सुधा अरोड़ा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई – 400 076
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( ३ जनवरी को सावित्रीबाई फुले जयंती पर विशेष . उनकी जयंती अवसर पर स्त्रीकाल ने सुप्रसिद्ध स्त्रीवादी चिन्तक शर्मिला रेगे को ‘ सावित्री बाई फुले वैचारिकी सम्मान‘ (खबर के लिए लिंक पर क्लिक करें ) देने की घोषणा की है. )
सावित्रीबाई फुले का जीवन कई दशकों से महाराष्ट्र के गाँव कस्बों की औरतों के लिए प्रेरणादायक रहा है। उनकी जीवनी एक औरत के जीवट औेर मनोबल को समर्पित है। सावित्रीबाई फुले के कार्यक्षेत्र और तमाम विरोध और बाधाओं के बावजूद अपने संघर्ष में डटे रहने के उनके धैर्य और आत्मविश्वास ने भारतीय समाज में स्त्रियों की शिक्षा की अलख जगाने की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे प्रतिभाशाली कवयित्री, आदर्श अध्यापिका, निस्वार्थ समाजसेविका और सत्य-शोधक समाज की कुशल नेतृत्व करने वाली महान नेता थीं।
महाराष्ट्र के सतारा जिले में सावित्रीबाई का जन्म ३ जनवरी सन १८३१ में हुआ। इनके पिता का नाम खंडोजी नवसे पाटिल और माँ का नाम लक्ष्मी था। १८४० में ९ वर्ष की अवस्था में उनका विवाह पूना के ज्योतिबा फुले के साथ हुआ। इसके बाद सावित्री बाई का जीवन परिवर्तन आरंभ हो गया। वह समय दलितों और स्त्रियों के लिए नैराश्य और अंधकार का समय था। समाज में अनेक कुरीतियाँ फैली हुई थीं और नारी शिक्षा का प्रचलन नहीं था। विवाह के समय तक सावित्री बाई फुले की स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी और ज्योतिबा फुले तीसरी कक्षा तक पढ़े थे। लेकिन उनके मन में सामाजिक परिवर्तन की तीव्र इच्छा थी। इसलिये इस दिशा में समाज सेवा का जो पहला काम उन्होंने प्रारंभ किया, वह था अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित करना। सावित्रीबाई की भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी और उनकी ग्राह्य शक्ति तेज़ थी। उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की और अध्यापन का प्रशिक्षण लिया।
महाराष्ट्र के पेशवाकालीन समाज में धार्मिक और सामाजिक वातावरण में पाखंड और अंधविश्वास अपने चरम पर था । चमार, मांग, वाल्मीकि, महार जैसी अछूत मानी जाने वाली जातियों की दुर्दशा का आलम यह था कि इन जातियों के लोगों को कमर के पीछे झाड़ू या या कंटीली झाड़ी बांधकर भी चलना पड़ता था, जिससे कि रेत या सड़क पर बने उनके पांव के निशान मिटते चले जाएं ताकि किसी ब्राह्मण का पांव उनपर न पड़े । उन्हें अपने गले में हंडिया या मटकी लटकाकर चलना पड़ता था ताकि वह उसमें ही थूकें , सड़क पर नहीं जिससे ब्राह्मणों के अपवित्र होने का खतरा न रहे । वे लोग सिर्फ़ तपती दोपहरी में घर से बाहर निकल सकते थे क्यों कि सुबह शाम उनकी लंबी परछाईं किसी ब्राह्मण को अपवित्र कर सकती थी । किसी ज़रूरी काम से अगर बाहर निकलना ही पड़ता तो वह एक हाथ से थाली, दूसरे हाथ से पत्थर से टन टन बजाते हुए अपने आने की सूचना देते हुए चलते । अछूत मानी जाने वाली जातियों के वजूद को किस तरह रौंदा जाता था , इसका सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है । पेशवा बाजीराव द्वितीय निहायत स्वेच्छाचारी , व्यभिचारी और लंपट था । उसके व्यभिचार के किस्से इतने कुख्यात थे कि उसके दौरे की खबर मिलते ही पूना से लगभग सौ किलोमीटर दूर वाई नामक गांव की कई स्त्रियों ने कुंए में कूदकर जान दे दी ।
