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राजेन्द्र जी मन्नू जी के साथ |
राजेन्द्र यादव युवा पीढ़ी के हम जैसे लोगों को इसी लिए आकर्षित करते हैं कि वे अपनी बात बड़े बेबाकी से कहते हैं, कहे पर बने भी रहते हैं, अपनी आलोचनाएं सुनते हैं. वे हिंदी साहित्य के उन बहुत कम व्यक्तित्वों में से हैं जो अपनी सरोकारी और वैचारिक प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं, राजेंद्र जी को तो इसके लिए कई लानते -मलानते भी झेलनी पदी हैं. राजेन्द्र यादव से आपकी कई असहमतियां हो सकती हैं, असहमतियों के लिए वे स्पेस भी देते हैं, कई बार तो वे विवादों को छेड़ते हैं, असहमत होने के अवसर पैदा करते हैं, और आप यदि उनके हंस के दफ्तर में जाकर उनसे असहमतियां दर्ज कराते हैं, उनकी आलोचना करते हैं तो वे बड़ी संजीदगी से सुनते हैं, जरूरत पड़ने पर ठहाकों से उन असहमतियों पर अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करा देते हैं, आप उन ठहाकों पर चिढ सकते हैं.
बहरहाल उनसे मिलने जाने के पहले साहित्य के नवागंतुकों को दिल से मजबूत होना पड़ेगा. पहली बार मैं उनसे मिलने १९९८-१९९९ में कभी उनके दरियागंज स्थित कार्यालय गया था. यह जानकार कि मैं गया से आया हूँ, उन्होंने मुझसे पूछा कि संजय सहाय भी तो गया से ही हैं न , उनसे मिलते हैं? फिर कहा कि नीलिमा सिन्हा भी तो गया से ही है. पता नहीं क्यों फिर उन्होंने पूछा कि ‘ क्या यह सही है कि संजय सहाय की कहानियां शैवाल लिखते हैं ?’ मुझे याद नहीं कि मैंने तब क्या जवाब दिया होगा लेकिन ‘साहित्यिक अंडरवर्ल्ड’ के नव शिखुओं के लिए यह मारक सवाल था . वह भी साहित्य के घोषित डान के द्वारा. संजय जी और राजेन्द्र जी के सम्बन्ध जगजाहिर थे तब तक. खैर इस सवाल के साथ उनका ठहाका !संजय जी की कहानियां मैंने बाद में पढ़ी, और संजय जी को जाना भी, शैवाल को तब तक पढ़ चुका था. आज मैं दावे के साथ दोनों रचनाकार की रचनाओं की शैली और कथ्य के अंतर बता सकता हूँ, लेकिन कस्बे से आने वाले २१-२२ साल के युवक से यह जानलेवा सवाल राजेंद्र जी ही कर सकते थे. खैर चाय पीकर , कुछ बातें कर मै विदा हुआ.
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राजेन्द्र जी मन्नू जी और बेटी रचना के साथ |
उसके बाद पिछले १४ सालों में मैं उनसे ७-८ बार जरूर मिला हूँ, लेकिन कभी पहचान नहीं बन पाई . अभी हाल की मुलाकात हंस कार्यालय में रामजी यादव के साथ हुई , इस बार भी मुझे परिचय देना पड़ा. हालांकि २०११ के पहले २००८ में मैं राजेंद्र जी को अर्जुन सिंह के यहाँ एक डेलिगेशन में ले जाने के लिए हंस कार्यालय गया था और इन्साफ के द्वारा मुहैय्या कराइ गई अपनी गाडी में लेकर मैं अर्जुन सिंह के घर उन्हें ले गया, जहाँ रामशरण जोशी, मनेजर पांडे, और जे .एन यू के कुछ प्राध्यापक वहां पहले से पहुँच चुके थे. यह डेलिगेशन मेरे अनुरोध पर हिंदी विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में मंत्री से मुलाकात करने पहुंचा था. राजेंद्र जी जोशी जी के बुलावे पर आये थे. इन १४ सालों में मैं दो बार अपनी कहानी लेकर उनसे मिला , हर रचनाकार की तरह कहानी लिखने के बाद उसे पहले हंस में छपवाने की मेरी भी आकांक्षा थी, कभी हंस ने कहानी नहीं छपी, वे दोनों कहानियां क्रमशः कथादेश और संवेद में छपी .
एक बार मैं जब हंस कार्यालय पहुंचा तब वहां गिरिराजकिशोर बैठे थे . मैं संभवतः ‘स्त्रीकाल ‘ की प्रति लेकर गया था, उसमें राजेन्द्र जी का असीमा भट्ट के द्वारा लिया गया साक्षात्कार छपा था. गिरिराजकिशोर राजेन्द्र जी को ‘आवरण से बाहर आने की नसीहत दे रहे थे. राजेंद्र जी इत्मीनान से अपनी आलोचना सुन रहे थे.विषय था ‘ विष्णुकांत शास्त्री का निधन और राजेंद्र जी जैसे उनके मित्रों का शासत्री जी से न मिलाने जाना- राजेन्द्र जी मृत्यु स्वाभाविक है के भाव में थे , हालांकि मुझे लगा था कि मृत्यु के प्रति राजेंद्र जी संजीदा हो रहे थे, ऐसा न भी हो सकता है,मैं ऐसा समझ रहा होऊंगा और राजेंद्र जी यथावत खिलंदर अंदाज में होंगे. हालांकि गिरिराज किशोर की आलोचना वे बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे, बीच -बीच में शिरकत करते हुए. इसके बाद मैं कुछ और दफा हंस कार्यालय गया और हर बार कोई आलोचक उन पर हर्वे -हथियार के साथ पिला हुआ मिलता और राजेन्द्र जी आलोचना में मग्न होते, निर्लिप्त भी..कभी अर्चना वर्मा तो कभी मदन कश्यप, कभी कोइ और …..
