अनिल पुष्कर की कविताएँ

अनिल पुष्कर

पत्र-पत्रिकाओं में कवितायें और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लेख प्रकाशित. सम्प्रति – पोस्ट डॉक फेलो, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय,
संपर्क : ई मेल-kaveendra@argalaa.org, मोबाईल न. 8745875195

फिर कोई लड़की नदी में कूदी है-एक


वो जब भी गुजरती है
डॉट के पुल या फिर सिनेमाहाल के सामने से होकर
पोस्टर पर चिपके स्तनों को देखकर ढकती है सीना
सोचती है
या तो ये डॉट का पुल ढहाकर रहेगी
या स्तनों में कोयले की धधकती भट्ठी सुलगायेगी एक रोज
जिसमें उन सपनीली आँखों को झोंका जाएगा
जो हसरत भरी निगाह से देख रही हैं.
और आवारा कुत्ते सी सूंघती फिर रही हैं हर एक देह

उसने तय किया
वो कारीगरी में माहिर लोहार के पास जायेगी और कहेगी
तपते हुए अंगारों की आँच से इस देह को
सुर्ख नुकीला आकार दे दो
औजार की शक्ल में ढालकर धार दे दो

उसने तय किया
सिने-तारिकाओं से मिलना
जिनमें हर लड़की की नंगी देह छिपी है

वो देख रही है
पुल की दीवार पर
फिर एक लाश उतारी जा रही है
फिर एक नई लाश पोस्टर पर टांगी जा रही है.

वो देख रही है
उस पुल से फिर कोई लड़की नदी में कूदी है.
(छपाक की आवाज़ के साथ)
मगर खून के कतरे पोस्टर पर नहीं मिले.

फिर कोई लड़की नदी में कूदी है-दो


इस रात
वो बहुत बेचैन है
वो अखबार के पन्ने पलटते पलट रही है क्या-कुछ,
बावर्चीखाने की खिडकी में झांककर देखती है,
तमाम आती-जाती लड़कियों की गिनती करती है,
स्कूल के रजिस्टर की हाजिरी में दाखिल होती है,
बाज़ार की हर रेडीमेट कपड़ों की दूकानें घूरती है,
मॉल में कामगार लड़की से ढेरों सवाल पूछती है.

वो हर सूनसान इलाके के चक्कर काट आई
हर आशंका के सिरहाने-पैताने झाँक आई
कालोनी की हमउम्र कामवाली से खूब-खूब बातें कीं
और कई पते, कई ठिकाने भेष बदले घूम रही है

उसे लगा अब आश्वस्त हो जाना चाहिए

और ज्यूँ ही सीढियों पर थककर बैठी
याद हो आई एक लड़की जिसे भूल आई थी
रेलवे स्टेशन पर किसी का इन्तजार करते
वो अब तक कहीं नहीं पहुँची.

उसने तय किया
वो उस बावली लड़की से जरूर मिलेगी.

फिर कोई लड़की नदी में कूदी है-तीन


हर रात के बाद अगली सुबह
वो पतीली में भाप उठती देख रही है
और देख रही है खौलता हुआ पानी
रंगीन चाय की कुछ पत्तियां डालते- डालते
तैरने लगती हैं उसमें रंगीन मछलियाँ
वो देखती है यदि खौलते हुए इस उबाल में
एक भी मछली जा गिरी तब क्या होगा

वो कांपने लगती है
उसके भीतर नसों का फैलाव कसने लगा
वो नाश्ते की मेज़ तक दौडकर जाना चाहती है
किन्तु अब शायद ही पहुंचेगी
रगों में तिरती मछलियाँ एक बड़े समुद्र में जाना चाहती हैं
वो भागती बदहवास, भागती जा रही है बेतहासा
उसके पांवों में मछलियों के काँटे चुभ रहे हैं
वो पार कर चुकी है शहर की आखिरी सरहद

जहाँ
देखती है बगुले और सारस की लंबी-लंबी टांगें
एक नुकीली चोंच जो हर बार
एक एककर मछली निगल रही हैं समूचा

वो वापस जाना चाहती है उसी चाय की केतली तक
उसे ये नहीं मालूम कि वो कौन सी राह चुने.

