अनिता भारती साहित्य की विविध विधाओं में जितना लिखती हैं , उतना ही या उससे अधिक सामाजिक मोर्चों पर डंटी रहती हैं खासकर दलित और स्त्री मुद्दों पर. सम्पर्क : मोबाईल 09899700767.
( प्रज्ञा पांडे के अतिथि सम्पादन में हिन्दी की पत्रिका ‘ निकट ‘ ने स्त्री -शुचितावाद और विवाह की व्यवस्था पर एक परिचर्चा आयोजित की है . निकट से साभार हम वह परिचर्चा क्रमशः प्रस्तुत कर रहे हैं , आज सुप्रसिद्ध लेखिका और विचारक अनिता भारती के जवाब. इस परिचर्चा के अन्य विचार पढ़ने के लिए क्लिक करें : )
जो वैध व कानूनी है वह पुरुष का है : अरविंद जैन
वह हमेशा रहस्यमयी आख्यायित की गयी : प्रज्ञा पांडे
अमानवीय और क्रूर प्रथायें स्त्री को अशक्त और गुलाम बनाने की कवायद हैं : सुधा अरोडा
अपराधबोध और हीनभावना से रहित होना ही मेरी समझ में स्त्री की शुचिता है : राजेन्द्र राव
परिवार टूटे यह न स्त्री चाहती है न पुरुष : रवि बुले
मनुष्य – आदिम मनुष्य भी – प्राकृतिक नहीं, सांस्कृतिक प्राणी है : अर्चना वर्मा
मातृसत्तातमक व्यवस्था स्त्रीवादियों का लक्ष्य नहीं है : संजीव चंदन
आधुनिक पीढ़ी से मुझे आशा है कि परिवर्तन लाएगी : ममता कालिया
स्त्री की अपनी जगह : शीला रोहेकर
बकौल सिमोन द बोउआर ‘स्त्री पैदा नहीं होती बनायी जाती है’ आपकी दृष्टि में स्त्री का आदिम स्वरूप क्या है ?
आदिम रूप में स्त्री स्वतन्त्र थी क्योंकि हमारे यहाँ मातृसत्ता थी। औरतें पुरुषों की तरह शिकार पर जाती थीं, बच्चे माँ के नाम से जाने जाते थे पिता के नाम से नहीं। बच्चे पालना और घर चलाना दोनों की साँझी जिम्मेदारी होती थी। कालांतर में स्त्री को ज्यादा से ज्यादा बंधनों में जकड़ा जाने लगा। इसमें धर्म की भूमिका बहुत अधिक थी। धर्म ने स्त्री को बन्धनों में जकड़ कर विभिन्न भूमिकाओं में बाँध दिया और पुरुष को उसका स्वामी बना दिया। परन्तु लाख कोशिशों के बाद भी , धर्म की पूरी घेराबंदी करने के बाबजूद भी दलित आदिवासीस्त्री की देह और आजादी पर उस तरह का कब्जाकरण नहीं हो पाया जैसा सवर्ण स्त्रियों का हो गया। दलित स्त्रियों को अभी भी वह स्पेस प्राप्त है, जिससे वह पूर्ण मादा या स्त्री बनाने की प्रकिया से छूट गई। इसका कारण दलित परिवारों में एक तरह की लोकतांत्रिक मूल्यों का होना और दूसरास्त्री पुरुष दोनों का जाति और गरीबी के कारण शोषण की चक्की में लगातार पिसना रहा है। हाँ यह बात जरूर है कि दलित आदिवासी समाज में औरत हमेशा से पुरुष से ज्यादा शोषित, दमित, उत्पीडित और हिंसा की आसान शिकार रही है।
समाज के सन्दर्भ में शुचितवाद और वर्जनाओं को किस तरह परिभाषित किया जाए ?