समाज और हिंदी साहित्य में असहिष्णुता के परिवेश में राजेंद्र जी का यह व्यकतित्व उन्हें अलहदा बनाता है और अपने इस अल्हदापन को बनाये रखने के लिए वे अपनी ओर से प्रयास भी करते रहते हैं, विवाद पैदा कर, विवादों को हवा देकर . व्यक्तिव के इन्हीं द्वैधों के बीच राजेन्द्र यादव का व्यक्तित्व बनता है. जहाँ हंस के प्लेटफोर्म पर वे जिद्द की हद तक अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता बनाये रखते हैं, और इसी निरंतरता के साथ हिंदी साहित्य में स्त्री और दलित विमर्श को स्थापित करते हैं. वहीँ मन्नू भंडारी के मामले में वे निपट अहमन्य पुरुष हो जाते हैं और मैत्रयी के साथ अपनी मित्रता को दांव पर लगाकर भी लेखिकाओं को गाली देने वाले शख्स को ‘ क्या उसकी रोजी रोती छिनोगी ‘ के ओछे तर्क के साथ अपनी भूमिका तय करते हैं. राजेन्द्र जी का यह द्वैध स्त्रीवादियों के लिए एक पाठ भी है- पितृसत्ता की गहरी पैठ का पाठ.
अपने हालिया साक्षात्कार में राजेंद्र जी ने कहा कि यदि उनकी ही तरह मन्नू जी ने भी संबंधों के मामले में स्वच्छंद जीवन जिया होता तो उन्होंने मन्नू को माफ़ नहीं किया होता. स्त्री-दलित मुद्दों के प्रति प्रतिबद्धता के साथ स्त्री और दलित विमर्श को हिंदी साहित्य के केंद्र में लेन वाले राजेंद्र जी की यह स्वीकारोक्ति उनके कई प्रशंसकों को चोट पहुंचा सकती है, या उनके आलोचक उन पर हमलावार हो सकते हैं. ‘पर्सनल इज पोलिटिकल’ के आधार से स्त्रीवादी चिन्तक राजेन्द्र जी को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं. इस सब से बेफिक्र राजेन्द्र जी ने यह बयान किया है.राजेन्द्र जी की यही खासियत है. वे चाहते तो एक हिप्पोक्रेट की तरह यह भी कह सकते थे कि ‘उन्हें अपनी पत्नी के ऐसे रिश्तों से बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि संबंधो के मामले में पुरुष और स्त्री दोनों के आचरणों के अलग-अलग मानदंड नहीं हो सकते ,’ आखिर राजेंद्र जी अपने समग्र चिंतन में स्त्री की ‘दैहिक स्वतंत्रता’ की ही तो बात करते हैं, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें मन्नू जी के विवाहेत्तर रिश्तों से ऐतराज होता और वे उन्हें कभी माफ़ नहीं कर पाते. राजेंद्र जी का यह वक्तव्य ‘पितृसत्तात्मक समाज ‘ में अनुकूलित पुरुष का वक्तव्य है, जो स्त्रीवादी होने की प्रक्रिया में तो है लेकिन अपनी संरचना से मुक्त नहीं हो पाया है . यह एक मानसिक द्वैध की स्वीकारोक्ति है- दरअसल यह स्त्रीवाद के लिए एक पाठ भी है, खासकर उस व्यक्ति, साहित्यकार और सम्पादक की स्वीकारोक्ति होने के परिप्रेक्ष्य मे, जिसने सिद्दत के साथ और बड़ी इमानदारी से अपनी स्त्री और दलित प्रतिबद्धताएं, बनाये रखी है.
असीमा भट्ट ने मुझ से कभी कहा था कि हिंदी साहित्य के जिन लोगों से वह मिली उनमें से उसे दो ही पुरुष ‘कुंठा रहित ‘ दिखे , राजेन्द्र यादव और उदय प्रकाश. वही व्यक्ति ( राजेन्द्र यादव ) पत्नी के साथ अपने निजी व्यवहार में ‘घोर पुरुष’ के रूप में रहा है, ऐसा हिंदी का हर पाठक मन्नू जी के आत्मकथ्यों से जानता समझता रहा है.सामजिक तौर पर राजेंद्र जी ‘मन्नू भंडारी ‘ को भाजपाई मानसिकता का घोषित करते हुए अपने सरोकारों का एक बरख्स भी खड़ा करते हैं, और मन्नू जी हर बार लगभग ख़ामोशी से ‘नीलकंठ ‘ हो जाती हैं. राजेंद्र जी के व्यक्तित्व में यही ‘द्वैध’ है और इसी कि स्वीकारोक्ति है कि वे ‘मन्नू’ को संबंधों में अपने जैसे प्रयोगों के लिए माफ़ नहीं करते.