( सविता सिंह के कविता संग्रह ‘स्वप्न समय’ की समीक्षा प्रांजल धर के द्वारा )
कविता का एक काम यह भी है कि हमें वह एक ऐसी दुनिया में ले जाए जो हमारे अपने अनुभव के दायरे से, चाहे जिस वज़ह से सही, ज़रा दूर ही छूट जाया करती है। परिवर्तन की तरह स्थिर शायद ही कुछ होता हो, और इसी बात के काव्यात्मक पहलू को पकड़ने वाला सविता सिंह का कविता संग्रह ‘स्वप्न समय’ हमें एक ऐसे लोक का चरम निदर्शन कराता है जहाँ हम होकर भी नहीं होते और न होकर भी हम कहीं न कहीं अवश्य होते हैं। समाज में स्त्रियों की दशा किसी से छिपी नहीं है लेकिन यह बात भी जगज़ाहिर ही है कि स्त्री-विमर्श के नाम पर अधिकतर कबाड़ ही हिन्दी जगत में ‘रचा’ जा रहा है। कुछ ही रचनाएँ ऐसी हैं जो लैंगिक भेदभावों और उनके मूल में निहित आधारिक संरचनाओं का सार्थक वर्णन-विश्लेषण करती हैं और लैंगिक न्याय के स्वतःसिद्ध औचित्य को वज़नदार तरीके से रखती हैं। सविता सिंह जेण्डर और सेक्स के फ़र्क के प्रति बेहद सजग हैं और किसी कालातीत अव्याख्येय को सधे हुए अक्षरों में पिरोने का शानदार जतन करती हैं। उनका यह कविता संग्रह ‘स्वप्न समय’ मानवता के विशाल फलक को सामान्य तौर पर और आधे आसमान को सिर पर उठाने वाली स्त्रियों को विशेष तौर पर अपनी कविताई के केन्द्र में रखता है। ‘अपने जैसा जीवन’ और ‘नींद थी और रात थी’ के बाद सविता सिंह का हिन्दी में यह तीसरा कविता संग्रह है और इसमें कुल इकसठ कविताएँ हैं।
पहले के दोनों संग्रहों में अपनाए गये काव्यात्मक उपकरणों का विकास सहज ही इस तीसरे संग्रह की कविताओं में दिखता है। एक ख़ास अर्थ में यह पहले के दोनों संग्रहों की अगली कड़ी और उनका आनुभविक विस्तार है क्योंकि इस संग्रह की कविताओं में सविता सिंह ने न सिर्फ़ स्वयं को दुहराया नहीं है, बल्कि अपनी इन नवीन कविताओं के माध्यम से पाठकों को एक नितान्त भिन्न साहित्यिक स्वाद से परिचित भी कराया है। तमाम ऐतिहासिक आख्यानों से लेकर वर्तमान फ़ेमिनिज़्म तक स्त्री हाशिये की और दोयम दर्ज़े की ही नागरिक रही है। और तो और, सभ्य कहे जाने वाले प्राचीन यूनान के सिटी-स्टेट्स तक में स्त्रियों को तो नागरिकता ही नहीं प्राप्त थी, दोयम नागरिकता की तो बात ही दूर है। सविता सिंह की कविताएँ बड़ी सूक्ष्मता से असन्तुलित राजनीति और बेढंगे समाज में बेहद गम्भीर राजनीतिक हस्तक्षेप करती हैं और नारीवाद के इस ज़रूरी दर्शन से वाकिफ़ हैं कि जो भी व्यक्तिगत है, वही राजनीतिक है। ‘रक्त प्रेम का’ एक ऐसी कविता है जो किसी हतदर्प स्त्री के पराजय बोध से नहीं उपजी है, बल्कि किसी भी आम स्त्री को घेरने वाली विसंगतियों, विडम्बनाओं और निहायत दैनंदिन व्यतिक्रमों से पैदा हुई है। यहाँ स्व का विस्तार है और ऐसा विस्तार है जिसके क्षितिज तक पहुँचने के लिए किसी भी स्त्री को अपने कोमल स्वप्नों पर लम्बे समय तक कठोर और गम्भीर प्रयास करने पड़ते हैं।
