रमणिका गुप्ता स्त्री इतिहास की एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं . वे आदिवासी और स्त्रीवादी मुद्दों के प्रति सक्रिय रही हैं . ‘युद्धरत आम आदमी’ की सम्पादक रमणिका गुप्ता स्वयं कथाकार , विचारक और कवयित्री हैं . आदिवासी साहित्य और संस्कृति तथा स्त्री -साहित्य की कई किताबें इन्होने संपादित की है. इनसे इनके मोबाइल न. 9312039505 पर संपर्क किया जा सकता है.
( हम यहाँ रमणिका गुप्ता की शीघ्र प्रकाश्य आत्मकथा सीरीज ‘ आपहुदरी’ के एक
अंश किश्तों में प्रकाशित कर रहे हैं. रमणिका जी के जीवन के महत्वपूर्ण
हिस्से धनवाद में बीते , जहां वे खुदमुख्तार स्त्री बनीं, ट्रेड यूनियन की
सक्रियता से लेकर बिहार विधान परिषद् में उनकी भूमिका के तय होने का शहर है
यह. ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ से कोयलानगरी की राजनीति को समझने वाली हमारी
पीढी को यहाँ स्त्री की आँख से धनबाद से लेकर राज्य और राष्ट्रीय राजनीति
के गैंग्स्टर मिजाज को समझने में मदद मिलेगी, और यह भी समझने में कि यदि
कोइ स्त्री इन पगडंडियों पर चलने के निर्णय से उतरी तो उसे किन संघर्षों से
गुजरना पड़ता रहा है , अपमान और पुरुष वासना की अंधी गलियाँ उसे स्त्री
होने का अहसास बार -बार दिलाती हैं. उसे स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं से
लेकर मंत्री , मुख्यमंत्री , राष्ट्रपति तक स्त्री होने की उसकी औकात बताते
रहे हैं . ६० -७० के दशक से राजनीति के गलियारे आज भी शायद बहुत बदले नहीं
हैं. इस आत्मकथा में अपनी कमजोरियों को अपनी ताकत बना लेनी की कहानी है
और ‘ हां या ना कहने के चुनाव’ की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष की भी कहानी
है. इस जीवन -कथा की स्त्री उत्पीडित है, लेकिन हर घटना में अनिवार्यतः
नहीं. इस आत्मकथा के कुछ प्रसंग आउटलुक के लिए रमणिका जी के साक्षात्कार
में पहले व्यक्त हो चुके हैं. )
पहली किस्त पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें : (आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा : पहली क़िस्त )
धनबाद पहुँचने के बाद
जब हम हीरापुर में कप्तान साहब के साथ रहते थे, तो कार्यालय के सामने प्रायः हर रोज़ या दूसरे-तीसरे दिन जुलूस निकला करते थे और चारों तरफ जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे सुनाई देते थे। ये मुर्दाबाद मालिकों के लिए होता था और जिंदाबाद मजदूर एकता या मज़दूरों के लिए जेल जाने वाले, मार खाने वाले या आन्दोलन में मारे गये नेताओं के लिए। यानी पूरा माहौल गरम रहता था। हवा में गरमी, आवाज़ों में तल्ख़ी और बगल के कोयला खदानों में आग लगी होने के कारण शहर के वातावरण में भीषण ताप, उमस और जलन। ये गरमी केवल गरमी नहीं थी। इस गरमी में जलन थी तो खुन्नस भी थी। कभी-कभी ये गर्मी बदबूदार हो जाती थी,खून की बू भरी हवा से। कई तरह के रहस्यों से लदी-फदी थी धनबाद की हवा, जिसमें तैरती रहती थीं,सच्ची-झूठी अफवाहें और किस्से-कहानियाँ। कई तरह की कहानियां ,कभी कनफुसकियों में, तो कभी लाउडस्पीकरों पर चिल्ला-चिल्ला कर बार-बार सुनाई जाती थीं। लगता था जैसे सब आपस में टक्कर मार रहे हैं। द्वन्द्व ही द्वन्द्व था। षड़यंत्र , योजना, हत्या, दहशत, विरोध, प्रदर्शन और घेराव का माहौल! उस विराट लेकिन कड़े-कड़क विरोध ने, विराट संघर्ष ने,मेरे मन के दरवाज़े पर भी दस्तक दी,और मेरे मन के बन्द दरवाज़े को खटखटाया। शायद मन की परतों में दबी मुक्ति की इच्छा दस्तक सुन ले और चैखट उलांघ जाए। चारों तरफ से हर रोज़ एक नया परिवेश सर उठाए चला आता था, जो दहशत को तोड़ कर मुक्ति के लिए छटपटाता नज़र आता था। इस मुक्ति की छटपटाहट में शहीदाना अन्दाज था, तो प्रेम और आस्था की विराटता और उदारता भी थी। इस अन्दाज़ के तीन पहलू थे! मैंने प्रेम के पहलू से शुरुआत की। शायद इसलिए भी कि प्रेम करने से वर्जित स्त्री के लिए प्रेम की छूट ही मुक्ति की तरफ पहला सोपान होता है। बाकी तो वह फिर स्वयं अर्जित कर सकती है। दरअसल प्रेम से देह का नाता है और प्रेम करने के लिए स्वतंत्रता का अर्थ ही है देह पर स्त्री का अपना अधिकार होना। यह परिवेश मुझे प्रेम का एक नया रूप निर्मित करता हुआ नज़र आता था।
बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बी सहाय जो अपने ख़ास लोगों से सुबह चार बजे मिलते थे , महिलाओं से भी |
मजदूरों के अभाव और शोषण व माफिया, लठैत, गुण्डे, पहलवानों से मुक्ति की छटपटाहट, उनके पर्चों, पोस्टरों में प्रायः पढ़ने को मिल जाती और मिल जाती थीं उनकी माँगे, जीने की मामूली, पर जरूरी शर्तें। व्यवस्था, डर और दहशत से मुक्ति की चाह, उनके जीने के लिए जरूरी थी। प्रेम के विकास, विस्तार, विराटता और उदात्तता के लिए भी तो जरूरी है,मुक्ति की छटपटाहट। सम्भवतः मैंने अपने जीने की, अस्तित्व की चाह को प्रेम से जोड़ कर देखना शुरू कर दिया था। मुझे दोनों एक-दूसरे के पर्याय लगने लगे थे। अस्तित्व के लिए प्रेम जरूरी है और बिना अस्तित्व प्रेम हो ही नहीं सकता। देह ही तो माध्यम है अस्तित्व का। वह प्रेम करे,संघर्ष करे या संभोग, देह की दरकार तो पड़ती ही है।सवाल यहीं पर पेचीदा हो जाता है कि अपनी देह की संचालक स्वयं स्त्री हो या कोई अन्य। जब तक स्त्री ‘अन्य’ से संचालित होती है,कोई रार या विवाद नहीं होता। यह तो जब स्त्री अपनी देह का संचालन स्वयं करने लगती है या उसका उपयोग अपने हित के लिए करती है, तो सब तरफ प्रश्न चिह्न उठ खड़े होते हैं। तब नैना साहनी तंदूर में जला दी जाती है।
