अरूणा शानबाग – आखिर कब तक???

ज्योति गुप्ता

अरूणा शानबाग का निधन हमारी खोखली व्यवस्था पर कई सवाल उठाता है। यातना में बिताए उसके हर वो पल पूछ रहे हैं कि कब होगा इस अमानवीय मनोवृत्ति का अंत , कब लड़कियाँ निकल पाएंगी बिना किसी भय के बाहर , कब आयेगा वह दिन जब हम स्त्री और स्त्री शरीर से नहीं मनुश्य के स्तर पर जाने जाएंगे , उसकी
मौत चीख रही है , चिल्ला रही है , बलात्कारियों के खिलाफ आवाज़ उठा रही है। हमारी न्याय व्यवस्था से पूछ रही है कि कब होगा इस अमानवीय सिलसिला का अंत।

औरत बलात्कार तथा यौन-शोषण की आड़ में सिर्फ शरीर है जिस पर आदमी के मन में बैठा राक्षस कभी भी टूट पड़ता है। अरूणा शानबाग पिछले 42 सालों से जिस जिंदगी को जी रही थी या यूं  कहें कि जिसे जीने के लिए वह अभिशप्त थीं , उसकी जवाबदेही कौन है। पीडि़ता के अपराधी को सात साल की सजा़ हुई लेकिन जो कष्ट अरूणा ने झेला उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।

 सदियों से स्त्री के आंसू बहते आ रहे हैं। युग बदला , समय बदला , औरत की स्थिति  नहीं बदली। अरूणा की कल्पना करते दिल दहल उठता है , वितृष्णा होती है हमारी न्याय व्यवस्था के प्रति क्योंकि अपराधी सात साल की सज़ा काटकर छूट जाता है लेकिन पीडि़ता बयालिस साल तक लाश बनकर जीती रही। केईएम के वार्ड नं0 चार से लगे एक छोटे से कक्ष में बयालिस वर्षों  से जिंदगी से जूझ रही थी। इस पीडि़ता ने आदमी की मार तो झेली साथ ही प्रकृति तथा हमारी कानून व्यवस्था की मार भी झेली , जिसमें उसे इच्छा मृत्यु भी नसीब न हुई।

 मौत से बदतर जिंदगी उसने क्यों जिया , कानून ने उसे इच्छा मृत्यु क्यों नहीं दी , बलात्कार के बाद लड़की समाज की नज़र में उपेक्षित क्यों हो जाती है,  ऐसे न जाने कितने प्रश्न हैं जिसका जवाब अरूणा की मौत मांगती है। छिन्नमस्ता की प्रिया,सोना चैधरी, इमराना ,कोलकाता की नन या निर्भया इत्यादि न जाने कितनी पीडि़ता हैं जो चीख-चीखकर पूछ रही हैं कि आखिर कब तक हमें सिर्फ शरीर के रूप में देखा जाएगा , कब थमेगा यह सिलसिला। निर्भया की मौत हमारी न्याय व्यवस्था का कौन सा रूप दिखा रही है , जहाँ आरोपी से की गई पूछताछ में वह निर्भया को ही दोषी ठहराता है। लड़की के साथ हुए बलात्कार के बाद बचाव पक्ष की जो दलील  आती है,  उसमें लड़की को दोषी ठहराते हुए यह कहा जाता है कि उसने भड़काउ कपड़े पहने थे,लड़कियों           को देर रात घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए इत्यादि- इत्यादि। यहां एक प्रश्न उठता है कि क्या दो या पांच साल की बच्ची के साथ जो रेप होते हैं, उसके लिए भी उनके कपड़े जिम्मेदार हैं। हिंदी की प्रसिद्ध लेखिका प्रभा खेतान अपनी उपन्यास छिन्नमस्ता में इसका जवाब मांगती हुई कहती हैं ‘‘कब और कहां मुझ पर आक्रमण नहीं हुआ? वह कैसा बचपन था? क्या पुरूश की कामुक हवश का शिकार होने से मासूम लड़कियां बच पाती हैं? क्या मेरा बचपन न केवल भाई ने बल्कि एक दिन एक नौकर ने भी मुझे अपने गोद में बिठाया था। बहुत छोटी थी , पाॅच साल की।’’1 प्रभा खेतान का यह सवाल पूरी पुरूष जाति से है , पूरी व्यवस्था से है ,जो अपनी  क्रूरता तले हर लड़की को रौंदना चाहता है।