आज जब मात्र यौनिकता के सहज, उच्छृंखल और बेहद चलताऊ वर्णनों को ही स्त्री विमर्श का पर्याय मान लिया गया है, तब यह बात उल्लेखनीय है कि इस ख़ास विषय पर लिखने वाला कोई रचनाकार अपने रूपकों की सर्जना किस अनोखे तरीके से करता है। कविता का एक अंश देखिये, “चली गयी थी/ उन विधवाओं के पास/ जिन्हें संभोग वर्जित है/ जिनके रेशमी स्तनों पर/ नहीं पड़ता बाहर का कोई प्रकाश/ मैं लौट सकने की हालत में नहीं थी वर्षों/ मैंने काट लिए थे अपने हाथ/ जिनसे स्पर्श कर सकती उस हृदय का/ जिसमें मेरे लिए उद्दाम वासना थी।” पश्चिम की चाहे जितनी बड़ी नारीवादी महिला क्यों न हो, चाहे वह उत्कट नारीवादी मेरी डॉली ही क्यों न हो, वह ठेठ भारतीय परिस्थितियों को समझने में समर्थ नहीं है और सविता सिंह की कविताएँ हमें इस बात की व्याख्या देती हैं कि क्यों पश्चिमी दुनिया के अनेक सिद्धान्त हमारे यहाँ लागू नहीं हो पाते। यहाँ आकर सविता की कविताएँ वैचारिकी का एक ऐसा पुख़्ता धरातल रचती हैं, जो हमारे लिए दुर्लभ क्या, करीब-करीब अलभ्य ही है।
सविता सिंह |
सविता की कविता जीवन के खुरदुरे यथार्थ के पोर-पोर का जीवन्त रूपायन करती है। कला की महीन समझ रखने वाले एक दक्ष शिल्पी की तरह कवयित्री अपनी रचना-प्रक्रिया के हरेक बिन्दु पर सजग रही हैं। यह सजगता ‘सपने और तितलियाँ’, ‘चाँद तीर और अनश्वर स्त्री’ और ‘स्वप्न के ये राग’ जैसी कुछ लम्बी कविताओं में ख़ास तौर से महसूस की जा सकती है। पर, इन लम्बी कविताओं के बारे में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ क्या है? यह, कि इतने महीन मानसिक संसार में चलते हुए, जिसमें कि इस संग्रह की कवयित्री ने लगातार विचरण किया है, इतनी देर तक एकाग्रता से टिककर किसी भाव को लगभग असंदिग्ध अर्थों वाले चुनिन्दा शब्दों में बाँध ले जाना। और शायद इसीलिए ये कविताएँ अपने आकार में कुछ लम्बी हो गयीं हैं। संग्रह की एक कविता ‘तुम्हें लिखना’ इस दुनिया से और यहाँ के जाल-बवाल से पाठक को बहुत परे ले जाती है। पर, यह परे ले जाना पलायन हर्गिज नहीं है। और अपने गहनतम अर्थों में कविता है क्या ? उसे करना क्या चाहिए ? चाहे वह क्रान्तिगीतों से लबरेज कविताएँ हों या विश्व साहित्य की अन्य भावप्रवण कविताएँ, क्या यह सच नहीं है कि उन्होंने वर्तमान व्यवस्था की बुनियादी खोट को पुरअसर तरीके से उकेरा है ? ग़ौर से देखें तो सविता की कविता ‘तुम्हें लिखना’ अपने आप में ही एक कविता संग्रह है। यह हमें आधुनिक समय की जटिलताओं से जूझ रहे किसी पथिक के जीवन के उस अँधेरे कोने से दो-चार कराती है जहाँ जाने के बाद लौटना और भटकना एक जैसा ही हो जाता है, जहाँ डरना अतार्किक लगने लगता है क्योंकि डरने की चरम सीमा निडरता ही है। किसी ने शायद ठीक ही कहा है कि भय की चरम सीमा और कुछ नहीं, केवल आतंकवाद ही है। इसमें एक बारीक नज़रिये से सम्पन्न एक समर्थ कवयित्री की किंकर्तव्यविमूढ़ता है, “क्या लिखूँ यह देखने के बाद क्या कहूँ/ क्या करूँ कि अब लौटना और भटकना एक-सा हो/ खोना और मिल जाना एक/ तुम्हें लिखना इन्हीं को लिखना है/ प्रवेश करने जैसा उस अन्धकार में/ ले जाता है जो किसी अज्ञात प्रकाश की तरफ़।” पर इस किंकर्तव्यविमूढ़ता को अनिवार्य रूप से तथाकथित संकोच या हिचकिचाहट से अलग करके ही देखा जाना चाहिए। इस कविता में हरेक किस्म की अनभिज्ञता के ऐसे शव पसरे पड़े हैं जो अपनी मासूम मनुष्यता की छाप छोड़ना चाहते हैं, जिनके परिधान कठोर ज्ञान के उलझे तन्तुओं से बुने गये हैं।
