क्रान्ति के कपड़े

अर्चना वर्मा

अर्चना वर्मा प्रसिद्ध कथाकार और स्त्रीवादी विचारक हैं.  ई मेल :  mamushu46@gmail.com

2007 के अन्तरराष्ट्रीय -वाणिज्य-मेले के समय ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी जिसमेँ अठारह दिसंबर, दो हजार पांच के ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की रिपोर्ट को उद्धृत करते हुए बताया गया था कि सन दो हजार तीन के मेले में सेल्स-गर्ल की स्कर्ट की लंबाई अठारह इञ्च और दैनिक भुगतान पंद्रह सौ रूपया था जो दो हजार पांच में बढ़ कर दो हजार हो गया था। उस समय, 2007 मेँ चालू मेले में स्कर्ट की लंबाई बारह इञ्च और दैनिक भुगतान तीन हजार रूपया था। लेकिन यह भुगतान सबके लिये समान दर से होने वाला नहीं था।

मेले के दौरान दिल्ली शहर के युवा छात्र छात्राएं वहाँ अस्थायी रोज़गार के तौर पर जेबखर्च कमाने के लिये ‘सेल्स बॉयज़ ‘ और ‘ सेल्स गर्ल्स ‘ की हैसियत से काम कर लिया करते हैं। भुगतान की दर अलग अलग किस्म की दूकानों पर अलग अलग किस्म के ड्रेस कोड के अनुसार अलग अलग हुआ करती है। घरेलू उपयोग का साजसामान बेचने वाली दूकान पर साड़ी या सलवार कमीज़ में उपस्थित विक्रय–परिचारिका का वेतन उस रिपोर्ट के अनुसार तब तीन सौ रूपया प्रतिदिन था और ‘इलेक्ट्रॉनिक गुड्स’ की दूकान पर ‘ मिनी स्कर्ट ‘ में आपका स्वागत करनेवाली ‘सेल्सगर्ल’ तब दिन भर की मेहनत के बदले मे तीन हज़ार रूपया पाती थी। ज़ाहिर है कि वहाँ पर ख़रीद में सामान के साथ सुंदर सुडौल अनावृत्त टांगों का दर्शन अतिरिक्त पाया जाता रहा होगा और कुछ न भी खरीदना हो तो भी दुकान तक जाने का एक आकर्षण तो रहता ही होगा। चले ही गये होंगे लोग तो क्या पता शायद कुछ खरीद भी लाये होंगे। बहेलिये तो लासा लगा कर जाल फैलाते ही हैँ।

तब से अब तक सात या आठ बरस और बीत गये हैं। तब से अब तक में हमारी रिहायशी दुनिया की सूरत ही अब एक लम्बे लगातार मेले मेँ बदल चुकी है और उसके अनुरूप समाज के एक वर्ग में हमारी जीवन पद्धति भी। उस वर्ग में अब हमें याद भी नहीं आता कि मेला रहने की जगह नहीं, थोड़ी देर घूम कर लौट आने की जगह है।लेकिन लौट कर अब आयें कहां? मेले ने तो घर में भी घर कर लिया है। इस मेले की न कोई चौहद्दी न चारदीवारी। लेकिन बेहतर है कि इस पैमाने के मेले मेँ मौका है, हर एक के लिये। बेहतर है कि यह खेल का, ‘सेल’ का, एक समतल मैदान है। उन के लिये यह मौका और मैदान कुछ और अधिक बेहतर और समतल है जिनके पास बोलने के लिये अंग्रेज़ी और दिखाने के लिये सुंदर, सुडौल, अनावृत्त टांगे मौजूद हैं।

मुझे अहसास है कि मेरी ये टिप्पणियाँ हद दर्जे की ‘सेक्सिस्ट’ करार दी जाने वाली हैँ। अहसास है इस बात का भी कि अपने बारे मेँ खुले दिमाग़ का मेरा मुगालता भी बस चकनाचूर किया जाने को है लेकिन फिर भी मैँ पूछूँगी अपना सवाल कि आदमी ने कपड़ा आखिर बनाया ही क्यों? यह जवाब पुराना और अप्रासंगिक हो चुका है कि नग्नता उसके लिये असहनीय रूप से बदसूरत थी और सभ्यता की दिशा में पहला कदम उसने शरीर को ढक कर बढ़ाया था। जी नहीं, इस अन्तर्राष्ट्रीय-वाणिज्य-मेले का जवाब शायद यह होगा कि वही एक उत्पाद था जिसको सबसे पहले ‘मार्केट’ किया जा सकता था। सिर से पांव तक ढकने की संस्कृति क्यों आई? क्योंकि कपड़ा बेचना था। कहां से आई? कपड़े का बाज़ार बढ़ाने की ज़रूरत से। अब क्यों गायब होती जा रही है ? क्योंकि कपड़े के अलावा अब इतना बहुत कुछ है बेचने के लिये जिसे बेचने में कपड़े कम से कम होकर ज़्यादा से ज़्यादा मददगार हैं। भूमण्डलीय ग्राम के वाणिज्य मेले की दिशा में गंतव्य तक दौड़ के लिये देह सबसे सहज सवारी है। एक मैराथॉन दौड़ जो शॉर्ट-कट की फ़िलॉसफ़ी के तहत दौड़ी जा रही है।

सच कहूं तो लड़कियों का अपनी देह में यह सहज स्वच्छंद, निस्संकोच वास मन को मुग्ध करता है। भले ही अभी समाज के कुछ ही हिस्सों में व्याप्त हो लेकिन है यह सचमुच क्रान्ति। लेकिन क्रान्ति क्या किसी खास नाप या डिज़ाइन के ही कपड़े पहनती है तभी क्रान्ति कहलाती है? मामला जब ‘लाइफ़स्टाइल’ और ‘स्टैण्डर्ड आफ़ लिविंग’ का बना दिया जाय और ‘स्टैण्डर्ड आफ़ लिविंग’ जब ‘क्वालिटी ऑफ़ लाइफ़’ का स्थानापन्न बन जाय तब ऐसी भी परिणतियाँ होती हैं। ये वाक्यांश इसलिये अंग्रेजी में दिये जा रहे हैँ क्योंकि उस वर्ग के ये प्रचलित मुहावरे हैँ और हिन्दी में अनूदित होकर अपनी आन-बान-शान खो बैठते हैं। तो बिल्कुल ज़रूरी नहीं रहता कि स्पगेट्टी स्ट्रैप, हेल्टर टॉप, बैकलेस ब्लाउज़ में पीठ, कन्धे या वक्ष को खुला/अधखुला छोड़ने वाला शरीर दिमाग़ से भी खुला हो। बल्कि शायद वह सहज स्वच्छन्द की ठीक उलटी दिशा में असहज-स्वच्छन्द होने की कोशिश कर रहा हो। अनावश्यलक ही आत्म-सजग। एक साथ विरोधी दिशाओं में दौड़ता हुआ। कोई देख तो नहीं रहा? कोई देख क्यों नहीं रहा? देख रहा है तो ऐसे क्यों देख रहा है?

