सुनीता झाड़े की कवितायें : हम गुनाहगार औरतें और अन्य

सुनीता झाड़े


सुनीता झाड़े मराठी और हिन्दी में कवितायें लिखती हैं . नागपुर में रहती हैं . संपर्क: commonwomen@gmail.com

१ . हम गुनहगार औरतें

सांझ की धुप
जाने कितनी ही देर से किवाडो पर ही टीकी थी
इस इंतजार में कि
जमीं  की चादर पर बिखर के एक गहरी सांस ही ले ले
और मैं बेखबर
बेखबर अपने आपसे पतंग मांजा करते हुए
मांजा जो दिखाई नही देता और पतंग है
जो उडने को बेकरार

किसीने दरवाजे पर दस्तक दी
कोई आया नही बस बाहर से ही दस्तखत लिए
जुर्म के कागज थमा गया.
कितने गुनाहो के कागजाद आते हैं
और मैं, जो हर एक कागज पर दस्तखत करती,
अपने आप को सजा देती हूं
देखो तो, जैसे सजा के लिए दरवाजा खोला
सलाखो वाले दरवाजे के भीतर अपने आप को पाया
अब तक किवाडो पर टिकी धूप भी
मेरी परछाई लिए कुछ इस तरह फैली
मानो मुझे पकडकर जेल के अंदर बंद कर दिया हो
चलो अब मैं तुम्हारी भी गुनहगार हूं

किवाड को खुला कर किवाड के पास ही बैठी रही
उस धूप को देखते जो धीरे धीरे अलसा रही थी.
गहरे सुनहरे रंग की पलके अब डूब  जाना चाहती थी
मैं चाहती थी वो और कुछ समय मेरे साथ रुके
इन दिवारो को उन के धुप  की कहानी सुनाए

अक्सर जेल की  दीवारो में देखा गया है कि
किसी कोने में पानी का एक मटका होता है.
उसपर जर्मन की थाली.
उसपर संतरे के रंग का प्लास्टीक का ग्लास.
डुबाओ और पियो
बस उस खाली से समय में पानी पीयो
प्यास लगी इसलिए , भूख  लगी इसलिए
कोई याद आया इसलिए , किसे भूल जाना है इसलिए,
आसू जो पत्थर बन गले में अटक गया है इसलिए
और इसलिए भी कि सजा कट जाए, खतम हो जाए
रिहा हो जाए सारे शिकवे- शिकायत से रिहा हो जाए
एसे अनगिनत वजह से,
एसे ही अनगिनत बार मैने भी पानी पीया  है…
पानी जो जीवन है, पानी जो जीना सिखाता है,
पानी जो सोच को सोख भी लेता है…
बहरहाल मै अपने आप को उस जेल से आजाद कर
एक मग पानी पीने निकल गई.

तुम्हे किसी भी समय प्यास लगती है,
मेरे पानी पीने पर उसका एतराज  याद आया

जब वापस उस जेल  में जाना चाहा तो पाया
जेल, जेलर, दरवाजे सब गायब. मुझसे  सब आजाद

कोई है ?
हर कोने को दी गई आवाज;
जो एक दिया जलाए
शाम होते ही यादो की परछाईया जैसे घेर लेती हैं
उठने ही नही देती. किसी का संगीत,
किसी की शहनाई, किसी की बिदाई,
कितनी ही कोशिशें , कितनी ही कहानियाँ
और एक इकट्ठी  आवाज
तुम कुछ कहती क्यूं  नही?
तुम कैसे बर्दाश्त करती हो?
तुम गलत कर रही हो?
तुम गुनहगार हो

हाँ
हम गुनहगार है
कि सच का परचम उठा के निकले
तो झूठ के शाह राहें अटी मिलीं
हर एक दहलीज पें सजाऒं की दास्तानें रखी मिलीं
जो बोल सकती थी वो जबानें कटी मिलीं

२. आशियाना

भीतर दीवारो में अंधेरा छिपा था शायद
या फिर अंधेरो में दीवारें गढी थीं
पता नही पर उस अंधेरे मे उसका उजला सा चेहरा अच्छा लगा.