सविता सिंह की कविताएँ कुछ हद तक रेडिकल हैं, पर अतार्किकता की उस सीमा तक नहीं कि मारिया रोजाइ, डाला कास्टा या सेलमा जेम्स की तरह घरेलू श्रम के लिए वेतन का प्रश्न उठाएँ, न ही इतनी ज़्यादा ठण्ढी हैं कि चुपचाप शोषण को सहन करते हुए घर-परिवार से नाना किस्म के तमगों को हासिल करती रहें। संकुचित अर्थों में कहें, तो यहाँ हमें ठेठ भारतीय मध्य मार्ग भी दिखता है जो सबके हित में ही अपना हित समझता है और यही तो साहित्य भी है शायद ! यहाँ एक कवयित्री की छोटी-छोटी नॉस्टैलजिक कामनाओं की व्याप्तियाँ हैं, तमाम बिसरी-भूली चीज़ों से जुड़ी आकांक्षाएँ हैं और आज के आपाधापी भरे जीवन की विडम्बनाएँ हैं : “आओ समा जाओ मुझमें हवा/ खेलो मुझसे/ देखूँ अपने चाँद, पहाड़, आकाश और चिड़िया/ सँभालना मुझको/ उमड़ी आती है भीतर सोन और गंडक नदियाँ/ अंग-प्रत्यंग टूटता है जाने क्यों/ बेमिल हो रही है चिरपरिचित भीतरी शालीनता/ उठती हैं लहरें ये कौन सी/ इतनी नयी।” कवयित्री यहाँ आधी दुनिया के उस कष्ट से भलीभाँति वाकिफ़ है जिसे जुडिथ मिलर ने ‘जेण्डर ट्रबल’ कहा है। इसी कष्ट का ही दुष्परिणाम है कि स्त्रियाँ चाहकर भी वह होना नहीं चाहतीं जो वे स्वयं तय करती हैं, बल्कि स्वयं अपनी ही मर्ज़ी के ख़िलाफ स्त्रियाँ वह होना चाहने लगती हैं जो होना उन्हें बताया, पढ़ाया या सिखाया जाता है। कहना चाहिए कि प्राथमिक समाजीकरण के दौरान ही ओढ़ा दिए गए उस लबादे को; जिसके कारण सिमोन ने कहा था कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है; स्त्रियाँ शायद चाहकर भी उतार नहीं पातीं। इसीलिए जब वेशभूषा, परिधान और आचार-व्यवहार जैसी बाहरी चीज़ों से लेकर संसर्ग तक की भीतरी और अन्तरंग चीज़ों पर भी तरह-तरह की बन्दिशें लगाकर उन्हें नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है तब स्त्री पुरुष से न सही, प्रकृति से ही संसर्ग-सुख प्राप्त करने की तरफ मुड़ती है। ‘ऐ हवा’ कविता इसी मोड़ का हृदयस्पर्शी दस्तावेज़ है।
स्त्रियों के अलावा हाशिये पर रहने वाले अन्य लोगों के प्रति भी कवयित्री सावधान और संवेदनापूर्ण हैं। अगर ‘शैटगे : जहाँ ज़िन्दगी रिसती जाती है’ नामक कविता में वे रेड-इण्डियंस और पश्चिम के आदिवासियों का ज़रूरी उल्लेख करती हैं तो सुदीप बनर्जी को समर्पित कविता ‘स्वप्न के ये राग’ भारत के आदिवासियों के ऐसे आवासों का प्रभावशाली रेखांकन करती है, जिन्हें सभ्यताओं के आत्मतोष के लिए ‘जंगल’ कह दिया जाता है और उनमें रहने वाले लोगों को ‘जंगली’। खाँचे में बाँधकर देखना मनुष्य का प्रायः स्वभाव ही है क्योंकि इसमें उसे सुविधा है। लेकिन सविता सिंह की कविताएँ इस सुविधावादी सोच से जबरदस्त मुठभेड़ करती हैं। एलीना के बहाने व्यष्टि के ज़रिये समष्टि को अपने दायरे में लेने वाली कविता ‘शैटगे : जहाँ ज़िन्दगी रिसती जाती है’ पाठकों को भीतर तक झकझोर देने में सक्षम है क्योंकि यहाँ आकर अमरता मरणशील नज़र आने लगती है और मुमुक्षु जन मुमूर्षा के शिकार-से दीखते हैं। ज़िन्दगी का दरकना यहाँ कई मायनों में मौज़ूद है।
