इस साक्षात्कार के अवसर पर स्त्रीकाल के संपादकों से बातचीत करते हुए प्रोफ मैनेजर पाण्डेय |
शुरुआत एक सामान्य सवाल से ही की जाए, आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी आलोचना के विकास को आप किस तरह देखते है? आलोचकों के एक वर्ग का यह मानना है कि हिंदी आलोचना आज भी शुक्ल जी से आगे नहीं बढ़ पाई है?
देखिए, ऐसा है कि हिंदी आलोचना में एक खास प्रवृति है व्यक्ति पूजा की। यदि सम्पूर्ण हिंदी साहित्य की बात छोडकर केवल हिंदी आलोचना पर ही बात करुं तो आपको बीसो जगह यह लिखा मिल जाएगा कि नामवर जी के बाद हिंदी आलोचना स्थिर हो गई या रामविलास जी के बाद आलोचना में कुछ नहीं हुआ। कुछ नामवर जी को मानने वाले है, कुछ रामविलास जी को। लेकिन दोनों का कहना यही है कि इनके बाद आलोचना में कुछ नहीं हुआ। ज्यादा अच्छा यह होगा कि इस व्यक्ति पूजा की प्रवृत्ति को छोड़कर हम परवर्ती आलोचना की प्रमुुख प्रवृत्तियों , उसका विकास एवं उसकी परिस्थितियों पर विचार करें। यदि विस्तार से देखें तो आचार्य शुक्ल के बाद हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ही उनसे भिन्न इतिहास और आलोचना-दृष्टि विकसित करते हुए आलोचना लिखी तब यह बताइये कि क्या इससे हिंदी आलोचना आगे बढ़ी या पीछे गई. शुक्ल जी के प्रति पूरे सम्मान के बावजूद भी आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी ने उनसे भिन्न दृष्टि अपनाते हुए छायावाद की आलोचना लिखी। छायावाद और उसके सबसे बडे कवि माने जाने वाले निराला की जो आलोचना रामविलास शर्मा ने लिखी उससे क्या हिंदी आलोचना शुक्ल जी से आगे नहीं बढ़ी? नामवर जी की छायावाद वाली पुस्तक से क्या हिंदी आलोचना आगे नहीं बढ़ी? इसने पाठकों की दृष्टि विकसित की। जाहिर है कि आगे बढ़ी। इसलिए यह कहना ठीक नहीं है कि आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी आलोचना का कोई विकास नहीं हुआ। इससे आगे कि बात मैं इसलिए नहीं करना चाहता कि उसमें कहीं न कहीं मै भी हूं .
तब क्या हजारी प्रसाद द्विवेदी की कबीर पर जो आलोचना है उसे इस तरह देखा जाए कि आचार्य शुक्ल पर उनका ब्राम्हणवाद अधिक हावी था, कबीर द्विवेदी जी की आलोचना दृष्टि का एक शिफ्ट है?
रामचन्द्र शुक्ल को ब्राम्हणवादी कहना कुल मिलाकर देखा जाए तो दलित-दृष्टि से साहित्य पर विचार करना है । अगर आचार्य शुक्ल ब्राम्हणवादी थे तो जिस जायसी का हिंदी में कहीं नाम नहीं था उसकी सम्पूर्ण ग्रंथावली को 200 पृष्ट की भूमिका के साथ क्यों प्रकाशित करवाते? इसलिए यह कहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता कि शुक्ल जी ब्राम्हणवादी थे।
यह क्या आप रचनाकारों की खोज के आधार पर कह रहे हैं या किसी नवीन सैंद्धांतिकी की दृष्टि से आलोचना के सन्दर्भ में कह रहे है?