जब हम धनबाद पहुँचे ,उन दिनों वहाँ एक दबंग पंजाबी कोलियरी मालिक सुण्डा का मामला गर्म था। उसकी बंगाल तक में खदानें थीं। उसने मज़दूरों पर गोली चला दी थी। पुलिस, प्रशासन और पूरा श्रम विभाग, बी.पी. सिन्हा के प्रभाव में उस मालिक को बचाने के लिए जुट गया था। मालिक पंजाबी था। हमारे घर में यह बहस काफी दिनों तक चलती रही थी। प्रकाश दुःखी था कि उसे न तो हस्तक्षेप करने दिया जा रहा है न ही बोलने! या कहें उसके सीनियरों के सामने उसका वश नहीं चल रहा था। सारा मामला कैप्टन रंजीत सिंह, जो मुख्य श्रमायुक्त थे खुद ही डील कर रहे थे। वे बी.पी. सिन्हा के घनिष्ट मित्रा थे। बी.पी. सिन्हा कोलियरी मालिक सुण्डा को बचाने पर ज़ोर दे रहे थे। पुलिस तो मालिक के साथ थी ही ,सत्ता और श्रम विभाग भी बी.पी. सिन्हा के चलते मालिक का साथ दे रहे थे ।
कुछ दिनों बाद हमें लेपो रोड स्थित, धनबाद माइन्स बोर्ड के आफिस के पीछे वाली गली में घर मिल गया था। ऐसे तो प्रकाश ने कुछ कवियों और शायरों से सम्पर्क कर लिया था चूंकि वह खुद भी शायरी करता था ,लेकिन फिर भी गाहे-बगाहे कभी हम उनके यहाँ और कभी वे हमारे यहाँ आने-जाने लगे थे और घर में ही छोटी-मोटी कवि गोष्ठियां या शायरों की मजलिसें जमने लगी थीं। मेरी नृत्य-नाटिकाओं के अभ्यास भी शुरू हो गए थे। मैंने खदानों के सुरक्षा-दिवस पर एक नृत्य नाटिका तैयार की थी, जिसे हमें कई खदानों में प्रदर्शित करना था। उसके लिए कलकत्ता से भी कुछ कलाकार हमने बुला लिये थे। नायिका का रोल मैं कर रही थी लेकिन साथ में एक और अभिनेत्री तथा अभिनेता और उनकी टीम को भी कलकत्ता से बुला लिया गया था। एक बंगाली दादा हमें तबले पर संगत देते थे। हमारा घर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का अड्डा बन गया था। हमारे आंगन में नाटक और नृत्य की रिहर्सल होती थी। ऐसे भी मेरी कविता और मेरे नृत्य की चर्चा काफी होने लगी थी। मैंने चीन की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था।मेन रोड यानी लेपो रोड पर गली के ठीक सामने ‘कोलियरी मजदूर संघ’ की यूनियन और कांग्रेस का कार्यालय था और थोड़ी दूर पर एस.पी. का बंगला था। एस.पी. के बंगले के बाहर और बगल में कांग्रेस आफिस के बीच कुछ जमीन खाली थी। सड़क के उस पार लक्ष्मीनारायण ट्रस्ट द्वारा बनवाया हुआ लड़कियों का बी.ए. तक का कालेज था। इसी रोड पर कांग्रेस ऑफिस के आगे जाकर धनबाद का जिला सचिवालय था और सरकारी अफसरों के बंगले थे। ये सरकारी अफसर हमारे घर कवि गोष्ठियों में शामिल होने लगे थे। जिला बोर्ड के अधिकारी हों या रेवेन्यू के अधिकारी, जो कविता में रूचि रखते थे हमारे यहाँ आते थे। कई पत्राकार भी आते थे। मैंने अपनी गतिविधियाँ समाजसेवा के कार्य में भी बढ़ा ली थीं। मैं भारत सेवक समाज से भी जुड़ गई थी ,ताकि गाँव तथा शहर में स्त्रियों के लिए अतिरिक्त आय का जरिया बनाने और उन्हें तथा उनके बच्चों को शिक्षित करने के लिए कुछ किया जा सके। रेवेन्यू के अधिकारी तो मुख्यमंत्री के.बी. सहाय के रिश्तेदार भी थे। वे अच्छे कवि थे, पर प्रेम, प्रकृति और सौंदर्य ही उनका विषय था। मेरी उनसे बहुत पटती थी। प्रकाश को वे पसन्द नहीं थे। पता नहीं कैसे एक दिन हम एक-दूसरे को कविता सुनते-सुनाते करीब हो गए। मैं हर रोज़ उन पर कविता लिखती,वे मुझ पर। लेपो रोड पर ही उनका बंगला था। कभी मैं उनके घर चली जाती तो कभी वे हमारे घर आ जाते।
तारकेश्वरी सिन्हा , ६० के दशक में एक कामयाब महिला राजनीतिज्ञ , जिनकी खूबसूरती की चर्चा तब की राजनीति का एक हिस्स्सा थी |
इस घर के ऊपर वाले कमरे, सड़क के लेवल में थे और आंगन सीढि़यां उतर कर नीचे था। दरअसल ये एक ढालू पहाड़ी रास्ता था और ढलान के अनुसार ही घर बना हुआ था। नीचे का आंगन खूब बड़ा था। आंगन के बाहर एक बगिया भी थी और गाड़ी रखने का एक गैराज भी। उसके थोड़ी दूर हटकर एक बस्ती थी, जिसमें स्थानीय लोग रहते थे लेकिन माइन्स बोर्ड के कुछ कर्मचारी भी किराये का घर लेकर वहाँ रह रहे थे। बाद में जाकर जब मैंने समाज सेवा करनी शुरू की, तो इस गैराज में मैंने गरीब महिलाओं को सिलाई सिखाने के लिए एक स्कूल खोल दिया, जिसमें मोहल्ले भर की महिलाएं निःशुल्क सिलाई सीखने आती थीं। यहीं से मेरे सामाजिक सरोकार शुरू हुए। मैं कविता, नृत्य और नाटक के दायरों का विस्तार कर फैल गई थी और समाज से जा जुड़ी थी, पर यहाँ आकर मेरी कविता भी सामाजिक सरोकारों से जुड़ गई। उन्हीं दिनों मैंने अपनी पहली कविता लिखी, ‘मेरी कविता का विषय बदल गया है’.
