आज चुनाव है

अनिता भारती


अनिता भारती साहित्य की विविध विधाओं में जितना लिखती हैं , उतना ही या उससे अधिक सामाजिक मोर्चों पर डंटी रहती हैं – खासकर दलित और स्त्री मुद्दों पर. स्त्रीकाल का दलित स्त्रीवाद अंक ( अंक देखने के लिए दलित स्त्रीवाद अंक पर क्लिक करें ) इन्होंने अतिथि सम्पादक के रूप में सम्पादित किया है और दलित स्त्रीवाद की सैद्धंतिकी की इनकी एक किताब, समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध प्रकाशित हो चुकी है. कविता , कहानी के इनके अलग -अलग संग्रहों के अलावा बजरंग बिहारी तिवारी के साथ संयुक्त सम्पादन में दलित स्त्री जीवन पर कविताओं , कहानियों के संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं. अनिता भारती दलित स्त्री जीवन और आलोचना की किताब भी सम्पादित कर रही है. सम्पर्क : मोबाईल 09899700767.

( अनिता भारती का यह व्यंग्य कम से कम लेखकों को अपने आस -पास घटती सच्चाई सा  लग सकता है , इसलिए संपादक की ओर से यह डिस्क्लेमर जरूरी हो गया है कि किसी को यदि अपने आस -पास के किसी शख्स की झलक इसमें मिले तो उसे वह गैरइरादतन मान लें  . कम से कम इतना तो जरूर मान ले कि हमारे संपादक मंडल की इसमें कोई भूमिका नहीं है . )

घनघोर  पढाकू लेखक संघ यानि “घपले संघ” की मीटिंग   तय होने में करीब साल भर का समय लग गया। मीटिंग जनवरी के शुरुआत में होनी थी और हो पा रही है अब दिसम्बर में जाकर, जब साल की सांस टूटने वाली है। टूटती सांस की यह डोर बेचारे घपले संघ के महासचिव ने बडी मुश्किल और जतन से कसकर पकड़ रखी थी। वह जब भी “घपले संघ” की मीटिंग की तारीख तय करने की कोशिश करते तभी कोई ना कोई सदस्य लेखक उस तारीख के विरोध में अपनी टंगडी मार देता। अब टंगडी मारने की बात तो यह है कि हमेशा से साहित्य में एक दूसरे को टंगडी मारने और मारकर गिराने की अदा और कला का बडा महिमामंडन होता रहा है यहां तक की इसको एक अति उत्तम कला की श्रेणी में भी रखा गया है। उदाहरण के तौर पर इस टंगडी मार कला पर बने कई आधुनिक नारे मुहावरे लोकोक्तियां गीत प्रगीत मुक्तक इसकी जीती जागती मिसाल है मसलन “जिसने जितनी टंगडी मारी उसका पलड़ा उतना भारी” और “जब सैया भये टंगडीबाज तब डर काहे का” “तेरी प्यारी प्यारी टंगडी को किसी की नजर ना लगे” और जब कोई हिन्दी का गरिष्ठ टाईप का वरिष्ठ टंगड़ीमार लेखक अभिताभ बच्चन के ईस्टाईल में छोटुकुआ लेखक से गरज धरज कर कहने लगे“ मेरे पास गाडी है बंगला है कार है तेरे पास क्या है?” तब बेचारे छुटुकुआ टंगडीबाज लेखक का एक ही उत्तर होता है-“मेरे पास मेरी टंगडी है ”।

