ये आंखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का
उमड़ता हुआ समन्दर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिए
गोरख पाण्डे की ये कविता 16 दिसम्बर से ही बार-बार जेहन में आ रही है। पेशावर के स्कूल में जिस तरह बच्चों को मारा गया उसने कड़े दिल वालों को भी ‘उफ’ कहने पर मजबूर कर दिया। यह अमानवीयता की इन्तेहां है। जब अमानवीयता यहां तक जा पहुंचे कि बच्चों की हत्या की जाने लगे, तो समझ लेना चाहिए कि अब ये दुनिया रहने लायक नहीं बची, और इसे जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए। इस दुनिया के कारोबार ने कुछ लोगों को इतना संवेदनहीन बना दिया है कि वे दुनिया की सबसे कोमल सबसे कीमती चीज को रौंदने में भी नहीं हिचकिचा रहे हैं। हालांकि पेशावर की घटना अब तक की सबसे बुरी और जघन्य आतंकवादी घटनाओं में एक है, जिसकी निन्दा के लिए सिर्फ शब्दों का इस्तेमाल करना कम है, लेकिन असंवेदनहीनता का यह कृत्य नया नहीं है। पूरी दुनिया में ही नहीं हमारे अपने देश के अन्दर इस तरह की घटनाऐं होती रहती हैं ये अलग बात हैं कि हमारे देश में इन घटनाओं में जो बच्चे मारे जा रहे हैं, मीडिया के लिए वे महत्वहीन बच्चे हैं, और इन बच्चों को मारने वाले लोग महत्वपूर्ण हैं। इसलिए उनकी हत्या खबर का रूप लेकर लोगों को उस तरह दहला नहीं पाती है, जिस तरह पेशावर की घटना ने लोगों को दहलाया। जिस तरह इन हत्याओं का एक मकसद होता है उसी तरह इसे खबर बनाने या न बनाने का भी मकसद होता है, एक राजनीति होती है।
पेशावर की इस ताजा घटना सहित ऐसी जघन्य घटनाओं को अन्जाम देने वाले लोग आखिर कौन हैं? इनमें कई तरह के लोग हैं। कुछ वे लोग हैं जो हर कीमत पर सिर्फ अपना धर्म बचाना चाहते हैं, दुनिया को पीछे ले जाना चाहते है, मासूमों के कत्ल की कीमत पर भी।कुछ वे लोग हैं, जो इस धर्म पर चढ़कर हत्यारी राजनीति करना चाहते हैं और इसमें शामिल वह सत्ता भी है जो अपने लोगों को डराने के लिए ऐसे कामों को अन्जाम देती है।
पेशावर में जो हुआ वह तथाकथित धर्म बचाने के लिए। क्योंकि रूढि़वादी कट्टर धार्मिक नेता ये नहीं चाहते, कि बच्चे ऐसी आधुनिक शिक्षा हासिल करे जो उन्हें सोचने के निए विवेक भी दे, जो दुनिया के तमाम रहस्यों से धर्म का पर्दा हटाये, और उन्हें वैज्ञानिक दृष्टि प्रदान करे। इसी लिए उन्होंने पहले मलाला को मारा और उसे नोबेल पुरस्कार मिलते ही पेशावर के इन बच्चों को मारा। दूसरे तरह के लोग हमारे अपने देश में ही मौजूद हैं और इस समय तो डंके की चोट पर मौजूद हैं। ये वो लोग हैं जिन्हें ऐसा लगता है कि अपने धर्म की रक्षा के लिए दूसरे धर्म का खात्मा जरूरी है। याद कीजिये गुजरात के 2002 के जनसंहार को जब मुसलमान औरतों के गर्भ में आराम से पल रहे उन मासूमों को भी नहीं छोड़ा गया जिन्होंने अभी दुनिया देखी ही नहीं थी। यदि सबकी बात न भी याद हो तो कौसर बी का मामला तो सबके सामने आ ही गया था, जिसमें हिन्दूवादी हत्यारों ने उसका आठ माह का गर्भ तलवार से चीरकर उसके अजन्में बच्चे को बाहर निकाल कर उसे आग में फेंक दिया। इस तांडव में उन्होंने कई अन्य महिलाओं के गर्भ के बच्चों को उछालकर तलवार के नेजे पर रोपा गया। छोटे बच्चों को ऐसे ही अनगिनत जघन्य तरीकांे को से इसलिए मारा गया ताकि उस धर्म के वंशजों का सफाया किया जा सके। हजारों बच्चों और महिलाओं को इस जनसंहार में मार दिया गया, जिसका दुखद समापन राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने यह शर्मनाक बयान देकर किया कि ‘यह क्रिया की प्रतिक्रिया थी।’ उसी मुख्यमंत्री के प्रधानमंत्री बनने के पहले मुजफ्फरनगर में फिर वैसा ही कत्लेआम हुआ, जिसमें फिर से सैकड़ों मासूम बच्चे सिर्फ इसलिए मारे गये क्योंकि वे एक खास धर्म में पैदा हुए हैं जो कि ‘राजधर्म’ नहीं है। इस जनसंहार का खामियाजा वहां के मासूम बच्चे आज भी उठा रहे हैं ,क्योंकि उनके सर से छत ही छीन ली गयी है और वे आज कड़कड़ाती ठंड में मरने के लिए मजबूर हैं, यह उसी हत्या का विस्तार है।
ये तो धर्म से जुड़े हत्यारें हैं, जिन्हें किसी न किसी रूप में शासन सत्ता का सहयोग प्राप्त है , कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं अप्रत्यक्ष। लेकिन कई जगहों पर सत्ता खुद मासूमों की ऐसी हत्याओ में शामिल है। मैं अव्यवस्था से होने वाली बच्चों की मौत की बात नहीं कर रही, बल्कि सीधे-सीधे इन हत्याओं में उनके शामिल होने की बात कर रहीं हूं और इसका उदाहरण भी हमारे देश में ही मौजूद है। अगर आपको याद नहीं आ रहा तो सलवा जुडुम को याद कीजिये। यह उन आदिवासियों के खिलाफ चलाया गया सरकारी अभियान था, जिनके लिए यह कहा जाता है कि वे माओवादियों से मिले हुऐ हैं। माओवादियों से इन लोगों को दूर करने के लिए जब इस अभियान की शुरूआत हुई तो इसने भी अमानवीयता की सारी हदें पार कर दी। आदिवासियों के घर जलाना, सामान लूटना लोगों को मारना, औरतों से बलात्कार करना, उनके स्तन काट लेना जैसी कार्यवाहियों के अलावा सलवा जुडुम के सिपाहियों, वहां मौजूद पैरामिलिटरी और सीआरपीएफ के जवानों ने छोटे बच्चों को भी अपने गुस्से का निशाना बनाया। कई जगह पर उन्होंने मांओ की गोद से उनका बच्चा छीनकर गेंद की तरह दीवार पर दे मारा था। कई जांच रिपोर्टों में वहां के लोगों ने ऐसी घटनाओं का भी जिक्र किया है। कई जगह पर सैनिकों ने छोटे बच्चों को ऊपर उछालकर अपने राइफल की नोक पर उन्हें रोपा। इन तथ्यों के लगातार बाहर आते रहने और इस पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद भी सरकार उन अभियान को बन्द करने की बजाय इसे कई अन्य नामों से देश भर में चला रही है। इसका नया नाम ‘आॅपरेशन ग्रीन हण्ट’ है। और नजर दौड़ाये तो उसी पेशावर में अमेरिका जो कि पाकिस्तान को आतंकवाद से बचाने के नाम पर डटा हुआ है के द्रोनों ने न जाने कितने बच्चों की जान ले ली। अमेरिका की शह ही पर कुछ ही महीने पहले इजरायल ने फिलीस्तीन के हजारों बच्चों की निर्मम तरीके से जान ले ली। खुद अमेरिका में कुछ ही दिनों पहले हजारों लोग इस लिए सड़क पर उतर आये क्योंकि वहां की नस्लभेदी सोच का एक नमूना नमूदार हो गया। एक गोरे सिपाही जिसने एक काले बच्चे की बिना वजह हत्या कर दी, को वहां की कोर्ट ने बरी कर दिया।
पेशावर की घटना इन घटनाओं का ही विस्तार है, जिसने हर किसी को विचलित कर दिया। इस पर दुख जताने के बाद अब गुस्सा जताने का समय है। जब कोई समाज इतना हिंसक हो जाय कि उसमें मासूम, कोमल, हर किसी को सिर्फ खुशी देने वाले बच्चों की भी हत्या होने लगे तो यह कहना ही होगा कि बस अब बहुत हो गया अब यह दुनिया रहने लायक नहीं बची, अब इस दुनिया को जितनी जल्दी हो बदल देना चाहिए।