‘आज मेरी कविता का विषय बदल गया
उसके स्वरों में गूँजती है
मशीनों की घर्र-घर्र
उसके भावों को बींध रहा है
बार-बार
मशीनों की चल रही निरन्तर सूई पर
टिकी
किसी महिला की एकटक दृष्टि का
गहन-तार
उसके छन्द आज
घूमती रील की गत्ते की चकरी में
थिरक रहे हैं
आज सज्जन हो रहा है
उन गीतों का
जो बन जाते हैं प्रश्न
जीने और मरने के
इस गंदे सीलन से भरे गैरेज में
पेट के
भूख के
रोटी के
पैसे के गीत रचे जा रहे हैं
आज कविता को मिला है
नया दर्द
प्यार का नहीं
आशा का
कुछ कर पाने का/और
सफलता की इच्छा का दर्द
आज मिला है
कविता को
नया साधन
कल्पना का नहीं
संघर्ष का!’
मेरी कविता जनसरोकारों से जुड़ती रही और जनता की बोली बोलने लगीं। सौंदर्य के प्रति मेरा अटूट मोह था। मैंने उसे जिन्दा रखा,मरने नहीं दिया। इन्हीं दिनों मेरे गीतों में प्रकृति और सौंदर्य से लगाव, पलाश में लाल रंग की तरह पुरजोर फूटा। जंगल के जंगल लाल-लाल हो लहलहा उठे थे लगाव के इस रंग से। इन गीतों-अगीतों से मेरी एक पुस्तक ‘गीत-अगीत’ तैयार हो गई थी। हालांकि पहले मैं ज्यादा प्रेम या प्रकृति -परक कविताएं या गीत लिखा करती थी लेकिन धनबाद में आकर मैंने चीन की लड़ाई से खुद को जोड़ा, तो देश -प्रेम की बहुत सी कविताएँ लिखीं। भगत सिंह को चीन युद्ध से जोड़कर ‘कल मैंने एक सपना देखा’ लिखी तो राम को अकाल से जोड़कर ‘हाय राम भूखा है’। मेरे मानस में सौंदर्य, प्रकृति , जनसरोकार, देश प्रेम और शौर्य कुछ इस तरह गुत्थमगुत्था हो रहे थे कि मुझे प्रकृति में जन और जन में संघर्षनज़र आने लगा और संघर्ष में सौंदर्य! सौंदर्य भी संघर्षरत ही दिखता और पृकृति भी। ‘कौन प्रिय तुम कालिन्दी पर’ गीत में भले ही मैंने प्रकृति के कई कोमल रूपक रचे, लेकिन वे चांदनी से जलती चिता तक छलांग लगाते हैं, तो गन्ध से मन की ग्रन्थियों को भी छू आते हैं। तुलसीदास को भी मैंने दूसरे ही अन्दाज़ में लिखा। वैचारिक और सौंदर्य की कविताओं के अतिरिक्त, मजदूर, किसान, यहाँ तक कि नर्स, होमगार्ड, जिसने भी मुझे प्रभावित किया, मैंने कविताएं लिख डालीं। लोहिया पर कविता लिखी तो नेहरू और गांधी पर भी। शायद मेरी कविता का यह पहला पड़ाव था। इस बदलाव के दौरान मेरे भीतर प्यार की प्यास और चाहत कभी कम नहीं हुई। प्रकृति ने तो इसके उद्दीपन का ही काम किया। मेरा प्यार मन की हदें पार कर देह की हदों को भी टोहने के लिए आतुर रहने लगा या कहूँ ललकने लगा था। उसे भी मैंने कविता का विषय बनाया।
प्रभात रंजन सरकार , आनंद मार्ग का प्रणेता , तब की राजनीति में इस स्वयम्भू बाबा की बड़ी पैठ थी . आनंद मार्गी बाबाओं के राजनीति पैठ का वासनात्मक इतिहास इस आत्मकथा में शामिल है |
कविता मुक्त हो रही थी मेरी। मैं गीतों से हटकर अतुकान्त कविताओं पर उतर आई थी। विषय विशाल हो रहा था, दृष्टि बन रही थी, अपनी दिशा खोज रही थी मैं। इसलिए कविता भी कई दिशाओं से होकर, कई भूल भुलैयाओं को पार करते हुए मेरे साथ-साथ भटक रही थी। कभी फुनगी पर चढ़ रही थी, तो कभी जड़ों से लिपट रही थी। कविता के कई दरवाजे़ खुल रहे थे, तो सोच की खिड़कियां भी खुल रही थीं। नये अनुभव,,नये विचार, उमड़-घुमड़ कर आ रहे थे,बरस रहे थे,उनकी बौछारों से भीग रही थी मैं। कभी नए अनुभवों की लहर पर लहर चढ़ी चली आती थी मेरे मानस के समुद्र में तो कभी हरहरा कर अनुभवों की बाढ़ उपजाउ मिट्टी भर जाती मेरी नदी के पाड़ में। यह मेरी कविता की उड़ान थी। कविता की खेती के लिए भरपूर उर्वर जमीन थी।
मैं कविता में रम गई, रच-बस गई। नृत्य का अभ्यास जारी रखा। प्रकाश खुद भी शायरी करता था। सो पहला मज़मा तो हमारे यहाँ शायरों और कवियों का लगने लगा। उसमें कुछ पत्रकार भी आ जाते थे। कुछ बिहार सरकार के आफिसर भी आते थे, जो कविता का शौक रखते थे। हिन्दी के बड़े कवि सम्मेलनों में मैंने अपनी कविता पढ़नी शुरू कर दी थी। ऐसे भी स्त्रियों को लोग प्रोत्साहित करते ही हैं,बल्कि यूँ कहा जाए लोग कवयित्रियों के ज्यादा ही नज़दीक आने शुरू हो जाते हैं।
चीन के युद्ध में जाने वाले सिपाहियों के लिए मेरी कविता ‘रंग बिरंगी तोड़ चूडि़यां हाथों में तलवार गहूँगी/ मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी, मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी’’, काफी मशहूर हुई। जब मैंने कप्तान रंजीत सिंह के साथ रानी झांसी के रूप में डेब्यू किया और धनबाद से झरिया तक यह कविता पढ़ते हुए गई, तो 60 हजार के करीब चन्दा मेरी झोली में आया, जो सरकारी खजाने में जमा करवा दिया। लड़कियों के कॉलेज में भी मैंने कॉलेज की लड़कियों को नृत्य का प्रशिक्षण दे कर चन्दे के लिए नृत्य शो किए और करवाए जिससे भी काफी पैसा जमा हुआ। फिर तो मुझे चीन पर एक अलग से कवि सम्मेलन बुलाने का प्रस्ताव ही मिल गया,जिसमें देश –विदेश के कवि आए और युद्ध, देश प्रेम एवं शौर्य की कविताएं पढ़ी गईं।
