किले में समंदर : पहली क़िस्त

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल स्त्रीवादी आलोचक हैं , महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं . ई मेल- rohini1959@gmail.com

( रोहिणी अग्रवाल की यह अभिव्यक्ति अतीत से वर्तमान और वर्तमान से अतीत की आवाजाही है , स्वप्न -कल्पना और यथार्थ के परस्पर गुम्फन के साथ . स्त्री के संघर्ष और पीड़ा तथा मुक्ति के अहर्निश अभियान की कथा पढ़ें दो किस्तों में  ) 


बेहद भीत सशंकित एकाकिनी मैं।


चाहती हूं ढेर सारा संवाद – मन से मन के तारों को जोड़ कर भीतर तक दरके बंजर को सुकून और विश्वास की तरलता से सींच देने वाला संवाद। ऐसी बतकही कि मन के सारे उद्वेग, द्वंद्व और तनाव बिला जाएं कहीं। बिला जाएं वे सारे भय और अंतर्विरोध जिनकी उलझी परतों तले अपने को दाब-ढापं कर अपने को ही मुद्दत से नहीं निहार पाई हूं मैं। मैं अस्वस्थ हूं – और अशांत! उपचार सिर्फ संवाद – बस, धीरज से सुन भर ले कोई। पूरे विश्वास और स्नेह के साथ, आत्मीयता और तन्मयता के साथ। न, तर्क की भाषा नहीं सुहाती मुझे। वह याज्ञवल्क्य की भीषण गर्जना बन कर मेरी समूची स्वतः स्फूर्त अस्मिता पर गार्गी को चस्पां कर कहीं हांक ले जाती है।

मेरे भीतर के हर रग-रेशे में समंदर का गहन विस्तार है। ऐसी अभिशप्तता कि समंदर का आलोड़न और गर्जन-तर्जन सब कुछ अंदर ही अंदर जब्त करने को बाध्य। आंखों की राह समंदर का खारा मूक हाहाकार बह जाता है कभी-कभार। संवाद का पुल बन जाए तो कितने ही समंदरों को लांघ ले इंसान। लेकिन पुलों के निर्माण के इतिहास में व्यापारिक नीतियां या विजय अभियान ही क्यों आ जुड़ते है। बार-बार?

पुल – यानी फोन – मैं बेतहाशा नम्बर घुमाती हूं – इसका नंबर, उसका नंबर। बात नहीं करूंगी तो घुट कर मर जाऊँगी। मैं नहीं चाहती लेडी ऑव शैलोट की तरह दुनिया की ओर से पीठ मोड़ कर परंपरा और विरासत की सलीब ढोते रहना। दूसरों की नजर और लब से छन कर आते नजारे और लफ्ज मेरे अपने क्यों हों? मैं – कुछ न होऊँ – ‘मैं’ तो हूं न। अपने अंदर जीते साबुत अखंड विराट सत्य, शिव, सुंदर के साथ। मैं – एक स्त्री ! सृष्टि की एक बूंद!

लेकिन संवाद के नाम पर बर्फीली चुप्पी या गंधाता कीचड़ . . . न! न!! न!!!


मैं बिफर कर रेशा-रेशा फैल गई। समंदर का खारा हाहाकार मेर कुल सत्य क्यों? समंदर के भीतर के रहस्यमय समृद्ध संसार से मुझे भय क्यों? मैं उतरूंगी भीतर . . . और भीतऱ . . उहूं, घबराहट क्यों भला? नवजात मछली को गोताखोरी का प्रशिक्षण नहीं लेना पड़ता न!

भावाकुलता का अतिरेक व्यक्ति को बचकाना बना देता है, या फिर जाबांच खिलाड़ी। मैंने आव देखा न ताव, समंदर की बालू पर अपनी चाहत की इबारत लिख डाली – ”चाहती हूं अनंत प्रशांत सघन संवाद-तरणी पर सवार होकर भीषण घ्ंघावात से घिरे, हिमखंडों से अटे समंदर का दूसरा छोर छू लूं। हमराही है कोई? कहीं?”

