समलैंगिक और थर्ड जेंडर: सहानुभूति के साथ स्वीकृति की जरूरत

सुधा अरोड़ा

सुधा अरोड़ा सुप्रसिद्ध कथाकार और विचारक हैं. सम्पर्क : 1702 , सॉलिटेअर , डेल्फी के सामने , हीरानंदानी गार्डेन्स , पवई , मुंबई – 400 076
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आज अमरीकी सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में समान रूप से समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता देने का निर्णय पांच / चार के बहुमत से दिया है .  आज भी इस मसले पर विरोध की यह स्थिति है कि अमरीका जैसे लोकतांत्रिक समाज में इस निर्णय के विरोध में नौ में से चार जजों ने नोट ऑफ़ डिसेंट लिखा. अमरीकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए स्त्रीकाल के पाठको के लिए सुधा आरोड़ा का यह आलेख , जो उन्होंने कुछ  समय  पहले लिखा था . 


प्रकृति सबसे बड़ी सर्जक और निर्माता है। यह प्रकृति हमें बेहद खूबसूरत फल और फूल, पक्षी और पशु , नदी और झरने, समुद्र और पहाड़ देती है और इसकी सबसे अनोखी रचना है-मनुष्य  । एक से एक अद्वितीय अंग हैं हमारे पास। आंखों से हम प्रकृति की सुंदरता देखते हैं, कानों से झरने का गुंजार सुनते हैं, पेड़ों पर लगे फल और सब्जियों का स्वाद चखते हैं। हैरत कि बात यह कि जो कुछ हम खाते हैं, वह अलग अलग प्रत्यंगों से होता हुआ स्वयं खून और शक्ति में तब्दील हो जाता है। स्त्रियों में प्रजनन की अद्भुत क्षमता है और अपने ही रक्त, मांस से वह एक और शिशु  को जन्म देती है पर यह भी प्रकृति की ही देन है कि कई बार उस शिशु के अंगों में कुछ ऐसे मिश्रण हो जाते हैं कि उसका सिर ज़रूरत से ज्यादा बड़ा हो जाता है, कभी पेट के अंगों का स्थान बदल जाता है, किसी भी अंग में कोई विकृति आ जाती है, कई बार वह नर या मादा न रहकर कुछ और ही हो जाता है और इसका पता भी 12-13 साल की उम्र में बहुत देर से चलता है, जब उसमें लिंगगत विभिन्नताएं उभरने लगती हैं। इस विषमता  या विकृति का जि़म्मेदार ज़ाहिर है, वह बच्चा नहीं है और न ही उसकी मां है। यह प्रकृति की ही विडम्बना है लेकिन समाज उस असामान्य अंग को  लेकर पैदा हुए बच्चे को ताउम्र इस विकृति की सज़ा देता है।

सच तो यह है कि प्रकृति की थोड़ी सी भिन्न संरचना को हमने कभी स्वीकृति नहीं दी । अगर यह पता चल जाता कि फलाने घर में असामान्य बच्चा पैदा हुआ है तो बजाय उसके प्रति एक सहानुभूति के हम उसे तिरस्कार या उपेक्षा की नज़रों से ही देखते रहे। यही वजह है कि किन्नर को हमने ताली पीटने वाले और बच्चे के जन्म और शादी पर नाचने गाने वाले हिजड़े मानकर उन्हें कभी बराबरी का हकदार नहीं समझा और उनके प्रति सामान्य आचरण नहीं रखा। प्रकृति का हर सामान्य व्यक्ति खुद को इन भिन्न अंग वाले लोगों से श्रेष्ठ  और इन्हें कमतर मानता रहा।

स्त्रीकाल में  संबंधित आलेख : 


आख़िर हम भी तो इंसान ही हैं, हमें भी दर्द होता है : रवीना बरीहा

कब तक नचवाते और तालियाँ बजवाते रहेंगे हम !

किन्नर अब ‘थर्ड जेंडर’ की तरह पहचाने जाएंगे

समाज में यह प्रवृत्ति शताब्दियों से है। अरसे तक मानसिक रोगियों को विक्षिप्त की श्रेणी में शुमार किया जाता था। मानसिक अस्वस्थता को पागलपन कहकर उसका मखौल उड़ाया जाता था। पोलियोग्रस्त या अंगविच्छेद से क्षतिग्रस्त व्यक्ति को अपाहिज कहने में कोई संकोच नहीं बरता जाता था और विकलांगों को डिसएबल्ड कहा जाता था। अब उन्हें डिफरेंटली एबल्ड कहा जाता है। आज समय बदला है और एक मानवीय दृश्टि पनप रही है। धीरे धीरे हमने यह समझा कि मानसिक अस्वस्थता के रोगी को शारीरिक रोगों से कहीं ज्यादा गंभीरता और संवेदनशीलता से हैंडल करने की जरूरत है। मानसिक रोग को अब दबाया छिपाया नहीं जाता, उनके लिये बाकायदा अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धति है।