यह दूसरे किस्म का सवाल हुुआ। लेकिन मैं कहना चाहूंग कि जिसने हिंदी आलोचना की सैद्धांतिक सोच का विकास किया, वे थे मुक्तिबोध। लेकिन उन्हे कोई पढे़ ही नही ,तो कथावाचक की तरह मुक्तिबोध तो हर घर पर बता कर नहीं आ सकते। इस बात को लेकर कम से कम चार बार तो मैने ही लिखा है। आचार्य शुक्ल के आलोचना कर्म की एक खास विशेषता यह थी कि वे जितने भारतीय काव्यशास्त्रियों की पम्परा से जुडे थे वहीं पाश्चात्य काव्यशास्त्र का भी उन्हे गम्भीर एवं विशद ज्ञान था। बाद में आलोचना के भारतीय एवं पाश्चात्य चिंतन से जुडे लोग अलग-अलग हो गए अतः समग्र दृष्टि विकसित नहीं हुई। प्रगतिशील हिंदी आलोचना के दौर में तो सैंद्वांतिकी की बहुत कम जरुरत रह गई थी क्योंकि उसका सैंद्वांतिक आधार मार्क्सवाद था। नामवर जी ने इस पर लिखा है बल्कि उन्होने कई बार कहा भी है कि आलोचना तो व्यावहारिक ही होती है, सैद्वांतिकी कोई आलोचना नहीं होती।
प्रोफ. मैनेजर पाण्डेय |
मुक्तिबोध के यहां से किस तरह सैद्वांतिक विकास आप देख रहे है?
देखिए, मुक्तिबोध सबसे पहले कामायनी की व्याख्या एक फैंटेसी मानकर करते हैं, वे उसे बुर्जआ वर्ग की अंतिम प्रतिनिधि कृति कहते हैं । कामायनी की इस ढंग कि व्याख्या न तो मुक्ति बोध से पहले हुई तथा न उसके बाद में। उन्होने बार-बार इस बात पर बल दिया है कि ’साहित्य रचना एक सांस्कृतिक कर्म है’ यह बात व्याख्या की मांग करती है ’एक साहित्य की डायरी’ में उन्होने काव्य की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए सृजन के तीन क्षणों की बात कही है। यानी मुक्तिबोध से पहले आलेाचना में रचना प्रक्रिया का क्षेत्र उपेक्षित था जिस पर उन्होने बात करके एक नवीन सैंद्वांतिक पक्ष रखा।
यदि परवर्ती आलोचना के विकास की बात की जाए तो क्या आप दलित चिंतन की दृष्टि से हिंदी आलोचना का विकास नहीं देखते ! दलित आलोचना विचार के स्तर पर वह अम्बेडकरी चिंतन से प्रेरणा लेते हुए नई सौन्दर्य एवं कला दृष्टि की बात करती है?
रामचंद्र शुक्ल |
चिंतन का विकास असहमति , खण्डन-मण्डन एवं द्वंद्व की प्रक्रिया से होता है . काव्याशास्त्रीय दृष्टि से देखे तो पश्चिम में यह प्लेटों अरस्तु से लेकर आई ए रिचर्डस तक एवं भारतीय संदर्भो में भरत मुनि से लेकर जगन्नाथ तक यही द्वंद और असहमति की पंरपरा रही है. दलित दृष्टि की सीमा यह है कि वह अपने प्रति असहमति को बर्दाश्त नहीं कर सकती।वह स्वयं के कहे और लिखे को ही श्रेष्ठ मानती है इसलिए अगर वैचारिक विकास की प्रक्रिया का ही अनुसरण नहीं किया जा रहा है तो वहाॅ विकास कैसे होगा?
लेकिन दलित साहित्य और आलोचना दृष्टि साहित्य में एक वैचारिक शिप्ट तो है ही ,जैसे धर्मवीर की कबीर संबंधी आलोचना. क्या यह कबीर के साहित्य को देखने की अलग दृष्टि नहीं है, क्या इससे हिंदी आलोचना समृद्ध नहीं हुई?