और मछलियों को कहाँ सुरक्षित छोड़े?

फिर कोई लड़की नदी में कूदी है-चार


वो नदी तीरे जाती हुई डोली
और पालकी देख रही है

कान देती है शहनाइयों की गूँज पर
मगर नहीं दीखता कोई महुआ माझी
वो नदी पर लकड़ियों के लट्ठों में
धू-धूकर जलती हुई
राख की वेशभूषा डाले बही जा रही है
उसका दम घुट रहा है
साँस फूलती जा रही है
नदी के पानी पर उठ रहे हैं भँवर के हिंडोले
और नावें,  नाविक पाते हैं
आवाजों की आवाजाही में परवाजों का शोर

दूर कहीं मंदिर के घंटे की टन्न पर
धमकती है लड़की और पूछ बैठती है
ये कैसी नदी है
यहाँ मैं कैसे आई
मेरा घर कहाँ है

वह माँग रही है जवाब

कोई है
जो उसका दुःख छिपा रहा है
कोई है जो उसका सच छिपा रहा है.

एक जरा सी हिचकी पर


बगैर किसी की परवाह के
जब तुम किसी लड़की की देह से गुजरते हो
उस पल यकीन जानो, असहमति के सभी बंद दरवाजे
हमारे भीतर खुले होने चाहिए

आँखों में अंगों का अधनंगा विश्लेषण करने वाली नजर
और रस लेने वाली भावना पर बेहिचक कसकर
चोट करनी चाहिए

और यह समझ लेना चाहिए
वो केवल गोश्त नहीं
एक लड़की है जीती जागती.

जिसकी
रगों में खून बह रहा है
हृदय में हज़ारों ख्वाईशों वाली नदियाँ भरी हैं
आवाज़ में तरन्नुम साज बसे हैं
उसके कदमों में धरती नापने की ताकत है
और गर्भ में तमाम दुनियाओं का सार छिपा है
इरादों में नयी संभावनाओं की ऊर्जा है

उसके भीतर सदियों से बसा एक समन्दर
हिलोरें ले रहा है
एक जरा सी हिचकी पर
वो बहुत कुछ ढहा सकती है
एक नागवार हरकत पर खून बहा सकती है.

दोनों के पास हथियार हैं



वह औरत
सरकार की भाषा नहीं समझती
और अपनी ठेठ जबान से बड़बड़ा रही है

एक तरफ औरत है
एक तरफ सरकार

दोनों के पास
अपने-अपने हथियार हैं

जिस रोज सरकार अपनी बंदूकों में बारूदी भाषा भरेगी
और औरत की तरफ बढ़ेगी
हमें यकीन है
औरत सरकार की तरफ सबसे भारी पत्थर उठाकर
मारेगी जरूर

ये राजधानी है
यहाँ न सरकार चुप है
न वह औरत मौन समझती है.

फिर किसी ने मौत की भट्ठी सुलगा दी है.

काश!
सब कुछ करीने से लगा हो

जैसे,
वह अपने भीतर से आहिस्ते-आहिस्ते
उलीच रही है सब कुछ
तरतीबवार और मौसम की पहली अगुवाई में
पसारती है बीज
कोयले की कोठरी और कोहिनूर की सुरंग में
फर्क नहीं करती
कषैली और मीठी फलियों को खुद से
कभी अलग नहीं करती

जब-जब पुकारती है उसे
उफनाती बह निकलती हैं नदियाँ

जब-जब बुहारती है उसे
कोपलों से फूटी खिल उठती हैं कलियाँ

जब-जब संवारती है उसे
अनायास ही संवरती जाती है दुनिया

आओ,
सौगंध लें कि
वो आग में जलकर न मरे

देखो, देखो!!
उधर, ठीक उधर
फिर किसी ने मौत की भट्ठी सुलगा दी है.

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ISSN 2394-093X
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