1 जनवरी 1818 में दलित विरोधी ब्राह्मणों के समर्थक पेशवा राज्य का अंत हुआ और अंग्रेज़ी हुकूमत कायम हो गई । ज्योतिबा फुले ईसाई मिशनरियों की पाठशाला में पढ़ने जाते थे । समाज के दबाव में उनके पिता ने पाठशाला से निकाल कर उन्हें खेती करने में लगा दिया । 1842 में सरकारी स्कूल में दाखिला लेकर उन्होंने दोबारा पढ़ाई शुरू की ।सावित्रीबाई के बचपन की एक घटना मशहूर है । छह सात साल की उम्र में वह हाट बाजार अकेले ही चली जाती थी । एकबार सावित्री शिखल गांव के हाट में गई । वहां कुछ खरीद कर खाते- खाते उसने देखा कि एक पेड़ के नीचे कुछ मिशनरी स्त्री -पुरुष गा रहे हैं । एक लाटसाहब ने उसे रुककर गाना सुनते और खाते हुए देखा तो कहा -‘इस तरह रास्ते में खाते-खाते घूमना अच्छी बात नहीं है‘ सुनते ही सावित्री ने हाथ का खाना फेंक दिया । लाट साहब ने कहा – बड़ी अच्छी लड़की हो तुम । यह किताब ले जाओ , तुम्हें पढ़ना नहीं आता तो भी इसके चित्र तुम्हें अच्छे लगेंगे ।’’ घर आकर सावित्री ने वह किताब अपने पिता को दिखाई । आगबबूला होकर पिता ने उसे कूड़े में फेंक दिया -‘‘ ईसाइयों से ऐसी चीज़ें लेकर तू भ्रष्ट हो जाएगी और सारे कुल को भ्रष्ट करेगी । तेरी शादी कर देनी चाहिये ।’’ सावित्री ने किताब उठाकर चुपचाप एक कोने में छुपा दी । 1840 में जोतिबा के साथ विवाह होने पर वह उस किताब को सहेज कर ससुराल ले आई और शिक्षित होने के बाद उस पुस्तक को मनोयोग से पढ़ा ।
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने इसके बाद अपना ध्यान समाज-सेवा की ओर केन्द्रित किया। १ जनवरी सन १८४८ को उन्होंने पूना के बुधवारा पेठ में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे के घर में खोला गया था। सावित्रीबाई फुले इस स्कूल का प्रधानाध्यापिका बनीं। इसी वर्ष उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला गया। दोनों संस्थाएँ अच्छी चल निकलीं। दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषरूप से लड़कियाँ , बड़ी संख्या में इन पाठशालाओं में आने लगीं। इससे उत्साहित होकर ज्योतिबा दम्पति ने अगले ४ वर्षों में ऐसे ही १८ स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले।
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अब अपना ध्यान बाल-विधवा और बाल-हत्या पर केन्द्रित किया. उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा प्रारंभ की और २९ जून १८५३ में बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह की स्थापना की. इसमें विधवाएँ अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और यदि शिशु को अपने साथ न रख सकें तो उन्हें यहीं छोड़कर भी जा सकती थीं। इस अनाथालय की सम्पूर्ण व्यवस्था सावित्रीबाई फुले सम्भालती थी और बच्चों का पालन पोषण माँ की तरह करती थीं। उनका ध्यान खेत-खलिहानों में काम करने वाले अशिक्षित मजदूरों की ओर भी गया।
१८५५ में ऐसे मजदूरों के लिए फुले दंपत्ति ने रात्रि-पाठशाला खोली. उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजानिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे . १८६८ में अंततः उनके लिये फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआँ खोल दिया। सन १८७६-७७ में पूना नगर आकाल की चपेट में आ गया। उस समय सावित्री बाई और ज्योतिबा दम्पति ने ५२ विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की।
