दहेज विरोधी कानून में सुधार की शुरुआत

कमलेश जैन


कमलेश जैन सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं , स्त्री मुद्दों और कानूनी मसलों पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भ लेखन करती हैं.इनसे ई मेल आई डी : kamlesh205jain@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है

( दहेज़ कानून के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय के पक्ष में कमलेश जैन का मंतव्य . इसे पढ़ते हुए स्त्रीकाल में प्रकाशित अरविंद जैन के आलेख और आयडवा एवं पी यूं सी एल की अपील भी पढ़ें . लिंक क्लिक करें : न्याय व्यवस्था में दहेज़ का नासूर , और हम चार दशक पीछे चले गए हैं )

अंतत: सर्वोच्च न्यायालय ने उन लाखों पीड़ितों की पुकार सुन ली जो दहेज संबंधित तथाकथित अपराधों में जेल के अंदर रह रहे हैं या जो आनन-फानन में सलाखों के पीछे जाने वाले थे.वर्ष 1983 से लागू भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए कहती है- ‘जो कोई भी, पति या उसके रिश्तेदार, यदि स्त्री के साथ क्रूरता (मानसिक-शारीरिक) करता है, इस इरादे से कि वह और दहेज ला सके, तो उसे तीन ताल तक की सजा हो सकती है. जुर्माना भी देना पड़ सकता है.पत्नी खुद या उसका कोई रिश्तेदार जैसे ही पुलिस को इस बात की सूचना देगा, पति और उसके वे सब रिश्तेदार जिनका नाम एफआईआर में दर्ज है- सभी की गिरफ्तारी होगी.’ अमूमन, भारतीय दंड संहिता में तीन साल तक की सजा वाले अपराध जमानती हैं पर इस धारा को गैरजमानती बनाया गया. कारण, सचमुच भारतीय स्त्रियां दहेज प्रताड़ना की शिकार होती रही हैं. इस कानून को बनाने के पीछे इरादा था कि स्त्रियों को दहेज प्रताड़ना से छुटकारा मिल जाए. पर इन तीस वर्षों  में हुआ कुछ ऐसा जो अच्छे-भले लोगों के लिए सचमुच शब्दश: कारागार जाने की वजह बन गया.

कानून में पहले से ही एक त्रुटि रही- सभी बहुओं को अच्छे हृदय की नेक स्त्री समझा गया और ससुराल के बाकी सभी सदस्यों को पाषाण हृदय. वास्तव में ऐसा होता नहीं. न तो सभी बहुएं वैसी हैं भोली-अबला हैं जैसा समझा गया और न ही घर के बाकी सभी सदस्य निर्मम और अत्याचारी. कुछ समय बाद ही तमाम बहुओं और उनके मायके वालों द्वारा, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, बहुओं को दिया गया ‘कवच’ ‘हथियार’ की तरह प्रयोग किया जाने लगा. कुछ बहुओं का विवाह के बाद ही से, उनके मायके की सहमति से, उद्देश्य रहा कि ससुराल पहुंचते ही मायके वालों को वहां बसा लेना और पति की पूरी आय और संपत्ति पर कब्जा जमाना.
तकरार इतनी बढ़ती कि जल्द ही पत्नी मायके जाती और भादंसं की धारा 498ए में एक एफआईआर दर्ज कराती और ससुराल वालों के सभी नजदीकी और दूरदराज के रिश्तेदारों का नाम उसमें दर्ज करवा देती. तमाम मामलों में वे रिश्तेदार जो सिर्फ विवाह में आकर एक-दो दिनों में अपने घर चले गए या वे जो विदेशों में हैं- उनके भी नाम प्राथमिकी में दर्ज हो जाते और सारा खानदान जेल जाने को मजबूर हो जाता. इतनी दूर रहने वाले, सिर्फ फोन पर बात करने वाले क्यों जेल जाएं, यह सोचने की बात रही.

ऐसा ही माहौल वर्ष 2003 में भी था. उस समय मैंने तिहाड़ जेल का कई बार दौरा किया. यहां की जेल नंबर छह में महिला कैदी रहती हैं. इस जेल की कुल जनसंख्या का 35 फीसद उन महिलाओं से भरा था जो दहेज कानून के अंतर्गत बंद थीं. वे थीं वृद्ध सासें तथा जवान अविवाहित ननदें. वृद्ध महिलाएं चल-फिर नहीं सकती थीं, अनेक रोगों का शिकार थीं. उनके पुरुष रिश्तेदार भी उसी जेल में थे. एक महिला के परिवार के नौ सदस्य तिहाड़ में थे और वे विभिन्न राज्यों से थे. मैंने एक जनहित याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की. 2003 में न्यायमूर्ति आरसी लाहौटी व बृजेश कुमार का आदेश आया. उन्होंने माना कि इस तरह अविवेकपूर्ण गिरफ्तारियां गलत हैं. संसद को पुनर्विचार कर कानून में संशोधन करना चाहिए. पर कुछ हुआ नहीं. खुशी है कि ग्यारह वर्ष बाद यह सख्त आदेश आया.

