महज मुद्दा

संजीव चंदन

( आज के जनसत्ता से साभार इस आलेख में संजीव चन्दन इसकी पड़ताल कर रहे हैं कि महिला आंदोलन की अगुआई में लगे एक समूह की आत्मग्रस्तता और पीड़िताओं के प्रति ‘ दूसरा भाव ( OTHERNESS ) ‘ से भरे होने से आन्दोलन भटक गया है. महिला आन्दोलन के ज्यादातर लोग अकादमिक संस्थानों या अन्य संस्थानों में अपने करिअर की चिंताओं में मशगूल हैं , पीड़ितायें अपनी हाल पर हैं. )

यूं तो भारत में महिला आन्दोलन की पृष्ठभूमि बनाई थी महिलाओं की स्थिति को लेकर १९७४ में प्रकाशित ‘ समानता की ओर’ रिपोर्ट ने, लेकिन इसे  देशव्यापी गति मिली थी महाराष्ट्र की एक आदिवासी लडकी ‘मथुरा’ जब पुलिस थाने में अपने ऊपर किये गए बालात्कार का केस सुप्रीम कोर्ट से हार गई. पिछले दिनों मथुरा से मिलने मैं चंद्रपुर गया था. मथुरा की हालत देखकर आज  संस्थानों में कैद हो गए महिला आन्दोलन की मौजूदा हालात के कारण समझे जा सकते हैं. वैसे मथुरा से मिलने के कुछ ही दिनों बाद बोधगया के भूमि आन्दोलन की जुझारू नेता मांजर देवी से मिलने के बाद कारणों का यह निष्कर्ष और पुख्ता होता गया .

महाराष्ट्र के चन्द्रपुर जिले के नवरगाँव में रहने वाली आदिवासी महिला मथुरा वह पीडिता थी , जो भारत में बलात्कार के क़ानून में बदलाव के लिए हुए पहले आन्दोलन का कारण बनी . इस केस के बाद ८० के दशक में महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के विरोध में और महिलाओं के पक्ष में सम्मानजनक क़ानून बनवाने के लिए देशव्यापी आन्दोलन हुए तथा १९८३ में भारत सरकार बलात्कार संबंधी क़ानून को लेकर महिलाओं के पक्ष में एक कदम और आगे बढ़ी. १९८३ में क़ानून में बदलाव के बाद भारतीय दंड संहिता ( IPC) में बलात्कार की धारा ३७६ में चार उपधाराएं ए, बी ,सी और डी  जोड़कर हिरासत में बलात्कार के लिए सजा का प्रावधान किया गया . बलात्कार पीडिता से ‘बर्डन ऑफ़ प्रूफ’ हटाकर आरोपी पर डाला गया , यानी अपने ऊपर बलात्कार होने को सिद्ध करने के लिए पीडिता को जिस जहालत और अपमान से गुजरना पड़ता था , उससे उसे मुक्ति मिली और अब आरोपी के ऊपर खुद को निर्दोष सिद्ध करने की जिम्मेवारी आ गई. भरी अदालत में अपमानजनक प्रक्रिया से गुजरना भी ख़त्म हुआ.

१९७२ में महाराष्ट्र के गढ़चिरोली जिले  के देसाईगंज  थाने में अपने दोस्त अशोक के खिलाफ अपने भाई के द्वारा दर्ज मामले में बयान के लिए आई १६ वर्ष की मथुरा मडावी के साथ थाने के दो पुलिस कांस्टेबलो  गणपत और तुकाराम ने थाना परिसर में ही बलात्कार किया था. मथुरा के भाई ने मथुरा के दोस्त पर उसे बहलाने और अपहरण करने की कोशिश का आरोप लगाया था. इस घटना के विरोध में स्थानीय लोगों के हंगामे के बाद थाने में केस तो दर्ज हुआ लेकिन १९७४ में निचली अदालत  ने दोनो आरोपियों को इस बिना पर छोड़ दिया कि मथुरा ‘सेक्स की आदि’ थी और उसपर चोट के कोई निशान नहीं थे , तथा उसने विरोध  या हंगामा नहीं किया था . बॉम्बे उच्च न्यायालय के नागपुर बेंच ने  निचली अदालत के निर्णय को इस आधार पर खारिज कर दिया कि थाना परिसर में  कांस्टेबल के द्वारा डरा कर किया गया बलात्कार सहमति के साथ संबंध नहीं हो सकता. १९७९ में सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को फिर से बहाल कर दिया और आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया. आरोपियों की ओर से वकील थे प्रसिद्द एडवोकेट राम जेठमलानी. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ क़ानून के प्राध्यापकों , उपेन्द्र बक्सी , रघुनाथ केलकर , लोतिका सरकार और वसुधा धागम्वार ने सुप्रीम कोर्ट को एक खुला पत्र लिखा. इसके बाद देशव्यापी महिला -आन्दोलन शुरू हुए और १९८३ में भारत सरकार को बलात्कार क़ानून को और संवेदनशील बनाना पडा .

