( इस सरकार में ६ महिला मंत्रियो को विशिष्ट विभागों का पदभार दिया गया है . यह लोकसभा भी महिला सदस्यों के मामले में पिछली से मामूली ही सही बढ़त बनाए हुए है. लेकिन ५० प्रतिशत महिला आबादी की तुलना में सीटो का यह अनुपात नगण्य है . पुरुष , महिला सांसद का अनुपात १०० : १२ का है. विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने महिला आरक्षण बिल को अपनी प्राथमिकता बतलाई है . हमलोग आमीन कहते हुए इस प्राथमिकता का ५ सालों में नंबर आने का इन्तजार करे. यह आलेख पड़ताल करता है कि आरक्षण के भीतर आरक्षण के प्रति ब्राहमावादी व्यवस्था कैसे नकारात्मक रूख लिए हुए है और महिला आन्दोलन भी कैसे मंडल आंदोलनों के दौरान नकारात्मक भूमिका में था. हालांकि राज्यसभा में आरक्षण के भीतर आरक्षण के बिना ही महिला आरक्षण बिल पारित हो चूका है, लेकिन समझना जरूरी है कि यह व्यवस्था क्यों अड़ी हुई है मौजूदा स्वरुप में किसी बदलाव के खिलाफ , तब भी, जब लोकसभा में गैरद्विज सदस्यों की संख्या ज्यादा है. स्त्रीकाल ने महिला आरक्षण संबंधी सुझावों- विवादों को सिलसिलेवार छापा था . हमें इस वेब साईट पर पिछले सारे अंको की बेहतर प्रस्तुति के लिए तकनीकी स्तर पर काम करना शेष है , फिर भी वासंती रामन के आलेख पाठकों के लिए स्कैन फॉर्म में मौजूदा व्यवस्था में ही प्रस्तुत कर रहे हैं .)
‘ भारतीय महिला आन्दोलन राजनीति और विकास में नागरिकों की समान भागीदारी के दावे पर जोर देने के लिए प्रस्फुटित हो रहे अनेक प्रयासों में एक था . इस लक्ष्य ने आन्दोलन को रुढ़िवादी व प्रतिक्रयावादी ताकतों के विरुद्ध ला खड़ा किया .’
‘आखिर कार यह नजर अंदाज नहीं करना चाहिए की पिछड़ी जातिया और मुस्लिम ही ( अपनी संख्या तथा उससे भी महत्वपूर्ण अपनी सामाजिक स्थिति के कारण ) सवर्ण वर्चस्व को वास्तविक चुनौती दे सकते हैं न की अनुसूचित जाति समुदाय . इसीलिए सवर्ण वर्चस्व के कट्टर पैरोकार भी जहां अनूसूचित जाति-जनजाति को संरक्षण देते दिखाई देते है , वही अन्य पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यकों की मांगो का विरोध करने में जुनून की हद तक चले जाते है. ‘
‘किन्तु अधिक दिलचस्प यह था की राजनीति प्रेरित कतिपय बुद्धिजीवियों और क्रान्तिकारी वामदलों के अलावा समूचा भारतीय सवर्ण मध्यम वर्ग और उच्चवर्ग एक स्वर में ‘ योग्यता’ का समर्थन कर रहा था . …… आँखे खोल देने वाली बात यह थी कि जब छात्र संघों के चुनाव में महिला विद्यार्थियों के प्रति भेदभाव का मुद्दा उठा , मंडल के खिलाफ बढ़ -चढ़ कर बोलने वाली छात्राओं ( जो अधिकाशतः सवर्ण थी ) ने पाया की उनके सवर्ण पुरुष साथी उनके साथ नहीं है , बल्कि इस मुद्दे पर दलित छात्रो ने उनका साथ दिया . ‘
सरकार व मजूमदार ने बड़ी सरलता के साथ इस बात पर ध्यान खींचा कि स्वतन्त्रता पूर्व की पीढी होने के कारण स्वयं उन्होंने पहले कभी विशेष प्रतिनिधित्व का समर्थन नहीं किया था तथा अकादमिक चर्चाओं में अजा , जजा के लिए आरक्षण की आलोचना वे यही तर्क देकर करते रहे है कि, ‘ यह उपनिवेशवादी मानसिकता का नमूना है .’
और क्या सचमच महिला आन्दोलन भारतीय महिला एकता का सच्चा प्रवक्ता है , दुर्भाग्य से अबतक महिला संगठन के नेताओं के वकतव्य , जो विधेयक के समर्थन में आये हैं , वे समस्या की जटिलता की उनकी समझ का खुलासा करते दिखाई नहीं देते , न ही उनमें कोइ पिछड़ा वर्ग तथा अल्पसंख्यकों में जेंडर विविधता का कोइ उल्लेख है .