे, गांव में उसका सिर हमेशा शर्म से झुका रहता था- आज उसने गर्व से सिर ऊंचा उठा लिया। आज वह समझ गई- ‘औरतें
कभी भी कमजोर नहीं हो सकतीं।’ उसने सुमन को देखा, फिर आगे बढ़कर उसने भी जग्गू को एक ठोकर मार दी।सुमन ने कसकर धौल जमाया। जग्गू पहलवान के हौसले पस्त हो गये। शोषित, पीडि़त सुमन ने अपने शोषण और अपमान का बदला अपने दम पर ले लिया। उसने बुद्धी-चातुर्य, हिम्मत और ताकत से शोषक दुष्ट आततायी को मजा चखा दिया। भीड़ तमाशा देखती रही। जग्गू पहलवान का आंतक उस दिन से खत्म हो गया। लोगों को यह भी समझ में आया, पहलवान किसे कहना चाहिए, दमदार किसे कहना चाहिए।
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