अरुण नारायण
यहां लड़ाई लड़ी गईं। सबसे पहले बुद्ध ने यह लड़ाई लड़ी। फिर कर्नाटक में बशेश्वर
ने, ज्योतिबा फुले ने 18वीं सदी में और डा. भीमराव आंबेडकर ने 19वीं सदी में इसके खिलाफ
आंदोलन किया। इन सब की जाति और वर्ग अलग-अलग थे। बुद्ध क्षत्रीय कुल से थे बशेश्वर
ब्राहमण , फूले की पृष्ठभूमि व्यापार से थी और आंबेडकर के
महार जाति के पिता सेना में सूबेदार थे। जाति व्यवस्था और गुलामी पर प्रहार का ऐसा
उदाहरण विश्व में कहीं नहीं मिलता।’ ये बातें दलित
स्त्रीवादी विमर्श्कार सुजाता पारमिता ने
कही। गया के रेनेसां आडीटोरियम में स्त्रीकाल, साउथ एशिया वीमेन इन मीडिया, सेंट्रल यूनिवर्सिटी आॅफ बिहार एवं
सीआईआईएल द्वारा पिछले दिनों आयोजित दो दिवसीय सेमिनार/ कार्यशाला में बंगाल, आसाम, दिल्ली, महाराष्ट,
बिहार, झारखंड आदि कई भागों से आए बुद्धिजीवियों
ने मीडिया, समाज, राजनीति साहित्य, और सिनेमा में स्त्री की अभिव्यक्ति और भागीदारी को लेकर
चार सत्रों में विमर्श किया। नाटक और डाक्यूमेंटरी फिल्मों का प्रदर्शन भी इस विमर्श का ही एक हिस्सा रहे। इस आयोजन में
गैर सरकारी संगठन ओक्सफैम का भी सहभाग था.
सबसे पहला और कारगर चोट किया। उन्होंने अपने संघ के दरवाजे दलितों और स्त्रियों के लिए खोल दिए। यह पहली दफा हुआ
कि इसके फलस्वरूप बड़ी संख्या में स्त्रियों ने घर छोड़े, जिनके
पति थे, बच्चे थे उन्होंने भी। संघ में कोई जाति या वर्ग नहीं था। ऐसे
माहौल में बहुत अच्छी कविता का जन्म हुआ-थेरीगाथा के रूप में।
2014
रेगे को ‘ स्त्रीकाल’ की ओर से सावित्री बाई फुले वैचारिकी सम्मान, 2014 उनकी
संपूर्ण रचनात्मक वैचारिकी को लक्षित करते हुए उनकी किताब ‘ मैडनेस
ऑफ़ मनु : बी आर आम्बेडकरस राइटिंग ऑन ब्राह्मनिकल पैट्रिआर्की’ के लिए दिया गया। सुधा अरोड़ा ने रेगे की ओर से यह सम्मान ग्रहण किया। उन्होंने
रेगे को समर्पित एक भी कविता सुनाई। शर्मिला रेगे की चर्चा करते हुए पत्रिका के
संपादक संजीव चंदन ने कहा कि रेगे दलित
स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी गढ़ने में उनक काम बेहद महत्वपूर्ण रहा है।. इस अवसर पर
सुधा अरोडा ने रेगे की स्मृति को समर्पित
एक कविता का पाठ किया। रेगे को स्म्मान का निर्णय अर्चना वर्मा , अरविंद जैन , अनिता
भारती ,हेमलता माहिश्वर,
परमिला आम्बेकर और बजरंग बिहारी
तिवारी की सद्स्यता वाले निरणायक मंडल ने लिया था. हर वर्ष स्त्रीवादी वैचारिकी को
दिए जाने वाले इस सम्मान की राशि स्त्रीवादी विचारक अरविंद जैन के द्वारा दी
जायेगी, इस सम्मान की योजना उनकी ही प्रेरणा से बनी है .
और आज की वैचारिकी में स्त्रियां कहां खड़ी हैं उनकी क्या स्थिति है इस
सवाल को कवितेंद्र इंदु, सुनिता गुप्ता,
परिमला आंबेकर, कर्मानंद आर्य,
अनुज लुगुन,शातिभूषण और उषाकिरण खान ने संबोधित किया। कवितेंद्र इंदु ने सवाल किया कि ‘ दलित और
दलित स्त्री के अलग-अलग उत्पीड़न हैं या ये एक विराट जातीय तंत्र की समस्या है?