राजनैतिक स्तर पर मैं कांग्रेस से जा जुड़ी। मुख्यमंत्री के.बी. सहाय के जन्म दिवस पर मैंने अखिल भारतीय कवि सम्मेलन के आयोजन की घोषणा कर दी, जो बी.पी. सिन्हा को बहुत खली। पर मैंने अपने बल पर भारत भर के कवियों को बुलाया,चन्दा करके खर्च जुटाया। इसमें काका हाथरसी, जानकी बल्लभ शास्त्री , हँस कुमार तिवारी, गोपाल सिंह नेपाली तथा बहुत से युवा कवि आए, जो मंच पर बहुत ही जमे। बी.पी. सिन्हा नाराज़ थे कि मैंने कैसे के.बी. सहाय को बुलाने की हिम्मत की। के.बी. सहाय तो केवल उन्हीं के बुलाने पर आते थे। खैर जाते-जाते के .बी. सहाय ने मुझे कहा,
‘‘पटना आओ,जो मदद चाहिए मिलेगी।’’
सब कांग्रेसी स्तब्ध थे।
‘‘ये कल की आई औरत को मुख्यमंत्री ने कैसे घास डाला? हम तो बरसों से लाइन में हैं? बिना साहब (बी.पी. सिन्हा) के पूछे वे तो किसी नेता से बात नहीं करते थे? ये सीधे बतिया ली वह भी मुख्यमंत्री से!’’ बौखला कर वे कहते।
खैर, कवि सम्मेलन चर्चा का विषय बन गया। उन दिनों वहाँ श्री धनोआ डिप्टी कमिश्नर थे।
‘‘इस राजनीति में मत पड़ो,खतरा है।’’ उन्होंने मुझे बुला कर समझाया।
मैं कुछ समझी, कुछ नहीं समझी और कुछ जानबूझ कर भी नहीं समझने का नाटक करती रही। मैं जान रही थी मेरा के.बी. सहाय से सीधे बात करना गॉडफादर को बुरा लगा है। खैर चीन के चन्दे का मामला था,लोगों ने ज्यादा दखल नहीं दिया।प्रशंसकों से अधिक मेरे शत्रु बन गए थे। वे प्रशंसकों की बनिस्बत ज्यादा ताकतवर थे।
पूर्व प्रधान मंत्री वी पी सिंह और महाश्वेता देवी के साथ रमणिका गुप्ता एक सभा में |
बी.पी. सिन्हा के साथ एक भूमिहार डी.एस.पी. सी.आई.डी. भी था जो लोगों को फेवर करके या डरा-धमका कर बी.पी. सिन्हा के गुट में रखता था। उसने मुझे अपने काबू में लाने के लिए सतीश चन्द्र पत्रकार से कहकर प्रकाश के खिलाफ अखबारों में छपवा दिया था कि प्रकाश की उर्दू शायरी का रिश्ता पाकिस्तान से है। उसने प्रकाश के खिलाफ यह भी प्रकाशित करवाया कि वह अपनी पत्नी को इंश्योरेंस की एजेंसी दिलवा कर और मालिकों पर प्रभाव डालकर पालिसी दिलवाता है और पैसा बनाता है। यह सही था कि मैंने इंश्योरेंस की एजेन्सी ले रखी थी,पर प्रकाश के कहने पर नहीं,खुद स्वावलम्बी होने के लिए। और तब तक एक भी पालिसी साइन नहीं हो पाई थी। फिर तो मैंने एजेन्सी ही छोड़ दी। प्रकाश के क्लाइंटों से तो मैं कभी बात भी नहीं करती थी। दरअसल यह सब मुझे धमकाने और पाने के लिए किया जा रहा था। धनबाद की संस्कृति में यह आम बात थी। मैंने उसकी शिकायत उन दिनों राज्यसभा सदस्य, जो एक बंगाली थे, से भी की और धनबाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रंगलाल चैधरी से भी। एक दिन तो वह आधी रात को हमारे घर आ धमका। अपने नौकर नेपाल से मैंने कह रखा था,‘कुछ गड़बड़ हो तो, मेरे आवाज देते ही तुम अन्दर आ जाना।’ उस रात तो वह कामयाब नहीं हुआ, पर एक दूसरे मौके पर उसने मुझे वश में कर ही लिया था। खैर, मैंने उसकी काफी शिकायत की और यह भी तय किया कि प्रकाश अपना तबादला करवा ले। उन दिनों प्रकाश जगजीवन नगर के घर में रहने लगे थे, चूंकि वे श्रम विभाग छोड़ कर वेल्फेयर डिपार्टमेंट में को-ऑपरेटिव सोसायटी, जो कोलफील्ड के पूरे कोयला क्षेत्र के लिए बनी थी,के अधिकारी बन गए थे।
इसी बीच मैंने सिलाई स्कूल के लिए जमीन के लिए जिला बोर्ड में अर्जी दे दी थी, जिसके अध्यक्ष शंकर दयाल सिंह थे। बागे साहब, एक आदिवासी मंत्री थे, जो हमारे बड़े मददगार थे। दूसरी जमीन एस.पी. के घर के बाहर थी उसकी अर्जी भी मैं दे चुकी थी। वह हमें जल्दी मिल भी गई। भारत सेवक समाज के अध्यक्ष ने हमारे स्कूल को भारत सेवक समाज के तहत एक शाखा बना दिया। सरकारी ग्रान्ट मिल गई और उस पर बिल्डिंग भी हमने बनवा दी जो आज भी मौजूद है। उसमें अब एक कॉलेज चल रहा है। उन्होंने मुझे भारत सेवक समाज की धनबाद जिला शाखा की संयोजिका बना दिया। बहुत सी स्त्रियां भर्ती हो गईं और सिलाई सीखने लगीं। उधर सोशल वेल्फेयर बोर्ड ने मुझे धनबाद की शाखा का चेयरमैन बना दिया और मैंने चार गाँवों में महिला प्रशिक्षण केंद्र एवं बालबाडि़यां खोल दीं। अकाल के दिनों में हमारा धैय्या गाँव का सेन्टर तो अकाल पीडि़तों के लिए राहत का एक बड़ा सेन्टर बन गया था। अब हमारे चार सेक्टर चल रहे थे चार गाँवों में। मैंने नये सचिवालय के कार्टरों वाली बालबाड़ी में अर्चना को शिक्षिका के पद पर पदस्थापित कर दिया था। इसे अर्चना सफलतापूर्वक चला रही थी। सभी किरानियों व आफिसरों के बच्चे वहाँ पढ़ने आते थे। मेरी बेटी तरंग भी उसी में पढ़ती थी। एस.पी. के बंगले के बाहर बनी बिल्डिंग में महिला प्रशिक्षण केंद्र चल रहा था, जिसमें 150 महिलाओं को किश्तों पर मशीनें खरीद दी गई थीं, जिसे वे आर्डर के कपड़े सिल कर, किश्तों में उतारती थीं। डांगरियों का आर्डर हम सिन्दरी खाद फैक्ट्री से ला देते थे। ये डांगरियां ट्रेनिंग के छात्रा पहनते थे। आठ आना एक डांगरी की सिलाई मिलती थी,कपड़े काटने वाला एक दर्जी अलग से रख लिया गया था। महिलाएं कटा कपड़ा ले जाकर घर से सीकर ला देती थीं। दर्जी हीरापुर का ही एक युवा लड़का था, जिसके पिता की हीरापुर में दर्जी की छोटी-मोटी दुकान थी।
