स्त्री-अस्मिता से अभिप्राय: स्त्री के स्व की ‘पहचान’ या उसके ‘अस्तित्व’ से है। जब कोई व्यक्ति अपने समाज, परिवार और परिवेश में अपने हिसाब से जीना चाहता है और जी नहीं पाता है, तब वह परिवार और समाज में अपने अस्तित्व की तलाश करता है। जबकि देखा जाय तो परिवार और समाज में मनुष्य का अधिकांश व्यक्तित्व दूसरों द्वारा निर्धारित होता रहा है। परिवार में ‘स्त्री’ हो या ‘पुरूष’ दोनों अपने अनुसार अपने व्यक्तित्व को बनाना या निखारना चाहते हैं। लेकिन “धर्मतंत्र और सामाजिक अर्थव्यवस्था ने स्त्रियों को शिक्षा और संपत्ति के अधिकार तथा सामाजिक हैसियत से वंचित कर उसे विवाह और परिवार से इस तरह बांध दिया कि वह अपनी स्वतंत्रता का विसर्जन और आत्मसमर्पण करने की कीमत पर ही सम्मान की जिंदगी बिता सकती है। धर्म ने परिवार और विवाह कर नीतितत्व, पतिव्रत और यौन-शुचिता की अनिवार्यता सुनिश्चित कर स्त्री की अस्मिता, स्वायत्तता और संबंधों की स्वाधीनता पर अंकुश लगा दिया।”1 इस प्रकार स्त्री को आज तक समाज और परिवार में बेटी, बहू, माँ के रूप में ही पहचाना जाता रहा है। लेकिन आज की स्त्री इन तमाम बंधनों से निकलकर ‘स्वतंत्र व्यक्तित्व’ के रूप में अपनी ‘पहचान’ कायम करना चाहती है। फिर यही से शुरू हो जाती है उनकी अपनी अस्मिता और अस्तित्त्व की तलाश।
रमणिका गुप्ता स्त्री–अस्मिता के प्रश्न पर विचार करती हुई कहती हैं “आखिर स्त्री अस्मिता है क्या? दरअसल यह पुरुष के समान स्त्री का समान अधिकार, स्त्री के प्रति विवेकमूलक दृष्टिकोण तथा स्त्री द्वारा पुरुष के वर्चस्व का प्रतिरोध है। औरत का केवल स्वतन्त्र होकर निर्णय ले सकना या आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाना ही उसकी अस्मिता नहीं है। सही मायने में स्त्री अस्मिता का अर्थ होगा स्त्री के प्रति समाज के दृष्टिकोण और मानसिकता में बदलाव जिसमें स्त्री का खुद का दृष्टिकोण भी शामिल हो।”2 वर्तमान समय में स्त्री के सामने स्त्री-अस्मिता का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न है। स्त्री-अस्मिता की लड़ाई, स्त्री स्वाभिमान की लडाई है। भारतीय समाज में स्त्री अस्मिता का प्रश्न आधुनिक चेतना का प्रतीक है। आधुनिक स्त्री को जब अपनी भारतीय परंपरा में अपना चेहरा दिखाई नहीं देता है तब वह अपनी परंपरा की तलाश करती हुई इतिहास में लौटती है और अपने को स्थापित कराना चाहती है। समाज में पुरुषवर्ग को यह समझना ही होगा कि “स्त्री समानता की लड़ाई बुनियादी लड़ाई है। इससे उसे स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता एवं अस्मिता की पहचान मिलेगी। इस संघर्ष के प्रति तदर्थभाव, दयाभाव या सहानुभूतिभाव, स्त्री के संघर्ष एवं अवदान को कम करेगा। स्त्री की समानता के संघर्ष के प्रति दया या सहानुभूति की जरूरत नहीं है बल्कि यह महसूस करने की जरूरत है कि यह तो उसका अधिकार था जो उसे दिया जाना चाहिए।”3
सदियों से समाज में चली आ रही परम्पराओं और रूढ़िवादी मानसिकता के कारण स्त्री चाहे जिस भी वर्ग, जाति, समूह की रही हो वह जन्म से ही अपने आपको असहाय और अबला समझकर सदैव पुरुषवादी मानसिकता का शिकार होती रही है। आज समाज में तमाम तरह के बंधनों से जकड़ी महिलाएं स्वयं की मुक्ति और अपनी अस्मिता के लिए, देश के हर कोने से आवाज उठा रही हैं। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है कि ‘जब तक महिलाएं स्वयं अपने विकास के लिए आगे नहीं आएंगी तब तक उनका विकास असंभव है।’ किसी ने ठीक ही कहा है कि किसी देश के सांस्कृतिक स्तर का पता लगाना है तो पहले यह देखो कि वहां की स्त्रियों की अवस्था कैसी है। मनु ने भी कहा है– ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:।’4 अर्थात जहाँ स्त्रियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। वहाँ पर पुरुषों की गिनती स्वत: देवताओं की कोटि में की जाती है। इस परिवर्तनशील समाज में वैदिक काल के बाद, स्त्रियों की स्थिति काफी उतार-चढ़ाव भरी रही है। आज भी स्त्रियाँ अपने अधिकार के लिए सामाजिक रूढियों, परम्पराओं और अपने अस्मिता के प्रश्न को लेकर जूझती नजर आ रहीं हैं। “स्त्री की स्थिति भी युगों से ऐसी ही चली आ रही है। उसके चारों ओर संस्कारों का ऐसा क्रूर पहरा रहा है कि उसके अंतरतम जीवन की भावनाओं का परिचय पाना ही कठिन हो जाता है। वह किस सीमा तक मानवी है और उस स्थिति में उसके क्या अधिकार रह सकते हैं, यह भी वह तब सोचती है जब उसका हृदय बहुत अधिक आहत हो चुकता है।”5 ऐसा नहीं है कि हमारे भारतीय समाज में स्त्री स्वतंत्रता, उसकी आजादी के लिए प्रयास नहीं किया गया। वैदिक काल के बाद “अठारहवीं शताब्दी में स्त्रियों की हालत जितनी ख़राब थी उसमें 19वीं सदी में कुछ सुधार आया। धार्मिक आडम्बर, रूढिगत विचार, परंपरागत सामाजिक संस्कार सभी ने मिलकर अन्धकार का ऐसा परिवेश भारतीय जीवन के चारों तरफ निर्मित कर दिया था कि उसे तोड़ सकना सहज संभव नहीं था।”6 ऐसी स्थिति में स्त्री शोषण के विरुद्ध उसके अधिकारों के लिए समाज में तमाम तरह के सामाजिक व राजनैतिक आंदोलनों की शुरुआत हुई। जिसमें स्त्री प्रश्न एक-बहुत बड़ा मुद्दा रहा है। जिसके माध्यम से स्त्री से जुड़े हर तरह के शोषण के विरुद्ध राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा ज्योति बा फूले व सावित्री बाई फूले आदि विभिन्न महान लोगों ने आवाज उठाई और महिलाओं को तमाम तरह की सामाजिक रूढियों, बन्धनों से मुक्त करा कर उन्हें उनका हक़ दिलाया। लेकिन आज भी उनकी समस्याएं हल नहीं हो सकी हैं | आखिर क्यों? क्योंकि- “पुरूषों द्वारा नियंत्रित–संचालित यह आन्दोलन आज के स्त्री–आन्दोलन से मौलिक भिन्नता रखता है। सबसे बुनियादी फर्क यह है कि पुरूष सुधारक समाज के पितृसत्तात्मक ढ़ाचे पर हमला नहीं करते थे बल्कि इसे सुरक्षित रखते हुए ही इसके अन्दर कुछ सुधार लाना चाहते थे। पितृसत्तात्मक ढांचे का मतलब सिर्फ परिवार में पुरुष का मुखिया होना नहीं है बल्कि समाज के सभी पक्षों में आर्थिक, सामाजिक, वैधानिक और धार्मिक व्यवस्था तथा मूल्यों-मर्यादाओं, आदर्शों और चिंतन के रूपों तथा विचारधाराओं आदि में पुरुषों को खासकर प्रधानता देना है। पुरुष सुधारक इस ढांचे पर सवाल खड़ा किए बिना ही स्त्रियों की दशा में कुछ सुधार लाना चाहते थे।”7 इसी वजह से अब तक स्त्रियों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता के लिए समाज और साहित्य जगत में पुरुषों द्वारा उनकी निजी मानसिकता और स्वार्थ के आधार पर स्त्री-शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाई गई, लेकिन उनकी छवि को अपने अनुसार गढ़ा जाता रहा है। “स्वतंत्रता के पश्चात पुरुषों के समक्ष बराबरी से आने का हौसला नारी में हुआ। नारी मुक्ति की चेतना नवीन संकल्पनाओं के साथ विकसित हुई– पुरातनता के साये में नवीनता को अपनाना ही नवीन चेतना के रूप में नारी मुक्ति चेतना बनी।”8
हिंदी कथा साहित्य में नई कहानी के दौर की लेखिकाओं ने स्त्री शोषण के विरुद्ध आवाज उठायी। वे अपने ‘स्व’ की पहचान के लिए रूढ़िवादी मान्यताओं का खंडन कर, यथार्थ की उस गहराई तक पहुँच गई हैं, जहाँ पर वह अपनी अस्मिता की खोज में रत हैं और अपने अस्तित्व को उभारने-संवारने के लिए अस्मिता के प्रश्न को लेकर सामने आ रही हैं। “स्त्री-अस्मिता को माँ, बहन, बेटी, बीवी, रखैल, वेश्या, की कोटियों से बाहर लाकर एक स्त्री के रूप में देखे जाने की मानसिकता का प्रादुर्भाव स्त्री साहित्य से ही हुआ है।”9 आधुनिक स्त्री यह मांग कर रही है कि उसे स्त्री के रूप में, एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में पहचाना जाय। अस्मितामूलक इस दौर में (वह चाहे दलित-अस्मिता, आदिवासी-अस्मिता या स्त्री-अस्मिता का प्रश्न हो) नये कहानीकार समिष्टगत चिंतन को आधार बनाकर व्यक्तिगत चिंतन को केंद्र में रखकर अपने रचना संसार का सृजन करते हुए ‘अस्मिता’ के सवाल को उठा रहे हैं। हिंदी साहित्य में स्त्री-अस्मिता का प्रश्न मुख्य विषय रहा है। जिस पर साहित्य की लगभग सभी विधाओं में लेखनी चलाई जा चुकी है और चलाई भी जा रही है। “स्त्री-साहित्य ने स्त्री की अस्मिता और अनुभवों को केन्द्रीय महत्त्व दिया। साहित्य की मुख्यधारा ने स्त्री की अस्मिता, आकांक्षाओं, इच्छाओं, जरूरतों, अनुभवों एवं मन:स्थिति की कुल मिलाकर उपेक्षा की।”10 नई कहानी के दौर की लेखिकाओं की कहानियों में स्त्री-अस्मिता के प्रश्न को मुख्य विषय बनाया गया है, जिनमें से उषा प्रियंवदा भी एक हैं। इनकी कहानियों में हम स्त्री जीवन में आने वाली परंपरा और आधुनिकता के बीच की टकराहट को देख सकते हैं। इनकी कहानियों में स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से संपन्न, स्वतन्त्र, भावात्मक रूप से परिपक्व और बौद्धिक रूप से सजग, संघर्षशील स्त्री की झांकी प्रस्तुत करती हैं। “नारी, नारी दृष्टि से रचनात्मकता का सृजन करना चाहती है। सृजनात्मकता की रूपरेखा बनाने में वह समाज में निश्चित भागीदारी चाहती है। देह से परे, बुद्धि और मन की निर्भरता से, निजता व सम्मान का हक मांगती है। स्त्री को शोषण से, दमन से, पुरुषवादी सोच से मुक्ति चाहिए, मुक्ति ऐसी, जो गरिमामय उड़ान के लिए नया आकाश प्रदान करे।”11 समाज में स्त्री और पुरुष दोनों का अपना वजूद और अपना अस्तित्व है। लेकिन दोनों एक–दूसरे के पूरक हैं इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है। इसलिए एक–दूसरे को नकार कर न स्त्री का विकास हो सकता है और न ही पुरुषवर्ग का, और न ही राष्ट्र का। स्त्री-अस्मिता के प्रश्न को लेकर निर्मला जैन ने कहा भी है कि “बिना पुरूष के सहयोग से स्त्री की पहचान नहीं बदल सकती। स्त्री को मुकम्मल होने के लिए पुरुष की मदद लेनी ही पड़ेगी। सच्चे अर्थों में नारी अस्मिता तभी आकार लेगी जब पुरुष स्त्री के पक्ष में खड़ा होने की बात करें।…जब तक नारी में अपने फैसले करने का हक़ लेने का विचार नहीं आएगा तब तक वह अपने को स्वतंत्र मानने की अधिकारिणी कहाँ है। अब समय नहीं रहा जब स्त्री बच्चे पैदा करने के अलावा संगीत और सूई के सहारे घर की लक्ष्मी बनकर कैद रहे। उसे अपने पैरों पर खड़ा होना होगा और अच्छा होगा कि पुरूष मानसिकता का समाज उसको सहयोग प्रदान करे।”12
आज की स्त्रियाँ अपने सफर में संघर्ष करने से पीछे नहीं हट रहीं हैं। खुद की ‘पहचान’ और अपने ‘अस्तित्व’ को स्थापित करने की लड़ाई स्त्री व्यक्तित्व को ऐसी ऊर्जा प्रदान कर रहा है कि “वह नित्य नयी ऊँचाईयों को छूती, विकास यात्रा में पूरे मनोयोग से जुड़ी हैं। उसका यह बदला व्यक्तित्व जरूर अचम्भित कर रहा है, किन्तु यह सादियों से निरंतर होने वाली स्वाभाविक परिणति है।”13 स्त्रियाँ समाज में अपनी ‘पहचान’ को स्थापित करने के लिए निरंतर संघर्षशील हुई हैं। आधुनिक भारतीय समाज में नये जीवन-मूल्यों की तलाश करने वाली स्त्री परिवार के विरुद्ध नहीं है बल्कि वह समाज में शोषण और अन्याय के विरुद्ध है। जिसकी वजह से इन्हें हमेशा झुकाया जाता रहा है। महादेवी वर्मा के शब्दों में कहे तो आज की स्त्रियाँ कहती हैं कि “हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय; न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वह स्वत्व चाहिए जिनका पुरूषों के निकट कोई उपयोग नहीं है परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग बन नहीं सकेंगी।”14
