कुमार मुकुल की दो कवितायें

कुमार मुकुल

चर्चित कवि कुमार मुकुल इन दिनों कल्पतरू एक्सप्रेस के स्थानीय सम्पादक हैं. संपर्क : 08791089601,kumarmukul07@gmail.com

   सिर्फ मेरी औरत

मैंने आलोक धन्वा– को पढा …..

‘क्या तुम एक ही बार खरीद लाए एक स्त्री की तमाम रातें
उसके निधन के बाद की भी रातें…..’
मैंनें आलोक दा को पढा और मेरी औरत सिर्फ मेरी औरत नहीं रही

मनन करती हुई  मनुष्य हो गयी वह

मात्र स्त्री  नहीं रही

अब चिंतित हैं पुरूषगण और उनकी अनुगामिनियां

कि स्त्री  नहीं रही तो मेरा परिवार कैसे रहेगा

पर मैं देख रहा कि मेरी नहीं रही स्त्री अब ज्यादा मनुष्य है

मुझे किनारे करती हुई

तमाम लोगों के दुख सुख मे  शामिल हो पा रही वह
मेरे बच्चे अब केवल मेरे बच्चे  नहीं रहे

मेरी आकाशी सिताराकांक्षाओं से पार पाने में थकते टूटते या छूटते
छूट कर जा बसते सात समंदर पार

वे यहीं हमारे आजू बाजू अपने जैसे लोगों के साथ घुल मिल रहे हैं

मर खप रहे हैं

अमरता पर उनका विश्वास नहीं
कोई स्वर्ग  नहीं आकाशी
एक पुष्प – स्वपन  का बीज बन दाखिल हो जाना चाह रहे वे

अपने समय की धूल मिट्टी  में…।

  महानता से अलग

‘कितने घटिया हैं आप

किसने अधिकार दिया आपको यह सब करने का’

चीखती है वह

‘क्या बकवास कर रही हो’

‘बकवास नहीं
मैंने तो बस तुम्हारी नकल करनी चाही’

प्यार समर्पण सहअस्तित्व और न जाने क्या- क्या

और तुम्हारा वह पाठ

तू और मैं  तुम

मेरा कोई पाठ वाठ नहीं

वह तो तुम्हारी तथाकथित महानता की नकल की कोशिश थी बस

घृणा मृत्यु अनस्तित्व की ध्वनियां आ रहीं तुम्हा‍रे इस पाठ से’

‘आखिर क्या चाहती हो तुम’

‘यही तो समझना चाहती हूं मैं
जरा ठमक कर

कि आखिर क्या  चाहती हूं मैं

और तबतक यह फैसले लेना बंद रखो

जाओ कोई और काम करो’

‘और काम    मतलब’

‘मतलब अपनी महानता से अलग
कोई साधारण सा काम

जो करती रहती हैं हम औरतें
तमाम वक्त….। ‘

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