उमा रंगकर्म की दुनिया मे चर्चित उपस्थिति हैं, कविताएं भी लिखती हैं : ई मेल-jhunjhunwala.uma@gmail.com
आखिरी चीख
पूछो ज़रा समाज के
इन ठेकेदारों से….
जब जब गूंजती है चीख़
आसमां में… ट्रक, बस, रेल या
कि गाड़ी मोटर में
सुनसान सड़क के—
किसी किनारे
या किसी झाड़ियों के पीछे
या बंद कमरों की
मज़बूत दीवारों में तड़पती
किसी सीली सी खाट या
अपमानित होती नर्म बिस्तर पे
उन अनगिनत
बेआवाज़ स्त्रीलिंगों की
घुटती चीखों का रंग क्या होता है ….
लाल, हरा, नीला….
केसरिया या पीला….
उनका मज़हब कौन सा होता है?…..
अच्छा एक बात बताओ ज़रा….
माँ के दूध का रंग
किस धर्म का होता है?
और बेटियाँ
क्या बापों की नहीं होती…?
वो क्या सिर्फ़ हिन्दू मुसलामान होती हैं ?
बहने सिर्फ़ इसलिए
गुनाहगार होती हैं कि—
वो दूसरे तीसरे मज़हब की होती हैं…
और लड़कियों की तो कोई बिसात ही नहीं
जो अपनी पसंद से
चुन सके जीवन साथी भी
देखो तो तुमने
मुहब्बत को कितनी आसानी से
हिन्दू मुसलमान बना कर
टांग दिया है चौराहे पे
और जननी को
धर्म के हाथों की
बना कर कठपुतली
रख दिया है
अपने घरों की ताक पर
हमारी भावी नस्लें
अपनी ज़िन्दगी के कैनवास पर
नहीं भर पाएंगी कभी
अपनी ख्वाहिशों के रंग
बदरंग जो बना दिया है तुमने
उसे ज़हरीली ज़ात-पात के ब्रश से
अब अल्लाह ही बेहतर जाने
इसका राज़ क्या है
ईश्वर ने भविष्य के गर्भ में
जाने क्या छुपा रखा है
ज़िन्दगी को तो बाँट दिया है
इसने बड़ी सहजता से
इनके खून का रंग क्यूँ नहीं
अलग अलग बनाया है?
कितनी दिक्कतें आती होंगी ना
तुम्हे उन्हें पहचानने में….
‘इसकी माँ की और उसकी बहन’ की
….जब करना होता होगा
जानती हूँ ये बहुत ही पुराना
और घिसापिटा मुहावरा है
हम सब की रगों में बहने वाले
खून का रंग लाल होता है
जनती है जब औरत बच्चा
वो लाल खून में ही सना होता है
बहता है जब लहू रगों से बाहर सड़कों पर
लाल ही होता है
और जब शर्मशार हो रही होती है
कोई भी औरत कहीं भी
उसकी चीख़ का रंग
तुम्हारी माँ की कोख के रंग का होता है
लेकिन इससे फ़र्क ही क्या पड़ता है
चीख़ चाहे जिसकी भी हो
धर्म का काम किसी भी हाल में
कहीं भी नहीं रुकना चाहिए
ईश्वर और अल्लाह के मान सम्मान
और अस्मिता का प्रश्न है
लेकिन याद रखना—
—मेरी आख़िरी चीख़ निर्णयात्मक चीख़ होगी
और इस चीख़ से मेरा गर्भ
हमेशा के लिए बंजर हो जायेगा
फिर तुम और तुम्हारे धर्म-रक्षक
—- सब मिलकर
इस दुनिया को आगे बढ़ाते रहना
——– मेरे बग़ैर
मैं भी तो देखूं
धर्म का झंडा
फिर तुम कैसे उठाये फिरोगे…… !!
तुमने कहा था एक बार
तुमने कहा था एक बार
निर्मल आकाश
निर्मल मौसम
निर्मल मन
——————-निर्मल तुम हम
तुमने कहा था एक बार
मीठे फल
मीठी प्रार्थनाएं
मीठी कारगुज़ारियाँ
———————मीठे हम तुम
मैंने तो बस देखा था
सूना मन
सूना नभ
सूना रब
—————सूने धरती आकाश
मुझे सुनाई दिए कई बार
गूंगे कोलाहल
गूंगी धड़कने
गूंगे शब्द
—————गूंगे तेरे मेरे बोल
मेरे यात्री-सखा”
कैसे हो यात्री…!!
अनजाने शहर में अनजाने लोग
कभी कभी बहुत अपने से लगते हैं….
हम बेख़ौफ़ हो कर वो सारी बाते
उनसे साझा कर लेते हैं
जो अपनों से नहीं कर पाते…
वहाँ अतीत, वर्तमान और भविष्य का डर नहीं रहता…..
