साहित्यिक -सामाजिक संगठन फर्गुदिया की संस्थापक ‘संचालक शोभा मिश्रा कवितायेँ और कहानियां लिखती हैं. ये सक्रिय ब्लॉगर के रूप में सम्मानित हैं और दिल्ली में रहती हैं. संपर्क : shobhamishra789@gmail.com
( शोभा मिश्रा की लम्बी कहानी दो किश्तों में )
अपने होने की अनुभूति से अनभिज्ञ जब उसने अपनी कोमल गुलाबी पंखुड़ियों सी पलकें हलके से ऊपर उठाईं तो नारंगी क्षितिज को मंत्रमुग्ध-सी निहारती रही, स्वर्ण सी दमकती बादलों की मुलायम रुई की मंडलियाँ एक दूसरे से गुँथी हुई बहुत नजदीक उसके गालों को अपने स्पर्श से गुदगुदा रही थीं।नन्हे पाँव के नीचे गीली रेत की गुदगुदी उसके हृदय और रोम रोम को उमंगों से भर रही थी, ठंडी नदी की धीमी लहरें बार-बार पाँवों में पायलों का आकार दे रही थी, ठंडी बूँदों की रुन-झुन कानों से होती हुई मस्तिष्क की शिराओं को विषाद से मुक्त कर ब्रह्मांण विचरण का आभास दे रही थी। देवदार के वृक्षों से ढँकी विशाल पर्वत श्रृंखला को वो अपनी नन्ही बाहों में समेट लेना चाहती थी। इन्द्रधनुष के सभी रंगों से सजी क्यारियाँ, फूलों की पंखुड़ियों पर इतराती तितलियाँ उसकी आँखों में सभी रंग भर दे रहीं थी।तभी अचानक पाँवों के नीचे की गीली नरम रेत पथरीली होती गई, पाँव में पायलें बनती ठंडी लहरें सख्त बेड़ियाँ बनती गईं।अपने रंगों, ख्यालों, उमंगों के आसमान में विचरती उन्मुक्त चिरैया सी वो लगातार उड़ती रहती… मोर के सतरंगी, इन्द्रधनुषी पंखों के रंगों से कभी नदी, झरने, पहाड़वाली सीनरी बना देती तो कभी फूलों पर रंग-बिरंगी तितलियाँ…लेकिन रूढ़िवादी परम्पराओं की सुनहरी कैद से वो अक्सर सहम जाती… समय से पहले पंखों के आने से पहले उसके लिए एक अलग पिंजरा तैयार करने की बातें की जाने लगी।
कुछ ही दिनों बाद उसकी बुआ की शादी थी। पूरा घर मेहमानों और रिश्तेदारों से भरा हुआ था। कुछ रिश्तेदार छोटी छोटी मंडली बनाकर बैठे थे, हँसी-मजाक कर रहे थे, कुछ नीचे बिछे गद्दे पर आराम फरमा रहे थे। हँसी मजाक और काम की बातों के साथ पूरे घर में हलके शोर के साथ मेले जैसा माहौल था।सुनैना स्कूल से लौटी। बैठक के बाद चाची के कमरे से गुजरते हुए रसोई की तरफ बढ़ गई। रसोई में अम्मा और चाची सबको खाना परोसने में लगीं थी, दादी…बुआ…अम्मा…चाची…दीदी मिलकर एक और ब्याह रचाने के लिए पंचायत बैठाये हुए थीं। दादी खाना खा रही थीं। सुन्दर सी बुआ के सर पर खूब तेल चुपड़ा हुआ था। शरीर और कपड़ों पर हल्दी का पीलापन साफ दिख रहा था, बुआ भी कोने में बैठी खाना खा रही थीं, मौसी खाना खाने के लिए अपनी बारी के इंतजार में थीं।
वह स्कूल का बस्ता पीठ पर लादे रसोई के दरवाजे पर खड़ी हो गई, उसे देखकर अम्मा और चाचीजी एक दूसरे की तरफ देखते हुए सहमकर चुप हो गईं। चाची और अम्मा जानती थी कि वह अपने ब्याह की बात सुनकर नाराज होती है, उसकी आँखें किसी को ढूँढ़ रही थीं, जैसे ही उसे गुडुआ नजर आया उसने उससे पूछ ही लिया…
‘‘ए गुड्डू … नानीजी कहाँ हैं रे? वो खाना खाईं की नहीं?’’
गुडुआ अपने में मस्त था। ‘‘हमको का पता… होंगी यहीं कहीं’’, कहकर बाहर भाग गया।
‘‘होंगी कहाँ…बैठी होंगी कहीं कोने में छिपकर… सुहागिनों के साथ बैठेंगी तो उनके सुहाग न उजड़ जाएंगे …वो तो हमारी अम्मा का मन था इसलिए नानीजी को शादी पर बुलवा लीं…नहीं तो बिटिया के घर बैठकर खाने में पुरानी सोच की हमारी दादी कम हंगामा नहीं करतीं…नानी और अम्मा को जीने नहीं देती दादी’’ वो भुनभुनाती हुई स्टोररूम की तरफ बढ़ गई …
नानी स्टोररूम में ही थीं, अम्मा का बक्सा ठीक कर रही थीं, वह नानी को देखकर चहककर बोली… नानी!!
