जयश्री रॉय कथा साहित्य में एक मह्त्वपूर्ण नाम हैं. चार कहानी संग्रह , तीन उपन्यास और एक कविता संग्रह प्रकाशित हैं . गोवा में रहती हैं. संपर्क: jaishreeroy@ymail.com
( अफ्रीकी महादेश के सत्ताईस से ज्यादा देशों में महिलाओं के सुन्ना की प्रथा आज भी जारी है। ‘सुन्ना’ महज एक प्रथा नहीं बल्कि वहां की औरतों की ज़िन्दगी की त्रासदी का सबसे बड़ा कारण है। माहरा की कहानी के बहाने जयश्री रॉय ने अपने चौथे और नवीनतम उपन्यास ‘हव्वा की बेटी’ में स्त्री जीवन के उसी कसैले यथार्थ को उद्घाटित किया है। माहरा और उसकी जैसी औरतें नस्ल, मज़हब, जुबान और रंग से परे वस्तुत: एक स्त्री होती हैं. आंसुओं का खारापन, दर्द का स्वाद, काली त्वचा के नीचे बहने वाले लहू का रंग… इनका सब कुछ दुनिया के हर कोने में बसने वाली औरतों के समान ही है. इन औरतों का औरत होना दुख में होना है, बददुआ में होना है, अज़ाब में होना है… अफ्रीका के जंगलों और धू-धू करते रेगिस्तानों की स्याह-शुष्क दुनिया के चप्पे-चप्पे में माहरा जैसी लाखों बदनसीब औरतों की दर्द भरी कहानी धूल, बवंडर और आंधी के साथ रात दिन उसांसें लेती रहती हैं. यह उपन्यास उसी दुःख और उससे मुक्त होने की चाहत में लड़ती स्त्रियों की संघर्ष गाथा है।
मदर्स डे पर स्त्रीकाल के पाठकों के लिए ख़ास प्रस्तुति के रूप में यह उपन्यास-अंश .. कहानी के इस भाग में मां है , जो स्नेह और परम्परा के बोझ के बीच द्वैध में फंसी अपनी बेटी के लिए क्रूर होने को मजबूर है- पीढी -दर पीढी दासता और अनुकूलन को ट्रांसफर करती है , बेटी स्नेह और परंपरा के बोझ तले बिखर जाती है . स्त्रीकाल ने अफ्रीकी देशों की इस अमानवीय परंपरा की दर्दनाक तस्वीर छापी थी इसके सम्पादन मंडल की सदस्य निवेदिता की एक रिपोर्ट के रूप में , आज यह कथात्मक दास्तान …. ! लेखिका यद्यपि उस परिवेश से नहीं हैं , लेकिन कथा की विश्वसनीयता उनके लेखकीय कौशल और संवेदना के कारण संभव हो पायी है . )
माहरा… ए माहरा… मां ने बिल्कुल फुसफुसा कर मुझे पुकारा था, मगर ना जाने क्यों कच्ची नींद में ही उनकी किसी खंडहर से गुज़रती हवा की तरह सिसकारी भरती आवाज़ सुनकर मेरा गला अनायास सूख आया था. उस समय हमारी झोंपड़ी के बाहर फीके होते आकाश की पृष्टभूमि में ठीक ताड़ के बूढ़े पेड़ के माथे पर सुबह का तारा बहुत उजला हो आया था. मैंने बिस्तर से उठते हुये बगल में निश्चिंत सोती हुयी अपनी छोटी बहन मासा को देखा था. चेहरे पर बिखरे हुये घुंघराले बाल और भरे हुये अधखुले होंठ… ना जाने क्यों उस पल मेरा जी चाहा था, उससे लिपट जाऊं! मुझे उनींदी, चुपचाप बैठी देख मां ने इस बार कुछ अस्थिर होकर मुझे झिंझोरा था- “माहरा…!”
मैंने अब जल्दी से बिस्तर छोड़ा था और मां के पीछे अपने एक कमरे की उस छोटी-सी झोंपड़ी से बाहर निकल आई थी. कितनी तेज़ चल रही थी मां! दो-चार क़दमों में ही मवेशियों के बाड़े के पार! उनके साथ बने रहने के लिये मुझे लगभग दौड़ना पड़ रहा था. कुछ ही पलों में हम आठ-दस झोंपड़ियों की अपनी उस छोटी-सी बस्ती को पार कर कैक्टस के बौने और बेतरतीव जंगल में आ गये थे. सितंबर की यह एक मीठी और गुनगुनी ठंड की भोर थी. हवा में कुछ रेशम-सा मुलायम और सुखद घुला था. पूरब के क्षितिज में अब तक केसर के कुछ सुर्ख रेशे चमकने लगे थे. दूर कहीं सुतूरमूर्ग बोला था और इसके साथ ही पास की घनी झाड़ियों से निकलकर एक मटमैला सियार हड़बड़ा कर भागा था. यह सब देखते हुये शायद मेरे क़दम कुछ धीमे पड़ गये थे. मां ने मुड़कर दबी आवाज़ में फिर मुझे पुकारा था और मैंने दौड़ना शुरु कर दिया था.
एक बेडौल, काले पत्थरों के टीले के पास आकर मां रुकी थी और इधर-उधर देखा था. शायद उन्हें किसी का इंतज़ार था. मैं उनकी कमर से लगी सर उठाकर उन्हीं को देख रही थी. हिज़ाब में लिपटा मां का गहरा स्याह आधा चेहरा और नाक की नोंक पर चमकती ओस की एक छोटी-सी बूंद- उजली होती भोर की हल्की उजास समेटे! कितनी रहस्मयी दिख रही थी वो इस समय! इन्हीं अनगढ़ पत्थरों की तरह ठोस और निर्विकार, मगर सांस लेती हुई, धड़कती हुई, जीवित… जाने क्यों उन्हें देखते हुये उस समय मुझे अनायास रोना-सा आ रहा था…
दो-चार दिन पहले ही मैंने मां को नीची आवाज़ में अब्बू से बात करते हुये सुना था. बात करते हुये वे मेरी तरफ मुड़-मुड़कर देख रहे थे. ’बंजारन’, ’पैसे’, ’बहुत जल्द’ जैसे कुछ अस्पष्ट शब्द मेरे कानों में पड़े थे. दीदी को पूछते ही उसने मुझे डपट दिया था- “बड़ों की बातें छिपकर नहीं सुना करते…!” मुझे अचानक अजाने डर ने घेर लिया था. स्मृतियों में कुछ धुंधली-सी परछाइयां उभरी थीं- जंगल में घास-फुस की एक छोटी झोंपड़ी में पड़ी हुई दीदी… खून से लिथड़ी और बेतरह गोंगियाती हुई! मां जब उसे खाना पहुंचाने जाती थीं, मैं उनके पीछे चुपके से हो लेती थी. कई बार उन्होनें अपने पीछे आते देख मुझे वहां से डांटकर भगाया भी! मुझे चटाई में रस्सियों से बंधी पड़ी दीदी की कातर आंखें अक़्सर याद आती हैं! ठीक जैसे जिबह होती किसी मवेशी की आंखें- कोटर में उबली हुई, लाल और पनीली… ओह! उन्हें याद कर कितना डर लगता था मुझे रातों को! अक़्सर अपने बगल में सोई हुई मासा से लिपट जाती थी. पसलियों में दिल धरकता रहता था देर तक!जाने क्यों आज यहां, इस जंगल में मां के साथ खड़ी होकर मुझे दीदी की वही खून चढ़ी आंखों की रह-रहकर याद आ रही थी…
कल रात मां ने खाना परोसते हुये मेरी थाल में ऊंट का मांस, रोटी और खीर सबसे ज़्यादा परोसी थी. ऊंट की पीठ का गुमड़वाला यह हिस्सा मुझे हमेशा बहुत स्वादिष्ट लगता था. चर्बी से ठसाठस भरा हुआ! मासा ने मेरी चोटी खींची तो मां ने उसे मारा भी. बड़े भैया तारिक से कहा कि वह मुझे तंग ना करे और कोठरी के एकमात्र लकड़ी के साफ़ चादर वाले बिस्तर पर सोने दे. मुझे यह सब अच्छा तो लग रहा था, मगर जाने क्यों कहीं एक डर-सा भी बना हुआ था जिसे मैं समझ नहीं पा रही थी. अब्बू ने शाम को मवेशियों को उनके कांटेदार बाड़े में डालते हुये बहुत नर्म आवाज़ में मुझसे कहा था, गांव की औरतें मुझे कल के बाद तरह-तरह के उपहार देनेवाली हैं. मां ने आंखों में चमक भरकर कहा था- अब तू भी ख़ास बन जायेगी, औरत का दर्ज़ा पायेर्गी… औरत का दर्ज़ा! ख़ास हो जायेगी! मां की कही ये चंद बातें मेरे जेहन में देर रात तक उमड़ती-गुमड़ती रही थीं. सीने के अंदर दिल की धड़कने भी साथ बढ़ती-घटती रही थी. ये ख़ास होना क्या होता है!
जब से होश सम्हाला है, हाथ में लकड़ी लेकर गाय-बकरियों को रेत के सूखे, कंटीले जंगलों में हांकती-चराती रही हूं… तेज़ धूप और बारिश में, अंधड़-पानी में. इस मैदान से उस मैदान, ढलान और पहाड़ियां… कभी लकड़बघ्घे के पीछे शोर मचाते हुये भागना तो कभी किसी सियार के मुंह से मेमना छीन लाना! एक पल लापरवाह हुये नहीं कि कोई ना कोइ जानवर आपकी मवेशी उठा ले जायेगा. साथ ही अपनी जान की भी चिंता! पूरा ईलाका शेर, तेंदुओं से भरा हुआ है! मां कहती थीं, शेर सामने पड़ जाये तो भागना मत. चुप खड़ी होकर उसकी आंखों में देखती रहना. एक पलक झपकी तुम्हारी कि शेर तुमपर टूट पड़ेगा! रोज़ हमें जंगलों में भेजते हुये मां जानती थीं कि वे हमें मौत के मुंह में भेज रही हैं. मगर भेजती थीं. ज़िंदगी कुछ इतना ही मजबूर कर देती है हमें! जीने के लिये ही हम जैसे लोगों को रोज़-रोज़ मरना पड़ता है! हर दिन मौत के मुंह से हम ज़िंदगी का एक कौर छीन लाते थे! शायद तभी हमारे जीवन में बिना अतिरिक्त चीनी, नमक के इतना स्वाद होता था… भूख हर चीज़ को ज़ायकेदार बना देती है और हमारी ज़मीन से भूख का तो एक बहुत पुराना संबंध है! मैं शायद अपने जन्म से इस स्वाद, इस संबंध को जानती-जीती आई हूं!
सोचते हुये मैं अपनी चादर को अपने इर्द-गिर्द लपेटकर ज़मीन पर बैठ गई थी और जाने कब सो भी गई थी. नींद में मेरी सोच अजीब-अजीब-सी शक़्लों में बदल गई थी! रेत के सुनहरे टीले, धूप की सफ़ेद आग़ में झुलसते पेड़ और कैक्टस के गुलाबी, पीले, बैंजनी फूल- दूर-दूरतक! और आकाश में वह बड़ी चील… उसके विशाल, काले डैने… तेज़ टिंहकारी… उसके पंखों के पीछे सूरज छिप गया है… हर तरफ अंधेरा फैल रहा है… मैं डर कर उठ बैठी थी और अपने चेहरे पर उस चील के काले, भीषण डैनों को छाये हुआ पाया था. ओह! कितनी ज़ोर से चीख कर खड़ी हो गई थी मै! उस स्याह गिद्ध के बगल में ही मां खड़ी थी. एकदम शांत और निर्लिप्त! मेरी चीख को उन्होंने जैसे सुना भी नहीं था.
उस समय तक काफी रोशनी फैल चुकी थी. ताड़ के इक्के-दुक्के पेड़ों पर जंगली सुग्गे कलरव कर रहे थे. पूरब का आकाश गहरा सुनहरा हो उठा था. मैंने मां के पीछे छिप कर उस गिद्ध जैसी शक़्ल वाली बंजारा औरत को अब ध्यान से देखा था. ओह! यह एक गेद्दा थी लड़कियों की सुन्ना करवाने वाली! गेद्दा मिडगान सम्प्रदाय की होती हैं- एक बार मां ने ही कहा था. छींटदार लहंगे के ऊपर काली, मोटी, खुरदरी चादर से उसने अपना माथा और आधा चेहरा ढंक रखा था. रंग-बिरंगे मोती, चटक रंग पछियों के पर, जानवरों की हड्डी, शेर के दांत और नाखून… जाने उसने क्या-क्या गले में डाल रखे थे! साथ में चोंच जैसी नाक में पीतल का चौकोर नथ, कलाइयों में शंख, गिलट और पत्थर के कड़े, पांव में कांसे के झांझर और सिक्कों की खन-खन बजती लड़ियां… गोदने से उसकी खुली बांहें एकदम काली पड़ी हुई थीं. सबसे अजीब थीं उसकी आंखें- गंदले सफ़ेद में भुरी-पीली पुतलियां और उनपर इंद्रधनुष-सी खींची जुड़वां भौंहें- मटमैली! जले उपले-से झुरझुरे, धंसे गाल और पोटली-से सिकुड़े काले-बैंजनी होंठ! बलगम से भरी घरघराती आवाज़ में मां से कह रही थी कि पड़ोस के गांव से एक शादी की दावत खाकर आते हुये इतनी देर हो गई. वह अपने कालीन के मुलायम और रंग-बिरंगे टुकड़ों से बने झोले से जाने क्या-क्या बाहर निकाल रही थी- पत्थर के नुकीले टुकड़े, भोंथरा चाकू, हैंडल टूटी कैंची, ब्लेड का टुकड़ा… देखते हुये मेरे भीतर का सोया हुआ डर एकबार फिर जाग उठा था. क्या है यह सब, किसके लिये है!
चीज़ों को ज़मीन पर फैलाकर उसने एकबार बड़ी हिकारत से मुझे देखा था और फिर मां को आदेश दिया था- “अब पकड़ो इसे… देर हो रही है!”उसकी बात पर मां मेरी ओर मुड़ी थी- “माहरा! मेरी अच्छी बेटी… आज वह ख़ास मौका आ गया है जिसका इंतज़ार इस देश के हर नेक मुसलमान औरत को होता है! पाकीजा और ख़ास होने का अवसर! औरत होने, निकाह के और मां होने के काबिल होने का कीमती मौका! तुम्हें हिम्मत और सव्र रखना है और बस, सबकुछ आसान और जल्द हो जायेगा. अल्ला तुम्हारा निगहेबान है!” कहते हुये वे मेरी तरफ धीरे-धीरे बढ़ रही थी और जाने क्यों मैं धीरे-धीरे पीछे की ओर सरक रही थी. मुझे उस पल अपनी मां से डर लग रहा था. उनकी शांत, ठंडी आंखें, ठहरी हुई आवाज़, भींचा हुआ जबड़ा… सबकुछ मुझे दहशत में डाल रहा था. जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि मेरे खिलाफ कोई बड़ी साजिश रची जा रही है और मां भी उस में शामिल है!
पहले अपने हर डर, दुविधा के क्षण मैं जिस गोद में अपना आश्रय ढूंढ़ती थी, आज मुझे वह किसी शेर की मांद की तरह भयावह लग रही थी. कितना दुर्भाग्यपूर्ण था यह! मुझे पास आते ना देख मां एकदम से अस्थिर हो उठी थीं और अपने दोनों हाथ फैला कर मेरी ओर लपकी थीं- “माहरा! पास आओ बच्ची!” उनकी एक पल को धधक उठीं आंखें, सख़्त हुआ जबड़ा और चील की झपट-सी बांहें देख जाने मुझ में क्या घटा था, मैं अचानक मुड़कर भाग खड़ी हुई थी. मां चीखती हुई मेरे पीछे भाग रही थीं, मगर मुझे पकड़ पाना उनके वश की बात नहीं थी. दस साल में सात बच्चे पैदा कर मां छीज गयी थीं. घर के काम, मवेशियों की देख-रेख, ऊपर से कई नामालूम-सी बिमारियां… कभी-कभी दिनों तक बिस्तर से उठ नहीं पाती थीं. और इधर मैं- तेरह साल की उमर! ऊंट का पौष्टिक दूध, खजूर और मधु से बनी सेहत! रोज़ अपने ढोर-डंगर के साथ मीलों रेत की ढूंहों और कांटों-कैक्टस के जंगलों में सुबह से शाम तक भटकती फिरती हूं. कभी जंगली कुत्तों के झुंड के पीछे भागना पड़ता है तो कभी शेर, चीते से अपनी जान बचानी पड़ती है. दौड़-दौड़कर मैं हिरण ही बन गई हूं. एक सांस में रेत के कई टीले पार कर सकती हूं. बिना पानी पीये गुस्सैल सूरज को सर पर उठा कर मीलों चल सकती हूं.
…तो मां के बार-बार पुकारने के बावजूद मैं रुकी नहीं थी और लगातार भागते हुये रेत के कई टीले एक साथ पार कर गई थी. दिन के चढ़ने के साथ हवा गर्म हो गई थी, पांव के नीचे बालू तपने लगा था. बीच में रुक कर मैंने कुछ मोटे पत्तों वाले रेगिस्तानी पौधों के पत्ते निचोड़ कर उनका रस पिया था, जंगली फूलों का मधु चुसा था. कुछ कच्ची-पक्की बेरियां भी खाई थी. शाम घिरने तक मैं थक कर चूर हो गयी थी. एक सायेदार पेड़ के नीचे खड़ी होकर मैंने दूर-दूर तक नज़रें दौड़ाई थी. शाम की मुलायम धूप में रेत के टीले ठंडी, सुनहरी आग़ में नहाये हुये थे. हल्की चलती हवा से बालू के गर्म, बादामी आंचल में लहरें और भंवर-से पड़ रहे थे. मुझे घर की याद आई थी, मां और मासा की भी. तीन साल की मासा मेरे सबसे क़रीब थी. एकदम गुड़िया! मुझे ज़ोर से रोना आया था- मां… मासा… और वही बैठकर रोते हुये जाने मुझे कब नींद आ गई थी.
जब आंख खुली थी, सामने अब्बू और बड़े भैया तारिक को खड़े पाया था. रेत पर मेरे पांव के निशान ढूंढ़ते हुये वे आख़िर मुझ तक पहुंच ही गये थे. मैं एकदम हड़बड़ा कर उठी थी और फफकने लगी थी. उस समय मुझे बहुत डर लग रहा था. उस वीरान जगह में अपने भाई और अब्बू को देखकर जहां एक तरफ मुझे राहत का अहसास हुआ था, वही घर से भाग आने की ग्लानि ने मुझे सहमा भी दिया था. लगा था, अब वे मुझे डांटेंगे, मारेंगे… मगर अब्बू ने कुछ भी नहीं कहा था. बड़े भैया ने बस साधारण ढंग से कहा था- घर चलो! उनके पीछे सिसकते हुये मैं सर झुका कर चल पड़ी थी. उस समय रात का जाने क्या बजा था. बिना चांद के गहरे काले आकाश में लाखों-करोड़ों सितारे टिमक रहे थे. पूरब की ओर हवा में रेत के कण उड़ रहे थे शायद. बारिश की-सी झर-झर आवाज़ आ रही थी. भैया और अब्बू ने रेत के उड़ते कणों से बचने के लिये साफ़े से अपना चेहरा ढंक लिया था. मगर मैं नंगे सर चलती रही थी. मेरे पूरे जिस्म में रेत के महीन रेज़े सूई की नोंक की तरह चुभ रहे थे मगर उस समय मुझे किसी बात का होश नहीं था. छीली हुई देह और मन से उनके पीछे बदहवाश चलती रही थी!