वे लाइव पोर्न में प्रदर्शन के पूर्व ईश्वर को प्रणाम करती हैं !

स्वतंत्र मिश्र


स्वतंत्र मिश्र पेशे से पत्रकार हैं ,स्त्रीकाल के प्रिंट एडिशन के सम्पादन मंडल के सदस्य भी हैं . इनसे उनके मोबाइल न 9953404777 पर सम्पर्क किया जा सकता है.

( स्वतंत्र मिश्र ने थाईलैंड की यात्रा के अपने बहुपठित यात्रा वृत्तांत का यह अंश स्त्रीकाल के प्रिंट एडिशन के लिए तैयार किया था . विशेषांकों के प्रकाशन के कारण हम इसे प्रकाशित नहीं कर पाए थे. स्त्रीकाल के ऑनलाइन पाठकों के लिए हम इसे यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं .)

थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर आदि कुछ ऐसे एशियाई देश हैं, जिन्हें ‘सेक्स टूरिज्म’ के रूप में प्रसिद्धि मिली या यूं कहें कि इनकी पहचान के तौर पर ये बातें चस्पां हो गई हैं। यही वजह है कि बिजनेस भास्कर में काम करने के दौरान मेरे संपादक यतीश के. रजावत ने आकर थाईलैंड जाने की पेशकश दी तो आॅफिस के ज्यादातर लोगों को लगा कि अब तो स्वतंत्र तो देह-स्नान (सेक्स) कर आएंगे। हमारे बीच ज्यादातर लोग धरती पर स्वर्ग का पाना कई-कई या रोज-रोज सेक्स मिलने को मानते हैं। आप ज्यादातर पत्र-पत्रिकाओं और उनके वेबसाइट को देखकर इस बात का अंदाजा ले सकते हैं। खैर, तीन-चार दिन की यात्रा में मैंने वहां की औरतों की जिंदगी को और वहां देह-व्यापार के बीच उनके भीतर दया,माया और करूणा को समझने की कोशिश की। इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट से उड़ान भरने के बाद बैंकाक और उसके बाद वहां से घरेलू वायु सेवा के जरिये फुकेट पहुंचा। फुकेट एयरपोर्ट पर टैंपो ट्रेवलर हमें अंडमान सागर की लहरों पर मौज कराने के लिए हमारा इंतजार करा रही थी। बहुत ज्यादा थके होने के बावजूद मैंने समुद्र के सीने पर खूब धमाचैकड़ी की। नमकीन पानी के छींटे आंखों में तेजाब की तरह जलन पैदा करते और अगर स्टीमर की तेज गति से उड़ने वाले पानी के छींटे मुंह के अंदर घुस जाते तो एकबार तो उल्टी करने का जैसा मन हो जाता था। पूरे दिन हम अलग-अलग पत्रकारिता संस्थान के पत्रकार मित्रों के साथ रिलायंस द्वारा प्रायोजित इस ट्रिप का लुत्फ उठाते रहे। ज्यादातर पत्रकार कई देशों का दौरा कर चुके थे। मेरे लिए हवाई जहाज और विदेश दौरे का यह पहला मौका था। दिनभर भर कुदरती नजारों का लुत्फ उठाने के बाद हमें एक पांच सितारा होटल ले जाया गया और यह तय हुआ कि दो घंटे बाद हम डिनर के लिए चलेंगे। एक भारतीय रेस्टोरेंट में स्वादिष्ट भोजन करने के बाद रिलायंस के अधिकारी शरद गोयल ने हमें सेक्सी शो जाने का आमंत्रण दिया। आज की तारीख में सेक्सी शब्द का इस्तेमाल बेटी अपने बाप को सुंदर या स्मार्ट बताने के लिए करती हैं, सो हमने इसे बहुत अनौपचारिक तौर पर लिया और पांच लड़कियों के साथ हम तीन लड़के जाने को तैयार हो गए। वहां हमें हमारी गाइड नाडिया के साथ भेजा गया। ढाई हजार बाट यानी तब भारतीय मुद्रा 4,000 रुपये के करीब का एक-एक टिकट लेकर हमें थमा दिया गया।

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जोहरा आपा तुम्हें लाल सलाम

किन्नर अब ‘ ‘थर्ड जेंडर’ की तरह पहचाने जाएंगे 

ज्यादा अश्लील हैं मर्दों के पहनावे : बुल टी शर्ट यानी अश्लील टी शर्ट !