अरूणा शानबाग के साथ एक विडम्बना और जुड़ी है जो संभवतः हर औरत के साथ है – वह है औरत की इज्जत और मान-मर्यादा, जिसकी दुहाई देते हुए औरत को इस अमानवीयता को बर्दाश्त करने के लिए बाध्य किया जाता है। अरूणा पर बलात्कार , अप्राकृतिक यौन हमला और कुत्ते की चेन से उसकी हत्या के प्रयास के बाद भी उसकी तथाकथित बदनामी के भय से आरोपी के खिलाफ हत्या की कोशिश और डकैती का मामला दर्ज किया गया। यह इस क्रूर व्यवस्था का ही कुप्रभाव है , जिसकी शिकार हर स्तर पर औरत है। नमिता सिंह ने अपने आलेख ‘कुचला जाता हर रोज आंचल’ में लिखा है ‘‘दो-दो साल की बच्ची से लेकर प्रौढा तक। कैसा राक्षस छिपा बैठा है आदमी के मन में। वह कुछ नहीं देखता,कुछ नहीं सोचता। कोई संवेदना…जरा सी भी कोमल भावना … स्नेह की  गर्माहट…शेष  नहीं रहती। सब कुछ सिर्फ औरत-मर्द के आदिम रिश्तों तक सीमित हो जाता है। यह एक ऐसा छिपा हुआ राक्षस है जो दिखाई नहीं देता। जिसके दंश औरत जात को कब लहु लूहान कर दे, कोई पता नहीं। यहां सिर्फ चित्कार है, विस्फोट है जिसकी गंूज बाहर नहीं जाती। घुट कर रह जाती हैं कभी अपने अंदर और कभी चहारदिवारी के भीतर। रोना मना है… बोलना, कुछ भी कहना मना है। घर की इज्जत , घर की मान-मर्यादा। पता नहीं क्यों हमारे समाज में ईंट -गारे -मिट्टी से बने घर की मर्यादा होती है लेकिन जीती जागती …हाड़-मांस की बनी औरत की इज्जत और मर्यादा की बात कोई नहीं करता।’’2 अतः हमें इस सोंच से निकलना होगा। ये तमाम पीडि़ता अपनी मौत के बाद भी हमारी व्यवस्था के सामने एक प्रश्न बनी रहेंगी। प्रभा खेतान ने भी बड़े दुख के साथ छिन्नमस्ता में कहा ‘‘औरत कहां नहीं रोती? सड़क पर झााड़ू लगाते हुए , खेतों में काम करते हुए , एयरपोर्ट पर बाथरूम साफ करते हुए या फिर सारे भोग- ऐश्वर्य के बावजूद मेरी सासूजी की तरह पलंग पर रात-रातभर अकेले करवट बदलते हुए। हाड़-मांस की बनी ये औरतें …अपने-अपने तरीके से जिंदगी जीने की कोशिश में छटपटाती ये औरतें। हजारों सालों से इनके आंसू बहते आ रहे हैं।3 अतः हम कह सकते हैं कि औरत को औरत होने की सज़ा मिलती है। बाहर निकली, अपनी इच्छा से जीने वाली हर स्त्री को पल-पल यह डर बना रहता है कि उसके साथ कुछ गलत न हो जाए , घर में रहने वाली औरत तमाम तरह के घरेलू हिंसा सहने के लिए बाध्य है।

औरत घर में भी बलात्कार तथा यौन शोषण का शिकार होती है। व्यभिचार तथा संभोग में स्त्री की सहमति हाती है लेकिन बलात्कार उसकी इच्छा के विरूद्ध एक अमानवीय अत्याचार है। इसके उपरांत समाज लड़कियों को हीन नज़र से देखता है, हमें इस मनोवृत्ति को बदलना चाहिए तथा किसकी शीलता भंग हुई , किसकी नहीं , यह सोचे बिना पीडि़ता आत्म निर्भर जिंदगी जी सके , इस दिशा में उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए।

संदर्भ-सूची

1. खेतान प्रभा – छिन्नमस्ता, पहला संस्करण-1993,दूसरी आवृत्ति-2004, राजकमल प्रकाशन प्रा0 लि0,नई दिल्ली-110002,पृ0 सं0-119

2.सिंह नमिता – ‘कुचला जाता हर रोज आंचल’,संपादक-महेंद्र मोहन गुप्ता,दैनिक जागरण कसौटी अंक-2 सितम्बर,2005,जमशेदपुर,पृ0 सं0-1

3.खेतान प्रभा – छिन्नमस्ता, पहला संस्करण-1993,दूसरी आवृत्ति-2004, राजकमल प्रकाशन प्रा0 लि0,नई दिल्ली-110002,पृ0 सं0-220

संपर्क : jyotigupta1999@rediffmail.com

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