हव्वा की बेटी : उपन्यास अंश, भाग 2

जयश्री रॉय

जयश्री रॉय कथा साहित्य में एक मह्त्वपूर्ण नाम हैं. चार  कहानी संग्रह , तीन उपन्यास और एक कविता संग्रह प्रकाशित हैं . गोवा में रहती हैं. संपर्क: jaishreeroy@ymail.com

हिंदी साहित्य की वर्तमान सक्रिय पीढी के एक सशकत हस्ताक्षर जयश्री रॉय का आज जन्मदिन है. पिछले 10 मई को स्त्रीकाल के पाठकों ने  उनके आगामी उपन्यास ‘ हव्वा की बेटी’  का एक अंश पढा था. किसी रचनाकार के जन्मदिन पर उसकी रचना का पाठ उसके पाठकों की ओर से उसे दी गई सबसे महत्वपूर्ण शुभकामना है . जयश्री को शुभकामनाओं के साथ  उनके उपन्यास का एक और अंश.  हव्वा की बेटी का स्त्रीकाल में प्रकाशित पहला अंश पढने के लिए नीचे लिंक पर किल्क करें : 


हव्वा की बेटी : उपन्यास अंश

( उपन्यास के बारे में : अफ्रीकी  महादेश के सत्ताईस से ज्यादा देशों में महिलाओं के सुन्ना की प्रथा आज भी जारी है। ‘सुन्ना’ महज एक प्रथा नहीं बल्कि वहां की औरतों की ज़िन्दगी की त्रासदी का सबसे बड़ा कारण है। माहरा की कहानी के बहाने जयश्री रॉय ने अपने चौथे और नवीनतम उपन्यास ‘हव्वा की बेटी’ में स्त्री जीवन के उसी कसैले यथार्थ को उद्घाटित किया है। माहरा और उसकी जैसी औरतें नस्ल, मज़हब, जुबान और रंग से परे वस्तुत: एक स्त्री होती हैं. आंसुओं का खारापन, दर्द का स्वाद, काली त्वचा के नीचे बहने वाले लहू का रंग… इनका सब कुछ दुनिया के हर कोने में बसने वाली औरतों के समान ही है. इन औरतों का औरत होना दुख में होना है, बददुआ में होना है, अज़ाब में होना है… अफ्रीका के जंगलों और धू-धू करते रेगिस्तानों की स्याह-शुष्क दुनिया के चप्पे-चप्पे में माहरा जैसी लाखों बदनसीब औरतों की दर्द भरी कहानी धूल, बवंडर और आंधी के साथ रात दिन उसांसें लेती रहती हैं. यह उपन्यास उसी दुःख और उससे मुक्त होने की चाहत में लड़ती स्त्रियों की संघर्ष गाथा है। )

दूसरा भाग : 

दूसरे दिन रात के अंतिम पहर मैं एक बार फिर अनगढ़ पत्थरों के
उस स्याह टीले के पास अपनी मां के साथ खड़ी थी और वह कुरुप और डरावनी बंजारन अपनी कालीन के टुकड़ों की पैबंद लगी झोली से तरह-तरह के औज़ार और भोंथरे-नुकीले हथियार निकाल-निकालकर ज़मीन पर तरतीव से रख रही थी. आज हमारे साथ पड़ोस की सामोआ आपा भी थीं. आपा और मां ने मेरे दोनो हाथ दो तरफ से पकड़ रखे थे और मेरे घुटनों में धीरे-धीरे कंपन हो रहा था. पेट के नीचले हिस्से में कुछ घुलाता हुआ. मैं बड़ी मुश्क़िल से सीधी खड़ी रह पा रही थी.

तेज़ी से फैलती रोशनी में मैंने चाकुओं और दूसरे हथियारों पर जमे हुये काले खून के धब्बों को देखा था जिन्हें वह बंजारन औरत जिसे मां जाबरा कहकर सम्बोधित कर रही थीं, अपनी थूक से गीला कर लहंगे से पोंछ रही थी. उसके दोनों हाथ की बड़ी और बीचवाली उंगलियों के नाखून बहुत लंबे थे, मुर्गे के चंगुल की तरह आगे से झुके हुये. उन्हें देखकर मेरे पूरे शरीर में बार-बार झुरझुरी-सी दौड़ जा रही थी.

एक समय के बाद जाबरा ने अपना चेहरा उठा कर मां की ओर अजीब ढंग से देखा था, जैसे कुछ आंखों ही आंखों में कह रही हो और इससे पहले की मैं कुछ समझती या करती, मां और आपा ने मुझे जबरन खींच कर ज़मीन पर लिटा दिया था. मां ने बैठ कर मेरे सर को अपने सीने से लगा लिया था तथा आपा ने मेरे पैरों को दोनों तरफ फैला कर उनपर मां के पैर चढ़ा दिये थे. मां ने भी झट पूरी ताक़त से मेरे पांव अपनी हड़ियल जांघों से चांप दिये थे. इस बीच आपा ने पीठ की तरफ से मेरी दोनों बांहों को मोड़ कर सख़्ती से पीछे की तरफ से पकड़ लिया था. अब मां ने फिर कल जैसी ठंडी आवाज़ में कहा था- “माहरा! ज़रा बर्दास्त करना, सब जल्दी हो जायेगा!”

मैं बिना कुछ कहे अपनी विस्फारित आंखों से जाबरा को देखती रही थी जो मेरे फैली हुयी टांगों के बीच बैठी ठंडी आंखों से मेरा मुआयना कर रही थी. फिर मैंने देखा था उसके हाथ में ब्लेड का वह टुकड़ा जो दूसरे ही पल मेरी नर्म त्वचा में जाने कहां तक उतर गई थी. मेरी आंखों के आगे अचानक बिजली के नीले-पीले फूल-सा कुछ कौंधा था और मैं हलक फाड़ कर चिल्लाती चली गई थी! दर्द का ऐसा भीषण अनुभव मुझे पहले कभी नहीं हुआ था. मैं ईद-बकरीद के मौकों पर जानवरों को हलाल होते हुये देखती आई थी. अब्बू या कोई और जानवरों के मुंह काबा की तरफ करके उनके गले में ढाई दफा चाकू रेत कर छोड़ देते. उसके बाद वे जानवर देर तक तड़प-तड़प कर अपनी जान देते. उनकी उबली हुई आंखें, खुला हुआ मुंह, गले से भल-भल बहता खून, उनकी छटपटाह्ट के साथ चारों तरफ उड़ते खून के छींटे…. यह सब आमतौर पर हमारे लिये मनोरंजन के दृश्य हुआ करते थे, मगर आज एक तरह से मुझे भी ज़िन्दा ही जिबह किया जा रहा था. जाबरा के उठते-गिरते हाथ के साथ मेरे शरीर में तेज़ पीड़ा की लहरें उठ रही थीं, बिस्फोट-से हो रहे थे. कभी जाबरा के हाथ में चाकू होता, कभी पत्थर के टुकड़े तो कभी ब्लेड… भय, पीड़ा से अवश होते हुये मैंने देखा था, उसने अपने दोनों गंदे हाथों के लम्बे नाखूनों को मेरे भीतर खुबा दिये थे. दर्द के अथाह समुद्र में डूबते हुये मैंने महसूस किया था, वह अपने नाखूनों से मुझे नोंच-खसोट रही है, चीर-फाड़ रही है, कुतर रही है! उस समय आग़ की सलाइयां-सी मेरे जांघों के बीच चल रही थी. लग रहा था, ढेर सारी जंगली, विषैली चिंटियां मेरे अंदर घुस गई हैं और मुझे खोद-खोद कर खा रही हैं! या फिर कोई बिच्छु लगातर डंक मार रहा है. तेज़ जलन हो रही है. मेरे दोनों पैर बुरी तरह थरथरा रहे हैं, पूरा शरीर पसीने से भीग गया है. चिल्ला-चिल्ला कर गला फट गया है. मां का चेहरा मुझ पर झुका हुआ है और उन्होंने मुझे बुरी तरह जकड़ रखा है. उनकी आंखों में इस समय अजीब-सी चमक और मुग्धता हैं! जैसे कोई धार्मिक अनुष्ठान देखते हुये लोगों की आंखों में अक़्सर होती है. मेरे मुड़े हुये हाथ शायद टूट गये हैं और कमर से नीचे का शरीर शून्य पड़ गया है. मुझ से और चिल्लाया नहीं जाता… मेरे गले से घुटी-घुटी आवाज़ें निकल रही हैं. एक समय के बाद खून के बहाव को रोकने के लिये जाबरा मेरे जख़्म पर जानवरों की लीद और मिट्टी डालने लगती है. ऊपर आकाश फटकर धीरे-धीरे सफ़ेद पड़ रहा है… पास ही कहीं सियार हुंक रहा है, ताड़ के नंगे माथे पर एक गिद्ध बैठा है. उसकी नंगी, रोमहीन गर्दन, खून में डूबी पलकहीन आंखें, विशाल डैनों की झपट… सब धीरे-धीरे आपस में गडमड हो जाता है और फिर वह काली, बड़ी चादर आकाश के जिस्म से खिसक कर जाने कब मेरे ईर्द-गिर्द फैल जाती है और मैं उसके तरल, सुखद अंधकार में डूब जाती हूं… आह! मृत्यु… यह इस जघन्य पीड़ा, इस नरक से कहीं बेहतर है. उस क्षण मैं सचमुच मर जाना चाहती थी. यह एक बेहतर विकल्प था. उस ठंडी, काली, निविड़ शून्यता को मैंने किस आवेग से स्वयं में निर्बाध उतरने दिया था…