मथुरा अपने घर में

मथुरा से मिलने , उसे खोजने का मन बना २०११ में चंद्रपुर , जहां मथुरा रहती है, के पड़ोसी जिले में आयोजित अखिल भारतीय वीमेन स्टडीज कांफ्रेंस में  एक प्रहसन के बाद . इसमें देश भर के विश्वविद्यालयों , संस्थानों के स्त्री अध्ययन विभागों से प्राध्यापक और विद्यार्थी तथा महिला आन्दोलनों से जुड़ी महिलायें इकट्ठी हुई थीं . इनमें वे आन्दोलनकारी भी थीं , जो मथुरा को मुद्दा बना कर लड़ी गई लड़ाई में शामिल थीं . इनसब में से किसी को मथुरा की सुध नहीं आई, पड़ोसी जिले में आकर भी कोई मथुरा से मिलने की जहमत नहीं उठा सका , कोई चर्चा तक नहीं . हद तो तब हो गई , जब इस सम्मलेन ने एक ऐसे व्यक्ति को जेंडर संवेदना के लिए ‘ बोधी वृक्ष’ का प्रतिरूप भेंट किया , जिसने  आयोजन के चार महीने पहले ही देश की लेखिकाओं के लिए अश्लील उदगार व्यक्त किये थे और देश भर में महिलाओं ने उसका प्रतिवाद किया था , सड़कों पर उतरीं थीं.  आखिर क्यों नहीं आई मथुरा की याद  , क्यों आन्दोलनकारियों में से एक ने भी कभी  कोई सुध नहीं ली उसकी , इसलिए कि वह एक मुद्दा भर थी और गरीब आदिवासी थी !  शायद यही कारण रहा होगा . सवर्ण और अभिजात्य नेतृत्व वाले महिला आन्दोलन ने पीड़िताओं को मुद्दा भर  समझा , खासकर तब , जब वे दलित या आदिवासी थीं, रिमोट में रहती थीं . कौशल्या वैसंत्री अपनी आत्मकथा में लिखती हैं कि जब भी जाति उत्पीडन के मुद्दे उठाये जाते थे तो आन्दोलनकारियों का रुख नकारात्मक और नाक भौ सिकोड़ने वाला हुआ करता था .

मथुरा अब लगभग ६० साल की हो चली है. अभी दो किशोर बच्चों की मां मथुरा चंद्रपुर के नवरगाँव में अपने पति और बच्चों के साथ बदहाल स्थिति में रहती है. गढ़चिरौली की मथुरा अपने दोस्त अशोक के गुजर जाने के बाद चंद्रपुर के भगवान अत्राम से शादी कर नवरगाँव में एक झोपडीनुमा घर  में रहती है और गाँव वालों के लिए ‘मथुरा भगवान अत्राम’ के नए जीवन में जी रही है. वह बकारियाँ चराती है और अपने पति तथा बच्चों के साथ खेत मजदूर के रूप में काम करती है जब हम उसके घर पहुंचे तो वह खांस रही थी और बीमार थी . वह बात करने के लिए तैयार नहीं थी . उसके पति भगवान और उसने कहा कि ‘अब हंगामा से क्या फ़ायदा होगा . हमारी बदहाली का कोई इलाज है क्या ! ’ उसका छोटा बेटा गुस्से से लाल घर में दाखिल हुआ . वह नहीं चाहता कि उसकी मां का तमाशा बने . मेरे साथ गई सत्यशोधक समाज की नूतन मालवी और मुझसे बात कर वह आश्वस्त हुआ . मथुरा ने बताया , ‘ मुझसे कभी कोई  मिलने नहीं आया . शुरू में एक मंत्री आई थी . कोइ आता है और मेरा तमाशा बनाना चाहता है . मेरी गरीबी का कोइ नहीं सोचता . मुझे एक बाई ५०० रुपये देकर फोटो खींचना चाह रही थी , मैंने भगा दिया .’