तभी मेरे किले का घंटा जोरों से घनघना उठा। साढ़े आठ बजे का अलार्म। शाम के साढ़े आठ! खाना बनाने का वक्त! यानी छः से साढ़े आठ के बीच की वह मियाद खत्म जब किले के सुरंगी रास्ते से बाहर मैं समुदर की सैर को निकल सकती थी। अब मैं गृहिणी हूं, पत्नी हूं, मां हूं। त्योहारों का सीजन शुरु हो गया है और हर रोज मुझे पकवानों की नई वैरायटी परोसनी है। नून तेल लकड़ी में देर तक पकती-खदबदाती रही मैं। गृहिणी, पत्नी, मां बन जाने के बाद मद्धम आंच पर सिंझने का सुख पोर-पोर में आत्मप्रवंचक मादक आलस्य पिरो देता है।

‘डोंगी तैयार है। आओ, समुद्र का दूसरा छोर छूने चलें।’ किसी ने मेरे कंधे पर नरम हाथ रख दिया। मैं चिहुंक उठी। गहरी नींद में थी। मुस्करा भर दी – ‘डोंगी से समुद्र का दूसरा छोर नहीं छुआ जा सकता। पागलपन है, निरा पागलपन!’
‘और बालू पर सपनों की इबारत लिख कर हमराही को टेरना?’
‘पागलपन! निरा पागलपना!’ मैंने दोहरा दिया।
नींद की मिठास में खोने का जो सुख है, वह पाने के संघर्ष में कहां? मैं नहीं चीन्हती कोई राह! नहीं चाहती कोई हमराही!
सपने में देखा – दुर्गा-अष्टमी के अवसर पर मैं – गृहिणी – आठ कन्याओं को कंजक बना कर खाना खिला रही हूं। नौवीं कंजक तो है ही नहीं। मेरे हाथ-पैर फूल गए हैं। सात या नौ! आठ की गिनती शुभ काम में शुभ नहीं मानी जाती। तभी नवीं कंजक के रूप में मैंने अपने आप को आते देखा – सात बरस की मैं। गृहिणी कंजकों की प्लेटों में हलवा-पूड़ी और हाथ में दक्षिणा रख रही है। वह मुझ कंजक के बढ़े हाथ पर कुछ रखे कि कंजक मैं रोती हुई वहां से भाग लेती है। सारा दृश्य जैसे वहीं फ्रीज हो गया है। मां दुर्गा का अपमान! गृहस्थी पर अनिष्ट की आशंका! अपने परिवार की खैर मनाते मन ही मन मैं उस कंजक को कोस रही हूं – बित्ते भर की छोकरी अपशकुन करके चली गई। मैं देख रही हूं कंजक-मैं मां की गोद में मुंह छिपाए जार-जार रोए जा रही है।

”क्यों मां, तुम रोई क्यों?” मेरी बिट्टी मुझ से पूछ रही है – ”तुम्हें मजा नहीं आता था घर-घर जाकर प्रसाद और दक्षिणा लेने में? हाय! मैं तो कितना बेसब्री से इंतजार करती थी इस त्योहार का। अ लॉट ऑव फन!”
हम मां-बेटी स्थिति का विस्तार नहीं, विलोम हैं। शायद संवाद का वह बिंदु गायब है जो सपनों को सहारे संकल्प की डोर से मनुष्यों को बांधा करता है। इस अनुपस्थिति के दोषारोपण के लिए मैं किसकी ओर उंगली उठाऊँ? एक उंगली उठा लूंगी  तो भी तीन मेरी ओर ही रहेंगी न! क्या मैं तिहरा ट्रायल झेल सकती हूं?