मेरी समाज सेवा की योजना चल रही थी। चीन की लड़ाई में मैंने, प्रकाश ने और एस. पी. की पत्नी समेत, हमारे कई मित्रों ने ‘सेल्फ डिफेंस’ की ट्रेनिंग ली। मैं तो नागपुर जाकर सिविल डिफेन्स का कोर्स भी कर आई थी। मैंने बन्दूक व जीप चलाना भी सीख लिया था। उस कोर्स में मुझे डिस्टिंक्शन भी मिली थी।
नागपुर से लौटकर मैं पटना जाकर मुख्यमंत्री के.बी. सहाय से मिली।
मेरी प्रेम-यात्राएँ : मुक्ति की छटपटाहट
मेरी प्रेम यात्राओं को ऊंचा आयाम मिल गया। पीछे मुड़कर देखती हूँ तो महसूस होता है,मैंने जिन्दगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल-कलह के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया। मेरी प्रेम-यात्राएं कभी रुकी नहीं। कच्छ यात्रा, विधान-परिषद की सदस्यता या विधानसभा के लिए चुनावी यात्राएं अथवा केदला-झारखंड की कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण आंदोलन के लिए लंबी हड़तालें, आदिवासियों, दलितों और किसानों के विस्थापन, महिलाओं को ‘डायन’ कहकर मारने का विरोध या प्रेम-विवाहों का विरोध करने वालों को आड़े हाथों लेने की संघर्ष-यात्राओं के बरक्स, ये प्रेम-यात्राएँ भी चलती रहीं। उन्हीं की दास्तान यहाँ बयान करने की कोशिश कर रही हूँ।ये अंतरंग क्षणों की यात्राएं थीं जिसमें सहमति, असहमति, प्रेम, घृणा , दुविधा और संकल्प सब गड्डमड्ड थे। बचपन के कुछ हादसे शायद मेरे अंतर्मन में कहीं ऐसे पैठ गए थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। मैं यौन-शोषण , यौन-इच्छा या इसके कारण अपराध-बोध में झूलती हुई, एक रास्ते की तलाश में थी कि अगली यात्रा पर निकल सकूं और एक दिन मैं यात्रा पर निकल पड़ी। गांधी जी की मृत्यु के बाद उनके शवदाह में भाग लेने के लिए अंबाला से दिल्ली की ओर ट्रक में बैठ कर हम मामा-मामी तथा उनकी माँ के साथ चले, जिसमें प्रकाश हमारे साथ गए। ये थी अपने घर में हो रहे यौन-शोषण से निजात पाने की मुहिम को अंजाम देने की यात्रा या यह मेरी दूसरी प्रेम यात्रा की शुरुआत थी।
बचपन में कदम-कदम पर दैहिक शोषण झेलती मैं इस मुकाम पर पहुँची थी। फिर प्रेम की कई सफल-असफल यात्राओं से गुजरती हुई मैं प्रेम-विवाह की हद तक पहुँच गई थी, जो मेरे संघर्शों की एक लंबी कथा है। विवाह से पहले ही मैंने अपने पहले प्रेम-प्रसंगों, पुराने संबंधों को परत-पर-परत खोलकर प्रकाश के सामने रख दिया था और अपने दैहिक उत्पीड़न की कथा भी कह सुनाई थी। मैंने सोचा था कि बचपन में झेले इस डरावने दैहिक शोषण का दौर खत्म हो जाएगा और विश्वास और प्रेम के डग भरते हुए हम जिंदगी की मंजिल तय कर लेंगे। किंतु मुझे क्या पता था, मन के भेद खोलना ही मन-भेद का कारण बन जायेगा और शंका -ईश्र्या से भरा प्रकाश मेरी उस निर्भय, निडर, मुक्त औरत के प्रेम की यात्रा में एक भारी-भरकम बोझ बनकर मुझ पर लदक जायेगा। गले में पड़े ढोल को बजाने की हम दोनों की पूरी कोशिश के बावजूद हमारे ताल-लय-सुर मिल न पाए। फिर मैंने यह सोचकर कि बेहद वफादार रहने पर भी जब मुझ पर शंका ही होती है तो मैं क्यूँ न स्वनिर्मित बांध तोड़कर मुक्त नदी-सी बह चलूं? और मैंने सब बांध तोड़ डाले। बांध का जल सड़ने लगा था। बह जाने पर खेत उर्वर तो हो ही जाएंगे, भले बांध से सटे खेत ढह जाएं। गृहिणी की यात्रा पर विराम लग गया। चैराहा मेरे सामने था। लौट नहीं सकती थी, चूंकि प्रेम-विवाह किया था। शिकायत किससे करती? क्या हक था मुझे शिकायत करने का? मैंने अपनी मर्जी से विवाह रचाया था। इसलिए पापाजी, बीबीजी से कभी शिकायत नहीं की मैंने और न ही प्रकाश को उनसे शिकायत करने की इजाज़त दी। ‘‘अपना मामला हम दोनों को ही सुलझाना होगा चूंकि हमने खुद से यह रिश्ता जोड़ा है। इसलिए हम खुद ही अपने फैसले करेंगे।’’ मैंने प्रकाश के थप्पड़ों का जवाब थप्पड़ों से देना शुरू कर दिया था।
संसद में ३३ % आरक्षण की मांग , शायद स्थिति में तब फर्क आये |
तीसरी यात्रा शुरू हुई फरीदकोट में, जिसमें कई ऐसी पगडंडिया थीं जो अंधी गलियों में बदल जाती थीं। कुछ तो दूर तक जाकर चैराहे बन गईं और कुछ कई तंग गलियों का मुहाना। यह यात्रा लक्ष्यहीन थी या कहूँ लक्ष्य की खोज की यात्रा थी। शायद कुछ हद तक यह भी सच है कि मुझे लक्ष्य ही नहीं मालूम था। एक बंधन, जो मैंने स्वयं गले में डाला था, उससे मुक्ति की छटपटाहट में कभी आगे, कभी पीछे बढ़ते-हटते कदम। शायद स्वच्छंदता की खोज या बंधनों की ऊब, पांव टिकने नहीं दे रही थी। चूंकि प्रचलित रास्तों से ये भिन्न रास्ता था, इसलिए झाड़-झंकार से लहूलुहान भी हो रही थी मैं। हर रास्ता प्रेम का रास्ता नजर आता था, पर प्रेम नहीं था वहाँ। बस एक ललक थी।