नानी ने आँख उठाकर एक बार उसे देखा और मुस्कुराते हुए सर का आँचल ठीक करते हुए बोली ‘‘जा बाबू… पहले हाथ-मुँह धोलो… कुछ खा लो… फिर आराम से बैठकर बतियाएँ।’’
वह मुस्कुराती हुई रसोईघर की ओर बढ़ गई, हाथ-मुँह धोकर पाटे पर बैठ गई। अम्मा और चाची से दुलराते हुए खाना माँगने लगी, चाची उसको पुचकारते हुए बड़े प्यार से बोलीं, ‘‘बिटिया… बस अम्मा (दादी) को खिलाकर तुमको और तुम्हारी मौसी को एक साथ खाना परोस देंगे।’’ वह चाची की बात पर मुस्करा भर दी, अम्मा को तिरछी निगाह से देखती रही…उसे बार-बार अपने ब्याह की बात पसंद नहीं थी…नानीजी अम्मा को कितनी बार समझा चुकी हैं कि इसके ब्याह के लिए अभी लड़का देखना बंद करो…इसको पढ़ने दो…अभी तो ग्यारहवीं ही कर रही है लेकिन अम्मा तो मान जाएँ…दादी को कौन समझाएगा।चाचीजी दादी को पंखा झलते हुए अपना राग अलापे हुए थीं, ‘‘बस्ती वाला लड़का कम पढ़ा-लिखा जरूर है लेकिन उन सबके पास गाँव में खेती और बाग-बगीचा बहुत है…लड़के का बैंकाक में बढ़िया बिजनेस है…हर छः महीने में जब गाँव आता है तो मोटी-मोटी नोटों की गड्डी अपनी महतारी को पकड़ता है…ब्याह के बाद सबकुछ हमारी बिटिया का ही तो होगा।’’
दादी लोटे से पानी पीकर बोली, ‘‘उ तो सब ठीक है लेकिन बिटिया को परदेस भेजना ठीक नहीं…अपने देश में कहीं भी रहें…कम से कम दुःख-सुख…तीज-त्यौहार में हम सब मिल तो लेंगे।’’
मौसी की निगाह में उसके लायक एक लड़का था, वो उसका बखान करने में लगीं थीं, ‘‘लड़का पढ़ने में बहुत होशियार है…कहीं न कहीं उसकी सरकारी नौकरी जरूर लग जाएगी…परिवार बहुत आधुनिक विचारधारा का है…सास बहुत मॉडर्न है… बिटिया खुश रहेगी…और सबसे बड़ी बात ये है कि बिटिया हमारे पड़ोस में रहेगी… हमारी आँखांें के सामने…और इसके पास रहने पर हमको भी आराम हो जाएगा… बीमारी-हजारी में कितनी तकलीफ होती है…अकेले घर का सारा काम करना पड़ता है…ये बिना टिफिन के ड्यूटी चले जाते हैं…कई बार बच्चों को भूखा सोना पड़ता है।’’ कहते-कहते मौसी का गला भर्रा गया…आँख से आँसू टपकने लगे…वैसे बात-बात पर रोना मौसीजी की बचपन की आदत है …नानी ने उसे एक बार बताया था।उसको बहुत भूख लगी थी ऊपर से अपने ब्याह की बात सुनकर और खाक हुई जा रही थी…लगातार चुभती हुई नजर से अपनी अम्मा को देख रही थी …अम्मा किसी को बोलने से रोक नहीं पा रही थीं और कहीं उसके सब्र का बाँध टूट न जाये … वह कोई हंगामा खड़ा न कर दे इस बात से भी डर रही थीं।
उसे मौसी की नौटंकी पर बहुत गुस्सा आ रहा था …अपने गुस्से पर भरसक काबू करते हुए मुस्कराती हुई मौसी से बोली, ‘‘काहे मौसी…जब बड़का पैदा हुआ था तब तो बुलाने पर हम आये नहीं थे का? पूरे सवा महीने तुम्हरे पास रहकर हम घर का काम सँभाले थे और एक बार तुम्हारे पैर में फ्रैक्चर हुआ था तब रिंकी (उसके मामा की लड़की) ने पूरे एक महीने तुम्हरी देखभाल की थी…जरूरत पड़ने पर कोई न कोई जाता ही है तुम्हरे पास…अपनी परेशानी का बहाना लेकर क्यों हमारी बलि चढ़ाने पर लगी हो?’’
मौसी ने फिर रोना शुरू किया और बिलखते हुए कहने लगी, ‘‘अरे हमारी किस्मत में बिटिया का सुख नहीं है… तुमको गोदी में खिलाये हैं … हमने तुमको अपनी बिटिया से कम नहीं समझा है कभी…पड़ोस में रहोगी तो वोे कमी भी पूरी हो जाएगी।’’
अब तक खाने की थाली उसके सामने आ चुकी थी, गुडुआ भी बाहर से मटरगस्ती करके आ गया था…दादी के बगल में बैठकर सारी बातें सुन रहा था…मौसी की खिल्ली उड़ाते हुए बोला, ‘‘काहे मौसी! पूरी दुनिया के लड़के तुम अपने अंचरा में बाँधे फिरती हो का …? दूसरे शहर में रहते हुए हमरे मोहल्ले की खबर थी तुमका, एक साल पहिले भी तुम दीदी के लिए हमरे मोहल्ले का लड़का देखी थी…बाद में ताऊ को उ लड़का पसंद नहीं आया…ब्याह के लिए लड़के वालन का मना कर दिया गया …ओ के बाद भी उ लड़का दीदी जब स्कूल जाती थी तो ओका पीछा करत रहे…उ तो पापा एक बार ओका कनपटीयाये तब जाके कहीं उ दीदी का पीछा करना छोड़ा, ओ के नाते दीदी स्कूल जाये से डरत रही।’’
बारह साल का गुडुआ चाची का इकलौता बेटा होने से उसको सभी का बहुत प्यार मिलता था …इसलिए थोड़ा बिगड़ा हुआ भी था…घरेलू परपंच में उसे बहुत मजा आता था… वैसे तो उसकी और गुडुआ की खूब बनती थी लेकिन जब उसे कोई डांटता था तब गुडुआ के कलेजे को बहुत ठंडक मिलती थी।बुआ ने उसकी बात सुनकर एक बार जोर से उसे डांट लगाई, ‘‘चुप हो जा गुडुआ…बड़न के बीच में तेरे बोलने का क्या मतलब?’’ गुडुआ बुआ की बात सुनकर चुप हो गया।
सुनैना सबकी बकवास और ज्यादा देर तक नहीं सुन सकती थी …थाली जल्दी से अपने आगे खींचकर कटोरी की पूरी दाल चावल के ऊपर उड़ेलते हुए अम्मा से मिर्चे का अचार माँगने लगी…वो जल्दी से खाना खत्म करके नानी के पास जाकर आराम करना चाहती थी…अम्मा अचार के साथ देसी घी का डब्बा भी लिए आईं …झट उसने अम्मा के हाथ से अचार ले लिया और घी के लिए मना कर दिया…अम्मा ने एक बार थोड़ा सा घी चावल दाल में डालने की जिरह की लेकिन उसने फिर मना कर दिया।कोने में बैठी बुआ को नाऊन उबटन लगा रही थी, उसके कान चाची और मौसी की बात सुनने में लगे थे।
दादी को सुनाई कम पड़ता था…वे लगातार बोले जा रही थीं ‘‘बढ़उ (दादाजी) के दिमाग का कौनो ठिकाना नहीं है…सुनरी बहुत पढ़ाकू बनत रहीं…बी. ए करे का चक्कर में उम्र हो गई और बढ़उ जल्दीबाजी में ठेठ देहाती से ओकर बियाह कर दिए…अब दिन-रात चूल्हा फूँकती हैं और कंडा पाथतीं हैं…अबहीं बियाहे के साल भर नाही हुआ… पेट फुलाये घूम रही हैं…पढ़ाई-लिखाई सब धरा रही गया…घर बैठे पड़ोस में बढ़िया परिवार मिल रहा है…जल्दी देख सुनकर बियाह कर दो सब।’’लगभग पैंसठ साल की दादी अपनी उम्र से दस साल ज्यादा बड़ी दिखतीं थीं, पापा और चाचा दादी के जने हैं…सुनरी और बुआ दादा के दूसरी पत्नी की बेटियाँ हैं…दूसरी दादी बहुत खूबसूरत थीं …उनके पिता पंडिताई करके घर का खर्च चलाते थे…बहुत गरीब थे …दादा बिना दहेज लिए अपने से आधी उम्र की दूसरी दादी को ब्याह लाये थे…दूसरी दादी गाँव में एक बार हैण्डपंप से पानी भर रहीं थीं…पाँव फिसल गया …सर में गहरी चोट आने की वजह से छोटी उम्र में ही चल बसी थी…बाद में बड़ी दादी ने ही दोनों बेटियों सुनरी और बुआ का पालन-पोषण किया।दादी मौसी से सहमत थी…दादी की जहर उगलती बातें सुनकर उसकी भूख वैसे ही मर गई थी …उसने अभी दो चार निवाले ही मुँह में डाले थे…वो अपने गुस्से को रोक नहीं पा रही थी…एक बार दादी की तरफ देखकर गुस्से से बोली, ‘‘लड़का इतना अच्छा है तो तुम ही काहे नहीं बियाह कर ले रही हो दादी?’’
दादी को सुनाई कम पड़ता था लेकिन उसके बोलने के ढंग और हाव-भाव से तुरंत समझ गई कि वो उन्हें ही कुछ व्यंग्य कर रही है…गुडुआ समझ गया कि दादी को कुछ सुनाई नहीं दिया …उसे तो मौका चाहिए था कि किसी तरह उसे डांट पड़े…गुडुआ दादी के कान के पास जाकर बोला, ‘‘दादी … दीदी कह रही है कि लड़का इतना अच्छा है तो तुम ही काहे नहीं बियाह कर लेती?’’कहकर गुडुआ गलहत्थी लगाकर मासूम बनकर उकडू बैठ गया और दादी गुस्से में जोर-जोर से चिल्लाने लगी, ‘‘अरे दुल्हिन… बिगाड़ो…खूब बिगाड़ो बिटिया का…जहाँ जहियें खूब नाम रोशन करिहें खानदान का…ई सब तुम्हरी अम्मा (नानीजी) का किया धरा है…रात-दिन उ स्टोर में अंचरा में छुपाये केई का जाने कौन पाठ पढ़ावा करती हैं…कुछ उँच-नीच होई ता उनका कछु न जाई…नाम डूबी हमरे बिटवा का… हमरे खानदान का…तुम और तुम्हरी महतारी मिलके सब इज्जत डुबाये दो…न जाने कौन संस्कार दे रही हो…जब नाक कटी तब पता लागी …तुम गोरी चमड़ी लेके घूँघट में रहत हो… अपने से ज्यादा गोरी चमड़ी वाली जनम के खुल्ला छोड़ दिए हो।’’
दादी एक सुर में जहर उगले जा रहीं थीं...अम्मा चुप थी…नाऊन बुआ को उबटन लगाना छोड़कर धीमी आवाज में दादी का पक्ष लेते हुए उसे ही उपदेश दे रही थी…‘‘ना बिटिया… दादी का कोई अईस कहत है… बिटियन के शादी-बियाह समय रहिते हो जाए तो तसल्ली होए जात है… बढ़िया परिवार मिली रहा है… पढ़ा-लिखा लरिका है… कौनो बुराई नाही है बियाह करे में।’’ इस बार वह अपने गुस्से को रोक नहीं पाई…उसका खाना अभी पूरा खत्म नहीं हुआ था …वह जोर से चीखकर बोली, ‘‘अम्मा और नानी को काहे कोस रही हो दादी… अंश तो तुम्हारे दुलारे बेटवा की ही हूँ…जब वो अम्मा को पीटते हैं…गन्दी-गन्दी गाली देते हैं…तब तुम्हरी जुबान को लकवा मार जाता है का …? तब तो खूब मजे लेकर सुनती हो…हमने ऐसा क्या कह दिया … काहे तुम सब अभी से हमरे बियाह के पीछे पड़ी हो…? अपने काम से काम काहे नहीं रखती?’’