बोध गया भूमि मुक्ति आन्दोलन की नेता मांजर देवी

आक्रोश से भरे मथुरा और उसके पति ने कहा कि हमारे पास अब क्या लेने लोग आयेंगे. दिल्ली वाले कभी नहीं आये . नागपुर की सीमा साखरे वर्षों पहले आई थी उसके बाद कभी नहीं आई.  सुप्रीम कोर्ट में मथुरा के खिलाफ निर्णय के बाद उससे मिलने आये तब के स्वतंत्र पत्रकार सुरेश धोपटे कहते हैं, ‘ मैंने मथुरा से मिलकर उसकी कहानी लिखी , सन्डे मिड डे में छपी. लेकिन पत्रकारों और तत्कालीन सामाजिक कार्यकर्ताओं का रुख काफी असंवेदनशील था , मथुरा उनके लिए सिर्फ मुद्दा थी.’ महिला के विरुद्ध हिंसा के खिलाफ भारत में पहला फाउंडेशन बनाने वाली सीमा साखरे कहती हैं , ‘ मैं मथुरा से हमेशा मिलती हूँ , पिछले दिनों चंद्रपुर में मिली थी. वह ६० की हो चली है और उम्र से  अधिक बूढ़ी दिखती है, गरीबी के कारण . वह अब दादी भी बन गई है.’  जबकि चंद्रपुर , मुम्बई या दिल्ली आने –जाने के प्रति उदासीन मथुरा के दो किशोर बच्चे हैं , एक दसवीं फेल और एक ८ वीं के बाद पढाई छोड़ चुका है.

मथुरा जैसी ही बदहाल जिन्दगी जी रही हैं मुसहर ( दलित)  जाति की ‘मांजर देवी’ . बिहार के बोध गया में ७ वें और ८ वें दशक में एक व्यापक आन्दोलन हुआ था , जिसे ‘ बोध गया भूमिमुक्ति आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है. बोध गया के शंकर मठ के कब्जे से हजारो एकड़ जमीन मुक्त कराकर भूमिहीनों को देने की लड़ाई थी वह. मुक्त हुई जमीनों के पट्टे महिला आन्दोलनकर्मियों ने भूमिहीन महिलाओं के नाम लिखवाने की पहल करवाई . मांजर देवी इस आन्दोलन की स्थानीय जुझारू नेता थी. आन्दोलन का प्रभाव ख़त्म होते ही आस पास के दबंगों ने उसपर कहर बरपाना शुरू किया . उनके पूरे परिवार को फर्जी डकैती मामलों में फंसाया दिया गया . आज मांजर देवी अपने गाँव में बीमार और पस्तहाल हैं. यद्यपि इस आन्दोलन का नेतृत्व  महिला आन्दोलन के हाथ में नहीं था . इसका नेतृत्व जयप्रकाश आन्दोलन के युवा संगठन ‘संघर्षवाहिनी’ ने किया था. इस आन्दोलन से जुडी मध्यवर्गीय स्त्रियाँ आज या तो बड़े संस्थानों में हैं या किसी गैर सरकारी संगठन में . एक –दो को छोड़कर मांजर देवी से मिलने वाला कोई नहीं है , आज उन्हें इलाज की जरूरत है , लेकिन पर्याप्त पैसे नहीं हैं.

यवतमाल जिले में अविवाहित माँ

यह सही है कि ‘महिला आन्दोलन के प्रयासों को एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता , उसे  अपनी सीमा में क़ानून बदलवाने से लेकर गंभीर अकादमिक काम का श्रेय जाता है , लेकिन मथुरा की घटना और उसकी उपेक्षा से यह जरूर तय होता है कि  गांवों में रहने वाली एक आदिवासी या दलित महिला उनके लिए सिर्फ मुद्दा भर होती है . यह परायेपन ( अदरनेस )  का बोध  ही है कि अपने हाल पर छोड़ दिए गये इन जीवित पात्रों की वास्तविक स्थिति में बदलाव इन आन्दोलनों के एजेंडे में नहीं रहा और सडकों पर चलने वाला आन्दोलन संस्थानों में टी ए डी ए बनाने , भुनाने और अकादमिक दक्षता के भंवरजाल में फंसता गया .

इन दिनों घूमने के ही क्रम में पराई दृष्टि का एक और उदाहरण इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है . महाराष्ट्र के यवतमाल जिले मे ५० से भी अधिक आदिवासी लडकियां अविवाहित माँ हैं . परायेपन (अदरनेस ) की दृष्टि का ही परिणाम है कि इन्हें ‘ उत्पीडित’ मानकर  समाज के तथाकथित मुख्यधारा में लाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता सरकारी तंत्र से ‘ सुधार गृह’ आदि के मद में फंड पास करवाने में लगे हैं . जबकि अपने फैसले से संतुष्ट इन माओं की वास्तविक हालात को सुधारने की कोई योजना किसी के पास नहीं है.

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles