अनिता भारती साहित्य की विविध विधाओं में जितना लिखती हैं , उतना ही या उससे अधिक सामाजिक मोर्चों पर डंटी रहती हैं – खासकर दलित और स्त्री मुद्दों पर. स्त्रीकाल का दलित स्त्रीवाद अंक ( अंक देखने के लिए दलित स्त्रीवाद अंक पर क्लिक करें ) इन्होंने अतिथि सम्पादक के रूप में सम्पादित किया है और दलित स्त्रीवाद की सैद्धंतिकी की इनकी एक किताब, समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध प्रकाशित हो चुकी है. भी प्रकाशित है. कविता , कहानी के इनके अलग -अलग संग्रहों के अलावा बजरंग बिहारी तिवारी के साथ संयुक्त सम्पादन में दलित स्त्री जीवन पर कविताओं , कहानियों के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं. अनिता भारती दलित स्त्री जीवन और आलोचना की किताब भी सम्पादित कर रही है. इनसे इनके मोबाइल न. 09899700767 पर सम्पर्क किया जा सकता है.
(अनिता भारती की यह कहानी हम सब के आस -पास रोज घटती है. कहानी में कुछ अचानक या अविश्वसनीय घटित होने के आस्वाद वाले लोगों के लिए यह कहानी नहीं है. इसे छोटी कहानी को पढें , क्योंकि हमारी सम्वेदनायें हमारी अपनी ही व्यस्तता के साथ मरती जा रही हैं. इसे पढें कि रुटिन में चलती जिन्दगी में स्त्री साख्य और एक दूसरे से जुडी गहरी सम्वेदना कैसे स्त्रियों का संसार रचती है. हमारे आस -पास रोज घटित होती कहानियों में से एक बीन ली गई कहानी है यह. )
मैं बस अड्डें से मुद्रिका मे शालीमार बाग जाने के लिए चढ़ी। एक तो गर्मी, ऊपर से बस खचाखच यात्रियों से भरी हुई। पूरी बस में हाय-तौबा सी मची हुई थी। अगला बस स्टॉप आते ही, बस में एक औरत चढ़ी। उसे औरत कहूं या लड़की ?… उसे लड़की ही कहूँगी। 15-16 साल की रही होगी। रक्तहीन पीला चेहरा, बाल बिखरे हुए, गोद में मैले तौलिये में लिपटा कमजोर सा बहुत ही नन्हा सा बच्चा, क्या पता शायद नवजात ही हो। लड़की बस में कभी अपने को संभालती, तो कभी बच्चा, कभी अपनी साड़ी। उसका कद इतना ऊँचा भी नही था कि वह बस का डंड़ा पकड़ सके, फिलहाल तो उसके दोनों हाथ बच्चा पकड़े होने के कारण व्यस्त थे। जब भी ड्राईवर ब्रैक लगाता, वह लड़की कभी इधर सवारियों पर गिरती, कभी उधर। अपने आप को संभालते-संभालते उसके मुँह से ना जाने क्यों कराह सी निकल जाती।
एक तो बिखरे हुए बाल, मैले अस्त-व्यस्त कपड़े फिर गरीब और ऊपर से गोद में नन्हा बच्चा। बस के लोग उसे घूर-घूर कर देखने लगे, उनकी निगाहों से लग रहा था मानों उन्हें इस बात पर क्रोध हो कि यह बस में क्यों चढ़ी ? क्या बस इन जैसे गन्दे घिनौने लोगों के लिए बनी है ? तभी ड्राईवर ने जोर से ब्रैक लगया। लड़की दर्द से चिहुँक उठी, शायद पास खड़े आदमी ने उसका पैर दबा दिया। लड़की कातर स्वर में, उस अधेड़ से दिखने वाले आदमी से बोली – “अंकल, जरा पैर हटा लो, मेरा पैर दब रहा है।”
अंकल संबोधन सुन उस आदमी की त्यौरियां चढ़ गई, वह गुर्राकर बोला – “देखती नहीं बस में कितनी भीड़ है ? क्या मैं जानबूझकर तेरे पर पैर रखकर खड़ा हूँ ? खुदको बस में खड़े होने की तमीज नहीं, कभी इधर गिरती है कभी उधर !” आदमी की बात से लड़की का मुँह लटक गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह बस में बच्चा संभाले या कपड़े ? ऊपर से बगलवाले महाशय जी ओर सटे जा रहे थे !
महिला सीट पर बैठी महिलाएँ सिर झुकाए बैठी थी या फिर खिड़की से बाहर झांक रही थी। भरी बस में किसी को सीट देने का मतलब है खुद भारी असुविधा में खड़े होकर घर जाना। ऐसी असुविधा कौन मौल ले ? तभी लड़की से थोड़ी दूर खड़े साधारण से दिखने वाले आदमी ने चुटकी ली – “अजी ऐसा ही भोला मुंह बनाकर जेब काटती है, देखा नहीं गोद में बच्चा भी है ? इनके गिरोह हैं गिरोह। इनसे पंगे मत लेना, चाकू सटा देती है बगल में और जेब कब कटी पता भी नहीं चलेगा।”
उसकी यूँ हंसी उड़ते देख मेरा दम सा घुटने लगा। मुझे लगा इनकी नज़र में हर वो औरत जेब कतरी है जो गरीब है, बेबस है। मैंने उस झूठी बात घड़ने वाले को घूरकर देखा और बदतमीजी से बोली – “तेरी जेब कट गई क्या ? क्या सबूत है तेरे पास कि ये जेब काटने बाली है, बोल ?”
शायद उस आदमी को यह उम्मीद नहीं थी कि उसकी बात इस बुरी तरीके से काटी जायेगी, उसे लगा होगा कि सब हाँ में हाँ मिलायेगे। तभी वह अधेड़ सा आदमी लगभग घूरते हुए सा उस लड़की को देखकर मुझसे बोला – “आप तो अच्छे घर की लगती, आपको इनका क्या पता ? अजी ये दिन में बच्चा गोद में लेकर जेब काटतीं हैं और शाम को इसी बच्चे को सड़क पर फेंककर सज-धज कर खड़ी हो जायेंगी।
उस आदमी की बात सुन मेरे साथ-साथ बस में बैठी एक वृद्धा को भी गुस्सा आ गया। वह आदमी को डाँटते हुए बोली – “बेटे ऊँचे बोल मत बोल, तू भी बाल-बच्चे वाला होगा, ये तेरी लड़की के बराबर ही होगी।” फिर वह बड़ी मुश्किल से सीट पर एक तरफ खिसकते हुए लड़की से अपनत्व भरे स्वर में बोली – “बेटी इतने छोटे बच्चे को लेकर घर में बैठ, देख तेरे साथ साथ यह भी बस मे घक्के खा रहा है।”
वृद्धा की अपनत्व भरी बात सुन लड़की की आँखे छलछला आई। लड़की रूआंसे स्वर में बच्चे की ओर इशारा करते हुए बोली – “ये अभी पाँच दिन का है, मेरी आज ही अस्पताल से छुट्टी हुई है। इसके पापा को हमें लेने आना था। मैं सुबह से अस्पताल के ग्रांऊड में इंतजार करती रही। मुझे लगा कि अब वे नहीं आएंगे, और अभी मुझसे ठीक से बैठा नहीं जा रहा है, तो में अपने आप हिम्मत जुटा कर घर जा रही हूँ।” लड़की हाथ में दबे एक मैले कुचेले पन्नी के लिफाफे में से कुछ कागज निकालकर दिखाती हुई बोली – “देखो, ये मेरी छुट्टी के कागज हैं और ये इसका जन्म कार्ड।”
वृद्धा के मुंह से अकस्मात शब्द निकले – “अरी तू तो जच्चा है। जंचकी में तो गाय-भैंस कुत्ते-बिल्ली तक को लोग सम्मान और दुलार देते है, और फिर तू तो मानुष जात है। और तेरी ये गत !” वृद्धा की आँखें नम हो गई।
अब मुझसे से और सहना मुश्किल हो गया था, मैं सीट पर जानबूझकर आंख बंद किए बैठे आदमी से गुस्से में बोली- “कब तक जानबूझकर आँखें बंद किए बैठा रहेगा, उठ, देख, इसके लिए खड़ा रहना भी कितना मुश्किल है ? यह महिला सीट है कम से कम यह जगह तो हमारी है।”
मेरी कड़क आवाज सुन सोता हुआ आदमी एकदम घबराकर उठ गया। उसकी इस हरकत पर मैं और वृद्धा दोनों मुस्कुरा उठी।