गुडुआ सुनैना का गुस्सा और घर झगड़ा होते देखकर कुछ डर जरूर गया लेकिन उसको डाँट सुनवाने के उसके मनसूबे कम नहीं हुए थे…वह दादी की तरफ एक बार फिर बढ़ा…उसका कहा उनके कान में दोहराने के लिए…इस बार बुआ जल्दी से आगे बढ़ी और दो चाँटे लगाकर गुडुआ को बाहर का रास्ता दिखा दिया…बाहर जाकर गुडुआ रो रहा था।
इस बार दादी उसकी सारी बातें सुन चुकी थीं क्योंकि उसने गुस्से में लगभग चीखते हुए ये बातें कही थी …अब दादी तेज आवाज में उसे गन्दी गालियाँ दे रही थी…अभी उसकी थाली में आधा खाना वैसे ही बचा हुआ था…वो झटके से थाली अम्मा की ओर सरकाकर खड़ी हो गई…दादी की जली कटी सुनते हुए उन्हें लगातार घूर रही थी…उसने अपनी मुट्ठियाँ कसकर भींच रखी थी और गहरी-गहरी साँसें ले रही थी…उसका चेहरा गुस्से से लाल हो गया था…वह भरसक प्रयास कर रही थी कि सबके सामने न रोये। वहाँ सभी उसके अपने थे लेकिन किसी के भी सामने रोना वह अपना अपमान समझती थी।अम्मा दादी को कुछ नहीं कह सकती थीं…वो सुनैना को समझाने आगे बढ़ीं लेकिन अम्मा को अपनी तरफ बढ़ता देख वो पाटे को जोर से लात मारकर भागती हुई स्टोररूम की तरफ बढ़ गई…
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अप्रैल की दोपहर में कुछ रिश्तेदार फर्श पर चटाई और चद्दर बिछाकर सो रहे थे कुछ रसोईघर का शोर सुनकर उसी तरफ उत्सुकता से देख रहे थे…वह सोये हुए रिश्तेदारों को बचाकर उन्हें फांदती हुई आगे बढ़ी जा रही थी…गाँव से आये कुछ रिश्तेदार शिकायती लहजे में उसे ही घूर रहे थे… उसका मन हो रहा था कि उन्हें कुछ बढ़िया सुना दे…कोई तमाशा तो हो नहीं रहा था जो कान लगाकर सुन रहे थे और अब टकटकी लगाये देख रहे हैं।स्टोररूम के पास पहुची तो देखा नानी जी कुछ बदहवास सी उसकी तरफ ही भागी आ रही हैं…उन्होंने पाटा दीवार से टकराने की आवाज सुन ली थी…शायद दादी और उसका शोर भी…नानी को देखकर वो कुछ देर के लिए ठिठक गई…वो उनसे लिपटकर खूब रो लेना चाहती थी…मन का सारा गुबार निकाल लेना चाहती थी लेकिन आँखों में आँसू भरकर क्षण भर को उन्हें ऐसे निहारती रही…मन और आँखों में भारी बादलों का गुबार छिपाए शिकायत करती रही…मजबूर नानी अपनी दुलारी नतनी के मन का दुःख खूब समझ रही थी…अपने भविष्य को केनवास पर उतारनेवाली लाडली को आज वो असहाय देख रही थी…उसके भविष्य के सारे रंग जैसे उसी के आँसुओं में धुले जा रहे थे!
वह याचक निगाहों से नानी को देखती आगे बढ़ गई और स्टोररूम में एक कोने में धम्म से बैठ गई…नानी उसके पास आकर उसके सर पर हाथ फेरने लगी…नानी का स्पर्श पाकर उनकी गोद में लुढ़क गई…उनकी सूती साड़ी मुँह में ठूसकर फूट-फूट कर रो पड़ी…सब्र का बाँध टूट गया था…आँसू सैलाब बनकर बह निकले थे…सर नानी की गोद में छुपाकर वो नन्ही बच्ची की तरह दोनों घुटने मोड़कर सीने और पेट से सटाकर अपने आप में दुबक गई।
‘‘ना रो हमार बाबू…ना रो हमार बाबू,’’ कहकर नानी उसका चेहरा ऊपर करके उसके आँसू पोछने का प्रयास करती रही…नानी की आँखें भी भर आईं थी…सुनैना की हिचकियों में उलझे आधे-अधूरे शब्द नानी समझ रही थी, ‘‘ये सब जब इकट्ठी होतीं हैं मेरे ब्याह की बात क्यों करती रहतीं हैं…बुआ की शादी है सब खुश हैं लेकिन हमारे सर पर फिर वही बोझ ब्याह का…अब तो मौसी और चाची को एकसाथ देखकर डर लगता है…दादी कितना बेइज्जती की तुम्हारी और अम्मा की … तुम रसोईघर में सबके साथ बैठकर खाना क्यों नहीं खाती?’’नानी खुद भी रोती रहीं और उसके आँसू पोछती रहीं …सर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘‘उनको बियाह की बात करे दो… आज ई कोई नई बात तो ना है…पिछले दो साल से तुम्हरे लिए सब लड़का देख रहे हैं…अबहीं तक कहाँ कोई तय हुआ? तुम बिलकुल चिंता ना करो।’’ उसका मन कुछ शांत हुआ…नानी ने उसे प्यार से अपनी गोद से उठाया और खुद खड़ी होने लगीं…नन्ही बच्ची की तरह वो नानी का हाथ पकड़कर बोली, ‘‘कहाँ जा रही हो नानी?’’
‘‘बैठो आराम से…अभी आ रही हूँ,’’ कहकर सर का पल्लू ठीक करती हुई नानी दबे कदमों से रसोई की ओर बढ़ गई…घर में अब बिलकुल शांति थी…बस कूलर और पंखों के चलने की आवाज सुनाई देर ही थी।
कुछ देर में नानी प्लेट में खाना और लोटे में पानी लेकर आईं…कंधे पर सीधे पल्ले का आँचल ठीक करती हुई बैठ गई…अपनी हथेली में थोड़ा पानी लेकर उसका चेहरा और आँख भिगो दिया और अपने आँचल से पोंछकर बोली, ‘‘उठो बाबू अब कुछ खा लो।’’थकान और उदासी से अब उसे नींद आ रही थी…वो उँ$घती हुई बोली, ‘‘नहीं नानी… हम खा लिए हैं … अब नहीं।’’
नानी उसको दुलारती हुई बोली, ‘‘नहीं…हमको मालूम है हमारे बाबू को बहुत भूख लगी है… बाबू हमारे हाथ से खाना खाएगी।’’ कहकर नानी प्लेट में दाल-चावल और मिर्चे का अचार अपने हाथ से मिलाने लगी और फिर एक कौर बनाकर अपने हाथों से उसे खाना खिलाने लगी…पहला कौर खाते ही वो कुछ शिकायत करती हुई बोली, ‘‘घी क्यों डाल दी?’’नानी दूसरा कौर उसके मुँह में डालकर मुस्कराती हुई बोली ‘‘हमार बाबू घी नहीं खाई ता दूसरे घरे जाके आपन काम कैसे करी?’’ वो थोड़ा नाराज होकर नानी से बोली ‘‘नानी…तुम भी?’’