शुचितावाद पवित्रतावाद का ही दूसरा नाम है और यह औरतों की आजादी के खिलाफ रचा गये षड्यन्त्र है। समाज में पुरुषों के लिए स्त्रियों के दैहिक शुचितावाद और पवित्र होने की शर्त धर्मिक तथा ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज की पहली शर्त है। धर्म और उसके शास्त्र हमें सिखाते है कि रजकाल में स्त्री अपवित्र होती है, उसकी देह अपवित्र होती है। वह अपनी पहली रजकाल से पहले कौमार्य रूप में ही पवित्र होती है, कन्या पूजा यानि कन्याओं को देवी मानकर पूजना उनके कौमार्य रहते ही होता है। शुचितावाद की धारणा रक्त शुचिता से भी संबंधित है, जिसमें किसी कन्या के विवाह से पहले उसकी देह किसी के द्वारा ना छुई गई हो। मतलब वह अपने पवित्रतम रूप मे शादी के बाद पति को भोग के लिए मिले। हैरानी की बात है ऐसी दैहिक शुचिता कभी पुरुषों के लिए नहीं देखी जाती। यह सिर्फ स्त्रियों तक ही सीमित है। जो स्त्री पवित्र है वह शुद्ध है, और जो अपवित्र वह पतित है या अशुद्ध है। यहाँ सारे तर्क आध्ी आबादी को कैद में रखने के लिए गढ़े गए है। क्या आपने कभी सुना है कि वह आदमी अपवित्र या अशुद्ध है?
समाज के सन्दर्भ में शुचितावाद और वर्जनाओं को किस तरह परिभाषित किया जाए ?
भारतीय सामज एक ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज है। यह मूल्यबोध यहाँ के लोगों में चाहे वह स्त्री हो या पुरुष सबके के खून में रचा बसा है। यहाँ स्त्रियाँ भी उसी तरह व्यवहार कर सकती है, जैसे पुरुष। यही कारण है कि वर्जनाओं से लड़ने वाली ताकत कम है और वर्जनाओं को बचाने वाली और ढोने वाली ज्यादा है।
यदि स्वयं के लिए वर्जनाओं का निर्धरण स्वयं स्त्री करे तो क्या हो ?
भारतीय सामज एक ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज है। यह मूल्यबोध यहां के लोगों के और सामज के खून में रचा बसा है। यही कारण है कि वर्जनाओं से लड़ने वाली ताकत कम है और वर्जनाओं को बचाने वाली और उन्हें ढोने, लादने और ओढ़ने वाली ज्यादा है। अक्सर देखा गया है कि मौका मिलने पर या सत्ता का केन्द्र बनने पर स्त्रियाँ भी उसी तरह व्यवहार कर सकती है जैसे पुरुष करते है। हम देखते ही है कि परिवार में एक स्त्री अक्सर दूसरी स्त्री के लिए शत्रु बन जाती है। अक्सर स्त्रियाँ परंपरा से लड़ने के लड़ने के बजाय परंपरा का जटिल अंग बन जाती है। वह एक-दूसरे के लिए वर्जनाओं की दीवार खड़ी कर देती है। यह सब इसलिए भी होता है क्योंकि उनकी परवरिश, उनके जीवन मूल्य, उनकी आकांक्षाएँ और उनके अंदर बैठी क्रूरताएँ इसी ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज की देन ही है। हम देख ही रहे है कि विचारों से प्रगतिशील होने और खूब पढ़-लिख लेने के बाबजूद भी स्त्रियाँ अपनी गुलामी के चिह्न मंगलसूत्र, माँग आदि धारण करना तक नहीं छोड़ पाती है।
विवाह की व्यवस्था में स्त्राी की मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियां। कितनी स्त्री के पक्ष में हैं ?
विवाह अगर लोकतान्त्रिक मूल्य बोध पर खड़ा तो वह सामान्य होने वाले विवाहों की स्थितियों से काफी बेहतर हो सकता है। पारम्पारिक विवाह स्त्रियों को पुरुष के सामने एक गुलाम और एक उपभोग के सामान की तरह प्रस्तुत करती है। इसमें स्त्रियों की इच्छा, उसकी आजादी, उसके अधिकार , उसके सपनों का कोई मूल्य नहीं होता। सारी स्थितियाँ स्त्री के विरुद्ध ही होती है। कोई कितनी भी कोशिश करें पारम्परिक विवाह सम्बन्धें में स्त्रियों का दर्जा हमेशा पुरुष से नीचा ही रहता है।
मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह-संस्था क्या अधिक सुदृढ़ और समर्थ होती तब समाज भ्रूण हत्या एवं बलात्कार जैसे अपराधें से कितना मुक्त होता?
