युवा कवयित्री मंजरी श्रीवास्तव की एक लम्बी कविता ‘ एक बार फिर नाचो न इजाडोरा’ बहुचर्चित रही है.
बयान में इखत्सार और लहजे की नरमी मंजरी का खास अंदाज है। ये
कविताएं प्रेम में डूबी हैं और जो डूबा सो पार। उसके साथ प्रेम की वह
रागात्मक उंचाई जुड़ी हुई है जिसे न तो सामाजिक निषेध और न दुनियाबी
रस्मों-रिवाज छू पाते हैं। जब वह कहती है…. एक होंठ जो आग-से दहक उठते
हैं
जिस्म कभी जायका हो जाता है, होठ कभी बनमी। इन कविताओं में
इन्सानी रिश्तों की नयी परत खुलती है। आप इनके बिम्बों और लयों में सिर्फ
डूबते नहीं हैं बल्कि साथ चलने का जोखिम उठाते हैं। प्रेम करने कर जोखिम,
प्रेम के साथ खड़े रहने का जोखिम। मंजरी की कविता भरोसा दिलाती है प्रेम पर
मनुष्य बने रहने पर।
निवेदिता
युवा कवि. मंजरी कविता नहीं लिखती, वह अपने-आप में एक कविता है. चलती-फिरती कविता.
सरापा कविता.
मदन
कश्यप
1.
मैं जब भी उससे ढेरों बातें करना चाहती
वह और दूर छिटक जाता,
अक्सर कहता – ‘बातें मत करो मुझसे वह भी आधी रात को,
सिर्फ़ बातें नहीं होतीं
बातों से ज़्यादा तुम जाग जाती हो मुझमें
एक जिस्म बन जाती हैं तुम्हारी बातें
दहकता हुआ जिस्म
फिर…कुछ याद नहीं होता
बिस्तर की सिलवटें होती हैं…तुम होती हो…
फिर..बारहा जिस्म…आग बनता जाता है…
हर तरफ़ लगी हुई आग
जलने लगता है बदन
एक जिस्म जो बाजुओं के घेरे में होता है
एक जिस्म जो आग पर निसार होता है
एक होंठ जो आग-से दहक उठते हैं
और उन होंठों में शबनमी एहसास दबे होते हैं
एक जिस्म जिसका हर हिस्सा ज़ायका हो
और सचमुच जिस्म कुर्बत चाहता हो.
फिर साँसें कहाँ…उनपर इख्तियार कहाँ …’
सिलवटें, सिसकियाँ और जिस्म की तनी हुई कमानें
जिस्म के आग बनने की इस प्रक्रिया में मैं हर बार शीतल हवा की तरह होती हूँ.
वो लपकता है मेरी ओर…फिर रुक जाता है …
वो तैरना चाहता है मेरे शरीर की हर मौज में…
मैं उड़ना चाहती हूँ…तब भी…जब वह एक जले शरीर की मांग के साथ होता है…
मैं शीतल हवा के साथ ले आती हूँ पानी का एक फ़व्वारा अपने लिए..
मैं छलांग लगाना चाहती हूँ इस फव्वारे में ..
तब भी …जब वह बेक़रारी की तैरती मछलियों को सुलाने की नाक़ाम कोशिश कर रहा होता है
आओ छलांग लगाएं …डूबें…
आओ लिखें एक नज़्म एक-दूसरे के सुनहरे बदन पर
एक-दूसरे की बंद आँखों में डूबकर.
२.
तुम्हारे सानिध्य में
सांप बनते हुए
जिस्म की सुरंगों में सरसराते हुए हजारों सांप क्या केवल एक अनुभव था या एक मायावी जाल…?
जहाँ तुमने अनगिनत गंदे मोज़े मेरे स्तनों पर रख दिए थे
अपने होने की जलन के साथ
मैं अपने होने की कहानी बुनती हुई
इन मोजों को प्यार से सुखा रही थी
अपने जिस्म की गुनगुनी धूप में
तुम रात की चादर तानते ही एक प्यारे कछुए में तब्दील होते
तो मैं तुम्हरे फुदकने का अनुभव करती
मुझे पसंद था इन लम्हों में गिरगिट का ज़हर
और तुम पूरा ज़हर मेरी सृष्टि में उतार देते थे
मैं अमृत पान करती हुई
कछुए, सांप और गिरगिट से गुज़रती हुई
हर बार स्वयं को एक नए एहसास की चूहेदानी में डाल देती
लम्हे गुज़र जाते
गुज़र जाते
गुज़र जाते
चूहेदानी खाली होती…ठीक मेरी तरह.
और गंदे मोज़े उछलते हुए हवा में
ठीक मेरे सामने आ जाते
ओह्ह…ज़िन्दगी के भीगते नए एहसास में क्यूँ रह जाते हैं हर बार ये गंदे मोज़े
3.
पहले जब भी कोई प्रेम करता था मुझसे या मैं प्रेम में होती थी
फूट पड़ती थी तमाम पत्थरों के बीच नदी-सी
फिर भूल पड़ती थी अपना रस्ता
और कई बार तो बहना ही भूल जाती थी.
तब बड़ी शक्ति होती थी प्रेम में
इतनी कि रोक दे मुझ-सी वेगवती नदी को
इतनी कि मोड़ दे मेरा रास्ता
वापस ले चले मुझे
तब मेरे पास बहुत सारे सवाल होते थे और उतने ही जवाब भी
पर अब जैसे ही कोई प्रेम करने लगता है मुझसे
मैं और ज़्यादा अभिशप्त हो उठती हूँ
या क्या पता शायद समय ही नहीं है मेरे पास इस शब्द के लिए
अब प्रेम नहीं धड़का पाता दिल
प्रेम कहते ही एक गहरी, काली गुफ़ा का बोध होता है
जिसमें दम घुटता है, हवाएं यक-ब-यक थम-सी जाती हैं
अब प्रेम में मेरे पास नहीं होतीं दुनिया –जहाँ की बातें जिस पर बक-बक कर सकूं मैं किसी के साथ
अब न सवाल होते हैं और न ही जवाब
वेगवती नदी मानो ठहर-सी गई है अचानक
अब अंधड़ भी नहीं है कोई लेकिन मैं भटक जाती हूँ अक्सर एक बियाबान में
और कोई हाथ पकड़कर रास्ता भी नहीं दिखाता
और कोई हाथ बढ़ाये भी तो शायद मैं ही नहीं निकलना चाहती इस घने, काले जंगल से
इस जंगल में मुझे सुनाई पड़ते हैं अब भी हमारे बोले आखिरी शब्द
पेड़ों के घने अंधेरों, सन्नाटों को चीरते हुए वे शब्द बार-बार मेरे कानों में गूँज जाते हैं एक भयावह सपने की तरह
अब खुली आँखों से यही सपना देखती रहती हूँ और बार-बार याद आते हैं किसी के कहे वे शब्द – “खुली आँखों से सपने देखना बहुत खतरनाक होता है.”
सचमुच अब यह सपना बहुत ख़तरनाक हो गया है.
पहले प्रेम मुझे ज़रा-सा मूर्ख, मजबूत, साहसी और बेफिक्र बनाता था
अब यह डराने लगा है
जब पहली बार प्यार हुआ था… चौबीस घंटे सूरज निकला रहता था
अब हर लम्हे में प्यार होता है लेकिन एक कभी न ख़त्म होने वाली रात के साथ
अब प्यार मुझे एक बंद नगर में ले जाता है
अब नहीं खिलते सतरंगी फूल मेरी रूह में
अब मेरी आँखों से नहीं झरतीं प्रेम की बूँदें
बारिश में भीगे दरख़्त-सा मेरा मन धुन्धुआता रहता है लम्हा-लम्हा
अब नहीं होती चाहत आसमान छू आने की
अब नहीं होती मैं बावली
अब पगलाने का मन भी नहीं करता
अब मेरे चाहने पर भी नहीं भरता जल इस सूखी नदी में
मन की वीणा पर एक डरावनी टंकार भर बार-बार बज उठती है
यह टंकार नहीं बदलती अब सुरमई गुंजन में
अब याद आते हैं कीट्स और उनके पीले मुखवाले योद्धा
“ओ, व्हाट कैन ऐल दी, नाईट ऐट आर्म्ज़, अलोन एंड पेलली लायटरी, व्हेन सेज इज़ विदर्ड फ्रॉम द लेक, एंड नो बर्डज़ सिंग.”
अब मेरे सपनों की उम्र छोटी हो गई है
सपना अँधेरे में मुझे बार-बार खींच लाता है
सूरज की सुनहरी किरणें भी अब असमर्थ हो गईं हैं मेरे जीवन में उजाला करने में
अब कोई कविता भी नहीं याद आती मृत्यु के इन दरकते दिनों में
लेकिन हाँ, इन तमाम अंधेरों और भयावह रातों से गुज़रते हुए भी, डरते हुए भी
दरअसल मैं डरती नहीं
एक प्रछन्न वसंत मेरे भीतर अंगडाई ले रहा होता है पल-पल
अब एक मलंग, एक फ़कीर बन गई हूँ मैं
शांत….एकदम चुप्प…..जो दुनियावी बातों से बेअसर रहता है
एक तिरछी मुस्कान हमेशा उसके होठों पर फ़ैली रहती है
एक अलौकिक आभा के साथ
दरअसल वह जीत चुका होता है
अपने भीतर चलनेवाली, बार-बार मौत से की जानेवाली एक कठिन और लम्बी लड़ाई.