कृषि प्रधान देश में महिला खेतिहर की दैन्य वास्तविकता

मंजू शर्मा

सोशल मीडिया में सक्रिय मंजू शर्मा साहित्य लेखन की ओर प्रवृत्त हैं .संपर्क : ई मेल- manjubksc@yahoo.co.in

आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!

रोप गये साजन,
सजीव हुआ आँगन;
जीवन के बिरवा मीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!

पी की निशानी
को देते पानी
नयनों के घट गए रीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!

फिर-फिर सावन
बिन मनभावन;
सारी उमर गई बीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!

तू अब सूखा,
सब दिन रूखा,
दुखा गले का गीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!

अंतिम शय्या
हो तेरी छैंयाँ,
दैया निभा दे प्रीत रे!
आंगन के,
आंगन के बिरवा मीत रे,
आंगन के!

बच्चन जी के बिरवा का गीत केवल बिरवा का गीत नहीं भारत जैसे देश में जीवन का गीत है। लगभग 70 से 75% लोग ग्रामीण भारत में रहते हैं। भारत किसानों का देश है,  हमें बचपन-से ही किताबों में पढ़ाया जाता रहा है और अमूमन किसान कहते ही आँखों के आगे एक पुरूष,  जिसकी काँधों पर हल होता है, की छवि सामने आ जाती है। शायद ही कोई किताब ऐसी छपी हो जिसमें महिलाओं को भी खेत में श्रम करते हुए कहीं दिखाया गया हो। यही विडंबना है कि कृषि में उसकी भागीदारी लगभग 80% होती है लेकिन किसान के रूप में उसका कहीं नाम तक दर्ज नहीं होता , क्या सचमुच स्त्रियों की भागीदारी कृषि में नगण्य है या उनकी अहम् भूमिका को हमारे सामंतवादी सोच से परिपोषित समाज ने मान्यता नहीं प्रदान की है उसे? अपने ही आस-पास चंद किलोमीटर ताक-झाँक करते ही स्त्री की वो सारी भूमिकाएँ स्पष्ट होने लगती है, जिन्हें हमारा समाज जानबूझकर उपेक्षित करने की भरपूर कोशिश करता आया है।

अबतक हमसब किसान उसे ही कहते हैं,  जिसकी अपनी ज़मीन होती है या जो हल जोतता है। देश में 80% महिला कृषक ही खेती-बारी से संबंधित लगभग सारे कामकाज निपटाती हैं। सावन माह में मानसून की वर्षा के बाद धान के फसलों की बुआई शुरू हो जाती है और कुछ दिनों की अच्छी वर्षा के बाद खेतों में बिरवा (धान के छोटे-छोटे पौधे) उग आते हैं और उसके बाद इन महिला किसानों की कठिन दिनचर्या शुरू हो जाती है।

प्रात: जागकर परिवार के लोगों के लिए खाना-पीना बनाकर अर्थात् अपने घरेलू  कामकाज से निवृत्त होकर अपने लिए खाने की पोटली साथ बाँधे चल देती हैं उन खेतों की ओर जहाँ इनको दिन की रोपाई का काम खत्म करना है। और यहीं से शुरू होता है उनका घंटों पानी में घुटनों तक रहना,  जहाँ वे धान की छोटी-छोटी बिरवा को उखाड़ती हैं क्योंकि फिर इन्हीं खेतिहर महिलाओं द्वारा बिरवा के छोटे-छोटे गुच्छे तैयार किए जाते हैं और इन गुच्छों में से अलग-अलग करके इसे तय किए हुए दूसरे खेत में इन्हीं जुझारू खेतिहरों को पुन: रोपाई भी करना होता है। देश में आप और हम,  भले कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक,  किसी कोने में देख लें महिला खेतिहर ही रोपाई का काम करते हुए नज़र आएँगी।