सर्वोच्च न्यायालय ने ताजा फैसले में कहा है– ‘जहां अधिकतम सजा सात वर्ष है, वहां यह सोच कर नहीं चला जा सकता कि अभियुक्त ने अपराध किया ही है. यह सोचने के लिए पर्याप्त सामग्री होनी चाहिए, पूरी छानबीन होनी चाहिए, यदि लगता है कि अभियुक्त सही छानबीन होने नहीं देगा या फिर कोई अपराध कर बैठेगा- तभी उसकी गिरफ्तारी हो अन्यथा नहीं.’ उन्होंने आगे कहा- ‘संक्षिप्त में पुलिस अफसर गिरफ्तार करने के पहले खुद से पूछे कि क्या गिरफ्तारी आवश्यक है? इससे कौन-सा हित होगा, किस उद्देश्य की प्राप्ति होगी- ऐसा एक भी उत्तर ठीक से आ जाए तब तो गिरफ्तारी हो, वरना नहीं.

नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि काफी बड़ी संख्या में इस अपराध में गिरफ्तारियां की गई है. ‘कवच’ की बजाय इस प्रावधान का प्रयोग चिढ़ी हुई तथा असंतुष्ट पत्नियां हथियार की तरह करती हैं. 2012 में इसके तहत करीब दो लाख लोग गिरफ्तार हुए जिसमें महिलाओं की संख्या 50 हजार थी. लगभग 93 प्रतिशत मुकदमों में चार्जशीट दायर हुई पर सजा सिर्फ 15 प्रतिशत मुकदमों में हुई.
अदालत ने कहा कि पुलिस आरोपी को तभी गिरफ्तार करे जब आशंका हो कि वह दूसरे अपराध को अंजाम देगा या मामले की सही जांच में रुकावट का अंदेशा हो या यह खतरा हो कि आरोपी सबूत नष्ट कर देगा या यह खतरा हो कि वह गवाहों-सबूतों को आने से रोक देगा, अभियुक्त कहीं भाग जाएगा या अभियुक्त की उपस्थिति अदालती कार्यवाही के दौरान सुनिश्चित कराने के लिए. पुलिस को मजिस्ट्रेट को कारण बताने होंगे कि अमुक मुकदमे में आरोपी की गिरफ्तारी क्यों चाहिए? यदि पुलिस इस आदेश/निर्देश को नहीं मानती तो उस पर कार्रवाई होगी.

ऐसे मुकदमों में पति के दोस्त, दूरदराज या पास के जान-पहचान वाले भी दहेज अत्याचार में नामित किए जाते हैं. उन्हें राहत देने के लिए अदालत ने कहा कि पति का रिश्तेदार सिर्फ वही है जो उससे खून, विवाह या गोद लेने से बंधा हुआ है- अन्य नहीं. असंतुष्ट और नाराज पत्नियां यदि पति से रूठ जाती हैं तो बात को बढ़ा-चढ़ाकर अदालत में रखती हैं और बिस्तर से लगे बूढ़े दादा-दादी, शादीशुदा बहनें जो घर से सैंकड़ों-हजारों मील दूर हैं उन्हें भी मुकदमे में पिरो देती हैं- बिना किसी भय के, उनके बिना कसूर के. ऐसे लोगों को सिर्फ दहेज प्रताड़ना के नाम पर या अपराध के गैर-जमानती होने की वजह से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता. यह धारणा कि पहले गिरफ्तार करो और फिर पता लगाओ कि साक्ष्य है या नहीं, व्यक्ति अपराधी है या नहीं- घृणित है, अमानवीय है और मनुष्य की स्वतंत्रता का हनन है.

ऐसा होने पर जो भ्रष्टाचार होता है वह भी देखने लायक है. अदालत में अंदर जमानत की बहस होने वाली है- बाहर बेंच पर पुलिस अधिकारी और बहू बैठे हैं- सौदा हो रहा होता है- इतने लाख-करोड़ मांगों-मैं साथ हूं. यहां उद्देश्य यह कहना कतई नहीं है कि सारे मुकदमे ऐसे ही हैं और पीड़िता कोई नहीं. जो सचमुच पीड़ित हैं, उन्हें सामने आने का और मुकदमा करने का अवसर मिले, उनके साथ न्याय हो; पर जो चालाक हैं, शादी जिनके लिए एक व्यवसाय है, झूठे आंसू बहाकर, पैसे ऐंठकर मायके को मालामाल या खुद को धनी बनाने वाली औरतों पर लगाम लगाई जाए.दहेज प्रताड़ना की कई श्रेणियां होनी चाहिए. महज ताने कसने, गाली देने आदि पर गिरफ्तारी कड़ी सजा है. शारीरिक रूप से गहरी चोट, हत्या का प्रयास करने पर गिरफ्तारी हो पर बात-बात पर कतई नहीं. कुल मिलाकर देश की शीर्ष अदालत का आदेश है कि सभी आपराधिक मुकदमों की तरह दहेज प्रताड़ना के अपराध की भी छानबीन खुली आंखों से की जाए, न कि आंखों पर पट्टी बांधकर. कानून एक जैसा होना चाहिए- पुरुष के लिए भी, स्त्री के लिए भी. जो दोषी है वह सजा पाए, लेकिन निर्दोष न तो गिरफ्तार हो, न ही अदालत की दौड़ लगाने को विवश हो. झूठे मुकदमों के कारण परिवार भी बिखर जाते हैं, यह ध्यान भी रहे.

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles