युवा कवयित्री सरस्वती मिश्रा दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय’ के ‘भारतीय भाषा केंद्र’ में लोक साहित्य पर शोधरत हैं. संपर्क : sarswatimishra@cub.ac.in
“तुम नहीं सीख पाए”
ज्यों अनार की मिठास
क़ैद रहती है दाने-दर-दाने
तुम्हारा प्रेम भी बसता है
मेरे भीतर-दर-भीतर
पर तुम नहीं सीख पाए
सावधानी से अनार छीलने की कला
तुम्हारे चाकू की गलत दिशा
काट गई कई दाने
व्यर्थ हो गया बहता हुआ रस
तुम्हारे लापरवाह हाथों से
छिटक गए बहुत से दाने..इधर…उधर..
कुछ दाने कुचले गए तुम्हारे ही पैरों तले
कुछ चींटियों का ग्रास बने
और वे दाने जो तुम्हारी प्लेट में थे
उन्हें खाना चाहा तुमने अपने अनुसार
कभी नमक तो कभी मसालों के साथ
तुमने ध्यान न दिया
पर अनार के दाने बदल चुके थे
रंग के साथ ही स्वाद भी ………….
“बदलाव”
स्वतः नहीं होता बदलाव
गतिमान समय की वक्र गति
शनैः शनैः लाती है बदलाव
पकते हैं विचार भी
सिर के बालों की तरह
और, बदलता है शरीर भी
बदलते समय के साथ
परन्तु
14 वर्ष की आयु में बालों का पकना
संकेत है पोषण की किसी विसंगति का
शरीर की असमय झुर्रियां भी
अनुभवी नहीं बनाती बल्कि,
इशारा होती हैं असंतुलन का
विचारों में अचानक आया नकारात्मक बदलाव
दर्शाता है वैचारिक कुपोषण
अचानक नहीं बदलता व्यक्ति
बदलाव लाते हैं कुछ सतत कारण
और व्यक्ति के बदलाव में भी
अहम् भूमिका होती है “दृष्टि” की
वह “दृष्टि” जो निरंतर खोजती है “बदलाव”
हैलो
चिटक उठी वह
भाड़ में पड़े,
ज्वार के दाने की तरह.
उमड़ आया क्रोध,
और सिमट आई चेहरे पर,
ज़माने भर की घृणा.
रग़ों में बहता रक्त भी,
लावा बन गया अचानक,
और, वह गर्म लावा,
झुलसाता चला गया,
तन से मन तक.
गोरा चेहरा…..
गुड़हल सा दहक उठा.
अपमान की पीड़ा,
छलक उठी रक्तिम आँखों में,
कर उठी प्रतिरोध,
वाणी से….पुनः तन से भी.
परंतु…,
समक्ष थे वहशी भेड़िए.
संख्या में तो चार….
किंतु, एक-एक के भीतर,
उसे फाड़ खने को आतुर,
पूरी भेड़िया जाति….
सहम उठी वह,
प्रतिरोध हल्का पड़ गया.
उतर आई आंखों में याचना,
अंततः…हार गई वह
अन्य प्रेम कवितायेँ :
एक:
उम्र पकती है और,
पकते हैं अनुभव भी.
पर नही पकती इच्छाएँ
तोड़ लिए जाते हैं डाल पर पके फल,
परंतु,
नहीँ खत्म होती आस
मन मचलता है,
और पके फ़ल तलाशने को
जो, शायद..
अधिक मीठा हो पिछले फ़ल से
अनुभव भी..मीठे हों या कड़वे
ले जाते हैं हमेशा,
एक नये अनुभव की ओर
चाह’ भी पकती है
और,
पकती हैं भावनाएँ भी
पर हर बार का पकना उन्हे,
और भी कच्चा बना जाता है
भावनाएँ मांगती हैं सही आंच
स्नेह की, प्रेम की
और, थोड़े अपनत्व की
और, मांगती हैं,
एक बड़ा बर्तन हृदय का
“पकने” के लिये समाना भी तो होता है ना..?
दो :
मैं रणक्षेत्र की तरह ही
कभी विस्तृत होती हूँ और कभी सीमित
ह्रदय और मस्तिष्क का युद्ध
समाप्त नहीं होता..चलता है अनवरत
ख़त्म नहीं होते तर्कों के शस्त्र
ख़त्म नहीं होते उलाहनों के अस्त्र भी.
करते हैं मर्मस्थल पर प्रहार
मैं ढक लेती हूँ हथेलियों से कान
बढ़ा देना चाहती हूँ हथेलियों का दबाव
पर चरम पर पहुँच कर
अचानक थम जाता है शोर
एक बार फिर अनिर्णीत रहा युद्ध
युद्ध-विराम के संकेत के साथ ही
जा बैठे हैं दोनों योद्धा
अपने-अपने शिविर में
और धूल के गुबार में घिरी मैं
पुनः प्रतीक्षारत हूँ…..
उस युद्ध के इंतज़ार में
जो एक निश्चित निर्णय के साथ समाप्त होगा….
रेखांकन : लाल रत्नाकर