ज्योतिबा ने स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की। उन्होंने नये मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जाने वाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करने वाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएँ। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों, जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। ज्योतिबा के मंगलाष्टकों में वधू वर से कहती है -‘‘स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे। ’’ यह आकांक्षा सिर्फ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहने वाली हर स्त्री की थी।
कहते हैं – एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने हर स्तर पर कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और कुरीतियों, अंध श्रद्धा और पारम्पारिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर गरीबों – शोषितों के हक में खड़े हुए। १८४० से १८९० तक पचास वर्षो तक ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने एक प्राण होकर समाज सुधार के अनेक कामों को पूरा किया।
ज्योतिबा-दम्पति संतानहीन थे। उन्होंने १८७४ में काशीबाई नामक एक विधवा ब्राहमणी के नाजायज बच्चे को गोद लिया। यशवंतराव फुले नाम से यह बच्चा पढ़लिखकर डाक्टर बना और आगे चलकर फुले दम्पति का वारिस भी। २८ नवंबर १८९० को महात्मा ज्योतिबा फुले के निधन के बाद सावित्रीबाई ने बड़ी मजबूती के साथ इस आन्दोलन की जिम्मेदारी सम्भाली और सासवड, महाराष्ट्र के सत्य-शोधक समाज के अधिवेशन में ऐसा भाषण दिया, जिसने दबे-पिछड़े लोगों में आत्म-सम्मान की भावना भर दी। सावित्रीबाई का दिया गया यह भाषण उनके प्रखर क्रन्तिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है।
१८९७ में जब पूना में प्लेग फैला तब वे अपने पुत्र के साथ लोगों की सेवा में जुट गई. सावित्रीबाई की आयु उस समय ६६ वर्ष की हो गई थी फिर भी वे निरंतर श्रम करते हुए तन-मन से लोगों की सेवा में लगी रही। इस कठिन श्रम के समय उन्हें भी प्लेग ने धर दबोचा और १० मार्च १८९७ में उनका निधन हो गया। सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री भी थीं। इनके कविताओं में सामाजिक जन-चेतना की आवाज पुरजोर शब्दों में मिलाती है। उनका पहला कविता-संग्रह सन १८५४ में ‘काव्य फुले’ नाम से प्रकाशित हुआ और दूसरी पुस्तक ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ शीर्षक से सन १८८२ में प्रकाशित हुई।
समाज सुधार के कार्यक्रमों के लिये सावित्रीबाई और ज्योतिबा को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पैसे की तंगी के साथ-साथ सामाजिक-विरोध के कारण उन्हें अपने घर परिवार द्वारा निष्कासन को भी झेलना पड़ा लेकिन वे सब कुछ सहकर भी अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित बने रहे। भारत में उस समय अनेक पुरुष समाज सुधार के कार्यक्रमों में लगे हुए थे लेकिन महिला होकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जिस प्रकार सावित्री बाई फुले ने काम किया वह आज के समय में भी अनुकरणीय है। आज भी महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले का एक दूसरे के प्रति औेर एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन आदर्श दाम्पत्य की मिसाल बनकर चमकता है।
( कथादेश मार्च 2004 में सुधा अरोड़ा के स्तम्भ ” औरत की दुनिया ” की पहली क़िस्त थी — सावित्री बाई फुले — एक परछाईं का आकार लेना — जिसमें सुषमा देशपांडे का दो अंकों में सम्पूर्ण एकालाप नाटक था – ”हां मैं सावित्रीबाई” और उसकी भूमिका के रूप में यह आलेख था ! कथादेश : मार्च 2004 से साभार प्रस्तुत )