चर्चित साहित्यकार पूरन सिंह कृषि भवन में सहायक निदेशक हैं. संपर्क : drpuransingh64@gmail.com>
आई लव यू
वह
मुझे
बहुत प्यार करता
गलियों/सड़कों/चैराहों पर
चीखता-चिल्लाता
आई लव यू, कामिनी
मैं
खुश होती
अपने आप पर/अपने भाग्य पर
इतराती/झूमती पागलों की तरह
सभी से कहती-
‘देखो, वह मेरा प्यार है।’
लेकिन
जब भी वह/अकेले में मिलता
हमेशा
मेरे कपड़े उतारने की जिद करता
और कहता
आई वाॅन्ट टू लव यू कामिनी।’
अस्तित्व
क्यों
क्यों पहनती हो
चूडि़यां/बिछुआ/मंगलसूत्र
क्यों
भरती हो सिंदूर
अपनी मांग में
कभी सोचा है
तुम्हारे सभी श्रंगार पुरूष के लिए ही तो हैं
फिर चाहे वह
पति/बेटा/भाई या पिता ही क्यों न हो।
कहीं ऐसा तो नहीं
जन्म दे रही हो तुम
अपनी कमजोरी/दासता को।
तुम्हारे लिए
वह कोई श्रंगार करता है क्या
फिर तुम ही क्यों
पहचानों
अपने अस्तित्व को
और समझो
उसके यथार्थ को!
कहीं
भेड़ की खाल में कोई भेडि़या तो नहीं
तुम्हारे चारों ओर
हर पल/हर क्षण रहता है
तार-तार करने तुम्हे
और तुम्हारे अस्तित्व को।
पुरूषत्व
मैं
चाहती हूॅं
घर और बाहर
तुम्हारी शक्ति बनूं
साथ दूं तुम्हारा
जीवन के उबड खाबड रास्तों पर।
मैं चाहती हूॅं
मैं तुम्हारे ओर तुम मेरे नाम से
जाने जाओ।
मैं चाहती हूॅं
मैं और तुम से दूर हम हों
हम दोनों
लेकिन
तुम हो कि निरंतर हारते रहते हो
अकेले/बिल्कुल अकेले
तुम्हें
मेरे साथ की जरूरत है,
तुम चाहते भी हो साथ चलना मेरे
लेकिन
चाहकर भी नहीं चल पाते
क्योंकि
तुम्हारा पुरूषत्व तुम्हारे रास्ते में
खडा हो जाता है फन उठाए।
और तुम
मर मर कर जीते हो
और
जी जी कर मरते ।
गौरैया
गौरेया हूॅं मैं
धर्म/संस्कृति/सभ्यता/परम्पराओं
और रूढि़यों के पिंजरे में कैद
सदियों से।
स्वतंत्र हो उड़ना चाहती हूॅं मैं
खुले आकाश में
ऊंचे आकाश में
ऊंचे /बहुत ऊंचे
जहाॅं
न कोई बंधन हो
न कोई दीवार।
अरे यह क्या?
नींद उड़ गई तुम्हारी/रातों की
तड़प उठे तुम!
तुम्हारा यह तडपना/फड़फड़ाना
मेरी जीत की प्रथम सीढ़ी है।
मैं खुश हूॅं
और
तुम………।
लक्ष्मण रेखा
मेरी जाॅंघों और दूधों
की दुनिया से परे भी
एक युग है।
तुमने कभी उसकी खोज ही नहीं की।
ऐसा नहीं कि तुम अनभिज्ञ हो
उस युग से!
स्वयं जानते हो तुम।
लेकिन
अनभिज्ञ बने हुए हो/तुम
बंधे हुए हो पुरूष रूपी लक्ष्मण रेखा से।
तुम नहीं चाहते कि
खडी हो सकूॅं मैं
तुम्हारे सामने
तुम्हें मित्र या साथी समझूॅं
पति या जीवनसाथी नहीं।