कबीर संबंधी धर्मवीर की जो पुस्तक है वह कबीर पर नहीं; कबीर के आलोचकों पर है। यही उनकी पुस्तक का नाम भी है । कबीर की कविता की किन्ही चार पंक्तियों की भी उनकी कोई विशिष्ट व्याख्या हो तो कोई मुझे बताये। धर्मवीर को मैं मानता था। मैने ही उन्हे जे एन यू में बुलाया भी था। फोन पर बातचीत में उन्होने कहा कि मै कबीर तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी पर बोलना चाहता हॅू। लेकिन इस पर होने वाले विवाद को आप किस तरह शांत कर पायेगें इस पर मैने उन्हे आश्वस्त किया कि हमारे विश्वविद्यालय के विद्यार्थी आप से सवाल कर सकते हैं बहस कर सकते है। लेकिन मारपीट नहीं करेंगें और वही हुआ भी । उनसे किसी ने गलत ढंग से यह नहीं कहा कि आप ऐसा क्यों कह रहे है? लेकिन बाद में उन्होने मेरे बारे में ही जो कुछ लिखा, तब से मैने उन्हे पढ़ना छोड दिया। एक घटना का जिक्र करना चाहुॅंगा । धर्मवीर की इसी पुस्तक पर एक गोष्ठी हुई थी। मै पूरी तैयारी के साथ इस गोष्ठी में गया और मैने कहा कि धर्मवीर की यह पुस्तक दलित विमर्श की पुस्तक है . इसी पर धर्मवीर नाराज हो गये। और कुछ दिन बाद राष्ट्रीय सहारा में श्यौरान सिंह बेचैन ने लेख लिखकर कहा कि आखिर मैनेजर पाण्डेय का पाण्डेयत्व प्रगट हो ही गया। अब इसके बाद संवाद की कोई गुंजाइश बचती हे क्या?
लेकिन आप तो दलित और स्त्री दोनों विमर्शो को समर्थन करते रहे है?
हाॅ, लेकिन इसका उनके लिए कोई महत्व नहीं है।
खैर, लेकिन शरण कुमार लिंबाले आदि ने जिस भिन्न सौंदर्य दृष्टि की बात की है, उसके बारे में ,,,,,,?
शरण कुमार लिम्बाले हिन्दी के लेखक नहीं है। इसलिए मैं उनके चिन्तन को हिंदी आलोचना का हिस्सा नहीं मानता। दूसरे मराठी के लेखक ऐसा व्यवहार नहीं करते जैसे हिंदी के दलित लेखक करते हैं मैं फिर एक घटना का जिक्र करना चाहता हॅू हालांकि यह फिर व्यक्तिगत हो रहा है। हजारीबाग में एक गोष्ठी रमणिका गुप्ता ने आयोजित करवाई थी. मैंने दलित साहित्य के पक्ष में बोला लेकिन दलित साहित्यकारों का व्यवहार वही रहा जिसके बारे में मैने पहले कहा। बाद में शरण कुमार लिम्बाले आये और उन्होनें कहा कि “हम लोग हिंदी के लेखकों , आलोचकों से सीखते है और आप हिंदी के लोग दूसरे का सम्मान करना नहीं जानते ।’ इसलिए मैने तय कर लिया है कि अब दलित साहित्य पर नहीं बोलूॅगा।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी |
लेकिन हम तो कुछ ही समय बाद आपको दलित अस्मिता पर होने वाली संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में बुलाना चाह रहे हैं?
भले ही कोई सत्र हो; लेकिन मै नहीं बोलूॅगा। अभी कुछ ही समय पूर्व बाल्मीकि जी का देहांत हुआ है। मैं उनकी बहुत सी शोक सभाओं में गया। मैं खुद वाल्मीकि जी को हिंदी का महत्वपूर्ण लेखक मानता हूँ लेकिन उनका व्यवहार ऐसा नहीं था जो शेष हिंदी के दलित लेखकों का है। लअब मैने न बोलना ही तय कर लिया है।
आप अपनी सैद्धांतिक आलोचना के लिए कुछ कह रहे थे?
देखिए आत्मप्रशंसा ठीक नहीं है। लेकिन इस संदर्भ में मै अपनी तीन पुस्तकों पर बात करना चाहूंगा । पहली है- साहित्य और इतिहास दृष्टि यह आधी सिद्धांत और आधी व्यवहार की पुस्तक है। यानी पहले भाग मेें साहित्य तथा इतिहास से जुडी सैद्धांतिक चार्चाए है तो दूसरे भाग में आ0 शुक्ल, हजाारी प्रसाद द्विवेदी ,रामविलास शर्मा आदि की इतिहास दृष्टि का विश्लेषण है। दूसरी, मेंरी किताब साहित्य के समाज शास्त्र की भूमिका है यह पुस्तक सैंद्धांतिक आलोचना की अधिक है, उसमे व्यवहारिक आलोचना कम है। मेरा एक निबंध है-उपन्यास और लोकतंत्र। मेरी अपनी जानकरी में हिंदी में इस तरह का कोई निबंध लिखा नहीं गया है। सच बताऊ तो अंगे्रजी में भी इस तरह का कोई निबंध मेरी जानकारी में नहीं है . जब यह लेख पहली बार पहल में छपा तो मराठी के एक बडे लेखक को इतना पसंद आया कि उन्होने इसका अनुवाद मराठी में किया। आप खुद जानते हैं कि जिन भारतीय भाषाओं में उपन्यास की परंपरा है, उनमें सर्वाधिक समृद्ध मराठी है। कादम्बरी लेखन और उस पर विचार की वहाॅ लम्बी परंपरा है। बाद में यही लेख बम्बई से पुस्तिका के रुप में भी छापा गया । संक्षेप में इस तरह के कुछ सैद्धांतिक काम मैंने किये हैं । उनका देश भर के हिंदी के आकादमिक जगत में क्या महत्व है, इस पर मुझे कुछ नहीं कहना है।
मुक्तिबोध |
सहित्य के इतिहास दर्शन पर एक और पुस्तक है नलिन विलोचन शर्मा की, जिसमें वे साहित्य का आदर्श साहित्यिक इतिहास को बताते है लेकिन आप इससे भिन्न मत रखते है?
ऐसा है कि साहित्य का इतिहास अनिवार्यतः साहित्यिक इतिहास होगा। इसका खंडन तो स्वयं आचार्य शुक्ल का इतिहास करता है। या किसी का साहित्यिक होना या न होना यह भी तो समाज से ही तय होगा इस पर विस्तृत चर्चा मैने अपनी पुस्तक में की है।
क्या आपको लगता है कि संस्कृत की आलेाचना पद्धति का आगे विकास नही हो पाया? साहित्य के संदर्भ में जो सूक्ष्म चिंतन की परंपरा भामह,दण्डी या आनन्दवर्धन की थी,वह हिंदी में विकसित नहीं हुई अगर होती तो हिन्दी आलोचना आधिक समृद्ध होती।
नहीं , मै पहले ही कह चुका हूँ कि देा अलग-अलग स्कूल हो गये थे। और तो छोड़ो, स्वयं शुक्ल भी ने उस पद्धति का बहुत अनुशरण नहीं किया। उन्होने पश्चिम में आई0 ए0 रिचर्डस, क्रोंचे,टी एस इलियट आदि को लिया।
जैसा कि नामवर जी भी कहते है कि हमने संस्कृत की अपनी टीका पद्धति (टेक्स्ट के भीतर से गुजरना) को छोड़ दिया। आज रचना भीतर से गुजरे बिना ही आलोचना हो रही है? नामवर जी यह भी उसी लेख में लिखते है कि आलोचना अतिशय विचारधारात्मक हो गई?
आलोचना को अतिशय विचारधारात्मक बनाने में खुद नामवर जी का योगदान कितना है? फिर वे किस मुह से यह बात कर सकते है। दूसरी बात मैं इस फ्रेम में सोचने का आदी नहीं हूॅ कि नामवर जी यह कहते है या रामविलास जी वह कहते हैं ।
नामवर जी ने ’फरमाइशी आलोचना’ की बात की है। आलोचना में इसका अर्थ क्या है?