नानी वैसे ही मुस्कराती हुई बोली ‘‘अरे नहीं बाबू हम तो मजाक कर रहे हैं…अभी तो तुमको बहुत पढ़ना है… सयानी, होशियार बिटिया बनना है…और तुम्हरी पेंटिंग और सीनरी एक एक करके खूब बिक रही है…उसकी एक दिन प्रदर्शनी भी लगेगी…हमरी बिटिया का खूब नाम होगा।’’
नानीकी बातें सुनकर वह खुश हो रही थी...उसका पेट भी अब भर चुका था…उसने नानी को अब और खिलने से मना करते हुए सोने के लिए कहा…प्लेट में अब दो चार कौर खाना ही बचा था…नानी उसको पुचकारते हुए बोली, ‘‘बस ई चार कौर अब खतम कर लो’’ कहते हुए नानी ने प्लेट में चार अलग अलग कौर बना दिए…उसने फिर भी मना किया की अब उसे नहीं खाना है, नानी प्लेट के चार कौर उसे दिखाते हुए बोली ‘‘देखो तो ये किसका किसका कौर है… एक तुम्हरी अम्मा का…एक चाचा का … एक अतवरिया का और एक’’। इससे पहले कि नानी आगे एक और नाम लेतीं वो मुस्कराती हुई बोली पड़ी ‘‘एक तुम्हारा।’’ नानी उसकी ओर कौर बढ़ाती हुई बोली … ‘‘नहीं …ये एक तुम्हरी प्यारी दादी का।’’ उसने थोड़ा नाराज होती हुई कौर खा लिया। नानी उसे समझाती रहीं, ‘‘देखो बाबू…दादी तुम्हरे हित के लिए ही कह रही हैं…वो तुमसे बहुत प्यार करती हैं…शादी की बात कर रही हैं तो करने दो … इतनी जल्दी कहाँ लड़का मिलनेवाला है!’’नानी उसे समझाती रही और उसे माथे पर स्नेह से हाथ फिराती रही…माथा सहलाते- सहलाते नानी ने उसकी दोनों गुथी हुई चोटियाँ खोल दीं और बालों में उगलियाँ फिराती रही… टेबल फैन की हवा और नानी की गोद की ठंडक पाकर वो गहरी नींद में सो गई…नानी भी बैठे-बैठे उसका सर गोद में लिये हुए एकतरफ बिस्तरों के ढेर पर लुढ़क गईं!
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आज उसकी बुआ की शादी थी…रात के आठ बजे दुल्हन बनी बुआ स्टोररूम में बैठी थी…बुआ की सखी-सहेलियाँ और मोहल्ले की कुछ औरतें उन्हें घेरे खड़ी थीं! इधर सुनैना की मौसी न जाने क्यों उसके आस-पास ही मंडरा रही थीं…आज मौसी ने उसे अपनी पीली साड़ी पहनाकर उसका हल्का शृंगार भी किया था…इकहरे बदन की छरहरी …गोरी सुनैना पीली सितारोंवाली साड़ी में लिपटी जब आईने के सामने खड़ी हुई तो कुछ देर के लिए अपने ही रूप पर मुग्ध हो गई…फ्रॉक और स्कूल की युनिफॉर्म में वो खुद को नन्ही बच्ची या विद्यार्थी ही समझती थी लेकिन आज वो खुद में आश्चर्यजनक बदलाव महसूस कर रही थी…कहीं न कहीं अपने आप में एक सम्पूर्ण स्त्री के कुछ लक्षण देख रही थी!आईने में खुद को निहारती हुई उसे नानी जी की कहानी ‘बेलवति-कन्या’ की सुन्दर नायिका की छवि याद आ गई…कहानी में उसकी नानी ने बेलवति-कन्या का जैसे रूप-वर्णन किया था वो अपने रूप में उसे देख रही थी! मौसी उसे देखकर बहुत खुश हो रही थी…बार-बार कभी उसकी साड़ी का आँचल ठीक करतीं कभी उसके चेहरे पर गिरते बालों को सँभालती…गर्मी की वजह से आये पसीने को पोंछती हुई उसे पंखे के सामने रहने की ही सलाह देतीं…तब किसी की आवाज सुनाई दी, ‘‘बारात आ गई!’’