यदि आप लेखन कला के साथ साथ टंगडी मार कला में भी पारंगत हो और आपके पास यह चतुरता भरी समझ हो कि कब किसको किस मुद्रा में, किस समय टंगडी मारनी है तो निस्संदेह आप टंगडी माँ की कसम आप आज नही तो कल सब स्थापित सिद्धहस्त लेखकों को पीछे छोडकर कही ना कहीं किसी ना किसी महत्वपूर्ण पद हथिया लेगे या फिर किसी अकादमी- बोर्ड के कुलपति मठपति चैयरमैन तो जरुर बन जाएंगे। वैसे टंगडी मारने का कोई समय नही होता ना ही कोई मुहर्त निकलवाना पडता है और ना ही इसके लिए कोई जगह नियत होती है. इसके लिए तो बस सही समय पर सही मौके की तालाश होनी चाहिए। ऐसे ही एक बार एक बार की बात है कि एक टंगडीमार लेखक को जब अपने नजदीकी सूत्रों की टंगडियों की जानकारी से पता चला कि उसके एक बहुत प्रिय कवि दोस्त को उसकी सुंदर मुस्कुराहट के कारण एक अकादमीय पुरस्कार मिलने की घोषणा होने वाली है तो वह टंगडीमार लेखक इस घोषणामात्र की आशंका से ही दहल उठा. उसे अपनी कमीज से ज्यादा उसकी कमीज सफेद दिखाई देने लगी. अपनी इस सफेदी को जमाएं रखने के लिए उसने अपने कवि दोस्त की उस समय की प्रेमकहानी का किस्सा, जब उसके दूँध के दांत टूटे भी नही थे, ना जाने कहां से खोद डाली और उसके इस छिपे राज को बडी भयानकता से उजागर कर ऐसी मासूम सी टंगडी मारी कि बेचारे कवि महोदय को ना केवल पुरस्कार से वंचित होना पडा बल्कि पुरस्कार बॉडी को खुले मैदान में आकर उक्त कवि के नाम चयन करने का स्पष्टिकरण के साथ साथ सार्वजनिक माफी भी मांगनी पडी।

लेकिन हर बार ऐसा नही होता क्योंकि कई बार पासा उल्टा भी पड सकता है. यह उल्टे पुल्टे पासे फेकने में महारथ हासिल टंगडीबाज कभी कभी किसी के मुँह में पूरे ठूँसे जा चुके चांदी के चम्मच को उसके मुँह से खसोटकर अपने मुँह में डालकर पूरी तरह ढकारने में कामयाब होते देखे गए है।ऐसे ढकारी टंगडीमार महारथ हासिल किसी लेखक को अपने रसूख और टंगडीमारने की कला की विशेषज्ञता के कारण अक्सर कोई बडा पुरस्कार झटक लेते है फिर या सोने के अंडे देने वाली मुर्गी की तरह किसी बोर्ड, अकादमी या फाउंडेशन का चैयरमैन बन बैठते है। ऐसी स्थिति में उन्हें सबसे ज्यादा खतरा अपने किसी बेहद करीबी टंगडीमार से ही होता है। ऐसे में यह टंगडीमार लेखक समझदारी दिखाकर टंगडी मारने वालों को महीने भर पहले से शराब कबाब और शबाब का लालच देकर या मिलने वाले पद के सदुपयोग से डेंडरों-वेंडरों को दिलाकर या कोई किताब छपवाने का पक्का वादा करके रास्ते से उनकी टंगडी हमेशा के लिए हटवाने में सफल हो सकता है..
कई बार देखने में ऐसा भी आता है कि जब कोई लेखक सही समय पर टंगडी ना अड़ाकर जब तब देखो टंगडी अड़ाने बैठ जाता हो तब समझो उस बेचारे लेखक को टंगडीमार नामक लाईलाज बीमारी हो गई है। यह बीमारी तब और भयानक रुप धारण कर लेती है जब लेखक की कलम से स्याही चुक जाती है, मुगालता यह रहता है कि उसके कलम में स्याही की नदी बह रही है। कहीं कहीं से चुराए शब्द दूसरों से चुगली चपाटी की विनती करने लगते है.  यह बीमारी कभी भी कहीं भी और किसी में भी हो सकती है. इसके कोई खास लक्षण तो नही होते पर इस बीमारी में आदमी रात-दिन झींकता रहता है। उसे चारों तरफ से चिडचिडाहट घेर लेती है। कमाल तो यह कि उसे दूसरे की थाली में ज्यादा घी नजर आने लगता है. कभी कभी तो टंगडी मारने वाले को टंगडी मारने की इतनी आदत हो जाती है कि वह रात को सोते समय भी खटिया पर भी अपनी टंगटी मारता रहता है. ऐसा टंगडीमार आदमी जीवन भर एक टांग चलने के लिए रखता है और दूसरी टांग हमेशा अडाने के लिए रखता है. देखने में हमेशा यही आता रहा है कि जो लेखक जितना बडा अडंगीबाज होता है वह उतना ही प्रख्यात होता है. टंगडीमार कला की बढती लोकप्रियता और उपयोगिता को देखकर कई विश्वविद्यालयों के कुलपति-अधिपति, मेंटर-सेंटर, गाईड-सफाईड और उससे जुडे महान कवि लेखक आलोचक साहित्यकार तो अपने-अपने प्रिय शिष्यों को इस कला में पी.एच.डी की डिग्रियां भी देने लगे है. इन कुलपतियों और साहित्यकारों से मिले उच्च कोटि के मार्ग दर्शन से इनके शोधार्थी लेखक  टांग की अडंगी के साथ साथ अब हाथ कान नाक जीभ सबकी अडंगी मारने में एक्सपर्ट हो रहे है. आगे चलकर ये एक्सपर्ट शोधार्थीं अपने द्वारा किए गए शोधों की पूरी तरह अर्थी निकाल कर समाज के लिए एक अच्छे टांगडीबाज सिद्ध होते है.

खैर सौ बातों की एक बात तो यह कि जब भी घपले संघ की बैठक तय होने के कागार पर होती तभी कोई ना कोई लेखक किसी ना किसी तरह से अपनी टंगडी अड़ाकर अपने होने के महत्व दिखा देता और यदि यह कारण नही होता तो घपले संघ के किसी ना किसी लेखक को अचानक कोई ना कोई काम या उसपर किसी ना किसी तरह की मुसीबत आन पड़ जाती। अब चूंकि सारे घोषित नास्तिक लेखकों का संघ था, इसलिए संघ को लेखक संघ ठीक से चले इसलिए हवन तो करवा नही सकते थे और ना ही गीता का अखंड पाठ रख सकते थे, हां इन लेखकों के घर की बात और थी, घर पर यह सब चल सकता था क्योंकि यह उनके घर का व्यक्तिगत मामला है। और फिर घर के और सदस्यों की इच्छा आस्था श्रद्धा भी तो कोई चीज है। उसमें किसी को भी टंगडी मारने का कोई अधिकार नही है। जब घपले संघ का पिछले साल चौथी बार पुनर्गठन हुआ था तो जपले संघ से जुडे सभी सदस्य लेखकों ने आपसी सहमति से एक महत्वपूर्ण शर्त बनाई थी कि संघ के सैंद्धांतिक वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, खींचतान-पटकतान वाली महत्वपूर्ण मीटिंग में सभी सदस्यों का एकत्रित होना बहुत जरूरी है, अब यही शर्त सबके गले की हड्डी बन गयी है, अब इस शर्त को भी खत्म करने के लिए सभी सदस्यों का पूरी संख्या में एकसाथ इकट्ठा होना जरूरी था, पर महासचिव के बार-बार पूछने पर संघ के सदस्य हमेशा किसी ना किसी काम में व्यस्त होते थे।