कैसे भूला जा सकता है हम किसी सामाजिक-सांस्कृतिक शून्य मेँ नहीं रहते और हमारी स्वच्छन्दता किसी शून्य में सक्रिय नहीं होती। समाज के अलग अलग इलाकों में अलग अलग संस्कृति के पास अपनी अलग अलग आचरण संहिता या ‘कोड ऑफ़ कंडक्ट’ है। खेल के मैदान में सानिया मिर्ज़ा के स्कर्ट की नाप को लेकर मचाया गया हल्ला ग़लत और बेकार था, क्योंकि स्कर्ट की वह नाप अन्य प्रतियोगियों के साथ उसकी प्रतिद्वन्द्विता को अधिक समतल धरातल पर स्थापित करती है और खेल के संदर्भ–समाज में ‘कोड ऑफ़ कंडक्ट’ के अधीन है लेकिन सेल के मैदान मेँ सेल्सगर्ल के स्कर्ट की नाप के पास कोई कोड ऑफ़ कण्डक्ट नहीं, वह उसे बिकने वाले सामान के पैकेज का हिस्सा बनाती है और साड़ी या सलवार कमीज पहनने वाली विक्रय-परिचारिका के लिये अवसर को असमान और मैदान को असमतल कर देती है। जिस समुद्रतट पर पूरी की पूरी भीड़ स्विमिंग सूट में हों वहाँ किसी का शरीर अलग से नहीं दिखता, न्यूड-फार्म पर किसी की नग्नता महसूस नहीं होती, अपने घर पर पार्टी की निजता मेँ या पाँच सितारा होटल में पार्टी की सामूहिकता में जो स्पगेट्टी स्ट्रैप, हेल्टर टॉप, बैकलेस ब्लाउज़ और उनमे खुले/अधखुले पीठ, कन्धे या वक्ष सहज होते हैँ वे ही सड़क पर, कॉलेज में या मेट्रो और बस में आक्रामक हो उठते हैँ। हर खम्भे, हर दीवार, हर बिल-बोर्ड हर सम्भव जगह पर टँगा और घूरता सौन्दर्य और शृंगार पहले कभी इतना आक्रामक नहीं रहा होगा जितना अब। प्रतिक्रिया में प्रत्याक्रमण भी प्रत्याशित ही होगा। नहीं, इस बात की कोई गारण्टी नहीं की शरीर ढका होगा तो बलात्कार से सुरक्षित भी होगा। वह असुरक्षा तो स्त्री-शरीर नामके जन्मजात वस्त्र की है।

मैँ बात अपनी आज़ादी और क्रान्ति के चुनाव-चिह्न की कर रही हूँ। जिस सामाजिक ‘कोड ऑफ़ कंडक्ट’ की बुनियाद में अन्याय निहित हो उसे ललकारने और बदलने की ज़रूरत होती है। लेकिन हम उसे कैसे चुनते हैँ? जिस समाज में अधिकतम संख्या अभी उन स्त्रियों की हो जो बुनियादी न्यूनतम मानवाधिकारों से भी वंचित हैं वहाँ हमारी प्राथमिकताएँ क्या हैं? क्या हम देख पा रहे हैँ कि जिसे हम स्वच्छंदता का दावा बना कर पेश कर रहे हैँ वह केवल फ़ैशन है, ‘स्किनडीप’ तक भी नहीं, ‘स्किन’ के भी ऊपर, केवल कपड़ों तक बाकी रह जाता है। और अक्सर तो कुल क्रान्ति कपड़ों मेँ ही रह जाती है। जब घूंघट उठाना ही विद्रोह हो तब इस ललकार की कीमत समझी जा सकती है। लेकिन घूँघट में कैद हो सीता तो राधा को अपने कपड़े उतार कर यह दावा नहीं कर सकती कि सीता की आज़ादी का बिगुल बज रहा है। वह बजेगा ही नहीं।

यह शायद पिछली सदी से आई एक औरत का पूर्वग्रह ही हो लेकिन मुझे लगता है कि जब स्वच्छंदता का बोलबाला हो चुका हो तब स्वेच्छा से कुछ निषेधों का चुनाव उचित है। निषेधों के चुनाव की स्वेच्छा में स्वतंत्रता सुरक्षित है। निषेध नहीं होते तो विधेयों की कीमत भी जाती रहती है और अन्ततः उस स्वच्छंदता की भी जिसे हमारी पिछली पीढ़ी ने महंगे मोल कमाया और विरासत में हमें दिया।

( जनसत्ता से साभार )

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