अच्छी लगी परोस कर खतम किये गये
चावल की महक
लगा चावल की तरह अधपके ढके हुए से हैं
भांप में खुशबू -खुशबू खेलते

पता चला कुछ धीमे  से उजाले जलाये थे उसने
जिनमें  किसी भी प्रहर का पता नही चलाता था.
एक समय था, जो कई युगों से वही थमा था,
और उस ठहरे से समय की कुर्सी   पर
सामने वो किसी पोट्रेट की तरह
साडी सरकी थी कंधो से नीचे
खुली बाह में अटकी
गले मे मोतियों  की लड़ी
फिर सुनहरे बाल सुनहरा रंग
बला की खूबसूरती
हसती थी तो मानो
लेकिन  उस हंसी में कुछ सिसकियाँ  सी थी
बातो में चुभन

नीचे देखा कालीन पर पैर कुछ ज्यादा ही काले दिख रहे थे
सिकुडकर भिंच लिए गए भीतर
कछुये की काया की तरह
बस नजरो का पता चले
नजर उन तख्त, ताज को देखती
यहां से, वहां से, उस से
कितनो से सुना फिर से सुन सुन
उसपर एक नक्काशी हंसी
नक्काशीदार कारागीरी में विलीन होती

पुरखो की तस्वीरें ताजा तरीन
मानो तस्वीर में ही उनका अपना मकान हो
और देख रहे हो शायद कुछ इस अंदाज से
कौन…? कौन है…?
हर सीढी के साथ उपर ले जाती
और हर तस्वीर से आती अवाज
कौन है… कौन है… कौन…?
और फिर
और भी ज्यादा सिकुडकर
उनके पीछे  उनके स्ट्डी में दाखिल.
एसी लगे कमरे में अलगाववादी पुस्तकें
कोई लगाव ही  नही हो जैसे

फिर झट से बेडरुम की तरफ
यह मेरा बेडरूम है
हर बार बेडरुम देखते समय
नजर बेड पर से ऎसे गुजरती है जैसे…
एक तस्वीर थी ’उनका’ माथे चुमते हुए
और सवाल, क्या अभी भी इतना ही प्यार
कितने ही जवाब एक नहीं  के बदले

और फिर उस बर्फीली जमीन की छत, उंची
कभी बर्फबारी हो भी तो सीने से उतर जाये
पिघल जाये  सफेद चादर में लिपटी यादें.
मैं तो यूं  ही थम गयी
उन यादों के साथ उसे देखते
और वह बारी बारी बताती रही
ये वो, यहां से, वहां से
गमले, पेड, पौधे, बेल… बल पडे माथे के साथ
फिर सीढ़ियों  से नीचे  उतर
एक और बगल के कमरे मे दाखील
कमरे में ताजा सिगरेट की तलब से निकला धुआँ
उंची एडी की चप्पलें , कुछ बैग ,  कुछ किताबें
टेबल के पिछली दीवार र पर टंगी   हुई
कुछ तस्वीरें, कुछ सपने,  कुछ ख्वाहिशें
अपने आपसे की कुछ गुजारिश
देखना चाहा था उसे पर ना वो दिखी
ना उसकी कोई तस्वीर…
सुना किउससे बडी वाली ज्यादा सुंदर है

और..
फिर वापस उन सारी तस्वीरों के सामने से
जो एक एक कर बुदबुदा रही थी मन ही मन
फिर से कौन… कौन है???
वापस हॉल में पहुंच
अपने ऊंचे लकडे के सामान को लेकर
वह उत्तेजित कितने ही वृक्ष दोष लगे होगें इन्हे, पितृदोष जैसे…

पिछेसे उंची कढाई वाली अलमारी में
भारी काच का सामान देखा, सुनहरे  रंग की कुछ बोतलें
न जाने क्यूं  मुझे युहीं दिख गया
पतले से कांच के ग्लास को भींच के तोडा हुआ एक हाथ
और हांथ  में काच के टुकडे, रक्त से सिलसिलाते….
वॉशरुम???
वह बाहर
और में भीतर देख रही थी उसे
आईने के सामने, फ्लॅश खोल उसकी रुआसां सूरत
जाने कितनी ही देर
फिर हाथों से पानी ले चेहरा ढकती
कई बार.
उन सब यादों पर पानी फेरती,
आंखो की कड़ाही तक पोछती

उस छलके हुए काजल के लकीर को देख
ठहरी रही फिर से उसकी राह देखते
जो कह गया था,
इस फैले से काजल में तुम
और भी सुंदर दिखती हो

इस घर को देखने से पहले तुम्हारी बात मान लेनी थी मुझे
‘ मिलने जा रहे हो, वहीं खो न जाना सुकूंन
दिखाऒं तो कहां हूँ  मैं !

३. सफर 

वहां दीवार पर लिखा था
यह कब्रिस्तान  है यहां पेशाब न करें

दस कदम की दूरी  पर
सात जन्मो के
धागों से बंधा हुआ बरगद
पांच कदम की दूरी  पर पाठशाला

कब्रिस्तान का एक भूत
बरगद पर सात धागो से बंधा
अपनी सत्तो की राह देखता

सत्तो जो अभी सातवी कक्षा की तयारी में है

न जाने अभी और कितने जनम

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ISSN 2394-093X
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