सुबह उठी तो सिर भारी था और दिमाग में ठक-ठक बजता सवाल कि कंजक बन कर आत्मतुष्ट लौटने की बजाय मैं रोई क्यों? रोई सो रोई, मुंह छिपा कर भागी क्यों? रोने और भागने से तो किसी समस्या का समाधान नहीं होता। रोना माने लाचारगी। भागना माने कायरता। मैं कमर कस कर आत्म-भर्त्सना के लिए तैयार!
”नहीं! दुनियादारी का बूढ़ा चश्मा चढ़ा कर देखोगी तो जिंदगी में नया कुछ नहीं मिलेगा। रोना और भागना हमेशा कायरता के लक्षण नहीं होते। वे विरोध दर्ज करने के औजार भी होते हैं।”
मैं चौंक पड़ी।
असम्भव!
”मां दुर्गा! आप?”
”विरोध दर्ज करने के लिए जरूरी है चेतना। चेतना संवेदना और विवेक के बिना पैदा नहीं होती।”
मैं जड़! भगवान को सामने देख किसकी सिट्टी-पिट्टी गुम न हो जाए?
मां दुर्गा की आवाज लरज उठी – ”संवेदना और विवेक के घालमेल से ही बनता है इंसान। अपने को पूरी कुव्वत और ताकत के साथ दर्ज करने वाला इंसान। हर शै को सिरजने वाला इंसान।”
मैं काठ!
”’मुझे देखो, न रो सकती हूं, न गलत को बरज सकती हूं। चलना तो कभी सीखा ही नहीं। कलेजे पर वर्जनाओं के पत्थर रखते-रखते पथरा गई हूं बिल्कुल। पूजा और दुत्कार – पत्थर के सामने कोई मानी नहीं रखते।” मैंने देखा मां दुर्ग की पथरीली  आंख की कोर भाीग आई – ”काश! मैं तुम्हारी तरह अपनी मनोवृत्तियों के साथ जी पाती! रग-रग में चटकते आवेश और आक्रोश के साथ अपने को ही मथ डालती। अपने को मथे बिना मर्म नहीं पाया जा सकता बेटी। लेकिन तुम मंथन की त्वरा उत्पन्न करती मथानी को रोक कर खुद बंध क्यों जाती हो? मुक्त होना सीखो। और विकसित होना भी। आत्मदाह अभिशाप है। इसे सूरज का ताप बना कर सृष्टि को लहलहाया नहीं जा सकता।”

मैं फूट-फूट कर रो पड़ी। धारासार! सात बरस की उम्र से लेकर पचास बरस की उम्र के आंसुओं की बरसात! ”अब कह रही हो ऐसा! जाने कितनी ही सृष्टियों को तबाह करके! तुम . .  तुम ही तो मेरे अपमान का मूल कारण हो। साल दर साल. . . बल्कि साल में दो-दो बार! दुर्गा अष्टमी के बहाने मुझे हर बार सात साल की कंजक में तब्दील करतीं तुम . . . ” मैं आवेश, क्रोध और घृणा से कांपने लगी।
दुर्गा निर्विकार! न स्तम्भ, न अवसाद! माने जानती हो अपने अपराध की सघनता और परिणाम!
”क्या लड़की की रोटी परिवार पर इतनी भारी पड़ती है कि बचपन से ही उसे दूसरों के द्वार पर जाकर टुकड़े बटोरने का अभ्यास कराया जाए? क्या उसके आत्मसम्मान और आत्माभिमान का कोई मूल्य नहीं? वह याचक भर है? या बोझ से लदी पाप की गठरी जिसे इस-उस के गले मढ़ कर परिवार का पुरुष अपने कंधे हल्के करता फिरे? तुम नहीं जानतीं मां, मैं कितनी नफरत करती हूं तुमसे! तुम्हारे छद्म से!”