बस एक बात इस रोपाई के समय अच्छी कही जा सकती है कि रोपाई के काम को सामूहिक रूप से खेतिहर महिलाएं  संपन्न करती हैं।और इस कठिन काज को निपटाते हुए रोपनी करती महिलाएँ गीत भी गाते जाती हैं। इन श्रम-सुंदरियों के जितने तेजी-से हाथ चलते हैं उतना ही अद्भुत लय इनके गायन में भी होता है,  जिसके अनुगूँज को दूर-दूर तक प्रकृति में हम सुन सकते है,जिसके छंद कुछ इस प्रकार होते हैं-
हाथ के लेल गे रेशमा
बाँस के बहंगिया गे
चल गेल कोईरिया फुलवरिया
एक कोस गेलें गे रेशमा दुई कोस गेलें गे।
पहिन लेंले गे रेशमा
धानी रंग के चुनरिया गे
चल गेंले तू कोईरी फुलवरिया गे।

क्यारियों से गुजरते राहगीरों के कानों तक भी कई बार इनके समवेत स्वर में गाते हुए स्वर सूरज को भी चुनौती देते हुए-से लगते हैं,क्योंकि रोपाई का समय ही ऐसा होता है,  जब सूरज की किरणें हमारे सिर पर सीधी गिरती हैं -ऐसे में इनका गीत गाना जान पड़ता है कि प्रकृति भी इन्हें जादुई और करिश्माई व्यक्तित्व की स्वामिनी बनाने को आतुर है-

नींबू पतइया गिरी जाला अँगनवा,
कैसे बहारूँ गे?
मोरे अँगनवा ससुर जी के डेरा
लगल हे हमरा झँपोलवा बहिनियाँ
कैसे बहारूँ गे?
मोरे अँगनवा भैंसुर जी के डेरा
ठेंक जतई हमरा से देहिया बहिनियाँ
कैसे बहारूँ गे?
मोरे अँगनवा पिया जी के डेरा
जल्दी-से जयबयी बहारवई अँगनवा,
नींबू पतइया गिरी जाला अँगनवा,
कैसे बहारूँ गे?

रोपाई (धान की रोपाई) से लेकर फसल के घर आने तक महिलाएँ,  जो खेतिहर हैं,  उनका काम समाप्त नहीं होता है ।पाँव कई बार घंटों तक पानी में खड़े होने से फूल जाते हैं फिर भी अगले दिन ये  पुन: सूर्योदय के बाद क्यारियों पर एक रिद्म में निरपेक्ष भाव से अपने गंतव्य पहुँच ही जाती है। सावन-भादो महीने में धान की रोपाई शुरू हो जाती है पर कभी भी किसी पुरूष को धान की रोपाई करते नहीं देखा गया है। वज़ह शायद यह भी रहती होगी कि महिला कृषक ‘वेस्ट एट रिपेईंग’ भी होती हैं क्योंकि भारत की पुरूष प्रधान व्यवस्था का एक अकाट्य सत्य यही है कि महिलाओं की दिहाड़ी पुरूषों के वनिस्पत हरेक क्षेत्रों में,  जहाँ दिहाड़ी निर्धारित होती है, कम होती है।

चेहरे पर बगैर किसी शिकन के कड़ी धूप में प्रकृति,भूख,दैन्य और जिंदा रहने की जंग लड़ते हुए भी ये श्रमिक –महिलायें जिस तन्मयता से अपने काम करती है , बदले में शायद ही कभी सही पारिश्रमिक भी दिया गया हो इनके खेत-मालिकों के द्वारा। गाँठ और निशान पड़े हुए खुरदरे हाथों को जब ये शाम को अपने मालिकों के सामने फैलाती हैं, तो शायद ही वह दिन कभी आया हो,  जब इन्हें इनकी कमाई का हिस्सा, इनकी हथेली को देख किसी खेत-मालिक ने पसीजकर पूरा-पूरा दिया हो। एक ही कहानी जिंदगी की इन खेतिहर महिलाओं की समूचे भारत में होती है। सारी मलाई एक तरफ़ और सारे अभाव,रिरियाहट,वंचना और यातना-तकलीफ़ एक तरफ़। कई बार तो इन स्त्रियों को मज़दूरी के बदले उनके मालिकों से मिलती है केवल भद्दी-भद्दी गालियाँ और पुन: लाचार स्त्रियाँ नमी को समेटती हुई कुछ अपनी पलकों की कोरों में तो कुछ मटमैले,चिप्पे लगे हुए और पहले-से गीले साड़ियों की आँचल में ,अपनी मड़ैये की ओर वापस चल देती हैं।

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