अपना अध्यक्षीय भाषण देते हुए मैनेजर पांडे ने कहा, ” आपहुदरी एक दिलचस्प और दिलकस आत्मकथा है। आत्मकथा में पंजाबी भाषा का भरपूर प्रयोग किया गया है। यह एक स्त्री की आत्मकथा है। इसमें समय का इतिहास दर्ज है। इसमें विभाजन के समय दंगे दर्ज हैं। इसमें बिहार राजनेताओं के चेहरे के असलियत को दिखाती है। इसमें संवादधार्मिता और नाटकीयता दोनों है। इसमें पारदर्शी भाषा का भी प्रयोग किया गया है। यह आत्मकथा इसलिए भी विशिष्ट है कि रमणिका जी ने जैसा जीवन जीया जैसा महसूस किया है वैसा उन्होंने लिखा है। अमूमन जैसा हम सोचते हैं, जैसा महशूस करते है वैसा हम नहीं लिखते। इसमें स्त्री की गुलामी और यातना को बार-बार दर्ज किया गया है। इसमें लगभग हरेक जगह पर सामंतवाद पर चोट हैं। मैनेजर पांडे ने कहा कि मैं रमणिका गुप्ता की तीसरी आत्मकथा का इन्तजार कर रहा हूं जिसमें राजनेताओं के साथ-साथ साहित्यकारों के आचरण की कथा होगी।
कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर बोलते हुए लीलाधर मंडलोई ने कहा, एक पाठक के तौर पर मैं इस आत्मकथा को एक स्त्री की मुक्ति या आजादी के तौर पर नही देखता। यह स्त्री वैचारिकी भी नहीं है। आत्मकथा में अद्भूत अपूर्व स्मृतियां हैं। इस आत्मकथा के माध्यम से एक जिद्दी लड़की का निर्माण होता है। रमणिका गुप्ता ने इस आत्मकथा के माध्यम से अपने साहस की कथा कही है। आपहुदरी आत्मकथा के रूप में एक नया मोड़ भी है।
कार्यक्रम का विषय प्रवर्तन करते हुए अर्चना वर्मा ने कहा रमना आपबीती के इस बयान में ऐसा है क्या जो मुझ स्तब्ध कर रहा है-नैतिक निर्णयों को को इसका ठेंगा, इसका तथाकथित पारिवारिक पवित्रता के ढकोसलों का उद्दघाटन , इसकी बेबाकबयानी, इसकी निस्संकोच डिरता, सच बोलने का इसका आग्रह और साहस, अपने बचाव-पक्ष के प्रति इसकी लापरवाही, अपनी जिद को आखिरी हद तक ले जाने की हिम्मत, जिद को संकल्प में बदलने का इसका हौसला, निहायत निज अटकावों/भटकावों/विद्रोहों का बृहतर सामाजिक राजनीतिक लक्ष्य में बदलना। लेकिन वह सब आप सीधे ही किताब में पढें .
विशिष्ट वक्ता के तौर पर बोलते हुए प्रसिद्ध पत्रकार अनिल चमडि़या ने कहा ये एक रमणिका गुप्ता की कहानी नहीं बल्कि रोज-ब-रोज कई-कई रमणिकाओं की दांस्तान है। एक ऐसे ढांचे की क्रूरताओं की असलियत है, जिसमें हर तरह की गुलामियत अपना आधार बनाए हुए है। स्त्री जाति की मुक्ति की एक जिद्दी कार्यकर्ता, जितने खुले रूप में जो व्यक्त कर सकती है वो इसमें दर्ज है। हम जो शहरी और मध्यवर्गीय समाज निर्मित कर रहे हैं, उसके नीचे लाशें और चीखे़ं है-ग्रामीण सामंती ढांचे से भी क्रूर-हर जगह और हर कमरे में एक सामंती चेहरा उग आता है जहां एक लड़की तन्हा दिख जाती है वह भी कई नामों और रिश्तों की याद लेकर किसी संवेदनशील पाठक के लिए ऐसे रूक-रूक कर पढ़ना-पढ़ता है। कहानियों की दासतां विचलित कराती है।
स्त्रीकाल में रमणिका जी की आत्मकथा के अंश पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें :
1. आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा -पहली किस्त
2. आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा : दूसरी किस्त
3.आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा : तीसरी किस्त
4.आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा : चौथी क़िस्त
5.आपहुदरी : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा : आख़िरी किस्त
गीताश्री ने कहा मैं इसे साहसिक आत्मकथा ही कहूंगी , जहां कोई पहरेदारी नहीं है। जैसा जीवन जीया गया वैसा यहां लिख दिया गाय। कोई पाखंड नहीं। लेखिका ने स्पष्ट स्वीकार है कि असली मुक्ति स्वछंदता में है, स्वतंत्रता तो पाखंड है, नारा है, ओट है। उसमें पारदर्शिता नहीं है। मुक्ति भी सर्शत है।
अजय नावरिया ने कहा भारतीय परिवारों की ये संरचनाएं या प्रशिक्षण केन्द्र स्त्रियों के जीवन को तहस-नहस कर देते हैं। इन प्रशिक्षण केन्द्रों के नियमों और अनुशासन से जो स्त्रियां बगावत कर देती हैं वे आपहुदरी घोषित कर दी जाती हैं। हम ऐसी स्त्रियों को कलंकित करते हैं और सामाजिक स्थितियों को बेदाग और बेगुनाह मानकर छोड़ देते हैं, जो स्थितियां उन्हें ऐसा बनने पर मजबूर करती हैं।
‘आपहुदरी’ की लेखिका रमणिका गुप्ता ने कहा, आपहुदरी मेरे जन्म से लेकर धनबाद तक की कथा है। आपहुदरी की कथा यह है कि स्त्री को स्त्री के रूप में नहीं बल्कि व्यक्ति के रूप में देखा जाए। मुझे जब भी स्त्री बनाने की कोशिश की गई मैंने उसका विरोध किया और मैंने जीवन में जो कुछ भी किया एक स्त्री के रूप मं नहीं बल्कि एक व्यक्ति के रूप में किया। इसीलिए मैं कहना चाहूंगी कि मेरे विरोधियों ने ही मुझ ताकतवर बनाया।
कार्यक्रम का संचालन विवेक मिश्र ने किया। स्वागत भाषण सामयिक प्रकाशन के महेश भारद्वाज ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन सिसिल खाका (को-आर्डिनेटरः अखिल भारतीय साहित्यिक मंच) ने किया।
प्रस्तुति: पंकज चैधरी