थाईलैंड में देह व्यापार

सेक्सी नहीं, सेक्स शो था वह


हम अब जे. जे. क्लब के अंदर जाने की तैयारी करने लगे। मुझे लगा कि यहां डिस्को या ओपेरा जैसा कुछ चलता होगा। औरतें थीं इसलिए अंदर क्या होगा की कल्पना इससे ज्यादा करना मुनासिब भी नहीं था। हट्टे-कट्टे नौजवानों (बाउंसर) ने कैमरा और मोबाइल लाॅकर में रखवा लिया और हमें चाबी पकड़ा दी। अंदर घुसते ही औरतें अलग बैठ गईं और हम अलग। अंदर जो दृश्य दिखा, बस उलटे पैर भाग खड़े होने का मन हुआ। लेकिन बाउंसर की फड़कती भुजाएं और तने हुए चेहरे देख डर से एक कुर्सी से चिपक गया। मंच पर लड़कियां पूरी नंगी होकर मर्दों की हुकूमत को चुनौती देती हुई मुस्करा रही थीं। स्टेज पर पूरे लाइव पाॅर्न का बंदोबस्त था। लड़कियां अपने हाव-भाव से थियेटर में बैठे लोगों को उकसा रही थी। स्टेज के पीछे से एक नंग-धडंग छोटी उम्र का लड़का, छोटी कद-काठी, लेकिन सुडौल शरीर वाला पाॅर्न किंग की तरह दर्शकों के सामने पेश हुआ। उसने चुनौती देने वाली इन वस्तु किस्म की लड़कियों से चुनौती ली और यहां मौजूद लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि इनका भोग किस-किस तरीके से किया जा सकता है। वह लड़की से सेक्स करता है और उसकी कोशिश होती है कि लोगों को यह सब साफ-साफ दिखाई दे। वे अपने उपभोक्ता से वफादारी जो निभाना चाहते हैं। अब तक सड़कों पर या खुले में सेक्स करते तो कुत्ते, घोड़े, गधों या किसी अन्य जानवरों को ही देखा था। जानवरों को भी इस प्रक्रिया में बाधा पड़ने पर गुस्साते हैं। मनुष्यों ने अपने को सभ्य बनाया और उसने सेक्स जैसी बात को बहुत पर्दे में या निजी तौर पर रखने की कोशिश की। सेक्स उसे शरीर और मन की एक बड़ी जरूरत के तौर विकसित किया। इसे प्रेम की उन्नत अभिव्यक्ति के तौर पर जाना-समझा। सेक्स के सार्वजनिक प्रदर्शन को मनुष्य ने अश्लील माना। यही वजह है कि बिस्तर की बात उसे बहुत निजी लगती है। यह निजत्व उसे अधिकार और खुशी भी देती है। लेकिन पूंजीवाद ने इसे दिखावे और प्रदर्शन की वस्तु बना दिया। प्रेमी अपनी प्रेमिका के साथ हमबिस्तर होते हैं और उसका एमएमएस बनाकर प्रचारित करने लगे हैं।
यह सच है कि आज की तारीख में भारतीय समाज में ‘नंगा’ एक निरर्थक और घृणा के तौर पर इस्तेमाल होने वाला शब्द है। पर मैं यह देखकर हैरत में पड़ गया कि यहां तो नंगई देखने के लिए इतनी महंगी कीमत देने को भी लोग तैयार हैं। यह हमारे सभ्य समाज के विरोधाभास को भी उजागर करती है।

श्रमशील थाई स्त्री

यहां मंटो की एक कहानी ‘आवाजें’ की याद हो आई। कहानी में एक युवा किरदार की शादी होती है। वह दुल्हन को अपने घर ले आता है। उसका घर लोगों से भरा-पूरा है। कमरे कम हैं। इसलिए निजी क्षणों के लिए उसे कोई अलग से कमरा मुहैया नहीं कराया गया है। वह रात के समय छत पर या खुले में सोता है और अपनी उमंगों को परवान चढ़ाने की स्वभाविक ताक में भी रहता है। वह जब यौन-क्रिया में लिप्त होता है तो कभी किसी के खांसने या फिर करवट लेने में आवाज होने से उसे ब्रेक लगाना पड़ता है। उसकी सारी क्रियाएं ढीली पड़ जाती हैं और उसकी हताशा बढ़ने लगती है। प्रेम के लिए दो निजी पल मुहैया नहीं हो सकने की हालत में अंततः वह पागल ही हो जाता है। इस तरह के हालत आपको भारत की तमाम झुग्गियों में देखने को मिल जाएंगे। वास्तविकता तो यह है कि कोई भी संवेदनशील आदमी इस निहायत निजी क्रियाओं को जान-बूझकर सार्वजनिक होने की इजाजत नहीं दे सकता। संभोग के सार्वजनिक प्रदर्शन की इजाजत कोई बीमार मानसिकता वाला व्यक्ति ही दे सकता है। अंग्रेजी में भी सेक्स के लिए एक बहुत ही प्यारा शब्द ‘लव मेकिंग’ है। थियेटरनुमा इस हाॅल में गोरे और गोरियों की संख्या दो-तिहाई से भी ज्यादा थी। हाॅल के अंदर दर्शकों में कोई स्थानीय नागरिक नहीं नजर आ रहा था। वहां काम करने वाली लड़कियों और लड़के को स्थानीय तौर पर परेशानी नहीं पैदा हो, इसलिए ऐसी व्यवस्था की गई थी। औरतों को वस्तु के तौर पर दिखाने का सीधा प्रसारण मैने पहले सुने या काॅलेज में पोर्न मूवीज और टेलीविजन में ही देखे थे। हालांकि लगभग हिंदी सिनेमा में अब औरतों को वस्तु के तौर पर पेश किया जाता है। अब औरतें भी इसमें विशेषज्ञता हासिल कर चुकी हैं और उन्हें पता है कि किनके साथ किस तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए। किनके लिए कितना किया जाना चाहिए। मैं यहां ग्लैमर्स जीवन जीने की आकांक्षा रखने वाली औरतों के बारे में बात कर रहा हूं। आम जीवन में भी खासकर महानगरों में लड़कियां खुद को कमोडिटी की तरह पेश कर रहीं हैं। खैर, नंगी आखों से यह सब देखने के बाद मुझे यह अनुभव हो गया था कि भारत के संपन्न लोग इन देशों में क्यों आते हैं? और क्या करने आते हैं? किन बातों के दम से इन देशों का पर्यटन गुलजार हो रहा है? यहां की सरकारों ने पर्यटन में मसाला डालने के लिए औरतों को वस्तुवादी बनाने की मौन सहमति दे रखी है।

थाई महिलायें शुक्रवार के बाजार में सामान बेचती हुई

यहां सेक्स या देह-व्यापार अपराध नहीं एक काम की तरह लिया जाता है। यात्रा के दौरान ही एक पत्रकार मित्र ने बताया कि यहां देह-व्यापार करने वाली औरतें अपनी बदन को पेश करने से पहले ईश्वर को याद करती हैं। हाथ जोड़ती है और फिर ग्राहकों के सामने खुद को परोसती हैं  शायद वे ऐसा अपने को इस पेशे को चुनने और अनजान लोगों के साथ हमबिस्तर होने के पाप ग्रंथि से बाहर करने के लिए करती होंगी। दूसरे या अनजान लोगों के साथ सेक्स एक पेशे के बतौर करना निश्चित तौर पर बहुत पीड़ादायी होता होगा। सेक्स दो लोगों को जोड़ने का काम करता है इसलिए वह बहुत आनंददायी भी होता है। लेकिन पेशा करते वक्त आप पैसा तय कर सकते हैं न कि किसके साथ और कब सेक्स करना है कि आजादी नहीं ले सकते हैं। जाहिर सी बात है कि ऐसे सेक्स का सुख तो पैसा देने वाले को ही मिल सकता है क्योंकि उसका हाथ वहां खरीददार की तरह उपर होता है। जो भी हो, वहां इस पेशे में नैतिकता भी है। अगर कोई व्यक्ति सेक्स का सौदा तय करने के बाद ऐसा नहीं करना चाहे तो उसे आदरपूर्वक पैसे वापिस कर दिए जाते हैं। ईश्वर का धन्यवाद तो थाईलैंड में लड़कियां बाॅडी मसाज करने से पहले भी करती हैं, इसका अनुभव तो मुझे भी अब है। खैर, इस शो के दौरान एक के बाद एक वाह्यात दृश्य पेश होतेे रहे और मैं तनावग्रस्त। इन बातों का मुझे इतना बुरा लगा कि मेरी नींद कम हो गई और डाॅक्टर राजीव कौशिक को मेरे उच्च रक्तचाप की गोली बदलनी पड़ी। अन्यथा, पिछले तीन साल से भी ज्यादा समय से सबकुछ सामान्य ही रह रहा था। लगभग 20-25 मिनट तक इसे झेलने के बाद मेरे साथ बैठे दो श्रद्धालु योद्धाओं को भी उबकाई आने लगी। हम बाहर आ गए। हमारे साथ गई लड़कियां हमसे पहले ही थियेटर से रफा-दफा हो गई थीं।

थाई दुल्हन

लगभग 12 बजे रात का समय हो रहा था सड़कों पर यातायात कम जरूर हो गया था लेकिन अभी भी रौनक कम नहीं हुई थी। सड़क के दोनों किनारों पर झुंड की झुंड सुंदर लड़कियां खड़ी थीं और लंबा आलाप लेकर राहगीरों और खासकर पर्यटकों को कामोत्तेजक अंदाज में ‘है……..ललो म…साज, है………ललो म…….साज’ कहकर आकर्षित करने की कोशिश में जुटी थीं। लेकिन न मेरे पास अनाप-शनाप पैसे थे और न ही जिंदगी में ऊर्जा की इतनी कमी। वैसे भी परदेस में हम जैसे वीर लोग पहली बार गांव से दिल्ली आते समय बुजुर्गों की दी गई सलाह (जीभ और ….. पर कंट्रोल रखोगे तो जहां में प्रतिष्ठा बची रहेगी) का खयाल रखने की कोशिश करते हैं। बुजुर्गों की कही बात मुझे सौ फीसदी सच लगती है। मैने उनकी बात लगभग 18 साल से ताबीज की तरह संभाल कर रखी हुई है। रास्ते में चलते-चलते ही जोयता और महुआ मिल गईं। वे खरीदारी कर रही थीं। मैं उनके साथ ठहर गया और देखने लगा कि शब्द (बेटा) या रीना (पत्नी)  के लिए कोई ऐसी चीज मिल जाए। आधे-पौने घंटे के बाद इस दुकान से उस दुकान में मोलभाव करने के बाद उन्होंने एक ढाबे पर ग्रीन चिकन और चावल खाया। यहां के ढाबे पंजाब की तरह चटख रंगों से सजे हुए थे। मुझे भी खाने के लिए उन्होंने बहुत कहा पर मेरी हिम्मत नहीं हुई। खाना खाने के बाद हम पैदल चलते हुए होटल आ गए।

मैं अपने कमरे पहुंचा तो उमेश्वर जी वहां नहीं मिले। आधे घंटे बाद जब वह आए तब मैंने उनसे शो के बारे में बताया तो उन्होंने कहा कि स्वतंत्र यहां की अर्थव्यवस्था इसी इंडस्ट्री पर टिकी हुई है। हमलोग इस प्रण के साथ नींद की आगोश में गए कि सुबह पाटोंग बीच पर माॅर्निंग वाॅक के लिए जाएंगे। लेकिन सुबह किसी अनजाने फोन काॅल के बार-बार आने के बाद हमारी नींद खुल रही थी और उसके बंद होते ही थकान की वजह से फिर आंख लग जा रही थी। लेकिन हमारे पास जगने के अलावा अब कोई चारा नहीं था। नहाने-धोने के लिए गया तो फिर से संडास के आगे झक सफेद तौलिया पड़ा हुआ पाया। उमेश्वर जी से पूछा तो उन्होंने कहा कि यह परंपरा है। मुझे समझ में आया कि होटल अपनी सफाई की मिसाल पेश करने के लिए ऐसा करता हो। सुबह नाश्ता करके हम दिनभर रिलायंस के प्रेस कांफ्रेस में बैठे रहे और पेन और पेपर का खेल खेलते रहे। शाम को हमें होटल से 25-30 किलोमीटर दूर ‘फैंटेशिया’ शो दिखाने ले जाया गया। यहां औरतों की दूसरी तस्वीर हमें देखने को मिली जिसका जिक्र हिन्दुस्तान में मुझसे किसी भी मित्र ने नहीं किया था। इस शो में औरत की दया और करुणा की तस्वीर का रंग ज्यादा गहरा था। प्रेम में विरह पाने की पीड़ा की अभिव्यक्ति ने मेरे सामने थाईलैंड की बिल्कुल अलहदा तस्वीर रखी।

ओ कमला……..तुम कहां गई?


