हेमेंन्द्रनाथ मजूमदार |
क्या आप मह्सूस करते हैं कि बलात्कार के लिए, भारतीय समाज की संस्कृति ही तर्क और संरक्षण मुहैय्या कराती है?
यह जान कर आश्चर्य होगा आपको कि २०१४ के मौजूदा कानून के अनुसार भी विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 साल होनी चाहिए ,मगर 18 से कम होने पर भी विवाह “गैरकानूनी” नहीं माना-समझा जाता और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अनुसार ‘सहमति की उम्र’ 18 साल है पर इसी कानून के अपवाद अनुसार “15 वर्ष से अधिक उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध, किसी भी स्थिति में बलात्कार नहीं है”। क्यों?
आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि 1860 में सहमति की उम्र सिर्फ 10 साल थी जो 1891 में 12 साल, 1925 में 14 साल और 1949 में 16 साल की गई थी। 1949 के बाद इस पर, कभी कोई विचार ही नहीं किया गया। अध्यादेश (3.2.2013) और बाद में नए अधिनियम (२०१३) में इसे 16 से बढ़ा कर 18 किया गया।
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र) की एक रिपोर्ट के अनुसार “दुनिया की ९८ प्रतिशत पूँजी पर पुरुषों का कब्जा है. पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी हज़ार वर्ष और लगेंगे.” पितृसत्तात्मक समाजों के अब तक यह पूँजी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुरुषों को पुत्राधिकार में मिलती रही है, आगे भी मिलती रहेगी. आश्चर्यजनक है कि श्रम के अतिरिक्त मूल्य को ही पूँजी माना जाता है, मगर श्रम की परिभाषा मे घरेलू श्रम या कृषि श्रम शामिल नहीं किया जाता. परिणामस्वरूप आधी दुनिया के श्रम का अतिरिक्त मूल्य यानी पूँजी को बिना हिसाब-किताब के ही परिवार का मुखिया या पुरुष हड़प कर जाते हैं.
सारी दुनिया की धरती और (स्त्री) देह यानी उत्पादन और उत्पत्ति के सभी साधनों पर पुरुषों का ’सर्वाधिकार सुरक्षित्” है. उत्पादन के साधनों पर कब्जे के लिये उत्तराधिकार कानून और उत्पत्ति यानी स्त्री देह पर स्वामित्व के लिये विवाह संस्था की स्थापना (षड्यन्त्र) बहुत सोच-समझकर की गयी है.
दरअसल भारतीय विधि-व्यवस्था में भी उत्तराधिकार के लिए वैध संतान और वैध संतान के लिए वैध विवाह होना अनिवार्य है. न्याय की नज़र में, वैध संतान सिर्फ पुरुष की और ‘अवैध’ स्त्री की होती है. वैध संतान का ‘प्राकृतिक संरक्षक’ पुरुष (पिता) और ‘अवैध’ की संरक्षक स्त्री (माँ) होती है। विवाह संस्था की स्थापना से बाहर पैदा हुए बच्चे ‘नाजायज’, ‘अवैध’, ‘हरामी’ और ‘बास्टर्ड’ कहे-माने जाते हैं. इसलिए पिता की संपत्ति के कानूनी वारिस नहीं हो सकते. हाँ, माँ की सम्पत्ति (अगर हो तो) में बराबर के हकदार होंगे. ‘वैध-अवैध’ बच्चों के बीच यही कानूनी भेदभाव (सुरक्षा कवच) ही तो है, जो विश्व-भर में ‘विवाह संस्था’ को, अभी तक बनाए-बचाए हुए है. वैध संतान की सुनिश्चितता के लिए यौन-शुचिता, पवित्रता, सतीत्व, नैतिकता, मर्यादा और इसके लिए स्त्री देह पर ‘पूर्ण स्वामित्व’ तथा नियंत्रण बनाए रखना पुरुष का ‘परम धर्म’ घोषित किया गया है. मतलब जो वैध और कानूनी है, वो पुरुष का और जो अवैध है या गैरकानूनी है, वो स्त्री का. जी हाँ! फिलहाल यही और ऐसा ही है हमारा कानून। ईमानदारी से बोलूँ तो मर्दों के लिए घर आशियाना और औरतों के लिए जेलखाना है.