हमारी इसी मानसिकता का शिकार ऐसे मनुष्य हैं, जिन्हें  प्रकृति ने न पूरी तरह स्त्री बनाया और न पुरुष। क्या हमारे सामान्य समाज में उन्हें जीने का हक नहीं । अपने अधिकारों के लिये एक लंबी लड़ाई के बाद आखिरकार 15 अप्रैल 2014 को एक ऐतिहासिक फैसला आया, जिसने किन्नर समाज को स्वीकृति दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में रेखांकित किया कि सरकारी दस्तावेजों में अब महिला और पुरुष के साथ-साथ एक कॉलम थर्ड जेंडर या किन्नर का भी हो। किन्नरों को सामाजिक और शिक्षा के स्तर पर पिछड़े हुए वर्ग की तरह सारी सुविधायें मुहैया करवाई जाएं। कोर्ट ने अपने फैसले में किन्नरों को उन सभी न्यायिक और संवैधानिक अधिकार देने की बात कही जो देश के आम नागरिकों को मिले हुए हैं। किन्नर समाज इस फैसले को लेकर उत्साहित है। ऐसा पहली बार हुआ है कि उन्हें शादी करने, तलाक देने, बच्चा गोद लेने सहित केंद्र और राज्यों की ओर से चलाई जाने वाली सभी स्वास्थ्य व कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मिल सकेगा। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि संविधान में वर्णित अनुच्छेद 19 के तहत उन्हें वैयक्तिक स्वतंत्रता के सभी अधिकार हासिल होंगे और केंद्र और राज्य सरकार का यह दायित्व होगा कि उनके अधिकारों की रक्षा की व्यवस्था की जा सके।

अब समलैंगिकता के मसले पर आयें। 
समलैंगिक होना भी अपराध नहीं, एक प्रवृति है, जिसे समाज से हमेशा छिपाया जाता है। यह भी प्रकृतिगत एक संरचना है, जिसमें मादा अंग लेकर पैदा हुआ एक बच्चा जब बड़ा होता है तो अपने में स्त्रियोचित गुण न पाकर अपने को पुरुष की बनावट और मानसिकता में देखता है और पुरुष अंग लेकर पैदा हुआ एक बच्चा अपनी युवावस्था में आने पर अपनी आवाज़ में तब्दीली महसूस नहीं करता है और अपने को लड़कियों की मानसिकता में पाता है और पुरुषों की ओर आकर्षित  होता है। यहां भावना का स्थान दैहिकता से कम नहीं है। समलैंगिकता के खिलाफ भारतीय संविधान की धारा 377 हटाने की जब बात की गई तो कई प्रतिष्ठित हस्तियों ने अपनी असहमति जताई। कई मंचों से इसके खिलाफ कहा गया कि यह अप्राकृतिक आचरण है, इसलिये इसे कानूनी सहमति नहीं दी जानी चाहिये। लेकिन ये लोग नहीं जानते कि विवाह जैसे कानून सम्मत और वैध माने जाने वाले प्राकृतिक सम्बन्धों में भी कितने अप्राकृतिक आचरण किये जाते हैं , जहां पत्नियां कुछ बोल भी नहीं पातीं और आजीवन एक असुरक्षित और दहशतज़दा जिन्दगी जीती हैं।