जनवरी में मिस्टर शाह अपने इकलौते पुत्र के पास लंदन जा रहे थे, तो फरवरी में नुसरत बेगम की बेटी का निकाह था। निकाह पर सब एक साथ मिले जरूर पर भई शादी में मीटिंग थोडी हो सकती है। मार्च में मिस्टर जैन के उपन्यास का विमोचन था तो उनको पूरा मार्च अपने उपन्यास को लेखक, पत्रकारों और आलोचकों तक पहुँचाने के लिए चाहिए था। अप्रैल में मिस्टर आहलुवालियाँ के पोते का मुंडन था, वे अपने पोते के मुंडन को बडे धूमधाम से मनाना चाहते थे, इसलिए उन्हे बड़े स्तर पर कार्ड बांटने थे, इस अवसर पर भी सब मिले पर भला बच्चे के मुंडन के शुभ अवसर पर क्या सबको घपले संघ की मीटिंग शोभा देती है ? इसलिए अप्रैल भी हाथ से निकल गया। मई जून में पड़ने वाली गर्मी के बारे में क्या कहें। इसबार गर्मी कुछ ज्यादा ही पड़ रही थी, जो संवेदनशील मन वचन आत्मा वाले लेखक सदस्यों के लिए बर्दास्त के बाहर थी। इसलिए घपले संघ के अधिकांश सदस्य गर्मी से बचने के लिए कहीं कहीं जाकर दुबक गए। कुछ देश के हिल स्टेशनों पर चले गये तो कुछ विदेशों में अपने रिश्तेदारों के यहां पहुँच गए। जुलाई में बारिश के मौसम में भला कौन कमबक्ख्त बाहर निकले ? बारिश का जो मजा घर में लैपटॉप पर फेसबुक देखते हुए श्रीमति के हाथ के गर्मागरम चाय पकौड़े खाने में है वो क्या खाक दिल्ली की कीचड भरी सड़कों को रौंदते हुए मीटिंग में जाने पर होगा ? अगस्त का महीना देशभक्ति की भावना प्रकटन का होता है। इसलिए अगस्त में कई लेखक कवि देशभक्ति जगाने वाली काव्य गोष्ठियों में शामिल होते है और ऐसी काव्य गोष्ठियां पूरे महीने चलती है। इसलिए अगस्त को तो हमेशा के लिए देशभक्ति के नाम पर छोड़ दिया गया है। सितम्बर में वायरल, डेंगू, चिकनगुनिया का ऐसा प्रकोप फैला था कि एक सदस्य उसके चपेट में आते आते बचे। यहाँ भी सब इकठ्ठे हुए पर मरीज के पास अस्पताल के अंदर मीटिंग कैसे होती? अक्टूबर में फिर कमबख्त छुट्टियाँ आ गई। इस बार महासचिव ने चिढ़कर कह दिया – देखो 2 अक्टूबर का दिन बड़ा महान दिन होता है। इस समय पूरे देश में मिटिंग का जरुरी माहौल होता है, इसी का फायदा उठाते हुए हम मीटिंग भी कर लेगें और गांधी जी को भी याद कर लेगें, और सरकार को एक प्रैस रीलिज भी थमा दे देगें।

आखिर वो दिन आ ही गया जब घपले संघ की मीटिंग में सब सब लोग उपस्थित थे। सबके काम निबट चुके थे। संघ के महासचिव ने सदस्यों को संबोधित करते हुए कहा -” बड़ी मेहनत और जतन के बाद आज हम सब एक साथ मीटिंग में एकत्रित हो पाएं है। बहुत सारे काम हमारे सिर पर है और बहुत सारे निर्णय हमें लेने है. जिसमें सबसे पहला काम हमें अपना सालाना वार्षिक अधिवेशन आयोजित करना है। अधिवेशन के लिए वक्ता तय करने है। अधिवेशन के सत्रों की अध्यक्षता करवाने के लिए तरह तरह के अध्यक्ष तय करने है. काम इतना अधिक है और हमारे पास समय बहुत कम है। आप सभी इस कार्यक्रम के संदर्भ में अपना अपना मत रखें।   महासचिव का बोलना बंद करते ही एक नव लेखक सदस्य ने कहा- यदि आप सब की अनुमति हो तो मैं अधिवेशन के प्रथम सत्र के मंच संचालन का भार वहन करना चाहता हूँ। नवलेखक को चतुराई भरी दंबगता से बोलते देख एक वरिष्ठ लेखक रुआब से बोले हम घपले संघ के सबसे पहले फाउंडर सदस्य है, इसलिए हमारा भी कुछ फर्ज बनता है इसी फर्ज की खातिर इस बार के अधिवेशन में एक सत्र की अध्यक्षता हम भी कर लेगे। कुछ सदस्यों ने वरिष्ठ लेखक की भार वहन की अनुमति की सहमति पर मुहर लगाने के लिए अपना सिर तीस तीस डिग्री पर हिलाना शुरु कर दिया। वरिष्ठ सदस्य की मांग मानी जाती देखकर सभा में बैठे एक युवा टंगडीबाज को वरिष्ठ लेखक सदस्य का पलड़ा भारी होते दिखा जो उस युवा टंगडीबाज के लिए नाकाबिले बर्दास्त था। उनके दिमाग में तुरंत एक आईडिया कौंध गया और वह सबके सामने हाथ जोडकर खडा होते हुए बोले- यह बडी अच्छी बात है यहां बुजुर्ग साथी को मंच पर बैठाने की सहमति बन रही है. मैं भी मानता हूँ कि हर किसी को एक दम बराबर सामान अवसर मिलने चाहिए। संस्था में लोकतन्त्र होना चाहिए। लोकतन्त्र में राजा प्रजा बराबर होते है । बुजुर्ग जवान बराबर होते है। मुझे लगता है हमें मंच बनाने और उसपर कुछ गिने चुने अपने में से ही कुछ साथियों को श्रेष्ठ बनाने की परंपरा अब तोड़ देनी चाहिए। हमें सभा अधिवेशन सम्मेलन और सेमिनार जैसे आयोजनों के मनाने के और विकल्प खोजने होगें। एक तरीका है मेरे पास कि इस तरह के सारे आयोजन सीधे जमीन पर गोल घेरे में बैठकर करने चाहिए। इससे हमें दो बडे फायदें होगे। पहला तो यह कि हम जमीन पर बैठे बैठे सीधे अपनी देश की मिट्टी से भी जुडे रहेगे और दूसरे ऐसे में सत्र का अध्यक्ष ही क्यों संघ के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, और संघ के सभी सदस्य भी एक साथ मंच पर बैठने का आनंद ले सकगे। अगर आप सब इस बात से सहमत है कि सारी सभाएं और अधिवेशन जमींन पर होने चाहिए तो मैं इस पर अभी तुरंत प्रस्ताव बनाकर सबके सामने प्रस्तुत कर देता हूँ।