घर के लगभग सभी पुरुष बाहर ही थे। कुछ महिलाएँ जल्दी से घर के दरवाजे के बाहर खड़ी हो गई कुछ बारात और दूल्हा देखने के लिए छत पर खड़ी हो गईं! सुनैना अपनी बुआ के पास ही बैठी रही। बारात आने के बहुत पहले से मौसी सुनैना को किसी न किसी बहाने बाहर ले जा रही थी और बाहर खड़ी होकर बेचैनी से उनकी आँखें किसी को ढूँढने लगती…एक बार फिर मौसी सुनैना को बाहर चलने के लिए कहने लगी तो उसने कहा, ‘‘मौसी! हमने दूल्हा पहले ही देखा हुआ है … अभी थोड़ी देर में फिर जयमाला में देखना ही है।’’ उसकी बात सुनकर मौसी सहमति में सर तो हिला दी लेकिन परेशान होकर कभी अन्दर तो कभी बाहर फिरती रहीं।
सुनैना कुछ देर के लिए रसोई में नानी के पास गई…ये जानते हुए भी कि नानी उसकी बात नहीं मानेंगी फिर भी उनसे एक बार बोली, ‘‘चलो न नानी … द्वार चार हो रहा है … एक बार से हरे में सजे-धजे दूल्हा को देख लो।’’ नानी उसकी बिंदी और हलके से हार को ठीक करते हुए बोली, ‘‘अभी नहीं बाबू … बाद में देख लूँगी।’’ उसे मालूम था …नानी यही जवाब देंगी लेकिन वो मजबूर थी …कुछ भी बदल नहीं सकती थी…रूढ़िवादी विचारधारा के शिकार लोगों के बीच उसे अपनी नानी दयनीय सी लग रही थी लेकिन आज हलके सुनहरे किनारी वाली आसमानी साड़ी में नानी उसे बहुत प्यारी लग रही थीं। हलकी झिझक में भी चेहरे पर गरिमा साफ झलक रही थी! एक असफल कोशिश नानी जी को बाहर ले जाने की करती हुई उनका हाथ थामे बैठी थी तभी मौसी भागी-भागी उत्साहित सी रसोई में दाखिल हुई और उसका हाथ पकड़कर ये कहती हुई बाहर ले गई कि ‘‘चलो … अब जयमाला होने वाली है।’’
बुआ को उनकी सखियाँ और मुहबोली बहन जयमाला के लिए लेकर जा रहीं थी। मौसी सबको धकियाती हुई सुनैना का हाथ पकड़े जयमाला के लिए जाती बुआ के पास ले गई और बुआ के बगल वाली एक लड़की को हटाकर सुनैना को उनके बगल में खड़ी कर…जिस लड़की को मौसी ने बुआ के बगल से हटाया वो आश्चर्यचकित सी उनसे पूछ ही बैठी, ‘‘क्या हुआ मौसी ऐसी क्या आफत आ गई जो भागदौड़ मचाये हो…तुम का इहो खयाल नाही की सामने बाराती खड़े हैं।’’ मौसी उस लड़की को लगभग फटकारती हुई बोली, ‘‘ओकी बुआ है…बगल माँ ओके साथ चले देयो!’’लड़की थोड़ा गुस्से से ठुनकती हुई पीछे दूसरी लड़कियों के साथ होली…सुनैना को ये सब बड़ा अजीब लग रहा था…एकांतप्रिय सुनैना शादी-ब्याह या किसी भी फंक्शन में खुद को असहज महसूस करती थी! जयमाला के लिए बने स्टेज तक पहुँचकर सुनैना ने एक नजर बाँके दूल्हे पर डाली उसके बाद पीछे हटने को हुई तभी मौसी ने पीछे से उसकी पीठ पर हाथ रखकर हलके से धकियाते हुए स्टेज पर जाने का इशारा किया…उसने आँखों ही आँखों में मौसी को लगभग घूरते हुए स्टेज पर जाने से मना किया लेकिन मौसी ने इस बार लगभग पूरे गुस्से उसे घूरते हुए आदेशात्मक संकेत में उसे स्टेज पर जाने के लिए कहा…इस बार सुनैना थोड़ा सहम गई और बुआ के साथ स्टेज की तरफ बढ़ गई…मौसी के चेहरे पर अब तसल्ली भरी एक मुस्कान थी!
जयमाला की रस्म में सुनैना ने महसूस किया कि कोई है जो लगातार उसे चोर नजरों से देख रहा है…दूल्हे के दोस्तों में मैरून रंग के पैजामे-कुर्ते में उसे अपना ही हमउम्र लगातार उसके आस-पास नजर आ रहा था। उसकी नजर मौसी की तरफ गई तो मौसी भी उसी मैरून रंग के वस्त्र वाले लड़के को देख रही थी और उसे सुनैना की तरफ दिखाकर कुछ इशारा कर रही थी…इस बार सुनैना ने भरपूर नजर से उस मैरून वस्त्रवाले लड़के को देखा!
लगभग पाँच फिट ग्यारह इंच का शालीन सा दिखनेवाला लड़का उसी की तरफ देख रहा था…दोनों की नजरें मिलीं…वह औचक सी उसे देख रही थी…कुछ-कुछ उसे बुआ की चाल का अंदाजा लग गया था…नजरें मिलते ही लड़का थोड़ा झिझका और जयमाला देखने की खुशी में शामिल हो गया। सुनैना को वहाँ खड़ा होना अब भारी लग रहा था…उसे ये बात समझ आ गई कि मौसी ने से यहाँ एक कठपुतली की तरह किसी के सामने पेश किया है!जैसे ही जयमाला की रस्म खत्म हुई सुनैना अपनी साड़ी सँभालती हुई लगभग भागती हुई घर की तरफ बढ़ गई…घर में घुसते ही नानी को ढूँढ़ती हुई रसोई की तरफ बढ़ गई…नानी वहीं थी …उसे देखते ही मुस्कराती हुई पूछने लगी कि ‘‘दूल्हा कैसा लग रहा था? जयमाला ठीक से हो गई।’’
उसने हाँ में सर हिलाया और पास ही पड़ी मचिया पर धम्म से बैठ गई …अपनी चूड़ियाँ और दूसरे जेवर उतारकर अपनी गोद में रखती हुई बड़बड़ाने लगी, ‘‘मौसी का वही पुराना नाटक…हमको जयमाला दिखाने नहीं ले गई थी…किसी के सामने प्रदर्शनी बनाकर दिखाने ले गई थीं!’’नानी उसकी साड़ी में से पिन खोलने में उसकी मदद करती हुई उसे पुचकारती हुई पूछ बैठी ‘‘हुआ का … कछु कहो तो!’’
इतने में मौसी भी रसोई में दाखिल हुई और उतावली हुई सुनैना के बाल ठीक करती हुई उससे पूछने लगी ‘‘ काहे सुनैना! मैरून शेरवानी वाले लड़के को देखी? हम इसी लड़के की बात कर रहे थे … तुम्हरे होए वाले फूफा के रिश्तेदारी मा है और हमरे पड़ोस मरहत है…दिखे में तो ठीक-ठाक है न बिटिया?’’वो कुछ भी नहीं बोली शादी में ही पहनने के लिए जो गुलाबी सलवार-कुर्ता सिलवाया गया था वो उठाकर गुसलखाने की तरफ बढ़ गई…पीछे से उसके कानों में मौसी और नानी की आवाजें आती रहीं…मौसी लड़के का बखान करने में लगी थी और नानी कह रही थी, ‘‘वैसे अब ही उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हुई है…और जो भी हो … बिटिया के मन का जरूर ध्यान रखिहो!’’