उत्तर-मुझे लगता है मातृसत्तात्मक व्यवस्था में विवाह संस्था मजबूत नही हो सकती है। सारी कहानी स्त्रियों को दैहिक रूप से पवित्र रखने और उससे सिर्फ अपने लिए इस्तेमाल करने के पुरुषों द्वारा विवाह संस्था के नाम पर रचे गए षड्यंत्र को मातृसत्ता धक्का देती है। मातृसत्ता में बच्चा माँ के नाम से जाना जाता है। माँ को ही पता होता है कि उसके पेट में पल रहा बच्चा किसका है। दरअसल विवाह संस्था सुदृष्ट और मजबूत इसलिए ही है कि उसकी केन्द्र की धूरी पुरुष है और परिवार में हर चीज के लिए निर्णायक स्थिति में वही रहता है। वंश चलाने व वंश बढाने से लेकर सम्पति पर एकाधिकार करने और इन सब के माध्यम से स्त्रियों पर दैहिक कब्जाकरण करके वह परिवार को मजबूत रखता है। इसलिए स्त्री की स्थिति परिवार में दोयम दर्जे की होती है। उसके सारे निर्णय उसकी ओर से उसका पुरुष ही लेता है। अब यदि परिवार में मातृसत्ता यानि औरतों की सत्ता होगी तो सम्भवत भ्रूण हत्या, बलात्कार कम होगे, क्योंकि तब औरतों की कमजोर अबला, मादा की छवि से बाहर निकलेगी। अधिकांश दलित परिवारों में मातृसत्ता के अवशेष अभी भी दिखते है, इसलिए परिवारों में लड़कियाँ पैदा होना या भ्रूण हत्या होना बाकि समाज के बनिस्पत बहुत कम है।
सह जीवन की अवधरणा क्यास्त्री के पक्ष में दिखाई देती है।
सहजीवन एक आदर्श व्यवस्था हो सकती है, पर हो नहीं पा रही है, क्योंकि यहाँ सामाजिक ढाँचा जाति और शोषण पर आधरित है। इसलिए सहजीवन में भी वही चीजें असर करती है। औरतें सहजीवन में भी अपने साथ रहने वाले साथी से मार खा रही है, जातीय प्रताड़ना झेल रही है। और सबसे बड़ी बात सहजीवन में रहकर वे अपने आप को बेहद असुरक्षित महसूस करती है। जिस सहजीवन की नीव प्यार, भरोसा और प्रतिबद्धता की नीव पर खड़ी होती है, और अगर उसकी नीव मजबूत है और उस सहजीवन में लोकतान्त्रिक मूल्य निहित है तो यह स्त्री के पक्ष में हो सकता है अन्यथा सहजीवन स्त्रियों के लिए पारंपरिक विवाह से भी सबसे ज्यादा शोषणकारी हो सकता है।
साथ होकर भी पुरुष एवं स्त्री की स्वतंत्र परिधि क्या है ?
साथ होकर भी पुरुष और स्त्री यदि एक-दूसरे की आजादी का सम्मान करें, एक-दूसरे के काम की इज्जत करें और एक-दूसरे को भावनात्मक सपोर्ट करते हुए जिए तो इससे बेहतर कोई और रास्ता हो ही नहीं सकता। एक स्वतंत्रस्त्री और स्वतंत्र पुरुष के रूप में हमारे सामने ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का उदाहरण है, जिन्होंने एक साथ मिलकर तथा एक स्वतंत्र ईकाई के रूप में भी रहते हुए सामाजिक राजनैतिक और सांस्कृतिक बदलाव के लिए जीवन भर बहुत महत्वपूर्ण काम किये।