हाशिये का हर्फ या वर्चस्ववादी विमर्श
हर पुरुष अपनी चमडी के भीतर मर्द ही होता है
पाखी का सम्पादकीय : मैं चांद पर हूं .. मगर कब तक
कवितायें ……
चालीस पार की औरत
कलावंती सिंह
एक
किसी बरसात की
घनघोर बारिशवाली रात
एक चालीस
पार की औरत
भीगती हुई थरथराती है
कुछ अघोरी आवाजें
हर वक्त उसका पीछा करती हैं
यह बरगद की जटा पकड़कर
झूलनेवाली डायनों की आवाजें हैं
वे हर अमावस की रात
बरगद की जड़ें पकड़कर
खेलती हैं छुआ-छुई का खेल
चालीस पार की औरत को लगता है
ठीक बरगद की तरह ही ठहर गई है उसकी जिंदगी भी
वे जहाँ हैं वहाँ से हिल भी नहीं सकतीं
कभी कभी उन्हें लगता है
बरगद की झूलती हुई जड़ें
उनके ही खुले हुए केश हैं
रातभर अपनी चिंताओं और कुंठाओं के साथ
वे ही उनमें झूलती हैं।
दो
कभी कभी बड़ी खतरनाक होती है
यह चालीस पार की औरत
वह तुम्हें ठीक ठीक पहचानती है जिसे
तुम नहीं पढ़ा सकते चालीस का पहाड़ा
क्योंकि वह खुद को भी अच्छी तरह पहचानती है
वह समझती है जीवन का ऊँच नीच
जानती है कहाँ लपेटेंगे उसे पंक कीच
वह तुम्हारे छल पहचानती है
और हँसती है एक निष्छल हँसी
वह घूमती है तीनों लोकों में
तीनों युगों में – त्रेता, द्वापर और कलियुग।
बचाए रहती है अपने हिस्से का सतयुग
वह पानी पिला भी सकती है
और पानी उतार भी सकती है
चालीस पार की औरत के पास होती है सत्ता
उसके अपने संविधान के साथ।
बड़ी खुद्दार हैं, खुदमुख्तार हैं ये
चालीस साला औरतें
अंजू शर्मा
इन अलसाई आँखों ने
रात भर जाग कर खरीदे हैं
कुछ बंजारा सपने
सालों से पोस्टपोन की गई
उम्मीदें उफान पर हैं
कि पूरे होने का यही वक्त
तय हुआ होगा शायद
अभी नन्हीं उँगलियों से जरा ढीली ही हुई है
इन हाथों की पकड़
कि थिरक रहे हैं वे कीबोर्ड पर
उड़ाने लगे हैं उमंगों की पतंगे
लिखने लगे हैं बगावतों की नित नई दास्तान,
सँभालो उन्हे कि घी-तेल लगा आँचल
अब बनने को ही है परचम
कंधों को छूने लगी नौनिहालों की लंबाई
और साथ बढ़ने लगा है सुसुप्त उम्मीदों का भी कद
और जिनके जूतों में समाने लगे है नन्हें नन्हें पाँव
वे पाँव नापने को तैयार हैं
यथार्थ के धरातल का नया सफर
बेफिक्र हैं कलमों में घुलती चाँदी से
चश्मे के बदलते नंबर से
हार्मोन्स के असंतुलन से
अवसाद से अक्सर बदलते मूड से
मीनोपाज की आहट के साइड एफेक्ट्स से
किसे परवाह है,
ये मस्ती, ये बेपरवाही,
गवाह है कि बदलने लगी है ख्वाबों की लिपि
वे उठा चुकी हैं दबी हँसी से पहरे
वे मुक्त हैं अब प्रसूतिगृहों से,
मुक्त हैं जागकर कटी नेपी बदलती रातों से,
मुक्त हैं पति और बच्चों की व्यस्तताओं की चिंता से,
ये जो फैली हुई कमर का घेरा है न
ये दरअसल अनुभवों के वलयों का स्थायी पता है
और ये आँखों के इर्द गिर्द लकीरों का जाल है
वह हिसाब है उन सालों का जो अनाज बन
समाते रहे गृहस्थी की चक्की में
ये चर्बी नहीं
ये सेलुलाइड नहीं
ये स्ट्रेच मार्क्स नहीं
ये दरअसल छुपी, दमित इच्छाओं की पोटलियाँ हैं
जिनकी पदचापें अब नई दुनिया का द्वार ठकठकाने लगीं हैं
ये अलमारी के भीतर के चोर-खाने में छुपे प्रेमपत्र हैं
जिसकी तहों में असफल प्रेम की आहें हैं
ये किसी कोने में चुपके से चखी गई शराब की घूँटें है
जिसके कड़वेपन से बँधी हैं कई अकेली रातें,