मुँह-हाथ धोकर कपड़े बदलकर सुनैना छत पर चली गई...रंग-बिरंगी इलेक्ट्रॉनिक लड़ियों वाली झिलमिलाती झालरें उसके मन में आते अच्छे-बुरे और असमंजस भरे ख्यालों की तरह कभी ठहर जातीं थी कभी तरंगित लहरों की तरह दौड़ने लगती थी…सरकारी दोमंजिला मकान के बगल के नीम के पेड़ की डालियाँ उसके छत की रेलिंग पर झुकी हुई थी…हलके हवा के झोंके से उसे राहत मिल रही थी…नीचे शादी-ब्याह के भगदड़ जैसे माहौल से और शोर-शराबे से भी कुछ देर के लिए उसने निजात पा ली थी…घर के पीछे की तरफ छोटे से आँगन में बने मंडप में शादी की तैयारी में लगे लोग भाग-दौड़ कर रहे। वह किनारे खड़ी रेलिंग का सहारा लिए चुपचाप तैयारी देखती रही फिर टहलती हुई छत पर बिछी चारपाई पर निढाल सी लेट गई…आँखें बंद करते ही न जाने क्यों उसे जयमाला के स्टेजवाली आँखें अपनी ओर बहुत प्यार से देखती नजर आईं। वह हड़बड़ाकर उठ बैठी। उसे न जाने क्या हुआ उठकर घर की छत के आगे वाली रेलिंग का सहारा लेकर खड़ी हो गई और नीचे खाना खा रहे बारातियों में किसी को ढूँढने लगी। आखिर वह उसे नजर आ ही गया…नीम की एक बड़ी टहनी के घने गुच्छे के पीछे से छिपकर सुनैना उसी मैरून शेरवानी वाले लड़के को ध्यान से देखती रही …दोस्तों के साथ बैठा वह भी खाना खा रहा था …हँसी-मजाक के माहौल में जहाँ सभी लड़कों के हाव-भाव बहुत ही उन्मुक्त और आजाद थे वहीं वह उसे कुछ शर्मीला और शालीन लगा…दूसरे हम-उम्र लड़कों के हुड़दंगई वाले व्यवहार के आगे वो शांत… स्थिर सा कभी- कभी मुस्कराकर सभी की खुशी में शामिल हो जा रहा था! गेंहुआ रंग … हलकी मूँछंे और सलीके से कुछ-कुछ मिलिट्री स्टाईल में कटे बालों में वो गँवई लड़कों से कुछ अलग लग रहा था!
नीम के झुरमुट में छिपी न जाने कितनी देर तक वह उसे निहारती रही…उसकी मुस्कराहट में वो अपने लिए आजादी का छोटा सा खुला आसमान देख रही थी…उसका बचपन कहीं पीछे छूटा जा रहा था…अभी तक जिन हथेलियों के बीच में मेहँदी का गोल ठप्पा और उँगलियों के पोरों को ढंकनेवाले डिजाईन की आदत थी उन्हीं हथेलियों में उसने प्रीत की बेल-बूटियों को सजता हुआ महसूस किया! कोई अनजाना अहसास उसके बचपन की उँगली पकड़कर अपने साथ ले जा रहा था और उमंग भरे यौवन को कंधों से पकड़कर उसके समक्ष खड़ा करने की कोशिश कर रहा था!
सुनैना न जाने कब तक उसे निहारती हुई उसी में खोई रही,…उसकी तंद्रा टूटी सीढ़ियों से आती चिर-परिचित कदमों की आहट सुनकर …रेलिंग से हटकर वह सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई …उसे जिसका अंदाजा था वही थीं…नानीजी एक हाथ में ढँकी हुई थाली और एक हाथ में लोटे में पानी लेकर चली आ रही थीं…उसने बढ़कर नानी के हाथ से थाली और लोटा पकड़ते हुए कहा ‘‘नानी! खाना ऊपर काहे ले आई … हम नीचे आने ही वाले थे!’’‘‘नहीं …हमको मालूम है तुम सो जाती …! चलो आओ बैठो यहाँ … हम तुमको अपने हाथ से खाना खिलाएँगे!’’ सुनैना को खाना खिलाने के बाद नानी उसे पंखा झलने लगी। पंखा झलते-झलते उसका मन टटोलने के लिए पूछ बैठी, ‘‘बिटिया! आज तुम उस लड़के को देखी?’’ सब कुछ समझते हुए भी सुनैना अनजान बन गई, ‘‘किस लड़के को नानी?’’ नानी अपने सर का आँचल सही करते हुए उसे समझाते हुए बोली-‘‘देखो बिटिया! जईसे अब तक तुम्हरे घरे की बिटियन का बियाह होता आया है वई से तुम्हरे दादाजी तुम्हरा बियाह भी करी दिहें…तुम्हरी मौसी ने जो लड़का देखा है उ लड़का और परिवार तुम्हरे लिए हर लिहाज से बढ़िया है…पढ़े-लिखे लोग हैं…तुमको भी आगे पढ़वाए देंगे…अपने घरे की दूसरी बहिन न को देखो…कहाँ गाँव-देहात में ब्याह दी गई हैं … ई लड़का और परिवार को कम से कम बिट्टो (मौसी) अच्छी तरह जानती तो हैं … कहीं गाँव माँ ब्याहे से अच्छा है शहर को ई परिवार…तुम अपने दादा-दादी को ब्याह के लिए हाँ करी दो … देखो बाबू … एक बार तुमको अच्छा घर-ससुराल मिल जाए तो हमहूँ चैन की साँस ले!’’