पल दो पल का साथ रहता है…..
रोना-हँसना, गुनगुनाना, उदासी,….
सारे भाव रहते हैं…
बस एक दूसरे से प्रेम का भाव नहीं होता….
पल भर के प्यार के बारे में सोचता ही कौन है….
हमारी मुलाकात भी तो ऐसी ही थी…
कभी सुबह काम पर जाते हुए दिख जाते
और कभी लौटते वक़्त….
और कभी कभी नहीं भी…अक्सर छुट्टियों वाले दिन…
तुम बोगी के दरवाज़े पर खामोश खड़े सिगरेट पीते रहते..
कभी दो कभी तीन…
अक्सर अनजाने में गिन ही लेती थी मैं सिगरेट…
और मेरी भी सीट लगभग तय ही हुआ करती थी…
अपना स्टेशन आने तक मैं अक्सर कोई किताब पढ़ती होती
या कोई कविता लिखती होती…
बीच बीच में नज़र तुम पर चली ही जाती…
तुम अपने ख्यालों में मशगुल रहते
कभी कभी हमारी नज़रे आपस में टकरा जाती
और दोनों ही असहज हो फिर से अपने काम में लग जाते…
जाने कितना वक़्त गुज़रा होगा ऐसे ही
एक बार कई दिनों तक मैंने उन पटरियों की सवारी नहीं की
तुम धुंधले से ख्यालों में आते थे ज़रूर
मगर धुंध के साथ ही वापस भी चले जाते
उस दिन सुबह जब मैं बोगी में चढ़ी
तो देखा तुम मेरी वाली सीट पर ही बैठे थे
मुझे देखते ही तुम लगभग मुझपर चिल्ला पड़े–
“कहाँ थी इतने दिनों तक…
तुम्हारा इंतज़ार कर रहा था रोज़ इसी सीट पर…”
मैं हैरान सी तुम्हे देख रही थी
इन प्रश्नों के लिए कहाँ तैयार थी मैं
और तुम भी अपने इस बर्ताव पर शायद हैरान हो गए थे
तेज़ी से मुझसे नज़रे हटा कर हमेशा की तरह
सिगरेट जला कर दरवाज़े पर खड़े हो गए…
तुम्हारी आँखों से कई प्रश्नों को बहते देखा था मैंने उस रोज़
पहली बार अपने वजूद को धडकते महसूस किया
उस रोज़ तुमने उसके बाद एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा
मैं इसलिए जानती हूँ क्योंकि उस दिन मैं तुम्हे एकटक देख रही थी
हममे फिर कोई बात नहीं हुई
ना ही मैंने बताया कि मैं क्यूँ ग़ायब थी
और नाही फिर तुमने जानना चाहा था उसके बाद
अगले दिन से दरवाज़े का साथी
मेरी बगल वाली सीट पर होने लगा
हममे अब भी कोई बात नहीं होती थी…
ख़ामोशी दोनों को पसंद थी
लेकिन अब तुम मेरी डायरी का हर पन्ना पढने लगे थे
तुम्हारी आँखों में उभरे लाल रेशों में
अपनी परवाह को सुकून पाते देखती फिर मैं
सुनो सखा !!
हम आज भी उतने ही अनजान हैं एक दूसरे के लिए
लेकिन फिर भी मैं तुम्हे उतने ही क़रीब पाती हूँ
जितने आँखों के करीब उसकी दृष्टि…
जितना प्लेटफ़ॉर्म पर लगे शहरों के नाम की तख्ती..
या जितना बोगी का वो दरवाज़ा और वो सीट…
अच्छा है न कि हमारे संबंधो का कोई नाम नहीं…
लेकिन कभी कभी सोचती हूँ
तुम मेरी डायरी के पन्नो की तरह ही हो
अनजान भी……
हमराज़ भी…..
“मेरे यात्री-सखा”
जो तुम चाहो तो
जो तुम चाहो तो
लिख दूँ
सारे जज़्बात…
अपनी छुअन से
इन रिक्त बिन्दुओं में
या चाहो तो
लिख दूँ
सारे अफ़साने…
अपनी आँखों से
तुम्हारी इन आँखों में
या लिख दूँ
अपनी साँसों को
तुम्हारी साँसों पर…
ज्योति बनकर
जलती है जो हमारे बीच में
तुम चाहो तो
इन होठों से लिपटी
खामोशियों को…
लफ़्ज़ दे दूँ
सागर की नीली गहराईयों सी
या फिर
लिख दूँ
तुम्हारे लिए…
इस आसमां पे
सारी उद्घोषणाएँ चाहतों की
जो तुम चाहो
लिख दूँ, बस मुझे—
तुम्हारी जेब में…
रखी हुई वो क़लम दे दो
जिसमें सुनहरी स्याही भरी है