गुलज़ार हुसैन का चित्रांकन |
भारत जैसे तीसरी दुनिया के किसी देश की ही बात नहीं है, जिस एंग्लो-सैक्शन धुरी को शक्ति और सत्ता का केन्द्र माना जाता था, वह भी अब उतना शक्तिशाली नहीं रह गया है। समकालीन एकध्रुवीय विश्व-व्यवस्था में एक ग़ैर-यूरोपीय देश की ही तूती बोलती है और शक्ति के वैकल्पिक केन्द्रों की तलाश ज़ारी है। यह तलाश धुँधली अस्मिताओं की मुक्ति की आकुलता से भरी है। इसीलिए कभी यह आसियान, कभी सार्क यानी दक्षेस तो कभी यह यूरोपीय संघ के सत्ता समीकरणों से व्यक्त होती रहती है। फ्रांसिस फुकुयामा के इतिहास के अन्त और डैनियल बेल के विचारधाराओं के अन्त के इस अन्तवादी घोषणाओं के दौर में सविता की कविता अन्त की नहीं, नवीन प्रारम्भ और नयी सुबह की पहली वेला का व्यापक वितान रचती है। ये कविताएँ वहाँ तक जाती हैं जहाँ बिछड़ने की आशंका ज़ेहन में घर बनाने लगती है, जहाँ स्वप्न जागने लगते हैं, जहाँ एक नीला विस्तार है जिसका ज़्यादातर हिस्सा अज्ञात है। ज्ञात पर रुक जाना ज्ञान की दिशा नहीं है, जो ज्ञात हो जाता है उसे छोड़ना पड़ता है ताकि जो अज्ञात है वह ज्ञात हो सके। ये कवितायें इन्हीं अज्ञात या अल्पज्ञात इलाकों का संधान करती हैं और पाठकों को कोरी कल्पना की बजाय एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जिसकी निर्मिति यथार्थ के थपेड़ों से हुई है।
संग्रह में प्रेम की गहन भावनाओं से परिपूरित अनेक कविताएँ हैं लेकिन ये वैसी प्रेम कविताएँ नहीं हैं जिनमें जब तक दो-चार बार प्रेम-प्रेम शब्द न आए तब तक हम मान ही न पाएँ कि यह भी भला कोई प्रेम कविता है ! यहाँ प्रेम कविताओं में सहज सौन्दर्य है, त्याग और परित्याग की भावनाओं की लम्बी-सपाट और दुर्गम सड़कें हैं, विसंगतियों का नया व्याकरण है, विडम्बनाओं से मुक्त एक प्रतिसंसार है : “जाओ अब तक वहीं पड़ा है वह चुम्बन/ जिसे छोड़ गयी थी लाल आँखों वाली चिड़िया/ उठा लाओ वह सफेद पंख/ जिसे गिरा गयी थी वह किसी और के लिए।” इसी और के लिए गिराए गए पंखों पर कितने ही लोग अपनी ज़िन्दगी और अपना घर-परिवार चला रहे हैं। जीवन में सर्वोत्तम कहाँ मिलता है किसी को ! शायद इसीलिए कहा भी जाता है कि हम बेस्ट नहीं, सेकेंड बेस्ट जैसी कुछ चीज़ों और लोगों से अपना जीवन संचालित करते हैं। ऐसे जीवन के द्वन्द्व इन कविताओं में बारम्बार उतरे हैं लेकिन ये द्वन्द्व अच्छे और बुरे के नहीं हैं, बल्कि उत्तम और सर्वोत्तम के हैं। पुनश्च, ये कविताएँ द्वन्द्वों में उलझकर ख़त्म या खर्च नहीं हो जातीं, बल्कि द्वन्द्वातीत मोहक जगत की कल्पना से हमें सराबोर करती हैं। यह इनकी प्रस्थापना है कि कोई भी यथार्थ फिर से नहीं आता, वह ख़ुद को दुहराता नहीं। उस तरह तो कतई नहीं जिस तरह नियतिवादी सिद्ध-अन्तों ने हम सबको बताया है।