युवा टंगडीबाज साथी की बातों से सभा में हर्षोउल्लास की लहर दौड गई। सबके चेहरों पर खुशी के पटाखे फूटने लगे। सब एक साथ मंच पर, ना कोई छोटा ना कोई बडा, यही सच्चा समाजवाद, मार्क्सवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद और नारीवाद है। अब बोलने की बारी सचिव महोदय की थी। सचिव महोदय ने युवा टंगडीबाज की बात को आगे बढाते हुए कहा मुझे भी सबको बराबर करने का एक उपाय सूझा है यदि आपकी सहमति हो तो उसे भी प्रस्ताव के रुप में आज पास किया जा सकता है। प्रस्ताव यह है कि घपले संघ में कुल चौबीस सदस्य है। एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष एक महासचिव, दो सचिव और एक कोषाध्यक्ष है। बाकी सब सामान्य सदस्य है। ऐसे में संघ श्रेणीबाज लगता है। जब हम श्रेणियां तोडेगे तभी संघ में सच्ची समानता आयेगी। हम घपले संघ में शामिल चौबीस लोगों को बराबरी पर लाने के लिए पदों का बराबर बंटवारा कर लेते है। संघ में चार अध्यक्ष चार उपाध्यक्ष, चार महासचिव, चार सचिव, चार संगठन प्रवक्ता और चार कोषाध्यक्ष रहेगे। घपले संघ में तीसरा प्रस्ताव रखा गया कि जब भी कोई सभा होगी तो कोई घपले संघ के सभी पदाधिकारी ही वक्ता होगें श्रोता कोई नहीं होगा। सभा के अन्त में घपले संघ के अध्यक्ष ने क्रांतिकारी भाषण देते हुए कहा कि- आज से हम एक क्रान्तिकारी युग की शुरूआत करने जा रहे हैं जब हमारा लेखक समाज सच में लोकतंत्रात्मक मूल्यों की रक्षा करने वाला प्रहरी बन रहा है तो इसके प्रहरी बनने का श्रेय भी हाथ बढाकर हमें ही ले लेना होगा। सृष्टि बनाने वाले ईश्वर ने इंसान के कान बनाकर बड़ी गलती की। उसे सिर्फ इंसान की जुबान बनाने की की जरूरत थी। यों अगले आने वाले वर्षों में हम लोकतंत्र के सजग प्रहरी के रुप में साहित्य-समाज में इंसान की ऐसी स्पीशीज विकसित करने की कोशिश करेगे जिनके पास सिर्फ और सिर्फ जुबान और आँख ही हो। यह कहकर अध्यक्ष ने अपना अध्यक्षीय वक्तव्य समाप्त कर दिया। इसके बाद संघ के सब लोग इस खुशी में उछलते-कूदते घर पहुँचे कि अब वे हमेशा मंच पर ही बैठेगें। उन्हे सिर्फ बोलना-देखना ही है, सुनने की जरुरत बिल्कुल नही है।

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ISSN 2394-093X
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