न्यूयाॅर्क के एलबर्ट आइंस्टाइन काॅलेज आॅफ मेडिसिन के प्रोफसर  डाॅ. चार्ल्स  सकाराइड्स ने कई दशक पहले कहा था कि यौन -उद्यगों से जुड़े कुछ तेज-तर्रार शातिरों की यह एक धूर्त वैचारिकी है,  जो समलैंगिकों को पैथालाॅजिकल बताती है. इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता. अमेरिकी समाज में समलैंगिकता की समस्या के ख्यात अध्येता डाॅ. चार्ल्स  अपनी पुस्तक ‘ होमोसेक्सुअल्टी: फ्रीडम टू फाॅर’ में अपना वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- ‘‘ अमेरिकी समाज में यह तथाकथित समलैंगिक क्रांति’  बस यूँ ही हवा में नहीं गूँजने लगी , बल्कि यह कुछ मुट्ठी भर शातिर बौद्धिकों की ‘मानववाद’ के नाम पर शुरू की गई वकालत का परिणाम था, जिनमें से अधिकांश स्वयं भी समलैंगिक ही थे । ये लोग  ‘ट्राय एनीथिंग सेक्सुअल’ के नाम पर शुरू की गई यौनिक -अराजकता को  , नारी स्वातंत्र्य के विरुद्ध दिए जा रहे एक मुँहतोड़ उत्तर की शक्ल में पेश कर रहे थे । पश्चिम में , जब पुरुष की बराबरी के  मुहिम के तहत स्त्री ‘मर्दाना बनने के नाम पर , अपने कार्य-व्यवहार और रहन-सहन में भी इतनी अधिक ‘पुरुषवत या ‘पौरुषेय ’ होने लगी कि जिसके चलते उसका समूचा वस्त्र विन्यास भी पुरुषों की तरह होने  लगा । नतीजा , स्त्री की जो  ‘स्त्रैण-छवि’ पुरुषों को यौनिक  उत्तेजना देती थी , उसका लोप  होने  लगा । वेशभूषा की भिन्नता के जरिए , किशोररवय में लड़के और लड़की के बीच, जो प्रकट फर्क दिखाई देता था, वह धूमिल हो गया ।  इस स्थिति ने लड़के और लड़के के बीच यौन -निकटता बढ़ाने में इमदाद की, जिसने अंततः उन्हें ‘समलैंगिकता की ओर हाँक दिया । ’’

डाॅ. चार्ल्स  की यह स्थापना तीसेक साल पहले की है.  जहां वह इसे रोग की संज्ञा देते हैं . आज इन्हें रोगियों की तरह नहीं देखा जाता . न ही इन समलैंगिकों के भीतर इस प्रवृत्ति को लेकर कोई अपराध बोध है।
भारत में आज भी इसे एक ग्रंथि, एक टैबू के रूप में देखा जाता है। यह कितना बड़ा पाखंड है कि माता-पिता यह जानते हुए भी कि उनका बेटा समलैंगिक है,उसके जीवन की यह सच्चाई छिपाते हुए, उसके लिये आर्थिक रूप से अपने से नीची हैसियत वाले परिवार की बेटी को बहू बनाकर ले आते हैं और वह लड़की भी ताउम्र इस राज़ को अपने भीतर दफन कर पतिव्रता स्त्री का रोल निभाती चली जाती है। इसके पीछे सामाजिक स्वीकृति का न होना ही एक प्रमुख कारण है। कभी यह राज खुल जाता है और मां-बाप को इसके लिये जब दोषी ठहराया जाता है तो वे कहते हैं कि हमने तो यह सोचा था कि हमारा बेटा शादी  के बाद ‘सुधर’ जाएगा। दूसरे घर से आयी बेटियों को वे इत्मीनान से ‘सुधार-गृह’ समझ लेते हैं। कभी उनमें अपराधबोध नहीं जागता कि वे एक कम साधन संपन्न, दबे हुए परिवार की बेटी को भौतिक सुख सुविधायें देकर उसकी कितनी बड़ी कीमत वसूल रहे हैं और एक लडकी को मंगलसूत्र पहनाकर उससे एक सामान्य जि़ंदगी जीने का अधिकार छीन रहे हैं!