कई अंधी गलियों में जाकर माथा पटकती रही, लौटती रही फिर भी मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी। एम.ए. कर लिया फिर बी.एड. भी कर ली। मैं नौकरी करने के काबिल तो हो गई थी, पर मैंने अपने जीवन में आज तक तीन महीने छोड़कर, कभी नौकरी नहीं की। अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए भी कईयों से मेरे रिश्ते बनते-बिगड़ते रहे। यह यात्रा भटकाव की यात्रा थी। बैले नर्तकी बनने शौक था मुझे, पर मैंने सीखा मद्रास (चन्नई) में गौरी अम्मा की एक शिष्या से भरतनाट्यम और मुंबई में गोपीकृष्णा से कथक।कई सच्चे, कई वक्ती मित्र आए और गए, पर मेरी यात्रा जारी रही। दरअसल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है। पहचान (IDENTITY ) यानी ‘मैं हूँ’. प्रकाश की पत्नी नहीं, कर्नल की बेटी नहीं, दीवान साहब की नातिन नहीं, गुरुओं की पौत्री नहीं, मैं रमणिका हूँ। लोग मुझे पहचानें, खुद मुझे, बस,किसी से जोड़कर नहीं जानें! यह धुन मुझ पर सवार हो गई थी। शायद इसी पहचान के चक्कर में मैं जोखि़म उठाती रही। बचपन में अभिनय का शौक था। कई नाटक भी किए व्यवस्था के खिलाफ। आजादी की लड़ाई में सुभाष, जयप्रकाश और अरुणा आसफअली से मैं बहुत प्रभावित रहती थी, इसलिए राजनीति की यात्रा भी मेरी प्रेम-यात्रा के साथ-साथ जारी रही। चैदह वर्ष की आयु में मैंने खादी पहननी शुरू कर दी थी जो शादी के काफी बाद छोड़ी थी।
इस बीच की अंधी गलियों की दौड़ के बाद, मैंने राजनीति की राह की तरफ समाज-सेवा और साहित्य के दरवाजे से होकर रुख किया। मुझे साहित्य सदैव प्रिय था। लेखनी चलती ही रहती थी पर दिशा निश्चित नहीं थी। कभी प्रेम तो कभी प्रकृति । कभी अकाल तो कभी चीन का युद्ध या फिर पत्तल चाटते भिखारी मेरी कविता का विषय बनते रहे। पर प्रकृति का अटूट मोह भी षब्दों को अपनी गिरफ्त में लेने से नहीं चूका।
धनबाद में मैंने कला, साहित्य, समाज-सेवा और राजनीति के दरवाजे एक साथ खोल दिए। मैं चल पड़ी थी संघर्श की उन राहों पर, जो एक-दूसरे की प्रेरक थीं, एक-दूसरे से ऊर्जा लेती थीं। अपने प्रेम-संबंधों से या जबरन थोपे जाने वाले प्रेम-संबंधों से या उसकी खिलाफत करने की अपनी ऊर्जा से, मैंने जोखि़म भरी राजनीति की राह चुनी और यह मेरी प्रतिबद्धता की मानसिकता से जुड़ गई। नृत्य और नाटक चीन की लड़ाई में चंदा करने के लिए किए तो उस मुहिम में कविता ने मेरी जिह्वा पर बैठकर जन-मानस से धन-जन-बल तीनों जुटाए।
राजनैतिक स्तर पर मैं कांग्रेस से जा जुड़ी। मुख्यमंत्री के जन्म-दिवस पर धनबाद में बड़ा कवि-सम्मेलन करवाया। हजारों लोग जुटे। बड़ा शामियाना था और सबकी उम्मीदों के खिलाफ एक नामी श्रमिक नेता, जो मुख्यमंत्री के दाहिना हाथ कहलाते थे,के विरोध के बावजूद, मुख्यमंत्री मेरे द्वारा आयोजित कवि-सम्मेलन का उद्घाटन करने आए थे। उन दिनों श्री धनोआ (जो सिख थे) धनबाद के उपायुक्त थे। इस कवि-सम्मेलन में जानकी वल्लभ शास्त्री , हँस कुमार तिवारी, काका हाथरसी और नेपाली जैसे सभी दिग्गज कवि जुटे थे। मुख्यमंत्री ने मंच से उतरते वक्त मुझसे कहा था,‘‘पटना आओ, तुम्हें कुछ काम सौंपा जाएगा।’’ सभी हतप्रभ थे। एक नई महिला, जो बिहार की रहने वाली भी नहीं, जो नेताओं के किसी गुट में भी शामिल नहीं, जिसका नामी श्रमिक नेता विरोध करते हैं, उसे मुख्यमंत्री ने खुद पटना आने को कहा। मैं भी अपनी इस पहचान पर मुग्ध थी। राजनीति में यह मेरी पहली कामयाब दस्तक थी।
हालाकि इससे पहले मैं दिलीप नामक युवक ,जो आनन्द मार्गी था, उसके और लोकेश झा जो विनोदानंद झां मुख्यमंत्री के मंत्रीमंडल में एक राज्यमंत्री के हाथों काफी जिल्लत उठा चुकी थी। सबसे पहले मेरा राजनीतिक शोषण इसी मंत्री ने किया। उन्होंने मुझे झूठ-मूठ बताया कि उन्होंने मुझे केन्द्र सरकार की एक कमेटी का सदस्य बना दिया है, जिसके वे चेयरमैन है।
एक दिन अचानक मेरे घर आये और कहा, ‘मै आज दिल्ली जा रहा हूँ कमेटी की बैठक है तुम्हें भी भाग लेना है।’
‘पर चिट्ठी तो मुझे नहीं आई?’ मैने पूछा।
‘मै अध्यक्ष हूँ मैं ही तो चिट्ठी देता हूँ, मैं ही तुम्हें कह रहा हूँ। अब और कौन सी चिट्ठी चाहिए।’
मैं बिना सवाल किये उनके साथ दिल्ली जाने को तैयार हो गई। हम तीनों प्रथम श्रेणी के कूपे मैं बैठे। काफी देर तक बातें हुई। फिर अचानक झा जी ने प्रेम प्रदर्शन शुरू कर दिया। मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूँ । ट्रेन से कूदा तो नहीं जा सकता था, वे एक नहीं दो थे। मैंने दिलीप की उपस्थिति पर आपत्ति की तो उन्होंने कहा हम दोनों में कोई फर्क नहीं। बाद में वे मुझे रास्ते भर लेक्चर पिलाते गए,‘राजनीति में आयी हो तो राजनीति के ढंग सीखो। यहाँ यह सब होना मामूली बात है।’ हम लोग अगले दिन सवेरे दिल्ली पहुंचे । बिहार भवन में ठहरे। हर रोज़ सुबह उठकर मैं पूछती ‘मीटिंग कब होगी? कहाँ जाना होगा हमें?’ मुस्कुराकर कभी दिलीप व कभी झा जी कहते,‘क्या जल्दी है? होगी ना मीटिग?’ और में तीन दिन तक उस मीटिग में जाने के लिए इंतजार करती रही जो कभी हुई ही नहीं। अंतिम दिन जब हमें लौटना था तो मैंने पूछा, ‘मीटिग तो हुई नहीं और हम लौट रहे हैं?’‘अरे मीटिग तो की ना हम तीनों ने। क्या दरकार है किसी और की? हम तीनों एक साथ रहे यही मीटिग है,यही राजनीति है।’ मैं अवाक् और दुखी भी और मन ही मन गुस्सा भी। पर धनबाद वापस लौटने तक मैं यह गुस्सा व्यक्त नहीं कर सकती थी क्योंकि मुझे यह आभास मिल गया था कि वे खतरनाक भी सिद्ध हो सकते हैं। धनवाद में लौटते ही स्टेशन पर ही मैंने अपने मन की भड़ास निकाली और अलग से वाहन लेकर अपने घर आ पहुँची। मैं ये सारा किस्सा किसे बताऊँ समझ नहीं आ रहा था? दिलीप ने मुझे तंग करना शुरू कर दिया था और बिना बताए एक दिन वह घर आ टपका। मैंने उसे लताड़कर लौटा दिया पर उसने घमकियां देनी बंद नहीं की। बाद में पता चला कि लोकेश झा अन्नपूर्णा देवी (पूर्व विधायक, बिहार विधान सभा) की बेटी जो उन्हें स्टेशन पर छोड़ने आई थी, को जबरन गाड़ी में बैठाकर दिल्ली तक उसे भोगते हुए गए थे। मैंने इनकी शिकायत रांची वाले प्रोफेसर अनिरूद्व मिश्रा से टेलीफोन पर की तो उन्होंने दोनों को कुछ हिदायत दी। यही दिलीप मिश्रा धनबाद में रहता था और आनंदमार्गी होने के कारण बाद में गिरफ्तार भी हुआ था। बिहार में आनंदमार्गियों द्वारा हत्याओं के कई मामले प्रकाश में आ चुके थे। ललितनारायण मिश्रा की हत्या में भी इन्हीं आनंदमार्गियो के हाथ होने की ख़बर भी बिहार में छायी रही थी।
कवि सम्मेलन में मुख्यमंत्री के.बी.सहाय द्वारा मुझे आमंत्रित करने पर धनबाद के गॉडफादर कहलाने वाले सभी नेताओं में हड़कंप मच गया। लगा इंद्र का सिंहासन डोल गया है। मुझपर कई तरफ से दबाव डलवाने की कोशिशकि मैं इस पचड़े में ना पडूं यहाँ तक कि उपायुक्त ने मुझे बुलाया और समझाने की कोशिश की कि मैं मुख्यमंत्री से न मिलूं चूंकि यह श्रमिक नेता से वैर मोल लेना समझा जाएगा। पर मुझमें तो विरोध होने पर उस विरोध का मुकाबला करने की आदत हमेशा जिद की हद तक पहुँच जाया करती रही है। सो इस विरोध ने मुझमें एक जिद पैदा कर दी और जोखिम को समझते हुए भी मैं पटना गई। राजनीति में आने वाली औरतों के लिए जोखिम के खिलाफ एक सुरक्षा-कवच की भी जरूरत होती है। दरअसल राजनीति में जितनी भी गुटबाजियां होती हैं, वे सब वर्चस्व और असुरक्षा की भावनाओं के कारण ही होती हैं। तब मुझे पता चला कि श्रमिक नेता के विरोधियों का भी एक गुट है, जो रंगलाल चैधरी एडवोकेट के नेतृत्व को मानता है। यह वकील साहब बहुत ही भक्त किस्म के व्यक्ति माने जाते थे। वे भी भूमिहार ही थे, पर उक्त नेता को ज्यादा तरजीह देने या उनका धनबाद में एकछत्र राज चलने देने के कारण, वे लोग मुख्यमंत्री से भी नाराज थे। इसके पीछे राज़ यह था कि हर मुख्यमंत्री के लिए कोलियरी मालिकों से चंदे का पूरा इंतजाम वही श्रमिक नेताजी ही करते थे। उनके घर पर हर दिन सांझ को पीने में साझेदारी करने के लिए लोग जुटते थे, जिसमें अफसर भी होते थे, व्यापारी भी, कोलियरी मालिक भी और लेबर लीडर भी। कोलियरियों के अंग्रेज मालिक भी आते थे उनके यहाँ। श्रमिक नेताजी की दूसरी पत्नी पूर्णतया आधुनिक थीं। वे क्रिश्चन थीं। पीने और मालिकों को पटाने में वे उनका साथ देती थीं। कई काम उनके कारण भी हो जाते थे। पर थीं वे अत्यंत संवेदनशील महिला। उस औरत की कुंठा और त्रासदी को मैं उक्त नेता की हत्या के कुछ अरसा पहले ही जान सकी थी।
जिले भर के अफसर उक्त श्रमिक नेताजी से डरते थे। राजपूत लठैतों को भी नेताजी पैसे और ठेके दिलवाकर अपना गुलाम बनाए रहते थे। मजदूरों की माँग कभी-कभार दिलवा दी जाया करती थी लेकिन उनकी माँगों पर सौदेबाजी खूब किया करते थे उनके साथी इंटक के नेतागण। यह उनका पेशा या धंधा जो कह लें, था।
प्रकाश ने धनबाद में सहायक श्रमायुक्त के पद पर ज्वाइन किया था और बाद में वे वहीं पर रीजनल लेबर कमिश्नर हो गए थे। वे प्रायः इन लोगों के किस्से घर आकर मुझे बताते थे। जीवन लाल सुंडा जैसे मालिक, जिन्होंने अपने मजदूरों की गोली मारकर हत्या कर डाली थी, को इन नेताजी ने कैसे मर्डर केस से बचाने में मदद की थी, यह सुनकर मुझे यूनियन वालों से घृणा -सी हो गई थी। हम लोग भी प्रकाश के बॉस कप्तान रंजीत सिंह के साथ उनके यहाँ दावतों में जाते थे। उनकी पत्नी कवयित्री भी थीं। वे अंग्रेजी में कविताएं लिखती थीं और अपना दूसरी औरत होने का दर्द वे मुझसे बांट लेती थीं। मैं भी कविताएं लिखती थी इसलिए दोनों में एक प्रकार की निकटता आ गई थी। उन्होंने अपने पति द्वारा मेरा विरोध करने के बावजूद कभी मेरा विरोध नहीं किया, न ही मैंने उसके प्रति कभी दुर्भावना पाली। मैं उनके दूसरी औरत होने के दर्द के प्रति काफी संवेदनशील थी। बाद में तो हम दोनों मित्र भी बन गई थीं और उनकी मित्रताके कारण ही मैंने उक्त नेताजी के हत्यारों को पकड़वाने के लिए जोखि़म उठाए और सूरजदेव सिंह जैसे एक नामी माफिया, जो धनबाद का डॉन बन चुका था, से बैर मोल लिया। वैसे उनकी हत्या के कुछ दिन पहले ही उनके व्हाइट हाउस (नेताजी का नव-निर्मित घर जो सफेद था, उसे लोग इसी नाम से पुकारते थे) में एक बार मैंने उनकी पत्नी के सामने ही उन्हें उस माफिया डॉन से बच के रहने को कहा था, पर उस समय वे मेरी बात से सहमत नहीं हुए।