ये उपवास के दिनों का वक्त गिनता सलाद है
जिसकी निगाहें सिर्फ अब चाँद नहीं सितारों पर है,
ये अंगवस्त्रों की उधड़ी सीवनें हैं
जिनके पास कई खामोश किस्से हैं
ये भगोने में अंत में बची तरकारी है
जिसने मैगी के साथ रतजगा काटा है
अपनी पूर्ववर्तियों से ठीक अलग
वे नहीं ढूँढ़ती हैं देवालयों में
देह की अनसुनी पुकार का समाधान
अपनी कामनाओं के ज्वार पर अब वे हँस देती हैं ठठाकर,
भूल जाती हैं जिंदगी की आपाधापी
कर देती शेयर एक रोमांटिक सा गाना,
मशगूल हो जाती हैं लिखने में एक प्रेम कविता,
पढ़ पाओ तो पढ़ो उन्हें
कि वे औरतें इतनी बार दोहराई गई कहानियाँ हैं
कि उनके चेहरों पर लिखा है उनका सारांश भी,
उनके प्रोफाइल पिक सा रंगीन न भी हो उनका जीवन
तो भी वे भरने को प्रतिबद्ध हैं अपने आभासी जीवन में
इंद्रधनुष के सातों रंग,
जी हाँ, वे फेसबुक पर मौजूद चालीस साला औरतें हैं
चालीस साला औरतें
सुशीला शिवराण
मुर्गे की बाँग से पहले
उठ जाती हैं चालीस साला औरतें
घड़ी के अलार्म से पहले
घनघना उठता है उनके मन का अलार्म
और पाँवों में लग जाते हैं पहिए
बल्ब, ट्यूब-लाईट की रोशनी को
मात देती है तीन-चार बर्नरों की लौ
मशीन हो जाते हैं हाथ
उम्र को धता बताते हुए।
कलफ़ लगी सलीके से पहनी साड़ी
सधे क़दमों से बढ़ती हैं गाड़ी की ओर
रसॊईवाले हाथों की
चपलता, सतर्कता
संभाल लेती है स्टीयरिंग
कलियों-सी मुस्कान बिखेरती
फूलों-सी महक लिए
दफ़्तर में दाखिल होती हैं
चालीस साला औरतें।
थकी-हारी पहुँचती हैं घर
एक चुस्की चाय
चहकते बच्चों की मुस्कान
भर देती है ऊर्जा से
बच्चों की पढ़ाई
दफ़्तर की गुफ्तगू
घर की बातें
समस्याएँ, चुनौतियाँ
चाँदी बन झाँकने लगती हैं
सुरूचि से बंधी केशराशि से
बच्चों की उपलब्धियों से
हो जाती हैं गरिमामयी
बच्चों की ट्रॉफियों की चमक से
दिपदिपाती हैं चालीस साला औरतें।
तृप्त मन लिए
रसोई में हो जाती हैं अन्नपूर्णा
कामवाली बाई अचरज से देखती है इन्हें
दीदी कभी थकती नहीं !
रात के खाने पर
पुडिंग में घोल देती हैं
ढेर-सी नेह की मिठास
बच्चों की तारीफ़ से
पिया की नेहभरी चितवन से
हो जाती हैं बाग़-बाग़
चालीस साला औरतें।
बिस्तर पर निढाल
थका तन, ताज़ा मन लिए
अगले दिन का ख़ाका बना
बेहद सुकून की
सबसे मीठी नींद सोती हैं
चालीस साला औरतें।
उम्र के चालीसवे पायदान पर
सोनी पांडेय
एक
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर
खडी मैँ देख रहीँ हूँ पलट कर
जीवन अध्याय ।
जीवन कभी अल्मस्त , अल्हड सी गाँव की गुईयाँ संग खेले गये
गुड्डे और गुडिया की कहानी तो
कभी माँ के गीतोँ मेँ पिरोये
राजा और रानी के जीवन संघर्ष की कहानी लगता है ।
धीरे – धीरे छूटते गये
रेत की तरह फिसलते गये
मुट्ठी मेँ कैद बचपन के स्वप्न
किशोर मन की आकाँक्षा
वो पहले प्रेम – पत्र की गुदगुदाहट
और युवा मन की बेचैन अभिलाषाओँ का अर्न्तद्वन्द
कैद ही रहा चौखट के भीतर
तुलसी के चौरे पर बँधे कलावे की तरह जीवन आँगन और गलियारे के मध्य भटकते हुए
बीत गया संस्कारोँ के बिहड मेँ
जीवन के बीस वर्ष ।
उम्र के चालीसवेँ पायदन पर बैठी निहारती हूँ
जीवन के मध्य का इतिहास
तो पाती हूँ सर्वत्र अपने मैँ का बिखरा हुआ भग्नावशेष
और कण्ठ तक रुका पडा विष
जो अभी तक रुका है ठीक ह्रदय के ऊपर