यह तो ज्यादा बेहतर नामवर जी ही बता सकते है लेकिन नामवर जी ने कहा था-’’ मै फरमाइशी आलोचक हॅू’’ नामवर जी के संदर्भ में इसका अर्थ मैं इतना ही समझता हॅू कि किसी पत्रिका के द्वारा लेखक को कहा गया होगा कि अमुक लेखक या पुस्तक के बारे में लिखो और उन्होने लिखा होगा। इससे अधिक समझाने में असमर्थ हॅू। लेकिन उनकी पुस्तक ‘छायावाद’ या ‘कविता के नये प्रतिमान’ या ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’ किसी फरमाइश की देन नहीं है। फिर भी वे कह रहें है तो उन्हे कौन रोक सकता है!
नामवर जी के बाद हिंदी आलोचना में किन लोगों की महत्वपूर्ण उपस्थिति देखते है?
नामवर जी के बाद क्या या उनके बाद कुछ नहीं , जैसी पद्धति में मैं नहीं सोचता। उनके आसपास के समय में ही मेरे जैसे दर्जन भर लोग है। जिन्होने महत्वपूर्ण आलोचना लिखी। विश्वनाथ त्रिपाठी ने हर तरह (सैद्धांतिक और व्यवहारिक आलोचना) की महत्वपूर्ण आलोचना लिखी है।
परवर्ती समय में या समकालीन पीढ़ी में महत्वपूर्ण आलोचना दृष्टि की संभावना आपको किन लोगों में दिखती है?
पंकज चतुर्वेदी हैं , जीतेन्द्र श्रीवास्तव हैं , ज्योतिष जोशी हैं .
लेकिन हमें लगता है कि आप के समय तक आलोचक की जो केन्दीयता थी, वह आगे नहीं रहेगी। वैसा स्पार्क आज नहीं है। विश्वविद्यालयों में विभाग बौद्धिक रुप से आज रिक्त दिखते है। जे एन यू को ही आप ले लेजिए। क्या आपको नहीं लगता कि आप अपने कार्यकाल में अच्छी पीढ़ी तैयार नहीं कर पाये, ग्रूम नहीं कर पाए?
प्रोफ नामवर सिंह |
ऊपर जो मैने तीन नाम लिये वे मेरे छात्र हैं। यहाॅ तक की वीर भारत तलाावार, पुरुषोंत्तम अग्रवाल हमारे विद्यार्थी रहे। इसलिए आप यह नहीं कह सकते कि हमने कुछ किया ही नहीं। दूसरी बात किसी प्रोफेसर या विभागाध्यक्ष के तमाम छात्र कवि, लेखक और आलोचक होगे यह संभव भी नहीं है।
लेकिन आलोचना तो दीर्घ अध्ययन की बौद्धिक प्रक्रिया है?
ओहो, लेकिन कोई पढे ही नहीं तो मै क्या करु? आज 10 साल नामवर जी को जे एन यू से गए हो गया, 7-8 साल मुझे भी हो गये। अब विभाग को मैं कैसे देखूं
देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों की स्थिति यही है?
देखिए, पढ़ने लिखने ही प्रवृति का हृास हर जगह हुआ ही।
आपने उपर आलोचना के क्षेत्र में जिन तीन लोगों के नाम लिये वे तीनों द्विज है? क्या आपके यहाँ कोई दलित पिछड़ा आलोचक तैयार नहीं हो सकता था?
जब हजारों वर्षों से इसी वर्ग का अधिपत्य है तो मैं क्या करुँ।
लेकिन भविष्य में आपको इस दृष्टि से भी जज किया जाएगा?
करे, कोई भी करे।
यह तो आप स्वीकार करेंगें कि विभागों का ब्राह्मणीकरण इसके लिए जिम्मेदार है? आपके यहाँ से ओ बी सी होने के नाते उर्मिलेश को बाहर का रास्ता दिखाया इसका जिक्र उन्होने एक लेख में किया है, ऐसा भी नहीं कि वे प्रतिभशाली न हो?