और कहा कि जाति जेंडर के बिना भी वजूद में रही है। दोनों ही तरह की
समस्याओं में जाति साथ-साथ काम करती रही है। स्त्री पराधीनता के बिना भी जाति को
बनाए रखना संभव था। जब हम जाति से जंेडर के सवालों को अलग करते हैं तो उत्पीड़न के
तंत्र को मदद मिलती है। उन्होंने कहा कि दलित स्त्रीवाद ने जाति जेंडर, और क्लास तीनों सवालों को उठाया है। उसका मिजाज इन्क्लूसिव रहा है।’ कवितेंद्र ने कहा कि ‘ दलित स्त्री लेखन महज वही नहीं जो सिर्फ दलित स्त्रियां
लिखें। बल्कि वह लेखन भी है जो उनके दृष्टिकोण के साथ लिखा जाए।’
लेखन में पितृसता की दखल रही है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, नागेंद्र
और नागरी प्रचारिणी के वृहत इतिहास से लेकर परमानंद श्रीवास्तव और नंदकिशोर नवल की
आलोचना में स्त्रियों के प्रति उपेक्षा का भाव रहा है। इन सब की दृस्टि स्त्री
समाज के अनुकूल नहीं रही है। सुमन राजे का ‘हिंदी
साहित्य का आधा इतिहास’ या रेखा काष्तवार, रोहिणी
अग्रवाल,शालिनी माथुर और अनामिका की आलोचनाएं हमें इस दिशा
में आश्व्स्त करने वाली हैं। इनका लेखन आलोचना के सन्नाटे को तोड़ रहा है।
आरंभ की। उन्होंने प्रतिमानीकरण की चर्चा करते हुए कहा कि निरंतर चलने वाले मूल्य
स्थापित हो जाते हैं, दूसरे शुरू हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि
जो पाठ्यक्रमों में नहीं हैं, जिनका प्रतिमानीकरण
नहीं हुआ उनपर विचार करने की जरूरत है। प्रो. परिमला आंबेडकर ने कहा कि स्त्रियों
के जन्म के साथ ही उसके जच्चा घर में आते ही प्रतिमानीकरण की प्रक्रिया शरू हो
जाती है। उन्होंने कहा कि बौद्धिकता और भावनात्मकता-ये दो पहलू हैं समाज के।
स्त्री बौद्धिकता को अभिव्यक्त करना चाहती है तो पितृसता हमेशा उसे इससे महरूम
रखना चाहती है। कवि अनुज लुगुन ने कहा कि आदिवासी लड़कियों का वैसा शोषण अपने यहां नहीं रहा जैसे हिंदू या मुस्लिम
समाजों में रहा है। उन्होंने सवाल उठाए कि आज क्यों कोई युवक किसी स्त्री पर एसिड
डाल देता है? इसलिए कि इन समाजों ने आदिवासी समाज की
तरह ऐसी संस्थाएं नहीं बनाई जहां लड़के-लड़कियां मिल सकें। आदिवासी समाज में घोटिल,
खगोडि़या और गीतिकोड़ा-जैसी संस्थाएं मौजूद रही हैं। यह दुखद है कि इन
संस्थाओं को यौन पोसन करने वाली संस्था के रूप में दुष्प्रचारित किया गया।
संरचना में जाति एक बड़ा फैैक्टर रही है।
आदिवासी समाज आज भी जल, जंगल और जमीन जैसी अस्तित्व और अस्मिता की
लड़ाई लड़ रहे हैं। उनके यहां ग्रीनहंट, सलवा जुडुम और
अफस्पा है। जो काम पुरोहित वर्ग करता रहा है वहां वही काम पुलिस और आर्मी कर रही
है।
अनंदिता दास, अजिथा मेनन, स्वाति
भट्टाचार्य और मो. गन्नी ने वस्तुपरक ढंग से अलगाया। पत्रकारिता की दुनिया में
स्त्रियों के साथ किस तरह दोहरे नागरिक होने का अहसास कराया जाता है, इसे राणा अयूब
ने अपने ही अनुभवों की आपबीती के द्वारा बतलाया। कहा कि आज इन्वेस्टीगेटिव
जर्नलिज्म के लिए जिस तरह का काम रूलर इलाके में नई लड़कियां कर रही हैं वह कोई