बैठी हूँ बनकर नीलकण्ठ ।
बीस के बाद मैँ पृथ्वी के रंगमँच पर ,
निभाती रही माँ , बहन , बेटी .बहू .पत्नी का किरदार
पाती रही स्वर्णपदक
मार कर खुद के अस्तित्व को ।
बचतन छूट गया . पीछे . बहुत पीछे
चलता रहा समय चक्र ।
दो
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर
बैठी , देख रही हूँ
कि , अब मैँ जीवन समर मेँ
ठहरी हुयी , स्थिर मैदानी नदी हूँ ।
अब नहीँ आते स्वप्न रंग- बिरंगे
नाचते , गाते , रुठते , मनाते
बचपन के ।
युवा मन की तरंग , जो बहा ले जाना चाहती थी
तमाम बेमानी वर्जनाओँ को ।
अब मैँ शिकायत नहीँ करती पिता से
कि क्योँ ब्याह कर भेज दिया
पराये देश ।
अब मैँ निकल पडी हूँ निश्चिँत
खुद की तलाश मेँ
निभाते हुए डयोढी की शर्त ।
शारीरिक . मानसिक . सामजिक , अनुबन्धोँ को धीरे – धीरे रख रही हूँ
तुलसी के चौरे पर बने ताखे मेँ
और खोज रही हूँ अपने हिस्से का आकाश
लिख रही हूँ ” बदनाम औरतोँ ” का सच
दर्ज कर रही हूँ ” तीसरी बेटी का हलफनामा ”
अब देवालयोँ मेँ नहीँ लगाती आस्था के फेरे
ये समय बीतता है अनुभव के पुस्तकालय मेँ
पढती हूँ . रचती हूँ . देखती हूँ .
सुनती हूँ, जीवन समर मेँ
गुनती हूँ , चुनती हूँ समुद्र से कुछ मनके
और सजा देती हूँ टूटती हुई वर्जनाओँ के द्वार पर टाँक कर तोरण मेँ ।
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर ।
तीन
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर बैठी
मैँ देख रही हूँ . बीते हुए पतझड और बसन्त
वर्षा और धूप
पाती हूँ
मेरी उँगली थाम चलने वाले पौधे , भाग रहे हैँ सरपट
निबटा चुकी हूँ जीवन के साठ प्रतिशत काम
फिरभी कुछ रिक्त है ।
अब थक चुकी हूँ बुहारते हुए आँगन
चढते हुए मन्दिर की सीढियाँ
आस्था – अनास्था का द्वन्द
जारी है
अब नहीँ लगती मुझे देवी की मूर्ति ,सच्ची
वह पुरुष सत्ता की साजिश के तहत
कैद , मन्दिरोँ मेँ
उपयोग की हुई वस्तु लगती है ।
और मैँ निकल पडी हूँ अब
तलाशने , अपना अस्तित्व
हाँ
उम्र के चालीसवेँ पायादन पर
मैँ खुद को पहचाने लगी हूँ
इस लिये माँग लायी हूँ
कुम्हार से चाक
कुछ शब्दोँ की गिली माटी का लोना
और गढ रही हूँ
हाशिये पर बिखरे हर्फ़ से
जीवन का मजबूत गढ
जहाँ चल रही है कोशिश
रचने की . एक नयी कहानी ,
क्योँ कि मैँ जान चुकी हूँ कि
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर , एक बार फिरसे
जन्म लेती है औरत ,और लिखती है
जीवन की कहानी
यहाँ कोयी राजा है न रानी ।
चार
उम्र के इस पायदान पर
मुक्त हो शारीरिक अनचाही
क्रियाओँ से औरत निश्चिँत एक नया अध्याय लिख रही है
अब गीता , मानस , मन्दिर की परिक्रमा छोड , रच रही है
शब्दोँ की तुलिका से यौवन के गीत ।
हाँ मैँ देख रही हूँ कि ये औरतेँ अपनी दमित इच्छाओँ को फिरसे जगा ,रंग भर रही है सपनोँ के खाली कैनवास पर ।
ये जानती और पहचानती हैँ धरती की गहराई और आकाश के विस्तार को . इस लिये सधे कदमोँ से भरतीँ हैँ उडान ।
ये तितली के मन की बात सुन सकती हैँ और भँवरोँ के मधुर गान के धुन पर नाच सकतीँ हैँ
दिखा सकती हैँ अपने सधे कदमोँ का हुनर . जहान को ।
ये औरतेँ जो केवल जीती रहीँ
वर्जनाओँ के दायरे मेँ जीवन
अब निकल रही हैँ ठीक पृथ्वी की नाभी से लेकर अमृत कलश
उम्र के चालीसवेँ पायदान पर ।