आपने तो न्यायालयों की भाषा पर भी काम किया है, क्या न्यायालयों की मर्दवादी भाषा इसी संस्कृति से पोषित नहीं है?
उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से पूँजी और पूँजी के आधार पर राजसत्ता, संसद, समाज, सम्पत्ति, शिक्षा – सब पर मर्नियम, कायदे-क़ानून, परम्परा, नैतिकता-आदर्श और न्याय सिद्धांत- सब पुरुषों ने ही बनाए हैं और वे ही उन्हें समय-समय पर परिभाषित और परिवर्तित करते रहते हैं हमेशा अपने वर्ग-हितों की रक्षा करते हुए. ‘भ्रूण हत्या’ से लेकर ‘सती’ बनाए जाने तक, प्रायः सभी क़ानून, महिला कल्याण के नाम पर सिर्फ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेकअप’ ही दिखाई देते हैं . मौजूदा विधान-संविधान-क़ानून महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देते हैं, आतंकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करते हैं. निःसंदेह औरत को उत्पीडित करने की सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में पूँजीवादी समाज क़ानून को हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहा है. इसलिए ‘लॉ’ का असली अर्थ ही है-‘लॉ अगेंस्ट वूमैन’. समता की परिभाषा (बकौल सुप्रीम कोर्ट) है- सामान लोगों में समानता.
नारी सम्बन्धी अधिकांश फैसलों के लिए आधारभूमि तो धर्मशास्त्र ही हैं जो मर्दों के लिए ‘अफीम’ मगर औरतों के लिए ज़हर से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हुए हैं. तमाम न्यायाशास्त्रों के सिद्धांत पुरुष हितों को ही ध्यान में रखकर गढ़े-गढ़ाए गए हैं. मथुरा से लेकर भंवरी बाई और सुधा गोयल से लेकर रूप कंवर सती कांड तक की न्याय- यात्रा में हजारों-हजार ऐसे मुकदमे, आंकड़े, तर्क-कुतर्क, जाल-जंजाल और सुलगते सवाल समाज के सामने आज भी मुंह बाए खड़े हैं। अन्याय, शोषण और हिंसा की शिकार स्त्रियों के लिए घर-परिवार की दहलीज से अदालत के दरवाजे के बीच बहुत लम्बी-चौड़ी गहरी खाई है, जिसे पार कर पाना बेहद दुसाध्य काम है। न्यायलयों की मर्द वादी भाषा इसी महान सभ्यता और संस्कृति की देन है.
कानून की भाषा ही नहीं, परिभाषा भी घोर ‘मर्दवादी’ और पुरुष हितों को पोषित करने वाली लगती है. “औरत होने की सजा” के “यौन हिंसा और न्याय की भाषा” नामक लेख में, मैंने इस पर विस्तार से चर्चा की है. कानूनी भाषा ही नहीं, व्यवहार में भी पुरुष वर्चस्व साफ़ झलकता है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीशों पर यौन शोषण के आरोप, वरिष्ठ अधिवक्ताओं पर यौन शोषण-उत्पीड़न के आरोप और आए दिन महिला अधिवक्ताओं के साथ होने वाले यौन शोषण-अत्याचार के दुखद हाद्सो के बावजूद, समाज-मीडिया-न्यायपालिका की रहस्यमयी ख़ामोशी का मतलब क्या है? क्या यह सब होने-देखने के लिए ही औरतें अभिशप्त हैं? आखिर कब तक? दूर-दूर तक विरोध-प्रतिरोध या प्रतिशोध की चिंगारी तक दिखाई नहीं दे रही. संभावनाओं का गर्भ में ही, गला घोंटा जा रहा है. अक्सर महसूस होता है कि औरतों को अपनी आत्मरक्षा के लिए, कानूनी अधिकारों का इस्तेमाल हथियारों की तरह और हथियारों का इस्तेमाल कानूनी अधिकारों की तरह करना होगा.