समलैंगिक संबंधों को ग्रंथि बना देने के कारण हमारे समाज में ऐसे संबंधों के दुश्चक्र में पिसने वाली सैकड़ों महिलायें अपनी तकलीफ़ बयान नहीं कर पातीं . काउंसिलिंग के दौरान का अपना एक अनुभव शेयर करना चाहती हूं । एक उच्चमध्यवर्ग की महिला , जिसके पति एक मल्टी नेशनल कंपनी के चेअरमैन थे , अपनी प्रताड़ना का मामला लेकर सामने आई. उसने बताया कि जब-तब उसे घर से बाहर धकेल दिया जाता है. उसने अपने घर की सीढि़यों पर बैठकर सारी रात काटी है . एक बार उसके पति ने उसपर पेपरवेट उठाकर फेंका, निशाना चूक गया वर्ना उसका सिर फट जाता . अपने जीवन के ये अनुभव उसने कई दिनों के सेशन के बाद साझा किये. पहले तो वह धुआंधार रोती ही रही . उसकी बात सुनने के बाद हमने उसके पति से संपर्क किया कि आप आकर अपना पक्ष रखना चाहें तो हमें अच्छा लगेगा . उसके अफसर पति आये . बेहद शालीन और संभ्रांत . आमतौर पर प्रताड़ना से जूझ रही महिलाओं के पति लाख बुलाने पर भी न आते हैं , न फोन पर बात करने को तैयार होते हैं . उनका हमारे संगठन तक आना ही हमें इंप्रेस करने के लिये काफी था . कहने लगे – देखिये , सारा दिन मैं अपने दफ्तर में व्यस्त रहता हूं . घर लौटकर बस एक खिला हुआ चेहरा , अच्छा खाना और कभी कभार रात को पत्नी का साथ तो चाहूंगा ही , वह भी अगर यह न दे पाये तो मैं वेश्याओं  के पास तो नहीं जाना चाहता कि एड्स लेकर लौटूं . उनकी बेबाकी और साफगोई ज़ाहिर थी . बातें और भी कई मुद्दों पर हुईं पर दूसरी बार जब हमने उनकी पत्नी से सवाल पूछे तो दोबारा उसका धुंआधार रोना शुरु हो गया . उसके आंसुओं से हम आजिज़ आ गये . हमारे कई बार उकसाने पर उसने बताया कि उसके पति उससे हमेशा अप्राकृतिक सेक्स ही चाहते हैं . वे शुरुआत ही खजुराहो की मुद्रा से करते हैं और वह अपनी उबकाई रोक नहीं पातीं . रात आने से पहले ही उनके पूरे जिस्म पर दहश तारी हो जाती है और वह कांपने लगती हैं . उन्होंने कभी सेक्स को एक सुख की तरह नहीं भोगा . हमने उनसे पूछा कि क्या अपनी यह आपत्ति पति के सामने उन्होंने दर्ज की ? उन्होंने कहा – इतना साहस मुझमें नहीं रहा कभी , मैं कभी उनसे किसी भी बात पर असहमति नहीं जता सकती, वे आगबबूला हो जाते हैं.   बहरहाल , वह उस पीढ़ी की थीं जो आज आॅब्सोलीट हो गई है. आज की लड़कियां शायद इतना लंबा अरसा ऐसी दहशत बर्दाश्त न करें !

कई स्त्रियां यह भी कहती पाई जाती हैं कि जब उन्हें वैवाहिक संबंधों में एक पुरुष  से अप्राकृतिक सेक्स और भावनाविहीन पशुवत बलात्कार ही झेलना है तो वह क्यों न अपनी मित्र के साथ एक प्रेम के रिश्ते  में रहे . अगर एक पुरुष  पति अपनी पत्नी के साथ जबरन अप्राकृतिक सेक्स करता है तो दो स्त्रियों के भावनात्मक और तथाकथित अप्राकृतिक दैहिक संबंधों से किसी को क्या आपत्ति  हो सकती है ? लेस्बियन होना प्राकृतिक और जन्मना प्रवृत्ति भी  है और अपने माहौल की निर्मिति भी .

आज के बदले हुए माहौल में विपरीत सेक्स वाले दो व्यक्ति ही विवाह के बंधन में बंध सकते हैं , यह अवधारणा दम तोड़ रही है क्योंकि विवाह अंततः बंधन ही बनकर रह जाता है और भावना विहीन बंधन बहुत लंबे समय तक नहीं चल सकता । पूरी तरह टूट कर भी घिसटता रहे तो बात अलग है और यही होता भी है। भारत में अधिकांश  वैवाहिक रिश्ते  अपना आकर्षण  खोकर , एक आदत और पारिवारिक सामाजिक दबाव के तहत , एक मुखौटा लगाकर , एक छत के नीचे रहते चले जाने का अभ्यास बनकर रह जाते हैं ।