चालीस पार की औरतें
वीणा वत्सल सिंह
कुछ कच्चे कुछ पके सपनों की
दहलीज पर खडी होती हैं
चालीस पार की औरतें
जीवन के सच को पह्चानती
कर्तव्यों की वेदी पर
स्वयं को चढ़ाए होती हैं
चालीस पार की औरतें
इन्हें अब
दूध का उफन कर गिरना
उद्वेलित नहीं करता
हाथ से छूटकर
शीशे का टूटना
इनके ह्रदय की आहट नहीं होता
ये हर छोटी – बड़ी घटनाओं का
सच पहचान लेती हैं
चीडियों की चहचहाहट पर
पहले की तरह उमग कर नहीं हँसतीं
बस ,मुस्कुराकर
बच्चों को उनके चहकने की महत्ता
बताने लगती हैं
चालीस पार की औरतें
एकदम अलग होती हैं
एक अल्हड किशोरी
अपने से कम उम्र की औरतों से
चालीस पार कीऔरतें
पुरुष में प्रेम नहीं
प्रेम में पुरुष को
तलाशती हैं
जीवन के कड़वेपन को
आँसुओं के साथ घोल
चुपचुपाप पीने में
माहीर होती हैं
ये चालीस पार की औरतें
चालीस की उम्र
निवेदिता
मैं एक मीठी नींद लेना चाहती हूँ
40 की उम्र में भी चाहती हूँ कि
मेरे सर पर हाथ रख कर कोई कहे
सब ठीक हो जाएगा
ठीक वैसे ही जैसे बचपन में माँ
हमें बहलाया करती थी
हमारी उम्मीदें जगाती थीं
मैं इस उम्र में माँ की गोद में
सुकून की नींद लेना चाहती हूँ
उसके सीने से लिपट जी भर रोना चाहती हूँ
जानती हूँ समय ठहरता नहीं
बचपन पीछे लौट चुका है
फिर भी बार-बार मेरे आइने में मुस्कुराता है
मैं फिर से नन्हीं बच्ची की तरह
बेवजह रोना खिलखिलाना चाहती हूँ
मैंने तो कई सदियां गुज़ारी है
हर सदी में स्त्री का दुख एक सा है
हर सदी की स्त्री का संघर्ष
घर की दीवारों में दफ़न है
हर सदी में वह अपने को मिटाती रही है
घर के लिए सुकून और ख़ुशी तलाशती रही है
वह आंधी और तूफ़ानों के बीच कुछ रौशनी बचा लाई है
उस दिन के लिए जब बच्चे आएँगे तो उजाले में वह उनसे मिलेगी
और उनकी आँखों में तलाशेगी अपने लिए आदर और प्यार
कि बच्चे एक दिन कहेंगे
यह वही उजाला है जिसे हमारी माँ ने
सूरज से चुराया था
बादलों से छिपाया था
हवा के थपेड़ों से बचाया था
वह रोशनी है यह जिससे रौशन है इन्सान
चालीस पार की औरतें
शायकआलोक
सुनो तुम आसमान में चिन्ह लो एक तारा और करो उसे आँखों के इशारे
कहो उसे आँखों ही से कि करती हूँ तुम्हें जहाँ भर का प्रेम
तारे को उठा ले आया करो सिरहाने तक
उसे देर तक चूमकर अपनी पीठ से सटा कर सोया करो
उसे कहो वह देता रहे तुम्हें थपकियाँ
उसकी नाक तुम्हारी गर्दन पर
उसकी जीभ तुम्हारे कान पर हो.
तुम चिट्ठियों में लिख दो अपना सारा प्रेम
हलन्त-अल्पविराम-विस्मयादी में दर्ज करो मन के दुःख
और चिट्ठियों को नदी में बहा दो.
तुम्हारी इच्छा है कि तुम अपने बालों का रंग सुनहरा कर लो
बदल लो तुम अपने कपडे पहनने का तरीका
आँखों के कोर पर ही नहीं पलकों पर भी चढ़ा लो काजल का मोटा रंग
गोल बिंदी के बजाय तीर बनाया करो माथे पर.
और सुनो तुम मंगलसूत्र को बक्से में रख दो कुछ दिन.
तुम घर में अपना एक कोना बना लो
हाथों में कुछ लकीरें रखो जिसे अपनी इच्छा पर मन पर बिस्तर पर
खेंच दो कहीं भी आवश्यकतानुसार
तुम चाहो तो गले से कुछ गुनगुना लो
और मन हो तो कह दो कि इन दिनों मौन के प्रयोग पर हो तुम.
सुनो परले मकान की चालीस पार औरत
जरुरी है कि तुम कभी कभी आवारा हो जाया करो
बेहद जरुरी कि बेबात लम्पटों की तरह भी मुस्कुराया करो.