‘स्त्री-अस्मिता’ या उसके अधिकार का प्रश्न केवल नारी का प्रश्न नहीं है बल्कि सम्पूर्ण मानवता का प्रश्न है, जिस पर सभी को विचार करने की जरूरत है। समाज में जब स्त्री अपने अधिकार या स्वतंत्रता की मांग करती है तो उसका मतलब यह नहीं होता है कि वह परिवार या समाज के अलग रहना चाहती है। “पुरूष से अलग रहकर संसार बसाने की बात नारी नहीं करती, समाज को भी स्त्री को अपनी मुट्ठी में कैद करने की ललक से आजाद होना चाहिए।”15 जब तक समाज स्त्री के प्रति सहज नहीं होगा, उसके अस्तित्व को नहीं समझेगा तब तक स्त्री मुक्ति या कहे स्त्री-अस्मिता का प्रश्न अधूरा ही रहेगा। क्योंकि समाज में मानवता का प्रश्न सम्पूर्ण मानव जाति का प्रतिनिधित्व करता है न कि केवल स्त्री या केवल पुरूष का।
उषा प्रियंवदा की शुरुआती दौर की कुछ कहानियां भारतीय परिवेश की हैं और कुछ कहानियों में परिवेश विदेशी है लेकिन पात्र भारतीय विदेशी दोनों हैं। जिस कारण भारतीय संस्कृति और विदेशी संस्कृति की टकराहट के साथ-साथ स्त्री-मुक्ति और उसकी अस्मिता का प्रश्न अलग-अलग रूपों में उजागर हुआ है। इनकी कहानियों में बदलती स्त्री की छवि, उनकी जागरूकता और स्वच्छंदता को देखकर यह अनुमान स्वत: लगाया जा सकता है कि बदलते समय और समाज की तत्कालीन स्थिति को उजागर किया गया है। उस समय की अपेक्षा आज के समय और समाज में इनकी कहानियों की स्त्री पात्र और ज्यादा मुखर हुई हैं। उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों में जिस प्रकार स्त्री के आतंरिक द्वंद्व की एक-एक परत को बहुत ही सहजता से खोलने में सफल हुई हैं वह अन्यत्र दुर्लभ है। इन्होंने अपनी कहानियों में ‘स्थितियों’ को उजागर कर जीवन में आने वाली समस्याओं की तरफ इशारा मात्र करके छोड़ दिया है। अब पाठक अपने अनुकूल समस्याओं को समझकर उसके समाधान के बारे में स्वयं निर्णय ले सकता है कि उसे अपने जीवन में क्या और कैसे करना है? जहाँ तक उषा प्रियंवदा की कहानियों में स्त्री–अस्मिता का प्रश्न है, इसे हम दो रूपों में देख सकते हैं। पहला यह कि इनकी भारतीय परिवेश की कहानियों में स्त्री–पात्र अपने विवेकपूर्ण निर्णय से किन-किन रूपों में रूढ़िवादी परम्पराओं से मुक्ति का प्रश्न उठाती हैं। दूसरा यह कि भारतीय समाज और संस्कृति पर पश्चिम में हुए स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव तथा स्त्री–अस्मिता के प्रश्न को किन-किन रूप में इनकी विदेशी परिवेश की कहानियों में उजागर किया गया है।
(1)सामाजिक परंपरा और रूढ़ियों से मुक्ति का प्रश्न :
(भारतीय परिवेश की कहानियों के विशेष सन्दर्भ में)
“पुरुष सांस्कृतिक सत्ता ने स्त्री को वह सामाजिक सुविधा नहीं दी, जोकि पुरुष को परम्परा से मिलती रही। स्त्री ने एक जीव के रूप में जन्म तो लिया, मगर इसके बाद पुरूष की सभ्यता और सत्ता पर अपनी मान्यताएं ही नहीं, सब कुछ समर्पित करती रही।”16 लेकिन आधुनिकता ने स्त्री की सोयी हुई चेतना में जान भरने का काम किया है। आधुनिक स्त्रियाँ बरसों से रूढ़िवादी परंपरा की बेड़ियों में बंधी रहना नहीं चाहती हैं। वह पितृसत्ता का विरोध करती हुई नजर आ रही हैं। उनके पास अपनी स्वतन्त्र राय है। भारतीय स्त्री की मुक्ति का प्रश्न अन्य पश्चिमी देशों की स्त्रियों की मुक्ति से अलग है। भारतीय समाज और संस्कृति अन्य देशों की सभ्यता और संस्कृति से भिन्न है। भारतीय स्त्रियों के लिए स्त्री-मुक्ति का अर्थ अपनी परम्परा से पूर्ण मुक्ति का कभी नहीं रहा। भारतीय स्त्रियाँ समाज में व्याप्त रूढ़िवादी परम्पराओं से मुक्ति चाहती है। ऐसा नहीं है कि वह परिवार तोड़ने या पुरुषवर्ग का विरोध करती है वरन वह परिवार भी चाहती है और पुरुष का सहारा भी लेकिन साथ ही साथ वह स्वतन्त्र ‘पहचान’ और अपना स्वतन्त्र ‘अस्तित्व’ भी कायम करना चाहती है। समकालीन अस्मितामूलक विमर्श के दौर में आज स्त्री-साहित्य में स्त्री-अस्मिता का प्रश्न मुख्य विषय बना हुआ है। स्त्री–लेखन के द्वारा स्त्री से जुड़े सभी प्रश्नों को उठाया जा रहा है। वह चाहे हमारे समाज और संस्कृति में व्याप्त रूढ़िवादी मानसिकता हो या आधुनिकता की चकमक में स्त्री का बदलता स्वरूप।
उषा प्रियंवदा की शुरुआती दौर की कुछ कहानियों में स्त्री पात्र पढ़ी-लिखी और नौकरी-पेशा वाली होने के बावजूद अपनी रूढ़िवादी मान्यताओं के प्रति आवाज नहीं उठा पाती हैं। “हम वर्तमान समय में यह तो कह सकते हैं कि महिलाओं के साक्षरता प्रतिशत में वृद्धि हो रही है परन्तु इस पर विचार करना भी आवश्यक है कि क्या वर्तमान शिक्षा महिलाओं को सदियों की रूढ़िवादी मान्यताओं से मुक्त कराकर उसे महिला से पहले इंसान होने का दर्जा दिला पा रही है या फिर उन बेड़ियों को ज्यादा से ज्यादा मजबूत करने का ही काम कर रही हैं, उनकी पारम्परिक भूमिका में ही उनका अस्तित्व तलाश रही हैं।”17 उषा प्रियंवदा ने जहाँ अपनी कहानियों में एक तरफ भारतीय पारम्परिक तथा रूढ़िवादी मान्यताओं के प्रति सहज स्त्री पात्र खड़ा किया हैं, उन स्त्री-पात्रों के माध्यम से यह भी बताने की कोशिश करती हैं, किस प्रकार अपनी परंपरा में दबी स्त्री की दशा इतनी असहाय होती है कि वह न चाहते हुए भी ‘परंपरा’ के अनुसार जीवनयापन करने के लिए मजबूर हो जाती है। कहानी की दूसरी स्त्री पात्र को देखे तो वह पारम्परिक मूल्यों का विरोध कर आधुनिक मूल्यों को वरीयता देती हुई नजर आती हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि एक ही समय और समाज में किस तरह स्त्री की अलग-अलग छवि को उजागर किया गया है। प्रश्न–उत्तर कहानी की स्त्री पात्र बन्नो बुआ अपनी परंपरा को सहज भाव से बिना किसी विरोध के स्वीकार कर लेती हैं। वहीँ दूसरी तरफ लता जैसी आधुनिक युवा पीढ़ी अपनी परम्पराओं में बंधकर रहना स्वीकार नहीं करती है बल्कि वह विरोध करती हुई नजर आती है। अकेली राह– इस कहानी में गौरी और रहमान के प्रेम सम्बन्ध के बारे में पता चलने पर गौरी का भाई उससे पूछता है कि “तुमने ऐसा क्यों किया, गौरी।” बहुत ही सहज भाव से गौरी जवाब देती है कि “जो हो गया, वह तो बदला नहीं जा सकता, इसलिए मैं जा रही हूँ, भाई साहब।” उसका दृढ़ स्वर सुनकर श्याम स्तब्ध रह गया। आगे वह कहता है- “तुम्हें जल्दी में कोई काम नहीं करना चाहिए, गौरी। माँ आखिर माँ हैं। गुस्से में आकर कह दिया, तो क्या हुआ ?” लेकिन आधुनिक पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करने वाली गौरी को यह सहन नहीं है कि उसका कोई अपमान करे, वह चाहे समाज या अपने लोग ही क्यों न हो। वह आगे कहती है “जो माँ बेटी की खुलेआम इज्जत उतार ले, उस माँ के लिए, मेरे दिल में कोई जगह नहीं बची।”18 आज की युवा पीढ़ी को हमारी पुरानी पीढ़ी के लोग स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं उन्हें नयी पीढ़ी के द्वारा लिए गए निर्णय जल्दबाज़ी में लिया गया फैसला लगता है। वह अपनी रूढ़ियों से निकलना नहीं चाहते या यूं कह सकते हैं कि चाहकर भी वो निकल नहीं पा रहे हैं। क्योंकि इन्सान से ज्यादा उन्हें समाज और अपनी झूठी इज्जत प्यारी है। चाहे इसके लिए उन्हें अपनी जान ही क्यों न गवानी पड जाय। लेकिन आधुनिक पीढ़ी किसी को भी कटाक्ष या कुछ कहने या सुनने का मौका देना नहीं चाहती है। माँ के द्वारा हुए अपमान का गौरी विरोध करती है और अपने हिसाब से जीवनयापन करने का निर्णय लेती है। गौरी सारी समस्याओं को झेलती हुई अपने ‘स्व’ की पहचान के लिए एक संघर्षशील स्त्री के रूप में सामने आती है। वह परिस्थितियों से भयभीत नहीं होती है। एक प्रसंग आता है कि “गौरी ने न तो आत्महत्या की, न ही उसे क्षय ही हुआ। पहले की तरह काम में व्यस्त रहती।”19
मान और हठ- कहानी की नायिका अमृता एक स्वाभिमानी स्त्री के रूप में सामने आती है। वह अपने स्वाभिमान के आगे झुकती नहीं है और न ही समझौता करना पसंद करती है। अमृता का अपनी चाहत के हिसाब से पति न मिल पाने के कारण दु:खी होना तो स्वाभाविक था लेकिन पति द्वारा उसका अपमान किये जाने पर वह चुप नहीं रहती है। जब पति मुकुल कहता है कि “मैं तुम्हारी जैसी हजारों को ख़रीद सकता हूँ। तुम्हें अगर अपने रूप का घमण्ड है, तो मैं भी तुम्हें दिखा दूँगा। सिसककर, डूबे स्वर में अमृता ने कहा, “आपको अपनी दौलत का घमण्ड है, तो मैं भी आपको दिखा दूँगी।”20 समाज में आज भी बहुत सी स्त्रियां हैं, वह मुकुल जैसे अमीर और घमण्डी व्यक्तियों के जाल में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर रही हैं लेकिन आवाज नहीं उठा पाती हैं। उषा प्रियंवदा अमृता के माध्यम से समाज में व्याप्त ऐसी रूढ़िवादी मानसिकता को नकारती हैं। स्त्री-अस्मिता के प्रश्न और उसके वजूद की तरफ इशारा करती हैं कि स्त्री का खुद का भी अस्तित्व है। पति मुकुल “सोचता था कि पतिव्रता स्त्री की भांति वह आकर पैरों पड़ेगी, क्षमा माँगेगी, मगर वह नहीं आई।”21 अमृता आधुनिक स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है। एक स्वाभिमानी स्त्री होने के नाते बिना वजह वह किसी के सामने झुकना पसंद नहीं करती हैं। एक संघर्षशील स्त्री के रूप में पढ़ाई पूरी कर नौकरी करने का निश्चय करती है। इस प्रकार वह समाज में व्याप्त पुरुष वर्चस्व और रूढ़िवादी व्यवस्था को चुनौती देती है। माँ के कहने पर कि हमने तुम्हारा भला ही चाहा है वैसे भी “इज्जत तो रूपये की होती है।” जवाब में अमृता कहती है कि “तो इसका मतलब है कि चाहे जिससे भी शादी कर दो ? मेरे भी हाथ-पैर हैं, कमा खा लूंगी। उनका रूपया मुझे नहीं चाहिए।”22 पति मुकुल का यह कहना सही है कि “उसे अपने रूप का मान है। अगर उसे इतना ही मान था तो मुझे शादी से पहले ही क्यों नहीं देख लिया। लेकिन मुकुल का यह कहना कि उसे भी अमीरी का घमण्ड है। अगर “झुकेगी, तो अमृता–वह नारी है, पत्नी है। मैं पति हूँ।”23 मुकुल का यह अक्कड़पन पितृसत्तात्मक व्यवस्था का प्रतीक है। यह व्यवस्था स्त्री को वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं मानती है। अमृता इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देती है।
तूफ़ान के बाद- (1957) इस कहानी में मन्नो का भाई मन्नो के प्रेम विवाह करने का विरोध करता है, इस प्रकार बहन की शादी किसी और से कर देता है। वही भाई अपनी बेटी के कहने पर प्रेम-विवाह लिए वर के विजातीय होने पर भी हाँ कर देता है। ऐसा करने के बाद उसे बहुत शांति मिलती है। दूसरी तरफ मन्नो को हमेशा दु:खी और उदास देखकर वह पश्चाताप भी करता है। वह कहता है कि जो काम उसने अभी किया उसे बहुत पहले कर देना चाहिए था। कहानी की नायिका मन्नो भाई की आत्मग्लानि को देखकर बहुत दु:खी होती है। भाई के कहने पर अपनी बरसों की पीड़ा को भूलकर नये सिरे से जीवनयापन करने का निश्चय करती है। यहाँ पर मन्नों बदले की भावना से पेश नहीं आती है। वह समाज और परिवार के साथ-साथ लोगों की मानसिकता को बदलने और सही–गलत का बोध कराना चाहती है। जिससे आने वाली युवा पीढ़ी को ऐसी रूढ़िवादी मानसिकता से छुटकारा मिल सके और वह अपने विकास पथ पर अग्रसर हो सके। इसलिए बरसों से अपने दुःख में डूबी होने के बावजूद मन्नो भाई की आत्मग्लानि को देखकर पुनः नये सिरे से जीवनयापन करने का निर्णय करती है।
जिंदगी और गुलाब के फूल – कोई भी व्यक्ति वह चाहे स्त्री हो या पुरुष अपने जीवन में आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने पर ही स्वतन्त्र निर्णय ले पाने में सक्षम हो पाता है। इस कहानी में भी वृंदा अपने भाई से अभी तक सीधे बात नहीं कर पाती थी, वह कहती है-“दादा, आप क्या करेंगे मेज का? मुझे काम पड़ेगा।”24 जब तक वृंदा आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं हुई थी, तब तक अपने ही घर–परिवार और समाज में उसकी कोई अहमियत नहीं थी। आधुनिक स्त्री का प्रतिनिधित्व करने वाली वृंदा अपनी पहचान के लिए प्रयत्नशील है। एक तरफ जहाँ घर-परिवार और समाज में पुरुष वर्चस्व क्रमश: कमजोर पड़ता जा रहा है वहीँ दूसरी तरफ स्त्रियां अपनी भूमिका घर-परिवार और समाज में दर्ज करा रही हैं। आधुनिक स्त्रियों ने पुरुष वर्चस्व को चुनौती देना शुरू कर दिया है। पुरुष वर्चस्व के कमजोर पड़ने की छटपटाहट को हम सुबोध की बेचैनी के रूप में देख सकते हैं।
मोहबंध- कहानी की स्त्री पात्र नीलू किसी भी प्रकार के बंधन में बंधकर रहना पसंद नही करती है। पति राजन के बार-बार टोकने पर वह कहती है कि “तुम समझने की कोशिश क्यों नहीं करते राजन ! मैं एक दायरे में बंधकर नहीं रह सकती।,”25 नीलू एक सुन्दर और आधुनिक स्त्री है, तो अचला का भी चरित्र स्वाभिमानी है। नीलू केवल अपने पति और परिवार में बंधकर रहना पसंद नहीं करती। इसलिए वह सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने तथा दोस्तों की पार्टी आदि में व्यस्त रहती है। वह अपनी ‘पहचान’ और अपने स्वतंत्र अस्तित्त्व के साथ जीवनयापन करने में विश्वास रखती है। अचला भी देवेन्द्र के प्यार में धोखा खाने पर थोड़ा विचलित जरूर होती है लेकिन बाद में उसे एहसास होता है “इस मोहबंध को तोड़कर उसे जाना ही है क्योंकि वे भीगी आँखे उसकी अपनी हैं।”26
इस प्रकार हम देखते हैं की उषा प्रियंवदा की कहानियों में स्त्री पात्र स्वयं के व्यक्तित्व को ज्यादा महत्व देती हैं। इसलिए वह अपनी सामाजिक परंपरा और रूढ़िवादी विचारधारा से मुक्ति के लिए हमेशा संघर्षशील रहती हैं। महादेवी वर्मा ने भी कहा है- “केवल स्त्री के दृष्टिकोण से ही नहीं वरन हमारे सामूहिक विकास के लिए भी यह आवश्यक होता जा रहा है कि स्त्री घर की सीमा के बाहर भी अपना विशेष कार्यक्षेत्र चुनने को स्वतंत्र हो। गृह की स्थिति भी तभी तक निश्चित है जब तक हम गृहिणी की स्थिति को ठीक-ठीक समझ कर उससे सहानुभूति रख सकते हैं और समाज का वातावरण भी तभी तक सामंजस्यपूर्ण है, जब तब स्त्री तथा पुरुष के कर्त्तव्यों में सामंजस्य है।”27 आज की स्त्री समाज में बहुत पहले अपने हक़ और अस्मिता की तलाश के लिए जागरूक हो चुकी थी। 60-70 के दशक से उषा प्रियंवदा तथा उनकी जैसी अन्य रचनाकारों ने अपनी कहानियों में जो भूमि तैयार किया, वर्तमान ‘स्त्री की छवि’ उसी की देन कही जा सकती है। उनके योगदान ने स्त्रियों को उनके अस्तित्व और अस्मिता की पहचान ही नहीं कराया है बल्कि उनके सामने जीवन को नये सिरे से जीने के लिए बहुत से विकल्पों को भी उजागर किया है।
(2)पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव और स्त्री-अस्मिता :
(विदेशी परिवेश की कहानियों के विशेष सन्दर्भ में)
1960-70 के दशक में पश्चिम में चल रहे स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव कही न कही उषा प्रियंवदा की कहानियों पर साफ़ दिखाई पड़ता है। भारतीय परिदृश्य में स्त्री-मुक्ति की अपेक्षा पश्चिमी परिदृश्य में स्त्री-मुक्ति का प्रश्न काफी अलग है। पश्चिम में देखा जाय तो ‘स्त्री मुक्ति’ के नए दौर की शुरूआत फ्रांस की ‘सिमोन दा बोउवार’ की पुस्तक ‘द सेकेण्ड सैक्स’ से होती है। ‘सिमोन द बोउवार’ की पुस्तक आने के बाद पश्चिम में पहली बार स्त्रियों ने अपने अस्तित्व और अस्मिता के बारे में गंभीरता से सोचना शुरू किया। “1968 में जब फ्रांस में नारी आन्दोलन विकसित हुआ तो सिमोन भी उसमें शामिल हो गयीं। गर्भपात को क़ानूनी स्वीकृति दिलाने के अभियान का उन्होंने नेतृत्व किया। अलग से महिला संगठन बनाने की बात भी कहीं। नारी की आर्थिक स्वतन्त्रता की अहमियत को भी उन्होंने स्वीकारा।”28 इन्होंने स्त्री के सम्बन्ध में लिखा भी कि “स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि उसे बना दिया जाता है।”29
इस आन्दोलन का प्रभाव यह हुआ कि पश्चिम की स्त्रियां अपने हर तरह के बन्धनों से मुक्ति की कामना करती हुई, काफी आगे बढ़ती जा रही थी। सन 1970 के दशक में अमेरिकी और अन्य तमाम देशों की स्त्रियां यह मांग करते हुए सड़कों पर उतर आयी थी कि ‘हमें आजाद करो’ अब उन्हें किसी प्रकार का बन्धन स्वीकार नहीं था। इस प्रकार धीरे-धीरे इस आन्दोलन ने अतिवादी रूप ले लिया। यहाँ तक कि स्त्रियाँ अपने अंग वस्त्रों की होली जलाती हुई नजर आने लगी। पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन की मांग ‘स्त्री की देह’ मुक्ति से सम्बन्धित था। स्त्रियों ने विवाह-सम्बन्धों को नकार दिया। जिस कारण परिवार टूटने लगे, बिना विवाह किये स्त्रियाँ ‘लिविंग’ में रहना स्वीकार करने लगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ एक तरफ ‘परिवार तोड़ो’ का नारा गूँज रहा था वहीँ दूसरी तरफ नारीवादी अतिशयता की वजह से कुछ ही समय बाद ‘परिवार की ओर लौटो’ का भी नारा गूंजने लगा। स्त्री-मुक्ति की अतिशयता को देखकर स्त्री-मुक्ति को हवा देने वाली ‘बेट्टी फ्रीडन’ ने अपने आपको इस आन्दोलन से अलग करते हुए ‘द सेकेण्ड स्टेज’ नामक पुस्तक लिखकर ‘परिवार’ को महत्त्व देना शुरू किया। लेकिन पश्चिम में कुछ दिनों तक चले इस आन्दोलन स्त्रियों को अपनी दासता के प्रति चेतनशील बना दिया। इस स्त्री मुक्ति-आन्दोलन का प्रभाव भारतीय स्त्रियों पर भी पड़ा, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है। जैसाकि उषा प्रियंवदा की अधिकांश कहानियों पर इस आन्दोलन का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उषा प्रियंवदा अपनी कहानियों में स्त्री-मुक्ति की अतिशयता की वजह से उनके जीवन में आने वाली उस भयावह स्थिति की तरफ इशारा करती हैं जिसकी वजह से स्त्री मात्र वस्तु बनकर रह जाती है। इनकी कहानियों में पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव या कहे स्त्री जीवन में आये उत्तर-आधुनिकता का बहुत ही उन्मुक्त रूप इनके विदेशगमन के बाद आता है। उषा प्रियंवदा की कहानियों में हम पश्चिम में हुए स्त्री-मुक्ति आन्दोलन की सहज परिणति को देख सकते हैं।
सम्बन्ध – यह कहानी 1971 के दौर की है। इस कहानी की स्त्री पात्र श्यामल बन्धन मुक्ति जीवनयापन में विश्वास करती है। वह शादी एवं परिवार का सहज रूप से विरोध करती है। कहानी में एक संवाद आता है “सर्जन ने कहा था– श्यामला, मैं तुम्हें प्यार करता हूँ। मैं घर-बार, बाल-बच्चे सब तुम्हारे लिए छोड़ सकता हूँ…। श्यामला ने हथेली से उसका मुँह बंद कर दिया। बहुत देर बाद कहा– क्या हम ऐसे नहीं रह सकते प्रेमी, मित्र, बन्धु ! क्या वह सब छोड़ना जरूरी है ? मैं तो कुछ नहीं मांगती।”30 आधुनिक स्त्री केवल परिवार तक ही बंधकर रहना पसंद नहीं करती है। दूसरी तरफ सुनीता आधुनिक होते हुए भी परम्परावादी होती है। वह ‘अबार्शन’ न हो पाने के कारण, इसलिए आत्महत्या कर लेती है कि लोग क्या कहेंगे? वह भारत वापस बिना ‘आबार्शन’ कराये नहीं जाना चाहती थी। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इनकी बाद की कहानियों पर ‘पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन’ का प्रभाव पड़ता है। जहाँ एक तरफ सुनीता जैसी स्त्री की छवि दिखाई पड़ती है, वही दूसरी तरफ श्यामल जैसी बहुत ही स्वच्छंद स्त्री की छवि का भी दर्शन होता है।
प्रतिध्वनियाँ – यह कहानी सन 1969 के दौर की है। जिस पर पश्चिम के स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कहानी की स्त्री पात्र वसु पति श्यामल और बेटी रुचि को भारत में छोडकर विदेश में रहने का निश्चय करती है। वसु जैसी आधुनिक कामकाजी स्त्री पति और बेटी से ज्यादा अपने काम को वरीयता देती है। वह परिवार को बन्धन समझकर उससे अलग हो स्वतन्त्र जीवनयापन करना पसंद करती है। जैसाकि पश्चिम में स्त्री आन्दोलन के बाद वहां की स्त्रियाँ ‘परिवार तोड़ों’ तथा ‘बंधन मुक्त करो’ आदि इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ स्वतंत्र जीवनयापन की मांग करती हैं। ऐसी ही इच्छा शक्ति रखने वाली वसु कुछ ही दिनों में अपनी स्वच्छंद जीवनयापन की शैली से ऊब जाती है। उसे अपनी जिंदगी में निराशा, ऊब और अकेलापन के शिवाय कुछ नसीब नहीं होता है। इस प्रकार वह अपनी जिंदगी में इतनी आगे निकल चुकी होती है कि चाहकर भी उसे वापस आने का रास्ता नजर नहीं आता है। उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों के माध्यम से 60-70 के दशक की उन स्त्रियों की स्थिति को उजागर किया हैं, जिन पर पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव बहुत ज्यादा पड़ा है। उस समय भारतीय समाज में वसु जैसी स्त्रियाँ बहुत कम थी, जिनकी तरफ उषा प्रियंवदा इशारा करती हैं लेकिन आज के समय और समाज में ऐसी ‘कैरियरिस्ट स्त्रियों’ की संख्या बहुत ज्यादा बढ़ गई है। वह अपने जीवन में छोटे से लाभ के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा दे रहीं हैं। इस प्रकार इनके पास जिंदगी में ऊब निराशा और अकेलेपन के अलावा कुछ नहीं बचता। आज के दौर में अगर हम उषा प्रियंवदा की कहानियों का मूल्यांकन करे तो इनकी कहानियों की पात्रों की स्थिति, आज के समय और समाज में ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है।
पश्चिम के स्त्री-मुक्ति आन्दोलन से भारतीय स्त्रियाँ पहले की स्त्रियों की अपेक्षा ज्यादा जागरूक और चेतनशील हुई हैं, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है। भारतीय स्त्रियाँ यहाँ की संस्कृति से ओतप्रोत होने के कारण वह देश में हो या विदेश में कहीं न कही वह अपनी भारतीय जीवन शैली से पूर्णत: मुक्त नहीं हो पाती हैं। जैसा कि कहानी की पात्र वसु का चरित्र। नींद- कहानी की नायिका जिनके जीवन में संख्या महत्वपूर्ण नहीं है उनके लिए महत्वपूर्ण है वह हर तीसरा व्यक्ति। वह जीवन में आने वाले किसी भी तीसरे व्यक्ति से नहीं डरती, अगर डरती है तो अपने अकेलेपन या रात के अँधेरे से। पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन से प्रभावित इनकी सारी कहानियों में यौन-स्वच्छंदता यानी देह-मुक्ति को केन्द्रीय महत्त्व दिया गया है। वह चाहे ‘सम्बन्ध’ कहानी की श्यामला हो या ‘प्रतिध्वनियाँ’ कहानी की वसु या फिर ‘नींद’ कहानी की नायिका। इन सभी के जीवन में संख्या महत्त्वपूर्ण नहीं है अगर महत्त्वपूर्ण है तो वह हर तीसरा व्यक्ति। उसी प्रकार ‘सुरंग’- कहानी की अरूणा, ‘चाँद चलता रहा’- की नायिका रोहिनी, ‘टूटे हुए’ की प्रोफेसर की पत्नी तंत्री त्रिपाठी (टीटी), ‘सागर पार का संगीत’ की देवयानी ‘पुनरावृति’(1989) कहानी में आने वाली भारतीय और विदेशी छात्राएं एवं स्त्रियां उसी स्वच्छंद यौन-सम्बन्ध यानी देह-मुक्ति के प्रश्न को महत्व देती हैं जो कि पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन की मांग थी।
मछलियाँ – कहानी में विजी (विजयलक्ष्मी) प्रेमी ‘मनीश’ के कहने पर उससे शादी करने के उद्देश्य से विदेश आ जाती है। लेकिन जिस दिन विजी वहां पहुँचती है मनीश सब कुछ जानते हुए भी मैक्सिको चला जाता है। विजी अपने घर के लोगों के मना करने पर भी मनीश के कहने पर अपने प्यार के लिए विदेश पहुँच जाती है। मनीश के मुकर जाने पर वह उसके लिए परेशान जरूर होती है लेकिन स्वयं निर्णय लेने में भी सक्षम है। एक संवाद आता है “विजी जाते-जाते भी एक बार मनीश से मिलने का मोह न छोड़ सकी। इस भेंट से उसे थोडी यातना ही और मिलेगी। पर नटराजन जानता है कि विजी के अंदर बल का एक स्रोत है; टूटती है, बिखरती है, पर अपने को संभाल लेती है। कोई और लड़की इन परिस्थितियों में पागल हो गई होती।”31 आधुनिक स्त्रियाँ पहले की परंपराओं में जकड़ी स्त्रियों की तरह भावनाओं में बह जाना स्वीकार नहीं करती हैं। वह परिस्थितियों से लड़ती है, आँसू भी बहाती हैं लेकिन टूटती नहीं हैं और न ही हार मानती है। वह विपरीत परिस्थितियों में भी अपने अन्दर नया जोश और नयी राह की तलाश कर लक्ष्य की ओर अग्रसर होती रहती हैं। मुकी (नयनतारा मुखर्जी) भी स्वाभिमानी स्त्री के रूप में सामने आती है। वह भी अपने उसूलों पर जीवन जीना स्वीकार करती है।
प्रसंग- (1988) इस कहानी की नायिका ममता कामकाजी और अपने काम में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण शादी को महत्व नहीं देती है। वह काम के उद्देश्य से विदेश में रहना उचित समझती है। वहां पहुंचने के बाद वह मशीन की तरह केवल काम को ही महत्त्व देती है। उसने अपने जीवन में प्यार नाम की चीज को कभी कोई महत्त्व नहीं दिया। यहाँ तक कि अपनी यौन-इच्छाओं की पूर्ति को भी जिंदगी में एक काम से ज्यादा कभी कुछ नहीं समझा। उम्र की ढ़लान के साथ कुछ ही सालों बाद वह अपनी इस तरह की मशीनी जिन्दगी से ऊबकर वापस शादी कर परिवार की तरफ लौटना उचित समझती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन की विचारधारा के अनुसार ‘परिवार तोड़ो’ शादी के बन्धनों से मुक्ति एवं अंत में ‘परिवार की ओर लौटना’। उषा प्रियंवदा की इस कहानी में स्त्री की उस वेदना को पकड़ने की कोशिश की गई हैं जो शादी और परिवार को बन्धन समझ अचानक सभी तरह के बन्धनों से मुक्ति की कामना से आधुनिकता की चकमक में अत्यधिक स्वच्छंद जीवनयापन की वजह से अपने जीवन का सुख-चैन सब कुछ नष्ट कर देती है। जिस वजह से उसके जीवन में निराशा, ऊब और अकेलेपन के अलावा कुछ शेष नहीं बचता है।
आधा शहर – (1984) इस कहानी की नायिका इला स्वाभिमानी स्त्री की तरह अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती है। वह बचपन में घर से भागकर कही गलत जगह नहीं पहुँचती है बल्कि विदेश पहुँचकर अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने आपको स्थापित करने का प्रयास करती है। उसे समाज में व्याप्त पुरुषवादी सोच से नफरत होती है। वह पितृसत्ता को चुनौती देते हुए कहती है “एक पुरूष पचास स्त्रियों से प्रेम करता फिरता है, उसे तुम्हारा समाज कुछ नहीं कहता? एक स्त्री अगर अकेली सम्मान से जीना चाहती है तो उसके चारों तरफ गिद्ध नोच खाने को तैयार रहते हैं।”…..“और होता क्या है चरित्रहीन होना? चरित्र है क्या? उसकी परिभाषा? उसका सामाजिक संदर्भ दिया किसने है, तुम्हीं पुरुषों ने न ? ठीक है– मान भी लो अगर अभय के बाद मेरे प्रेमी रहे भी तो क्या? मुझमें कोई गंदगी लगी रह गई ? मैं जानती हूँ मैं क्या हूँ।”32 वह अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए खुलकर आवाज उठाती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 1975 के बाद हिंदी साहित्य में स्त्री-अस्मिता का प्रश्न ज्यादा मुखर हुआ है। स्त्रियां अपने हक़ के लिए देश के हर कोने से आवाज उठा रही हैं। “जब तक पितृसत्तात्मक पूँजीवादी समाज में व्यक्तिगत सम्पत्ति के उत्तराधिकार के लिए वैध पुत्रों (यानी विवाह संस्था अपरिहार्य) की अनिवार्यता और परिवार में पुरुष (पिता-पति-पुत्र) का अधिनायकवादी वर्चस्व बना रहेगा, तब तक औरत की अस्मत और अस्मिता, अस्तित्व और व्यक्तित्व, अधिकार और अभिव्यक्ति, समानता और सम्मान का हर संघर्ष अधूरा और सारे ‘घोषणापत्र’ बेमानी हैं। सम्पत्ति और सत्ता में बराबर हिस्से के लिए स्त्रियों को वैधानिक–संवैधानिक और अन्य सभी अधिकारों का इस्तेमाल हथियारों की तरह और हथियारों का उपयोग अधिकारों की तरह करना होगा।”33 उषा प्रियंवदा ने अपने कथा साहित्य में सहज सामाजिक चेतना और स्त्री के अधिकारों को बखूबी उभारने का प्रत्यन किया है। समाज में नये और पुराने मूल्यों की टकराहट तथा स्त्री के द्वारा अविवेकपूर्ण निर्णयों से आने वाली जीवन की कटु सच्चाई को भी लेखिका ने बहुत ही सहज ढंग से उभारा है।
स्वतन्त्रता के बाद भारतीय समाज में बदलाव की स्थिति पैदा हुई हैं। आधुनिक मूल्यों को स्वीकारने और पुराने मूल्यों को नकारते हुए आधुनिक स्त्रियाँ बिना सोचे-समझे आधुनिकता को अपनाने के लिए व्याकुल हैं। इतना ही नहीं अपनी कहानियों के माध्यम से उषा प्रियंवदा ने उस तरफ भी इशारा किया हैं कि किस प्रकार पूरी तरह से परिवार को नकारते हुए, यौन-स्वच्छंदता और स्वतंत्र जीवनयापन को महत्त्व देने वाली आधुनिक स्त्रियों को अपने जीवन में बहुत सी विपरीत मन:स्थितियों का सामना करना पड़ा है। जिस कारण वह निराशा, ऊब, घुटन, और अकेलेपन जैसी आधुनिक बीमारियों की शिकार हुई हैं और आज भी हो रही हैं। ‘कँटीली राह’- की मधु की स्थिति को उजागर करते हुए उषा प्रियंवदा ने आज की स्त्रियों को अपने अस्तित्व और अस्मिता के प्रति चेतनशील रहने की दिशा देती हैं। आज की स्त्रियाँ बहुत जागरूक हो चुकी हैं। वह कहीं भी खुद की गलती की वजह से झुकना नहीं चाहती है। यहाँ तक कि आधुनिक स्त्री अपनी अस्मिता की खोज शादी से पहले प्रेम-सम्बन्धों में भी करती हुई नजर आ रही हैं। बदलते समय और समाज में जहाँ स्त्री-पुरूष का परस्पर आकर्षण जितना सहज हुआ है वहीँ पर प्रेमी के साथ सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया काफी जटिल हुई है। आधुनिक स्त्रियाँ प्रेम से पूर्व अपनी निजी अस्मिता और अस्तित्व को महत्त्व दे रही हैं। इस पारंपरिक समाज में पुरुषवादी मानसिकता को, आधुनिक स्त्री की बदलती सोच ने चुनौती देना शुरू कर दिया है। स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम सम्बन्धों में पुरुष प्रेम पाना चाहता है लेकिन स्त्री उस प्रेम में पूर्ण समर्पण करने से पहले अपने प्रेमी पुरुष में अपने अस्तित्व और सम्मान को पाना चाहती है।
उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों के माध्यम से स्त्रियों को सचेत करने का काम किया है। जैसा कि इनकी कहानियों में पश्चिमी स्त्री-मुक्ति आन्दोलन का प्रभाव तथा भारतीय स्त्रियों का उसमें बह जाना, जिसकी तरफ उषा प्रियंवदा इशारा करती हैं। स्त्री के लिए आधुनिकता या कहे अत्याधिक स्वच्छंदता की मांग और यौन-सम्बन्धों या कहे देह मुक्ति का प्रश्न, विवाह-संस्था या परिवार का विरोध, जिंदगी को मशीन बना अपनी सहज इच्छाओं को भी केवल काम समझ उसकी पूर्ति की व्यवस्था करना, प्रेम का विकृत रूप आदि। और अंत में पुन: उसकी परिणति दुःख, निराशा, ऊब, घुटन और अकेलापन की स्थिति आदि दिखाकर पाठक और समाज को अपनी ‘पहचान’ और ‘अस्तित्व’ के लिए जागरूक और चेतनशील होने की तरफ इशारा करती हैं। उषा प्रियंवदा के कथा संसार पर टिप्पणी करते हुए डॉ. नामवर सिंह लिखते हैं – “उषा प्रियंवदा का हाथ समाज की फड़कती नाड़ी पर न होकर व्यक्ति की दुखती रग पर क्यों है ?”34 वह इसीलिए कि आधुनिक समाज में पढ़ी-लिखी, कामकाजी स्त्रियाँ बाहर से जितनी सुखी और खुश दिख रही हैं वह अन्दर से अपने निजी जीवन में उतनी ही द्वंद्वग्रस्त और बेचैनी की शिकार हैं। आधुनिक स्त्रियाँ या “कई बार हम मात्र ‘वेस्टर्नाइजेशन’ को ‘मार्डन’ होना मान लेते हैं, जो कि पूरी तरह भ्रम मूलक है। ध्यान से देखने पर पता चलता है कि भारतीयता के रंगों के बीच भी अगाध खुलापन है, स्वातंत्र्य है, इज्जत है, बराबरी है। इस समाज में माता-पिता के अनुरोध पर कभी पुरातन काल में राजकुमारी सावित्री ने खुद अपना वर पसंद करने के लिए पूरे देश का भ्रमण किया था, तब उन्होंने सत्यवान को पसंद किया था।”35
इस प्रकार हम आज के संदर्भ में बात करे तो कह सकते हैं कि भारतीय समाज में आधुनिक स्त्रियों के अस्तित्व और उसकी अस्मिता के प्रश्न को लेकर आज की युवा पीढ़ी काफी जागरूक हुई है। स्त्री शोषण के विरुद्ध देश के आम जन की आवाज स्त्री की आवाज के साथ जुड़ चुकी है। वर्तमान समय में “बदलते यथार्थ ने स्त्री के अंत:करण को भी बदल डाला है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध हुए आन्दोलन ने जहाँ आम आदमी के सोए हुए विवेक को जगाकर उसे किसी भी अन्याय के विरुद्ध एकजुट होना सिखाता तो निर्भया आन्दोलन ने इसे और हवा दी।… सारे टीवी चैनल, सारे छात्र, देश के सारे युवा स्त्री के पक्ष में खड़े हो गए।”36 स्त्री-शोषण के विरुद्ध उठी जनसमूह की आवाज स्त्री की स्थिति में सुधार और उसकी उन्नति का सूचक है।
संदर्भ–सूची :
(1) हंस जनवरी,2002, पृष्ठ सं.- 83
(2) रमणिका गुप्ता-स्त्री–विमर्श: कलम और कुदाल के बहाने पृष्ठ-सं.55
(3) जगदीश्वर चतुर्वेदी-स्त्रीवादी साहित्य विमर्श, पृष्ठ-204,
(4) उमा शुक्ल-भारतीय नारी अस्मिता की पहचान, पृष्ठ- 14
(5) वर्मा- शृंखला की कड़ियाँ- पृष्ठ-92
(6) उमा शुक्ल-भारतीय नारी अस्मिता की पहचान, पृष्ठ-15
(7) वीरभारत तलवार-राष्टीय नवजागरण औए साहित्य, पृष्ठ-124
(8) http://chhattisgarhvivek.blogspot.in/2011/12/blog-post_8143.html
(9) डॉ.फिरोज जाफ़र अली-स्त्री-अस्मिता का संघर्ष: नये प्रश्न और नई चुनौतियाँ 2011
http://chhattisgarhvivek.blogspot.in/2011/12/blog-post_8143.html
(10) जगदीश्वर चतुर्वेदी-स्त्रीवादी साहित्य विमर्श- पृष्ठ-7
(11) डॉ.फिरोज जाफ़र अली-स्त्री-अस्मिता का संघर्ष : नये प्रश्न और नई चुनौतियाँ- 2011
http://chhattisgarhvivek.blogspot.in/2011/12/blog-post_8143.html
(12) हंस जनवरी-2002, पृष्ठ-82-83
(13) स्त्रीवादी साहित्य विमर्श-कवर पेज से, डॉ. मुदिता चंद्रा
(14) महादेवी वर्मा-शृंखला की कड़ियाँ- पृष्ठ सं. 23-24
(15) हंस, जनवरी 2002, पृष्ठ-84
(16) अरविन्द जैन-औरत: अस्तित्व और अस्मिता- पृष्ठ-14,
(17) ‘स्त्री मुक्ति’ फरवरी 2014, पृष्ठ सं-15
(18) उषा प्रियंवदा-सम्पूर्ण कहानियां–पृष्ठ सं.109
(19) वही पृष्ठ सं.111
(20) वही पृष्ठ सं.57
(21) वही पृष्ठ सं .57
(22) वही पृष्ठ सं. 58
(23) वही पृष्ठ सं. 58
(24) वही पृष्ठ सं.136
(25) वही पृष्ठ सं.192
(26) वही पृष्ठ सं.196
(27) महादेवी वर्मा-शृंखला की कड़ियाँ- पृष्ठ सं. 55
(28) सरला माहेश्वरी-नारी प्रश्न- पृष्ठ सं. 35
(29) स्त्री उपेक्षिता- कवर पेज से
(30) उषा प्रियंवदा-सम्पूर्ण कहानियां- पृष्ठ सं.324
(31) वही पृष्ठ सं. 393
(32) वही पृष्ठ सं. 450
(33) अरविन्द जैन- औरत होने की सज़ा–भूमिका से– पृष्ठ सं. 8
(34) डॉ. इन्द्रनाथ मदान-हिंदी कहानी एक नयी दृष्टि- पृष्ठ सं. 144
(35) जनसत्ता- 9 मार्च 2014
(36) स्त्री मुक्ति, फरवरी 2014 पृष्ठ सं. 23
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