‘फैंटेशिया’ के इस शो के पोस्टर मैंने फुकेट एयरपोर्ट पर भी देखे थे। यहां खूब चटकीले रंगों से खिलौने और खाने-पीने की दुकानें सजी-धजी हुई थीं। थाईलैंड को हाथियों का देश क्यों कहा जाता है, अब समझ में आ रहा था। यहां बहुत सारे हाथियों की मूर्तियां लगी थीं। कहीं चीनी मिट्टी तो कहीं लोहे के तार से तो कहीं काले पत्थरों से बने हाथी स्वागत की मुद्रा में लगे हुए थे। बहुत सारी जगहों पर सचमुच के भी हाथी थे, जिनके साथ हमने फोटो भी खिंचवाई। गुफानुमा रास्तों से होकर हम एक भव्य थियेटर में पहुंचे। हाॅल खचाखच भरा था। थोड़ी देर में लेजर लाइट का प्रदर्शन शुरू हो गया। उसके बाद ओ कमला…….. (बाकी थाई भाषा में था इसलिए शब्द नहीं भावों को पढ़ने की कोशिश की) से शो शुरू हुआ। दरअसल, इस शो में एक प्रेमी और प्रेमिका के विरह का वर्णन दिखाया जाता है। शो के साथ जादू, जानवरों और पक्षियों के खेल भी दिखाए जाते हैं। कुछ सर्कस में जिमनास्टिक अदाओं वाले खेल भी होते हैं। वास्तविकता में ये सारे खेल विरह कथा के साथ चल रहे होते हैं। दर्शकों को बांधे रखने के लिए तो कुछ ऐसे खेल जरूरी होते हैं। इस शो में राक्षस, भगवान सबकुछ भारत जैसे ही दिख रहे थे। हमारे भगवान या नायक जिस तरह कोमल और मासूम छवि वाले होते हैं। उनके भी हू-ब-हू वैसे ही।एक घंटे के शो में बकरी, घोड़े, हाथी और कबूतर भी पूरी तरह प्रशिक्षित दिखे। सचमुच मैं इस शो को देखकर धन्य-धन्य हो गया। शो के बाद हम एक भारतीय रेस्तरां में खाने गए। इस रेस्तरां में मछली की रेसेपी बहुत ही लाजवाब। मजा आ गया। हम थके-मांदे होटल आए।

 दूसरे दिन सुबह 12 बजे हमें फुकेट एयरपोर्ट के लिए निकलना था। हम अपने-अपने कमरों में जा सो गए। हम अपने तय कार्यक्रम के हिसाब से टैंपो टेªवलर में 12 बजे दोपहर में बैठ गए और भारतीय समयानुसार रात 9 बजे हम दिल्ली के एयपोर्ट पहुंच गए। रीना और शब्द मेरा इंतजार करते हुए मेट्रो के बाहर मिले। शब्द अजीबोगरीब आवाजें निकालाता हुआ दौड़ा और कूदकर मेरी गोद चढ़ गया। दूसरे दिन जब आॅफिस  पहुंचा तो जाने से पहले वाले कल्पना लोक में ही मेरे मित्र घूम रहे थे। उन्हें मैंने भी जगाने का काम नहीं किया। मैंने उनकी उत्सुकता वाले पहलू पर कोई खास बातचीत नहीं की। मैं उन्हें जो बताना चाहता था, वे उसे सुनने की मानसिकता में नहीं थे। वहां खीची गई तस्वीर में भी उन्हें ऐसा कुछ नहीं देखने को मिला तो उन्होंने मुझे बुद्धू मान लिया। मैं भी उन्हें होशियार कहां मानता था, सो हम अपनी-अपनी बुद्धि के सहारे ही चलना ठीक मानते रहे।

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