मैने हजाारों जगह यह कहा है कि भारत में शेष विचारधाराएँ चमड़ी तक होती हैं लेकिन जातिवाद की पैठ आत्मा तक है। संयोग से उर्मिलेश मेरे ही विद्यार्थी थे। उन्होने राहुल सांस्कृत्यान पर काम किया था। लेकिन इसके बाद वे मीडिया में चलें गये पी एच डी करने आये ही नही तो कोई दूसरा क्या करे। उन्हे निकाला किसी ने
नहीं.
विश्वनाथ त्रिपाठी |
वे एम ए के प्रवेश के दौरान और उस के कुछ बाद के दिनों की विस्तार से चर्चा करते हैं .
मै नहीं मानता कि विभाग में उस समय इस तरह का महौल था, किसी भी विद्यार्थी के साथ जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया गया। यह सब आज के फ्रेम से सोचने के कारण लगाता है।
लेकिन 1990 के मण्डल कमिशन तक तो आपके यहाँ बहुत से दलित तथा पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी भी आने लगे थे और आप तो उसके काफी बाद तक जे एन यू में रहे तो आपको नहीं लगता कि इस वर्ग से प्रतिभाओं को न तराश पाना आपकी असफलता है?
नहीं मेरी असफलता नहीं है . आज हमारे विभाग में रामचन्द्र है गंगा सहाय मीणा हैं , वे हमारे ही विद्यार्थी रहे , वे तो ब्राहमण नहीं है. वे यहीं प्रोफेसर भी होगे । दिनेशराम जो ’बहुरि नाहि आवना’ पत्रिका निकाल रहे हैं वे भी. अपने दृष्टिकोंण के साथ आप जबरदस्ती आरोप क्यों लगा रहे है?
लेकिन आपने उपर जो तीन नाम लिए उनमें इनका नाम क्यों नहीं था? तब तो आरोप लगेगा ?
मैं जाातिवाद के आरोप से मुक्त होने के लिए किसी की झूठी प्रशंसा नहीं कर सकता। जब दूसरे लोग भी ढंग का पढे़गें-लिखेगें तो उनकी भी प्रशसा करुंगा । उदाहरण के लिए एक बात कहता हूँ गंगा सहाय मीणा ने अभी आदिवासियों पर एक पुस्तक संपादित की, मैने उसकी समीक्षा रेडियो में की। अब मैं और क्या कर सकता हूँ? तुम लोग हो कि आरोप ही लगाये जा रहे हो। जब इस तरह से दूसरे लोग पढे़गे-लिखेंगे ही नहीं तो मै क्या कर सकता हूँ, क्या दो चार एस सी ,एस टी, और ओ बी सी लोगों के नाम ले लूं और इस आरोप से मुक्त हो जाऊँ।
उदय प्रकाश का ही नाम लें . इस बात में तो कोई शक नहीं कि वे महत्वपूर्ण कवि और कथाकार हैं और बहुत हद तक अच्छे आलोचक भी हैं लेकिन आप के विभाग के लिए एक अच्छी संभवना होते हुए भी उन्हे बाहर का रास्ता दिखा दिया गया?
शरण कुमार लिम्बाले |
तो मैं क्या करुँ? उन्होने अपनी पी एच डी ही पूरी नहीं की तो मै क्या कर सकता हूँ . उनके गुरू नामवर जी थे, जिनके निर्देशन में वे काम कर रहे थे। उन्होने बिना पी एच डी पूरा किये ही उदय प्रकाश को मणिपुर नियुक्त भी करवाया। लेकिन वे वहां के वातावरण एवं परिस्थितियों के कारण छोड़कर आ गये। अब महत्वपूर्ण कथाकार होने के नाते ही तो कोई विभाग उन्हे निमंत्रण भेजेगा नहीं . अगर नामवर जी के रहते या मेरे रहते उन्होने इंटरव्यू दिया होता तो संभावना बनती। लेकिन ऐसा तो हुआ नहीं फिर चाहे वे आरोप लगाये या आप?