मैं मुख्यमंत्री से मिलने पटना पहुँची। वे सवेरे चार बजे उठकर फाइल देखते थे और उसी समय अपने खास मिलने वालों को बुलाते थे, जिनमें औरतें भी शामिल होती थीं। छह बजे के लगभग वे सैर को निकलते थे। रास्ते में भी पैरवीकार उनसे बातें करते चलते थे। वे मुख्यमंत्री के पुराने निवास में ही रहते थे, जहाँ पहले बिहार के प्रथम मुख्यमंत्रीरहा करते थे। कभी-कभी गंभीर राजनीतिक वार्ताएं भी उसी सैर के दौरान वे किया करते थे।
मैं सवेरे चार बजे मिलने वालों की सूची में थी। मैं गई। फाइलों से सर उठाकर उन्होंने सराहना भरी नजर से मुझे देखा। ‘‘तुम्हारा प्रोग्राम तो बहुत अच्छा था’’, कहते हुए वे उठे। मैं खड़ी थी। उनका पी.ए. जा चुका था। मेरी तरफ आते हुए वे हाथ फैला कर बोले, ‘‘बोलो क्या चाहिए, बिहार का मुख्यमंत्री तुमसे कह रहा है।’’ मैं स्तब्ध थी। अचानक मुंह से निकला,‘‘महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए भवन बनाने के लिए धनबाद में कांग्रेस ऑफिस के बगल वाली जमीन चाहिए।’’ ”अरजी लाई हो?“ उन्होंने पूछा। ‘‘जी।’’ मैंने कहा। उन्होंने अर्जी लेकर जमीन आबंटन की प्रक्रिया पूरी करने का आदेश जिला-परिषद के मंत्री को लिख दिया, जो एक आदीवासी थे। जिला परिषद धनबाद का अध्यक्ष उन दिनों एक कोलयरी का मालिक था, जो वास्तव में एक लठैत बनकर धनबाद आया था। वह मालिक सह लेबर लीडर भी था। वह राजपूत था। चूंकि मुख्यमंत्री नेताजी को, जो जाति के भूमिहार थे, तरजीह देते थे, इसलिए पूरा राजपूत वर्ग उनका भी विरोधी था। बिहार में भूमिहार और राजपूत परस्पर विरोधी जातियाँ रही हैं । दोनों जमींदार वर्ग की हैं। हालांकि कायस्थों का समझौता बिहार में प्रायः राजपूतों के साथ होता था, पर उक्त नेताजी उसमें अपवाद थे।भले आज लाल सेना के खिलाफ रणवीर सेना के झंडे तले दोनों जातियाँ एक होकर खड़ी होने को मजबूर हैं, पर आपसी रिश्तों में उनका जातीय वैर बरकरार है।मैं सपना-सा देख रही थी। वे बोले, ‘‘जाओ ये पत्र लेकर राजा बाबू से मिलो, वे तुम्हें बी.पी.सी.सी. का सदस्य मनोनीत कर देंगे। तुम कांग्रेस पार्टी का काम करो। मेरा मन तो तुमने जीत ही लिया है।’’ यह कहते हुए उन्होंने मुझे आगोश में लेकर चूम लिया। मैं विरोध नहीं कर सकी या शायद मैंने विरोध करना नहीं चाहा। ऐसे भी क्षण आते हैं जीवन में, जब अचानक, अनअपेक्षित लादे गए अहसानों का अहसास किसी भी ऐसी हरकत को नजरअंदाज करने में सहायक बन जाता है। राजनीति में ऐसे ही अहसानों में कमी आने पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चल जाता है। तनावग्रस्त राजनेता महिला कार्यकर्ताओं से शारीरिक सुख पाकर तनाव-मुक्त होने को अहसान के रूप में लेता है तो राजनीतिक महिलाएं बदले में सुरक्षा और वर्चस्व के फैसले अपने पक्ष में हासिल करती हैं । जो महिलाएं राजनीतिक नहीं होतीं, वे पैसे या भौतिक उपहारों से संतुष्ट हो जाती हैं या पुरुषों की तरह ही ट्रांसफर-पोस्टिंग में कमाई करती हैं। उनके पति भी इसमें दलाली करते हैं। अब मैं कहूँ कि वह मेरा शोषण था ,तो शायद यह गलतबयानी होगी। क्योंकि राजनैतिक सीढि़यों पर चढ़ने वाले हर व्यक्ति को, औरत हो या मर्द, सुरक्षा-कवच चुनने होते हैं। मुझे मुख्यमंत्री का सुरक्षा कवच मिल रहा था। शायद यह ज्यादा भरोसेमंद था छदम् नैतिकता से! यह मुझे राज्यमंत्री लोकेश झा या दिलीप जैसे दरिंदों के हाथ में पड़ जाने से बेहतर लग रहा था। इसमें स्नेह भी झलकता था। हो सकता है इसमें दोनों को एक-दूसरे का फायदा नज़र आता था। पर यह बिल्कुल व्यापार नहीं होता। कुछ न कुछ लगाव भी रहता है। लगाव के साथ-साथ कहीं-कहीं लक्ष्य भी एक होता है। क्या इसे व्यवहारिकता नहीं कहा जा सकता? शायद हाँ! इसे समझौता भी कह सकते हैं। पर समझौता किससे? इसे मंत्रामुग्धता की पराकाष्ठा भी कह सकते हैं। जब कोई औरत या पुरुष किसी ऐसे व्यक्तित्व की प्रेमाभिव्यक्ति से अपने को गौरवान्वित समझे। कुछ भी हो सकता है यह। पर प्रायः ऐसा होता है और शायद आज तक यही होता आया है। सभ्यता का पूरा इतिहास ऐसे समझौतों, विरोधों और गौरवानुभूतियों या अपराध-बोधों का दस्तावेज़ है। मातृसत्ता की समाप्ति के बाद बाद से औरतों की पूरी जिंदगी इन समझौतों के स्वीकार या नकार की ही रही है। ऐसे संबंध, जहाँ कोई उन्हें सरल-सुलभ प्राप्य वस्तु मानने लगे तो उनके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाती है, तब वे उसे नकारती हैं। पर सहमति से बने संबंध को प्रेम भी कह सकते हैं। भले समाज उन्हें व्यभिचार की श्रेणी में रखता है। असहमति जरूर बलात्कार बन जाती है।
आगे जारी