ना जाने कितनी देर बाद मेरी आंखें खुली थीं. मैं मरी नहीं थी, जिन्दा थी… ओह! यह प्रतीति कितनी भयावह थी मेरे लिये! जीवन यानी पीड़ा और… पीड़ा! मेरे कमर से नीचे का हिस्सा नरक बन गया है. एक धधकता हुआ कुंड! ऐसे जल रहा है कि जैसे किसी ने ताज़े ज़ख़्म पर नमक छिड़क दिया है. अंदर कुछ धप-धप कर रहा है. सारी शिरायें सुलग रही हैं. एक चीरता हुआ दर्द बिच्छु के डंक की तरह रह-रह्कर लहर उठता है…
मेरा चेहरा सूखे हुये आंसुओं से चिटचिटा रहा है, होंठों पर पपड़ियां जम गयी हैं. किसी तरह सर उठा कर मैं अपने आसपास देखने की क़ोशिश करती हूं. मां हाथ में एक सूखी लकड़ी लेकर आस पास झपटते हुये गिद्धों को भगाने की क़ोशिश कर रही हैं. गिद्ध हड़बड़ा कर थोड़ा उड़ते हैं, फिर वापस लौट आते हैं. चारों तरफ अजीब-सी बदबू है. दूर सूखे नाले के पास दो लकड़बग्घे अपनी लम्बी जीभ निकालकर हांफ रहे हैं… गिद्धों की कर्कश चीख, डैनों की झपट, साथ लकड़बग्घों की डरावनी आवाज़- जैसे कई चुड़ैलें नकिया कर एक साथ हंस रही हों!
मैंने सिहर कर उस तरफ से अपनी आंखें फेर ली थी और दायीं तरफ देखा था. सामने पत्थरों और झाडियों में मेरे शरीर के छोटे-छोटे टुकड़े-

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ISSN 2394-093X
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