ये कविताएँ एक दृष्टि देती हैं कि हम यथार्थ और स्वप्न के बीच के भावों का अहसास कर सकें, पल-पल उगती और पल-पल मिटती महत्वाकांक्षाओं की ऊँचाई और उनका भावात्मक आयतन माप सकें, गझिन होती कामनाओं के घनत्व को अपने हृदय में उतार सकें और अपने अस्तित्व के विचलन को अपने मनोमस्तिष्क में दर्ज़ कर सकें। ये कविताएँ बताती हैं कि औरत केवल रात नहीं है, महज़ रात की स्याही से उभारा गया एक जड़ रेखांकन नहीं है और वह केवल रात का स्वप्न भी नहीं है। किसी भी बात या विचार को व्यक्त करने की सविता सिंह की अपनी ही अनोखी शैली है और उनकी कविताओं में सदैव ऐसी कोई मर्मवेधी बात अवश्य मौज़ूद रहती है जिसका ज़िक्र उन्होंने अपनी कविता में किया ही नहीं होता है। उदासियों के महासमन्दर में गोते लगा-लगाकर खोजे गये ऐसे रत्न इन कविताओं में चमकते हैं जिनके बल पर कविता को रोशनी फैलाने वाली कोई ख़ास मार्गदर्शिका भी कहा जाता रहा है।
देश-देशान्तर से सम्बद्ध अन्तरभाषायी और अन्तर-अनुशासनिक समझ कवयित्री को एक नैसर्गिक शक्ति देती है जिससे वे जीवन की जटिलताओं में छिपे तथ्यों और घटनाओं को पहचानने में अनुपमेय कुशलता का परिचय देती हैं। कुछ यों कि इन इकसठ कविताओं में मानो जीवन के द्वन्द्व और घर्षण को समझने के इकसठ नए क्षेत्रों की खोज की गयी हो और उनके बारे में बिखरी-पसरी अनुभूतियों की तीव्रता को लिपिबद्ध किया गया हो। यहाँ हम स्वप्न की परतों को अनावृत होता हुआ पाते हैं, यहाँ कोई ग्रीवाविहीन शख़्स हार पहनता है और सुन्दरतम परिधान किसी अशरीरी देह की शोभा बढ़ाते हैं। यही तो इस कविताई का ढब है। चुकती-सी प्रतीत होती मनुष्यता की नई आवाज़ों में बचा हुआ धीरज हमें हमारी दुनिया के प्रति स्नेहपूरित ढाँढस बँधाता है। सच कहा जाए तो इन कविताओं के बारे में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि ये किस अप्रत्यक्ष तरीके से किस तरीके के प्रत्यक्ष और ज़रूरी सवालों को मुख्यधारा में खड़ा कर रही हैं। स्त्रियों का तो दरअसल यथार्थ ही इतना क्रूर और अमानवीय है कि रचनाकार को स्वप्न में जाना पड़ सकता है, जो कि यथार्थ की ही एक छाया और यथार्थ का ही एक बिम्ब है। कथ्य के स्तर पर तो ये बातें यहाँ लागू ही होती हैं, शिल्प के नज़रिये से भी देखें तो कविता की आन्तरिक लय, उनका आकार और वर्णनों का क्रम हमें इस दुनिया से भिन्न किसी चीज़ और इस यथार्थ से अलग किसी यथार्थ का अहसास कराते हैं। स्त्री-मुक्ति की कविता का जो सटीक शिल्प है, वह शायद जादुई यथार्थ से ही जुड़ता है और वह यहाँ मौज़ूद है। यहाँ एक चित्र पर दूसरा चित्र और एक बिम्ब पर दूसरा बिम्ब कुछ इस तरह गिरता है कि पाठक इस प्रक्षेपण पर भी कुछ सोचने को विवश हो जाता है। इस दुनिया से परे किसी जादुई जगत में ले जाने वाला यह संग्रह न सिर्फ़ पठनीय, बल्कि संग्रहणीय भी है।
समीक्ष्य कविता संग्रह – ‘स्वप्न समय ’
कवयित्री – सविता सिंह
प्रकाशक – राधाकृष्ण प्रकाशन प्राईवेट लिमिटेड, 7/31, अंसारी मार्ग, दरियागंज, नयी दिल्ली – 110002
संस्करण – प्रथम संस्करण 2013
मूल्य – दो सौ पचास रुपये