वह नानी की आँखों में झाँकती हुई बोली, ‘‘आपको मौसी हमें समझाने के लिए भेजी हैं न?’’ नानी उसका माथा सहलाती हुई स्नेह से बोली, ‘‘मौसी और तुम्हरी अम्मा को तुम्हरी बहुत चिंता है बाबू।’’ वह नानी की गोद में करवट बदलकर लेट गई और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर गहरी साँस लेते हुए बोली, ‘‘जैसा आप ठीक समझो नानी।’’ और आँखें बंद कर लीं! आँखों से निकली कुछ बूँदों में अपने मन में उभर आये गुलाबी रंग का कुछ अंश मिलाकर उसने अपने मन को प्रेम रूपी रंग का एक हल्का सा शेड दे दिया…
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मौसी को और क्या चाहिए था…सुनैना को लेकर वो बहुत खुश थी...नानी को कंधों से पकड़कर बोली, ‘‘देखना अम्मा …इस बार गोरखपुर जाते ही शुकुल परिवार में सुनैना का रिश्ता तय करवाने की पूरी कोशिश करेंगे…लड़के से तो जिक्र कर ही दिया है…घरवाले भी मान ही जायेंगे!’’सुनैना के विवाह को लेकर घर में जो माहौल था उससे तो ये तय ही था कि उसके लिए पिंजरा ढूँढ़ने की पूरी तैयारी हो गई है…उसने भी अनमने मन से ही सही घरवालों की खुशी में खुश होते हुए पिंजरे में कैद होने का मन बना ही लिया…कम से कम इस बार पिंजरा उसे भा तो रहा था!
बुआ विदा हो रहीं थी…उनकी सिसकियाँ रुक नहीं रही थी …दादी का भी मन डूबा जा रहा था! अपने होश में सुनैना अपने घर की ये पहली शादी ढंग से देख-समझ रही थी…गुडुआ और सुनैना बुआ से लिपटकर खूब रोये …बुआ के विदा होते ही घर में गहरा सन्नाटा पसर गया!दूसरे दिन नानी भी मामा के साथ सुनैना को ब्याह के लिए समझा-बुझाकर गाँव चली गईं…मौसी भी विवाह के लिए सुनैना की सहमति पाकर संतुष्ट होकर वापस अपने घर चली गई!
5
बुआ की शादी को लगभग एक महीना बीत गया था। अब सुनैना जब भी उजले…गुलाबी, हल्के रंगों की चद्दरों पर फेब्रिक कलर से रंग भरती या सीनरी और गिलास पेंटिंग बनाती तो अम्मा उसके पास बैठकर प्यार से उसकी कला की खूब तारीफ करतीं और जो गिलास पेंटिंग, सीनरी और चद्दरें ज्यादा सुन्दर बन जाती थी तो उन्हें अलग करके सँभालकर रख देतीं! पूछने पर कहती कि ‘‘ई सब अपने ससुराल ले जाना!’’
पेंटिंग्स में अपनी बिल्लियों के जोड़ेवाली गिलास पेंटिंग्स देखकर सुनैना को कुछ महीने पहले की बातें याद आ गई!
6
उस दिन अम्मा और बुआ को स्टोररूम में देखकर सुनैना बहुत खुश हुई…अम्मा का स्टोररूम में व्यस्त होना मतलब अम्मा ने बड़का बक्सा खोला होगा! अम्मा ने बक्से का सारा सामान निकालकर स्टोररूम के बाहर रखा था और बक्सा में वापस सलीके से सब सामान लगाने में जुटी थीं!लकड़ी के फ्रेम में मढ़ी मछली, वृक्ष के नीचे बाँसुरी बजाते कृष्णा, मटकी से मक्खन गिराते कृष्णा, तोता, खरगोश जैसी सुन्दर फोटो देखकर सुनैना की आँखें चमक उठीं …उसका मन चिड़ियों जैसा चहक उठा …अम्मा अपनी ब्याह की पियरी के साथ एक सूती साड़ी में बाँधकर वो सब फोटो वापस बक्से में रखने जा रही थीं!‘‘अम्मा! ई का है? तनिक हमको दिखाओ ना,’’ सुनैना उत्साहित होती हुई अम्मा का हाथ पकड़कर दुलराती हुई बोली, अम्मा सर का आँचल ठीक करते हुए बोलीं, ‘‘बिटिया! हमको बहुत काम है … ई सब जल्दी रखे दो।’’
‘‘नाही अम्मा, एक बार हमको देखे दो...बहुत सुन्दर फोटो दिख रही है…’’अम्मा सूती साड़ी में सँभालकर पकड़ी हुई सारी फोटो आहिस्ते से खटिया पर रखते हुए बोली ‘‘अच्छा लो …जल्दी देख लो बिटिया … तब तक हम दूसरा सामान बक्से माँ रख देते हैं।’’सुनैना खुश होकर एक-एक फोटो उठाकर निहारने लगी …लकड़ी के फ्रेम में सीसे मढ़ी कृष्णा की फोटो सुनैना मुग्ध होकर देखती रह गई …पीले सिल्क के कपड़े पर रुई से अम्मा ने कैसे बाँसुरी धरे कृष्णा और बालरूप में मटकी गिराकर माखन खाते कृष्णा बनाया है, सुनैना … अम्मा का हुनर देखकर हैरान थी …पेड़ की एक टहनी पर बैठा तोता अम्मा ने लाल रंग के कपड़े पर कढ़ाई करके बनाया था…रंग-बिरंगी मोतियाँ … लाल रिबन … सुनहरे गोटे… इन्द्रधनुषी रंगों की रेशमी धागों की कढ़ाई से बनी फोटो देखकर सुनैना चकित थी!‘‘अम्मा! ई सब तुमने कैसे बनाया और कब बनाया,’’ सुनैना ने उत्सुकता से अम्मा से प्रश्न किया!
‘‘बिटिया ई सबकुछ तो कपड़े पर काढ़ा गया है कुछ रुई को कपड़े पर रखकर सिलाई करके उसे मोतियों और रिबन से सजाया गया है …ई सारी फोटो शादी के पहिले की हैं’’
सब फोटो तो बहुत सुन्दर थीं और बनाने में अम्मा ने मेहनत भी खूब की होगी…सुनैना यही सब सोचती रही और उन फोटो को मढ़ने में जिन पारदर्शी शीशों का इस्तेमाल किया गया था उन्हें फोटो से अलग करके अपने ऑइल कलर से उन्हें नया रंगरूप देने के ख्वाब बुनती रही!‘‘अब लाओ बिटिया … बहुत काम बिखरा पड़ा है … ई फोटो रखे दो … बाद मा फिर कभी देख लिहो।’’ कहकर अम्मा ने फोटो और पियरी साड़ी एक सूती साड़ी में बाँधकर सँभालकर बक्से में रख दिया!…