नहीं कर रहा। वह हमारे समय की अनसंग हीरों हैं। स्वाति भट्टाचार्य ने माना कि
जनसंख्या केे अनुपात में मीडिया में स्त्रियों की उपस्थिति बहुत निराषापूर्ण है।
उन्होंने कहा कि कोलकाता में महज 10 प्रतिशत महिला पत्रकार हैं। स्त्री हिंसा की
बढ़ती प्रवृति का कारण हमारे पितृसमाज के सामंती ढांचे हैं। मीडिया के अंदर स्त्री
के प्रति कई तरह के दुराग्रह हैं। वहां एक रेप केस को दूसरे से कैसे अलग करके
दिखलाया जाए, ऐसा हर दिन हो रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता अमृता ने
टीवी में आ रहे स्त्री संबंधी विज्ञापनों की संकीर्णता को टारगेट करते हुए कहा कि
लड़किया जितनी ज्यादा दिखेंगी, निकलेंगी, जितनी ज्यादा संख्या होगी उनकी -वह उतनी ही सुरक्षित होंगी। अंजिता मेनन
ने कहा कि मुख्यधारा की मीडिया महिला सवालों को कवर ही नहीं करते। टीवी को हर क्षण
नई स्टोरी चाहिए। उन्होंने दिल्ली में हुए निर्भया कांड की चर्चा करते हुए बतलाया
कि चूंकि इसके विरोध में दिल्ली में एक साथ कई तरह की प्रतिरोधी आवाजें मुखर थीं,
उनके पास हर पल नए विजुअल्स थे इसलिए मीडिया ने दिखलया कि ये केस हमारे
लिए भी महत्वपूर्ण है। नीधीश त्यागी ने कहा कि गुजराती में जब मैंने अखबार निकाला
तो वहां न्यूज रूम में लड़कियां नहीं होती थीं। लोग यह मानने को तैयार ही नहीं कि
स्त्रियां यह काम करें। उन्हें फीचर में काम दिया जाता था। खाना पकाना और श्रृंगार
तक ही उनकी दुनिया मानी जाती थी। हमने वहां ट्रेनी लड़कियों को गुजराती मंे न्यूज
रूम में लाया। उन्होंने कहा कि हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मीडिया एक उद्योग भी
है। सोषल मीडिया की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हम सब मीडिया हंै इस बात का
अहसास सोषल मीडिया ने कराया है। बुरी से बुरी बात भी इस खतरनाक समय में इसी माध्यम
से कही जा सकती हैं। आनंदिता दास ने कहा कि मैं जिस नाॅर्थ ईस्ट से आती हूं वह
बहुत ही असुरक्षित इलाका है। उसके बारे में सो काॅल्ड नेशनल मीडिया कुछ लिखता ही
नहीं। वहां पर हम लोगों को स्पेस मिलना बहुत कठिन है। मनोरमा देवी रेप केस को इस
मीडिया में तब जगह मिली जब वहां की महिलाएं नग्न प्रदर्शन में उतरीं।फिल्म निर्देशक मो. गन्नी दर्शकों से
अनौपारिक ढंग से मुखातिब हुए। कहा कि हिंदी में स्त्री प्रधान फिल्मों और अभिनेत्रियों
की संख्या बहुत है, हर पहलू पर है। 25-30 कमाल की महिलाएं हैं
जिन्हांेने जन सरोकार की फिल्में बनाई हैं। उन्होंने उतर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में
हुए दंगे की चर्चा करते हुए बतलाया कि उसपर फिल्म बनाते वक्त वहां की लड़कियों ने
कहा कि हमें दिक्कतें अपने घरों से जितनी है उतनी मुसलमानों से नहीं। उन्हांेने
कहा कि हमारी फिल्में जब डेढ़ हजार-ढाई हजार में बननी
शुरू होगी तब उसमें आपकी दिक्कत, आपकी दुनियाएं वहां
रिफलेक्ट होंगी।
बहुत कुछ बदली है और बहुत कुछ बदले जाने की जरूरत है। इस सवाल को सुनीता, रामपरी, सुधा अरोड़ा और निवेदिता आदि ने अपने
तर्कपूर्ण दलिलों से विचारोतेजक विमर्श में तब्दील किया। कामायनी ने समाज में
लैगिंक असमानता से जुड़े कई अनुभव साझा किए। उतर बिहार के अनुभवों की चर्चा करते
हुए कहा कि वहां सामाजिक राजनैतिक संघर्सों में स्त्रियों की भरपूर भागीदारी रही।
लेकिन जब लाभ की बारी आई तो 98 प्रतिशत पदों पर पुरूष आ गए। यह परिदृश्य कोई नया
नहीं है। आयडवा की बिहार अध्यक्ष रामपरी ने मजदूर आंदोलन की चर्चा के साथ ही महिला आरक्षण बिल का जिक्र
करते हुए कहा कि यह दुखद है कि समाजवादी विचार वाले नेताओं ने इसे अगड़े और पिछड़े
वर्ग की पेंच पैदा कर पास नहीं होने दिया। उन्होेंने कहा कि राज्य विधान मंडलों और
संसद में आज भी महिलाओं की भागीदारी महज 10-11 प्रतिशत तक ही सीमित है।
दीक्षित, हेमलता माहेश्वर, नीलिमा सिन्हा,
कौशल पंवार, कमलानंद झा और शैलेंद्र सिंह ने चिह्ति
किया। सुनंदा दीक्षित ने कहा कि जेंडर जस्टिस शुरू होती है हमारे घरों से। क्या
दलित और क्या आदिवासी सब समझते हैं कि बराबरी का अधिकार लेना कितना मुश्किल है, क्योंकि वह बहुत ताकतवर से लेनी है। उन्होंने कहा कि गैर बराबरी हमारे
खून में, परवरिश में डाली जाती है। रोजमर्रे के सामाजिक
जीवन में हमारे जो रिएक्षन होते हैं वह भी हमारी इस धकियानूसी प्रवृति को सामने
लाती है। आज मैं चमारिनी लग रही हूं या जंगलिया की तरह हूं जैसी प्रतिक्रियाएं
सामंती पितृसोच को प्रतिबिम्बित करती हैं। प्रो. हेमलता माहेश्वर ने कहा कि आज 25
चैनल बाबाओं के नाम के चल रहे हैं। वे किस तरह की दकियानूसी सोच को सामने ला रहे हैं
यह किसी से छुपा नहीं है। उन्हांेने सवाल उठाए कि सारा धैर्य स्त्रियों के हिस्से
ऐसा क्यों? उन्होंने कहा कि अपने यहां एक बहस चली थी
कि जो केप्ट होगी उसका सारा भार पुरूष वहन करेगा। इस सवाल को लेकर महाराष्ट्र मेें
बड़ा आंदोलन हुआ। कुमुद पावड़े ने कहा कि इसका मतलब केप्ट को संवैधानिक दर्जा देना
होगा। इस सत्र में ओम सुधा, वंदना मुन्ना झा,
सुमेधा विद्युत प्रभा और आर.के. राजन ने भी अपने हस्तक्षेप से विचारोतेजक
बनाया।
और मोना झा के एकल अभिनय पर आधारित नाटक ‘एक अकेली औरत’
का मंचन हुआ। इसमें स्त्री हिंसा की कई परतों को सशक्त ढंग से सामने लाया गया। मोना का अभिनय प्रभावश्याली था। मो. गन्नी निर्देषित ‘कैदी’ बाल मनोविज्ञान की तहकीकात करने वाली
विमर्ष प्रधान फिल्म थी। गन्नी की दूसरी फिल्म में एक वृहत कोलाज षैली में मिथकों,
प्रथाओं, परंपराओं और पितृसता द्वार विभेद के
बहुआयामी जटिल तंतुओं का उद््भेदन किया गया।
संयोजक संजीव चंदन ने कहा , ‘हम एक आजाद मुल्क
और संविधान निर्देषित समाज में जी रहे हैं। जिसे बनाने का पूरा श्रेय बाबा साहब
भीम राव आंबेडकर को जाता है। हमें उनके प्रति पूरी विनम्रता के साथ आभारी होना
चाहिए। हम स्त्री स्वाधीनता की ओर चार कदम बढे हैं , इसीलिए प्रचलित व्यव्स्था क्रूर प्रतिकार कर रही है. शेफाली फ्रोस्ट के मीरा और फैज अहमद फैज
के गीतों के सुमधुर गायन से कार्यक्रम का प्रारंभ और समापन हुआ।