खैर , बहुत कुछ व्यक्तिगत ज्यादा हो रहा है इसलिए वापस आलोचना पर आते हैं, हिंदी आलोचना पर एक आरोप यह लगता रहा है कि वह प्राध्यापकीय आलोचना है आ .शुक्ल से लेकर नामवर जी और आप तक अधिकांश लोग अध्यापक रहे है। कवियों का कहना है कि ये आलोचना लद्द्ड आलोचना है , जो कविता को समझने में असमर्थ है। इसलिए कवि-आलोचक जैसा टर्म भी इस्तेमाल होता है। आप क्या कहेंगें?
तो क्या करें ! आ. शुक्ल से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी नन्ददुलारे वाजपेयी रामविलास शर्मा क्या सबको हिंदी आलोचना से निकाल दें !!
राजेन्द्र जी भी यह बात कहते थे..
तो क्या करें? राजेन्द्र जी खुद 20 बार कहकर नामवरजी से या मेरे से क्यों लिखवाते थे ? तब वे नहीं जानते थे कि हम अध्यापक हैं । यह केवल हिंदी आलोचना पर ही आरोप नहीं हो सकता है. पश्चिम के भी बहुत से आलोचक अध्यापक रहे हैं । अब अगर कवियों को लगता है कि उनकी कविता को हम नहीं समझ पा रहे तो वे समझने वालों से लिखवा लें हमने तो यह कह कर नहीं रखा है कि हम ही लिखेंगें दूसरा कोई न लिखे
अशोक वाजपेयी तो कवि- आलोचक हैं वे कहते हैं…
अशोक बाजपेयी क्या हैं ? यह कहना थोडा मुश्किल है। वे कवि हैं , चिंतक हैं कला पारखी हैं समीक्षक हैं , बहुत कुछ है। लेकिन कवियों की आलोचना लिखने की परंपरा तो छायावाद में भी रही है। प्रसाद निराला सभी ने आलेाचना लिखाी आगे अज्ञेय मुक्तिबोध ने लिखी लेकिन अधिकांश कवि आलोचना आत्मरक्षा या अपनी रचना शाीलता की व्याख्या में लिखी गई आलोचना है। टी एस ईलियट या मुक्तिबोध जैसे लोग इसका अपवाद हैं , जिन्होने दूसरों पर भी पर्याप्त लिखा है।
स्त्रीवादी आलोचना पर आपकी क्या राय है?
हिंदी में स्त्रीवादी आलोचना बहुत कम विकसित हुई है विमर्श तो विकसित हुआ है लेकिन आलोचना विकसित नहीं हुई। अनामिका या अर्चना वर्मा को छोड़कर दूसरा कोई नाम मुझे स्त्रीवादी आलोचना में दिखाई नहीं देता।
मृदूला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा आदि का लेखन विमर्श के अंतर्गत आता है आलोचना में नहीं.
अरविन्द जैन ने स्त्रियों के उपन्यासों, कहानियों पर कई लेख लिखे है , आपकी नजरों से गुजरे होंगे क्या वह स्त्रीवादी आलोचना है?
हा गुजरे हैं , पढे़ हैं । लेकिन वह स्त्रीवादी आलोचना नहीं है। उसी तर्क से जिससे ब्राम्हण होने के नाते दलित लेखन की मेरी सारी आलोचना निर्थक है। अरविन्द जैन भी पुरुष हैं.
यह तो आपका व्यंग्य हुआ?
व्यंग्य नहीं सत्य बोला रहा हूँ यही तो वे कहते भी हैं .
लेकिन अरविन्द जी ने तो पुरुष होते हुए भी स्त्रीवादी नजरिये से लिखा है !
नहीं तुम्हारे कहने से मैं नाम नहीं लूंगा .