अमेरिका में मैंने एक बीच पर हज़ारों की संख्या में ‘गे’ पुरुषों का जमावड़ा देखा . वे ठहाके लगा रहे थे , गाना गा रहे थे , एक दूसरे को गोद में उठा रहे थे , गले मिल रहे थे , पीठ पर प्यार से मुक्के जमा रहे थे गरज यह कि सामाजिक स्वीकृति के कारण वे बेहद सहज और बेपरवाह थे .शिकागो में एक शाम हम घूमने निकले तो देखा, कुछ दूरी पर हर लैम्पपोस्ट पर इंद्रधनुषी रंग वाले झंडे सड़क के दोनों ओर लटक रहे हैं। मैंने अपने दामाद से पूछा – यह किस देश का फ्लैग है और यहां क्यों डिस्प्ले किया जा रहा है। मेरे दामाद ने बताया कि  यह इलाका बॉएज टाउन कहलाता है – गे और लेस्बियन फ्रेंडली इलाका!  रेनबो फ्लैग उनका साइन है! हम जहां रहते हैं, वहां भी आप बगल वाली बिल्डिंग में छत पर यह रेनबो फ्रलैग देख सकते हैं। मैंने कहा – यह तो एक तरह से उन्हें आउट कास्ट कर देना हुआ,  जैसे भारत में दलितों के लिये शहर से बाहर बस्तियां बसाई जाती थीं। उसने समझाया – ऐसा नहीं है। अब भी एक आम अमरीकी नागरिक समलैंगिकों को नीची निगाह से ही देखता है। कानून बेशक बन गया हो पर सामाजिक स्वीकृति बहुत स्वाभाविक न होकर एक दबाव की वज़ह से है। हर व्यक्ति अपने रोज़मर्रा के जीवन में एक स्वाभाविक आज़ादी तो चाहता ही है। गे या लेस्बियन ऐसी जगहों में रहकर महसूस करते हैं कि वे अपने कम्फर्ट जोन में हैं।

इन स्थितियों को देखते हुए समलैंगिकों और किन्नरों को समाज की सहानुभूति से ज्यादा सहमति और स्वीकृति की जरूरत है, उपेक्षा या उपहास की नहीं। यह कोई समस्या नहीं है पर समाज में इसे एक अप्राकृतिक संबंध मानकर और दबा छिपा कर समस्या बना दिया गया है । किन्नरों के प्रति अगर हमारा समाज सहानुभूति रख सकता है तो समलैंगिकों के प्रति क्यों नहीं ? कानून या समाज को यह हक उनसे छीनने का कोई कारण नहीं है। उन्हें भी एक आम नागरिक की तरह जीने का अधिकार है।

पुनश्च 


समलैंगिक संबंधों को अब अमेरिका के कई राज्यों में कानूनी स्वीकृति मिल चुकी है. सहजीवन बिताने वाली दो स्त्रियों को एक साथ एक परिवार की तरह देखा जाता है और उन्हें कानूनन बच्चे गोद लेकर परिवार बनाने का भी हक मिला है . पश्चिम  की एक कवियित्री एलेन बास अपने को घोषित  रूप से लेस्बियन कहती हैं। एक साक्षात्कार में उसने कहा – ‘‘ साहित्य ने मुझे औरतों के बीच रहने की इच्छा जगाई ! मेरी दिलचस्पी वह सब सुनने में थी जो इन लेखिकाओं ने औरतों की जिंदगी के बारे में वह कहा , जिसे पहले कभी कहा नहीं गया .’’
एक अन्य चर्चित कवियित्री म्यूरिअल रुकेस ने कहा – ‘‘ सोचो , क्या होगा अगर एक औरत अपनी जिंदगी का सच बयान करने लगे , पूरी दुनिया में हड़कंप मच जाएगा ! यह दुनिया खुल कर बिखर जाएगी ! द वर्ल्ड  वुड स्प्ल्टि ओपन ! ’’
एलेन बास की एक चर्चित प्रशंसित  कविता का अनुवाद प्रस्तुत है –

‘‘ जिन्दगी तो प्यार मांगती है तब भी
जब आपके पास देने को कुछ बचा न हो
जो कुछ था , वह जले कागज की तरह
भुरभुराकर गिर जाए उंगलियों से 
उसके धुंए से आपका गला रुंध जाए
और तपन से हवा भारी हो गई हो
दुख घना होकर भीतर पसरा हो
और उस दुख का वजन 
आपके अपने वजन से ज्यादा हो 
आप सोचने पर मजबूर हो जाएं
कि अब इसे उठायें तो कैसे……
तब आप अपनी कमजोर हथेलियों में
अपने फीके मुरझाये चेहरे की तरह 
थाम लेते हैं जिन्दगी को 
चेहरे पर मुस्कान और आंखों में चमक भले न हो ,
पर आप कहते हैं – आओ मेरे पास
हां, जिन्दगी ! मैं फिर से तुम्हें प्यार करूं ! ’’ ’    

” but to love life, to love it even
when you have no stomach for it
and everything you’ve held dear
crumbles like burnt paper in your hands,
your throat filled with the silt of it.
When grief sits with you, 
its tropical heat thickening the air, 
heavy as water
more fit for gills than lungs;
when grief weights you like your own flesh
only more of it, an obesity of grief,
you think, How can a body withstand this?
Then you hold life like a face
between your palms, a plain face,
no charming smile, no violet eyes,
and you say, yes, I will take you
I will love you, again.” 
                                                   ― Ellen Bass

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ISSN 2394-093X
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