उज्ज्वल भट्टाचार्य 1979 से 2011 तक जर्मनी में रेडियो पत्रकार के रूप में कार्यरत रहे हैं. कविता और कहानियां आलोचना, पहल, हंस व अन्यत्र प्रकाशित. बैर्तोल्त ब्रेख्त (एकोत्तरशती), एरिष फ़्रीड (वतन की तलाश), हान्स-माग्नुस एन्त्सेन्सबैर्गर (भविष्य संगीत) व गोएथे के जर्मन से हिंदी अनुवाद के संग्रह प्रकाशित. इन दिनों कोलोन, जर्मनी व वाराणसी में रहते हुए स्वतंत्र लेखन.
संपर्क :9717274668
ब्रह्मज्ञान
यह सच है
तुम्हारी हवस के मारे
मुझे भागते फिरना पड़ रहा है
और जिधर भी मैं भागती हूं
तुम्हारा एक चेहरा उभर आता है –
पर इतना जान लो :
मैं नहीं पैदा हुई
तुम्हारे ध्यान से…
तुम्हें धरती पर लाया गया
मेरी जांघों के बीच से…
वो और उसकी कविता
बेचारी औरत का दर्द
दुनिया के सामने रखने की ख़ातिर
एक कविता लिखनी थी
अपनी तसव्वुर से
सहूलियत के मुताबिक
करीने से बनाई
बेचारी औरत की तस्वीर
एक ज़बरदस्त कविता बनी
और मेरी ओर देखते हुए
मुस्कराने लगी.
कौरव सभा में
द्रौपदी की साड़ी खुलती जा रही है
और लिपटती जा रही है
मेरे जिस्म पर
वह शर्म से पानी-पानी हुए जा रही है
नंगी होने के डर से
मैं भी शर्म में डुबा हूं
पुंसत्व का अभिमान खोकर
और टकटकी लगाकर
हम दोनों को देखते हुए
कुत्सित मुस्करा रहा है
हस्तिनापुर !
एक ताकतवर महिला नेता की कविता
मैं जान चुकी थी
औरत होना मेरी कमज़ोरी थी
और सारे मर्द इसका फ़ायदा उठाते थे
चुनांचे मैंने औरत होना छोड़ दिया
और मुझे सबकुछ मिलती गई –
इज़्ज़त, ताकत, धन-दौलत…
सिर्फ़ कभी-कभी
रात को अकेले
सितारों से भरे आसमान की ओर
बांहे फैलाकर अरज करती हूं –
इज़्ज़त, ताकत, धन-दौलत…
एकबार औरत बनकर इन्हें पा लेने दो !
बेचारा मर्द
मां के गर्भ से निकलने के बाद से ही
वह परेशान है
छूट चुका है
उसका बसेरा
जहां उंकड़ू मारकर
घर जैसा महसूस किया जा सके
अब हाथ-पैर फैलाने हैं
धरती-आसमान-समंदर
हर कहीं बनाने हैं बसेरे
डाह भरी नज़रों से
वह देखता है औरत को
उसे बसेरे नहीं बनाने हैं –
बसेरा बनना है !