बलात्कार के खिलाफ मानस बनाने के लिए जहां समाज, न्यायालय और संस्कृति के प्लेटफार्म पर काम करने की जरूरत है, वहीं क्या आप यह देखते हैं कि परिवार न सिर्फ इसके लिए अपने ‘पवित्र डोमेन’ में तर्क बनाता है, बल्कि बलात्कारियों को सांस्कृतिक संरक्षण भी देता है? विवाह के भीतर बलात्कार के लिए क्या यही संस्कृति और परिवार का ‘पवित्र डोमेन’ जिम्मेवार नहीं है?
सच कहूँ तो भारतीय समाज दोहरी चरित्र(हीन) नैतिकता में जीने वाला समाज है. भारत में वैवाहिक पार्टनर के बीच यौन संबंध ही ‘नैतिक’ है, बाकी सब ‘अनैतिक’. हालांकि कानून का ‘नैतिकता’ या ‘अनैतिकता’ से कोई लेना-देना नहीं है. विवाह-पूर्व वयस्क स्त्री-पुरुष द्वारा सहमति से यौन संबंध (या परस्पर सहवास) ‘अनैतिक’ माने-समझे जाते हैं मगर कोई कानूनन अपराध नहीं.
बाल विवाह की ‘सामजिक कुप्रथा’ अभी भी जिन्दा है. समाज ही नहीं, बाकायदा कानून-विधि-विधान में फल-फूल रही. वर्तमान कानून के अनुसार विवाह के लिए लड़के की उम्र २१ साल और लड़की की उम्र १८ साल होनी चाहिए पर यदि कोई १८ साल से कम उम्र का लड़का,१८ साल से कम उम्र कि लड़की से विवाह करे, तो ना कोई कानूनी जुर्म है और ना कोई सजा. १८ साल से कम उम्र की लड़की से विवाह दंडनीय अपराध है और सहमती की उम्र भी १८ साल है, मगर १५ साल से बड़ी उम्र की अपनी पत्नी से जबरदस्ती यौन सम्बन्ध ‘बलात्कार’ नहीं. भारतीय कानून-विधान-संविधान पत्नी से ‘बलात्कार का कानूनी लाइसेंस या अधिकार’ और समाज ‘बलात्कार की संस्कृति’ को बढ़ावा देता है. स्त्री देह शोषण के लिए विवाह और वेश्यावृति की जड़ें तो भारतीय समाज की महान सभ्यता और संस्कृति का स्वर्णिम अध्याय कहा जाता है. विवाह संस्था में स्त्री, पति की निजी संपत्ति है और वेश्यावृति के प्राचीनतम धंधे में स्त्री. सार्वजनिक संपत्ति. देवदासी से लेकर आधुनिकतम ‘एस्कॉर्ट्स’ तक, मर्दों का ‘आनंद बाज़ार’ ही नहीं ‘व्यवसाय भी है. हालांकि वेश्या या ‘काल-गर्ल’ से यौन सम्बन्ध बनाना, भले ही ‘अनैतिक’ बताया जाता है मगर पुरुष ग्राहक पर कोई अपराध नहीं. पकड़ी गई तो वेश्या को ही जेल जाना होगा.
ऐसे आधे-अधूरे और गड्ढे भरे कानूनों से ना तो ‘बाल विवाह’, ‘बाल तस्करी’, ‘बाल वेश्यव्रती’ को रोका जा सकता है और ना ही स्त्री विरोधी हिंसा-यौन हिंसा को. वैधानिक प्रावधानों में अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण ‘सुधारवादी मेकअप’ से, स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा, कम होने की बजाये बढ़ी है, बढती रही है और बढती रहेगी।
हिन्दू धर्म शास्त्रों में अतिथि के द्वारा पत्नी की कामना करने पर उसे अतिथि को पेश करना स्वर्ग के लिए जरूरी बताया गया, क्या ऐसे तर्क मानस का निर्माण नहीं करते हैं, विवाह के भीतर बलात्कार के लिए.
प्राचीन भारत से लेकर अब तक, पति के लिए पत्नी उसकी अपनी ‘निजी संपत्ति’ है, जिसे वह अपने हितों को पूरा करने के लिए ‘उपयोग-दुरूपयोग’ की इज़ाज़त दे सकता है. वैवाहिक जीवन में बलात्कार की छूट के कारण भारतीय शादीशुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्सवर्कर’ और घरेलू दासियों से भी बदतर है। ‘सेक्स वर्कर’ को ना कहने का अधिकार तो है , शादीशुदामहिला को वो भी नहीं है।अपने लाभ या राज्य-विस्तार के लिए, साधन-संपन्न अतिथि को पत्नी पेश करने से लेकर अपनी बेटियों के डोले तक भेजे जाते रहे हैं. काशीनाथ विश्वनाथ राजवाड़े ने “भारत में विवाह संस्था का इतिहास” में प्रामाणिक दस्तावेज सहित विस्तार से विवेचना की है. स्त्री देह को पाने-हथियाने और बलात्कार करने के, सैंकड़ों उदाहरण हिन्दू धर्मशास्त्रों और मिथकों में मौजूद हैं. जब घर में स्त्री देह का जबरन भोग-उपभोग, हिंसा-यौन हिंसा या उत्पीड़न मान्य है, तो घर से बाहर भी अधिकार मानने- समझने की ‘मानसिकता’ भी स्वाभाविक रूप से बनेगी ही. क्या कागजी विकल्प, मौलिक अधिकारों की बराबरी कर सकते हैं ? परंपरा , संस्कृति , संस्कार , रीति – रिवाजों और रूढि़वादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर वैवाहिक बलात्कार को जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी ‘असली धर्म’ इसका समर्थन नहीं करता परन्तु धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने सब ‘धर्मभ्रष्ट’ किया हुआ है.
‘व्यभिचार’ का कानून भी तो विह के भीतर पति की इच्छा से दूसरे पुरुष के साथ यौन संबंध का तर्क देता है, यानी एक हद तक बलात्कार के लिए स्पेस बनाता है?
‘व्यभिचार’ (धारा-497 आई.पी.सी.) सम्बन्धी कानून के अनुसार पुरुष (भले ही विवाहित हो) किसी भी अविवाहित, विधवा या तलाकशुदा स्त्री (स्त्रियों) के साथ सहमती से यौन रिश्ते (आप कहते रहें ‘अनैतिक’) बना सकता है। दूसरे पुरुष की पत्नी के साथ यौन संबंध ‘व्यभिचार’ है (अगर उसके पति की सहमति या मिलीभगत नहीं है) लेकिन यदि पति (मालिक) भी सहमत हो तो, यह कोई अपराध नहीं। यानि आपस में पति-पत्नियाँ बदलना विधान-सम्मत है. ‘व्यभिचार’ एक मायने में स्वेच्छा से ‘सहम’ नहीं, मानसिक अनुकूलन के बाद ‘बलात्कार’ ही है. समलैंगिक संबंधों को भी अपराध-मुक्त करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट से लेकर संसद तक बहस जारी है. कभी भी ‘अध्यादेश’ जारी हो सकता है. कानूनी जाल-जंजाल में, ऐसे और भी बहुत से प्रावधान हैं मगर उन पर फिर कभी…..
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भारत में विवाह के भीतर बलात्कार के खिलाफ कनून बनने के मार्ग में क्या -क्या बाधायें हैं.
सामजिक-आर्थिक-राजनीतिक सत्ता पर, पुरुषों का कब्जा है. संसद में मर्दों का बहुमत है, सो ऐसा कोई कानून नहीं बनायेंगे, जो पित्रसत्ता की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करे. ‘महिला आरक्षण विधेयक’- अभी नहीं, कभी नहीं. सारे कानून मर्दों के हितों और वर्चस्व को बनाये-बचाये रखने वाले ही बने-बनाये गए हैं. हालांकि उपरी तौर पर ढिंढोरा यह पीटा जाता है कि ‘स्त्री सशक्तिकरण’ के लिए, संसद ने ना जाने कौन-कौन से विधेयक पारित किये है. वास्तविकता यह है कि दांपत्य में यौन संबंधों के बारे में सदियों पुरानी सामंती सोच और सीलन भरे संस्कारों में, कोई बदलाव नहीं हो पा रहा। मालूम नहीं इस सवाल पर सबने, क्यों ‘मौनव्रत’ धारण कर लिया है।
देश में अपराधियों का राजनीतिकरण और राजनीति का अपराधीकरण इतना बढ़ गया है कि
वर्तमान दहशतज़दा माहौल में यौन हिंसा की शिकार औरत की चीख, आखिर कौन और कब सुनेगा ? मेरे विचार से स्त्री के दमन, उत्पीड़न और शोषण के खिलाफ़ कानून बनने-बनाने में सबसे बड़ी बाधा है- राजनीति और सत्ता में ‘मर्दवादी’ नेताओं की षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी और अपने अधिकारों के प्रति स्त्री आन्दोलन के दिशाहीन भटकाव.
दुख तो यह भी है कि महिला प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, गवर्नर, सुप्रीम और हाईकोर्ट की न्यायमूर्तियां और अन्य सांसद, मंत्री, अफसर वगैरह के होने के बावजूद, आम औरतों के हालात बद से बदतर होते गये हैं। कुर्सी मिलते ही औरत, औरत नहीं रहती, सत्ता के इशारे पर नाचने वाली ‘गुड़िया’ बन जाती है, गुड़िया।
अफसोस कि तमाम प्रतिभाशाली और क्रांतिकारी बेटे-बेटियां, जो सचमुच स्वाधीनता संघर्ष के दौरान बुने सपनों को साकार कर सकते थे या जिनमें देश की नियति बदलने की सारी संभावनाएं मौजूद थीं, सत्ता संस्थानों ने खरीद लिए, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय आवारा पूंजी की गुलामी करने लगे या पेशेवर दलाल हो गये। कुछ ने सपनों के स्वर्ग अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड या कहीं और जाकर ‘आत्महत्या’ कर ली। जिनके बस का दलाल होना नहीं था, वो ‘फर्जी मुठभेड़’ में मारे गये या फिर अराजक जीवन की दारु पीते-पीते एक दिन, खून की उल्टियां करते बरामद हुए। ऐसी विश्वासघाती और आत्मघाती होनहार पीढ़ियों को या राष्ट्र कर्णधारों को क्या कहे?
जाति और धर्म संस्थानों को स्त्री के प्रति यौन हिंसा के बडे उत्प्रेरक के तौर पर माना जाता है, इन्हें कानूनों से किस हद तक ठीक किया जा सकता है ?
धार्मिक पाखंड, कर्मकांड, अन्धविश्वास और तर्कहीन आस्थाओं के शिकार, मर्द और स्त्रियाँ दोनों ही हैं. धर्म मर्दों के लिए अनाथालय सिद्ध हुआ है, मगर स्त्रियों के लिए ‘वेश्यालय’. स्त्रियों की शस्त्रों से अधिक हत्या तो, धार्मिक शास्त्रों ने की है. मर्दों की आँखों में फिट जाऔर धर्म के ‘टेलीलेंस’ का फोकस, हर स्त्री देह पर एक जैसा ही होता है। स्त्री को देखते ही ‘टेलीलेंस’ की लार टपकने लगती है और दिमाग में हिंसक घोड़े हिनहिनाने लगते हैं। स्त्री फ़िल्मी हिरोइन (सीता, पार्वती, द्रोपदी, तुलसी, आनंदी या किसी भी भूमिका में हो) हो या टेनिस-हाकी-क्रिकेट खिलाड़ी, राजनेता हो या समाजसेविका, पुलिस अफसर-डॉक्टर- वकील- इंजिनियर हो या एयर होस्टेस- नर्स-स्टेनो, अध्यापक हो या छात्रा, शिक्षित हो या अनपढ़, अमीर हो या गरीब, सवर्ण हो या दलित, शहरी हो या ग्रामीण, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई हो या नास्तिक। गंगा-यमुना में नहा रही हो या पांच सितारा स्विमिंग पूल में, सड़क किनारे या गांव के तालाब पर- कैमरा क्लिक,क्लिक करने लगता है। मीलों की दूरी से फिल्म शूट होने लगती है और स्त्री को पता तक नहीं चलता कि कब सीडी या एम् एम् एस, पितृसत्ता के ‘आनंद बाज़ार’ में छप गया।
दरअसल पुरुषों को घर में घूंघट या बुर्केवाली औरत (सती-सावित्री) चाहिए और अपने धंधा चलाने या ब्रांड बेचने के लिए बिकनीवाली। सो स्त्रियों को सहमती के लिए लाखों डॉलर, पाउंड, दीनार या सोने का लालच (विश्व सुन्दरी के ईनाम और प्रतिष्ठा) और जो सहमत नहीं उनके साथ जबरदस्ती यानी हिंसा, यौन-हिंसा, दमन, उत्पीड़न, शोषण के तमाम हथकंडे।
स्वयं सहमत हुई या की गई (नायिकाओं) स्त्रियों का तर्क होता है कि “हम देह नहीं सिर्फ देह की (कामुक-उतेजक) छवि बेच रही हैं, जो सचमुच देह बेचने या गुजारे के लिए विवाह बंधन में बंधने से कहीं ज्यादा फायदेमंद और सम्मानजनक है। देखो हत्या, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा, यौन-हिंसा, दमन, उत्पीड़न और शोषण की शिकार ब्याही-अनब्याही आम स्त्रियाँ घुटघुट कर दम तोड़ रही हैं या सालों से इन्साफ के मंदिरों के चक्कर काटती घूम रही हैं।“ आपके ही धर्म ग्रंथों-शास्त्रों में भी लिखा है ‘सलज्जा गणिका नष्टा, निर्लज्श्च कुलांगना’। समझ नहीं आ रहा कि (अ)न्यायशास्त्रों में घुस कर बैठे, आदिकालीन धर्मशास्त्रों की भरी-भरकम गठरी- आखिर हम कब तक ढोते रहेंगे.
दिक्कत यही है कि अधिकांश कानूनों की बहुमंजिला ईमारत, ऐसे ही धर्म ग्रंथों-शास्त्रों, परम्पराओं और रीति-रिवाजों के नीवं पर बनी-बनाई गई है. शिक्षा-दीक्षा के कारण स्त्रियाँ बदली हैं, बदल रही हैं मगर भारतीय पुरुष अपनी मानसिक बनावट-बुनावट बदलाने को तैयार नहीं है. उसके लिए यह सत्ता से भी अधिक, लिंग वर्चस्व की लड़ाई है. समानता के संघर्ष में स्त्रियों का दबाव-तनाव बढ़ता है तो कुछ ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ की तरह नए विधि-विधान बना दिए जाते हैं और कुछ और सुधारों के सपने दिखा दिए जाते हैं.