प्रकाशित संग्रह : “तेरे नाम के पीले फूल”
कविताएँ/आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित संपर्क : ईमेल -neelammadiratta@rediffmail.com / neelamadiratta@gmail.com
1.
सब से अमीर होती है वह लड़की,
जिस के पास खोने के लिए,
अपनी इज्ज़त के सिवा कुछ नहीं होता,
और यह जानते हुए भी,
कि भीड़ भरे रास्तों पर,
उसे कोई छू पाए या ना छू पाए,
पर उछाले जा सकते है पत्थर और कीचड़,
वो तोड़ती है हाथों की चूड़ियाँ,
वो तोड़ती है अपनों का विश्वास,
लांघती है घर की दहलीज़,
बांधती है सर पर कफ़न,
मुहँतोड़ देती है जवाब,
उसे नहीं दिखाई देते,
अपने आँचल के धब्बे,
दिखती है तो सिर्फ,
मछली की आँख,
लडती है कर्मक्षेत्र,
और जिंदा रह कर,
जीती है अपनी ज़िन्दगी..
सब से अमीर होती है वो लड़की …
सब से गरीब होती है वह लड़की,
जिस के पास खोने के लिए होती है,
अपनी इज्ज़त के साथ साथ,
माँ प्यो दी इज्ज़त,
सारे कुनबे दी इज्ज़त,
अपनों का प्यार और विश्वास,
आन बान और शान,
वो पहनती है रंगबिरंगी चूड़ियाँ,
सीती है अपनी गुलाबी जुबान,
ओढती है सपनों की चूनर,
मरती है रोज़ लम्हा लम्हा,
और मुस्कुराते हुए,
जीती है अपनी ज़िन्दगी,
सब से गरीब होती है वह लड़की
2.
धृतराष्ट्र अँधा नहीं अहंकारी अँधा था,
गंधारी ने त्याग की नहीं स्वार्थ की पट्टी बाँधी थी,
भीष्म वक़्त की भांति मौन रहा,
शतरंज की बिसात बिछायी गयी,
शकुनि की चालें चली गयी,
भानुमती दाँव पर लगाईं गयी,
इस कलयुग में चीर हरण निषेध था,
पर मन चीरने की कोई सजा नहीं थी,
द्रौपदी का मन नहीं चीरा जा सकता था,
भानुमती का मन चीर लिया गया,
भानुमती रोई, चीखी, चिल्लायी,
और इस से पहले,
कि उस के मुख से फूट पड़ते,
श्राप और बद्दुआयें,
नियति चीख पड़ी,
.
मौन हो जा….मौन हो जा,
.
भानुमती ने हाथ जोड़े और पुकारा,
गोविन्द !! गोविन्द !! गोविन्द !!
.
गोविन्द दूर से देखते रहे …मौन और लाचार
3.
सुनो ! लडकों !!
अच्छा नहीं लगता,
तुम्हारा घर आना,
किसी भी लड़की के माँ-बाप को,
उन की अनुपस्थिति में,
क्योंकिं जानते है वो,
कि नहीं सिखाया गया तुम्हें,
किसी भी स्कूल में,
किसी भी क्लास में,
ना ही सिखाया,
तुम्हारे माँ-बाप ने,
कि लड़की की देह होती है,
रुई से भी ज्यादा सफ़ेद और कोमल,
तुम्हारे ज़बरदस्ती छूने से हो जाती है मैली,
और चीख जाती है लड़की,
और यह चीख आखिरी नहीं होती,
ताउम्र साथ रहती है….
.
जाओ पूछो अपने माँ-बाप से,
कि क्यों न सिखाया मुझे कुछ?
बहना को तो तुम सिखाती रही सब कुछ,
मुझे क्योँ ना सिखाया?
आज लोगो की आँखों में देखता हूँ,
प्रशनचिन्ह अपने लिए,
पूछते है वो,
कि क्यों आये हो? कैसे आये हो?
कुछ काम-वाम नहीं है क्या? …
4.
मै खुश हूँ,
कि मेरी ख़ुशी तेरे दिए,
चंद सिक्कों की खनक की,
मोहताज़ न रही …..
मै खुश हूँ,
कि मेरे सपनों को तेरे दिए,
इन्द्रधनुषी रंगों की,
ज़रूरत ना रही …
मै खुश हूँ,
कि मेरे लड़खड़ाते कदमो को,
तेरे सहारे की,
उम्मीद ना रही …
मै खुश हूँ,
कि मेरी तनहाइयों को,
तेरे ख्याल की,
जुस्तजू ना रही …
मै खुश हूँ,
कि मै बहुत खुश हूँ,
कि मैंने खुद ही में ढूँढ लिये,
ख़ुशी, रंग, सहारा,
और प्रेम,
और अब !!
अब !! मै तेरी दास न रही