घृणा के उफान में हमेशा घृणा नहीं हुआ करती। प्यार, अपेक्षा, दूरी और दर्द का अतिरेक भी हुआ करता है।
”कन्याओं पर देवी मां का आरोपण ‘ ‘ ‘ जानती हो, यह प्रवंचक महिमामंडन कैसी-कैसी अभेद्य दीवारें खड़ी करता है चहुं ओर कि  ‘ ‘ ‘ ” मैं आवेश में हकला पड़ी। संयत होने का प्रयास किया तो रुआंसी हो उठी -”हर बार दूसरों के घर से खाना और दक्षिणा लेकर खुशी से किलकती लड़की को देख कर मैं कितना-कितना लहूलूहान हो जाती हूं – कृपा और खुद्दारी का फर्क इतना महीन नहीं हुआ करता कि नंगी आंख से देखा न जाए। तो क्या महिमामंडन अमोघ मूर्च्छा का संचार करता है?”
”हर मूर्च्छा के लिए कोई न कोई संजीवनी बूटी तैयार करती है प्रकृति। लेकिन बिटिया, क्या मूर्च्छितों के बीच तुम खुद मूर्च्छितवत् नहीं रहीं?”
मुझ पर घड़ों पानी! क्रॉस एग्जामिनेशन! क्या बिट्टी को कभी सीने से लगा कर बताया देवी और इंसान होने का फर्क? देवी होने की जडता! इंसान होने की ताकत! जरूरत! हमेशा चाहती रही हूं कि मेरी जमीन पर मेरी मानसिक-बौद्धिक ऊँचाई तक आकर संवाद करे कोई। दूसरे की जमीन पर उसकी कद-काठी लेकर संवाद करने की जरूरत क्यों महसूस नहीं की मैंने? संवद का अभ्यास ही नहीं शायद। है तो सजगता के थोथे दंभ का लाउड प्रकटीकरण और उसके साथ गुत्थमगुत्थ पारंपरिक अनुदेशों की तत्पर पालना का बीभत्स सत्य! क्या हूं मैं? अंतर्विरोधों का पुलिंदा? निष्क्रियता को चाव के साथ जीती मूढ़ता?

चेतना का अर्थ चिंतन-मनन के बाद अर्जित बौद्धिक समृद्धि का एकांत विलास नहीं होता। संज्ञान और विश्लेषण के बाद ही चेतना गति पाती है – पानी की तरह मिट्टी के कण-कण में समो कर उसे तरल करती। मैं तैंतालीस बरस तक कंजक बनने के जिस टीसते अभिशाप को कलेजे में लिए हूं, क्या उसे परिवार-समाज में एक भी व्यक्ति तक बांट पाई हूं? क्यों हर रक्षाबंधन, करवा चौथ, अहोई अष्टमी पर अकेले बिसूरती हूं कि रक्षणीया मैं ही क्यों? मैं – बहन, पत्नी, मां। मुझसे मिले भावनात्मक सम्बल के बिना क्या मेरा भाई, पति, पुत्रा परिपूर्ण-परितृप्त हो पाएगा? पूर्णता और तृप्ति क्या आदान-प्रदान की सतत संवेदनशील मानवीय प्रक्रिया नहीं? फिर पालों के आरपार लिंगों में बंटी मानवीय अस्मिताएं क्यों? लैंगिक विभाजन क्या सबसे पहले मनुष्यता को ही छिन्न-भिन्न नहीं करता? लैंगिक विभाजन के आधार पर सम्बन्ध नहीं बनते, बनता है सम्बन्धों का सत्ता विमर्श। मैं इस सत्ता विमर्श के निहित मंतव्यों को पहचानती हूं, लेकिन उन्हें बेनकाब नहीं करती। मेरी चुप्पी क्या वर्चस्ववादियों की ताकत नहीं बनती? फिर क्यों नहीं बताया बिट्टी को कि त्योहार धर्म का उत्सवीकरण नहीं हुआ करते, धार्मिक अनुदेशों को व्यावहारिक रूप देने का क्रूर समादेश हुआ करते हैं।

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ISSN 2394-093X
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