सुजाता तेवतिया चोखेरवाली ब्लॉग का संचालन करती हैं और दिल्ली वि वि के श्यामलाल कॉलेज में पढ़ाती हैं . संपर्क : ई-मेल : sujatatewatia@gmail.com
नई सड़क – उस ब्लॉग का पता जिसे, हमने ‘क़स्बा’ नाम से जाना और जाना रवीश कुमार को एक ब्लॉगर की तरह पह्ले और फिर एक बेहतर पत्रकार और फिर एक सिलेब्रिटी (जो उन्होंने कभी खुद को नही माना ) की तरह बहुत बाद में। उनके ब्लॉग पर फोटोग्राफ्स देखे तो लगा यह शख्स जब देखता है तो अलग देखता है ,प्राइम टाइम पर सुना तो लगा अलग सोचता है और जब बोलता है तो अलग दिखता है, जब “इश्क़ में शहर होना” पढा तो लगा जब लिखा तो नई विधा ही खड़ी कर दी- लप्रेक! लघु प्रेम कथाएँ !
माइक्रोब्लॉगिंग कम्युनिटी के बीच जन्मी फेसबुक स्टेट्स सी इन कथाओं को पढते लगता है शहर को गांव की नज़र से देखना क्या होता है। शहर से प्यार करने के लिए शहर को शहर की तरह जानना पड़ता है और भटकना पड़ता है, जिसे शहर में शहर के लिए होना सीखना कहते हैं रवीश। जो शहर में गाँव तलाशता है वह हमेशा अजनबी रह जाता है। जहाँ प्रेम के लघु क्षण ट्रैफिक में शुरु होकर ट्रैफिक में गुम हो जाते हैं सच है कि शहरों ने, वह भी दिल्ली जैसे शहर ने इश्क़ के मायने बदले हैं , तरीके बदले हैं, पात्र, भाषा और सम्वाद भी बदले हैं। यहाँ खेत नही है गन्ने और मक्का के , न पनघट , न घर से मुश्किल से निकल पाने वाली लड़कियाँ ।सड़कें हैं, गार्डन, पार्क , मेट्रो ट्रेन के स्टेशन ,मेट्रो लाइन के खम्भे, फ्लाई ओवरों की छाया और मॉल की सीढियाँ और यहाँ प्रेम एक फुल टाइम काम नही है।‘करीम’ के यहाँ खाकर जामा मस्जिद की मीनार चढते हुए हाथ थाम लेने का रोमांच है। औरत का बदलना और गाँव की जगह शहर का स्पेस उन्हे बहुत मायनों में आज़ाद करता है। इश्क़ का सलीका बदल जाने में यह बात बड़ा रोल अदा करती है। लड़कियाँ अपेक्षाकृत आज़ाद हैं, पढने और नौकरी के निकलती है, अकेली भी रहती हैं, उनके हाथों में स्मार्ट फोन है ,करियरकी चिंता भी करती हैं , बहुत हद तक हमारी पीढी के मुकाबले उनके बैगेज बहुत कम हैं। फिर भी 360 गाँवो से घिरी दिल्ली के गाँवों की खाप से बचना मुश्किल काम है और ‘धौलाकुँआ पह्ले ही खतरनाक हो चुका है’। दिल्ली की ज्यॉग्रफी और दिल्ली की डेमोग्राफी उसे एक खास तरह की पह्चान देते हैं। जहाँ सड़के जितनी आज़ाद हैं उतनी ही खतरनाक भी। बाहर से देखने में लगता ही है कि शहर फुलटाइम प्रेम के मौके बहुत कम देता है। समय पर अपने गंतव्य पर पहुंचना शहर में एक चुनौती है। लम्बे जाम और शोर भी प्रेमियो के लिए मौका बन जाते हैं और ऑटो प्यार के इज़हार के लिए एकांत दे देते है या कार के अंदर प्रेमियो के लिए झगड़े का टाइम भी निकल आता है। जहाँ ‘प्रेम के फ्लाईओवर से उतरते ही जाम मे फंसने का भय हो’ वहाँ प्रेम एक फुलटाइम काम हो भी कैसे सकता है। इन कथाओं में टिपिकल प्रेमी जोड़े नही हैं , वे रूमानी हैं ,फिर भी एक हद तक व्याव्हारिक हैं।
“जंतर मंतर पर नारे लगाते हुए दोनों करीब होने लगे। लगा कि प्रेम को ज़िंदगी का मक़सद मिल गया।अपने माँ –बाप के आतंक से त्रस्त दोनों झूमने लगे। तीन दिनों बाद जब उस भीड़ में अपने मिडील क्लास माँ-बाप को देखा तो दोनो भाग लिए। वह अब अन्ना को गरियाने लगी। इण्डिया गेट पर आईसक्रीम खाते ही कंट्री चेंज करने का फितूर जल्दी घर पहुँचने की रणनीति में बदल गया। “
सभी लप्रेक भाषा के दृष्टि से बहुत रोचक हैं। टेक्नॉलजी और भाषा का यह निराला मेल है। प्रेम करने वाली इस नई किस्म की पीढी के लिए फेसबुक एक अड्डा है। वैसे भी प्रेम करने वालों को किसी तरह एक दीवार की ओट मिल ही जाती है । यहाँ ‘जस्ट फ्रेंडशिप’ है ।कहीं उपमाएँ एकदम शहरी हो गई है – “ मैं आज स्मालटाउन सा फील कर रहा हूँ
और मैं मेट्रो सी “
तो अक्सर एक काव्यात्मक लय है वाक्यों में –“चार कदमों से दो लोग आगे बढते जा रहे है। दो हाथ बंधे हैं और दो हाथ खुले ।पांव के नीचे की सड़क चल रही है और आसमान गुज़र रहा है।“ और इसमें अचानक से फ्रूटी के टेट्रा पैक का धप्प से आ गिरना मानो नींद तोड़ देता है। या “जान पह्चान की जगह से अनजान जगहों में जाना ही इश्क़ में शहर होना है” प्रेम का एक अपना कोना तलाशते शहरी प्रेमियों के लिए बहुत बडा संकट है। हर जगह सी सी टी वी कैमरे हैं …लोगों की निगाहें ऐसी के उनके कोने को भी चौराहे में तब्दील कर दें।इसलिए प्यार के मुहावरे भी बदलते हुए दिखते हैं- “नाटक के इस अंत से कॉलेज में हंगामा हो गया। हंगामे के बहाने दोनों पर्दे के पीछे चले गए और लिपट गए। चूमने के लिए हंगामे से बेहतर कोई वक़्त नही होता…” या “ऑटो शोर नहीं करता तो भीतर का एकांत महफूज़ न होता” यह शहरी ही जानता है बल्कि शहरी प्रेमी कि ऑटो भी उसे कितना स्पेस देता है। बस में सबसे पीछे की सीट मिल जाना भी इनके लिए नेमत है और लड़की कहती है कम से कम बैग के नीचे से हाथ तो थामे रह सकते थे। बुज़दिल ! हिंदी मीडियम के राजकुमारों की त्रासदी यही होती है कि वे इंग्लिश मीडियम की राजकुमारी के साथ सहज नही हो पाते और कोई प्रेमचंद को पढने वाली ढूंढनी पड़ती है। एक एक्स्ट्रा मोमो खिलाने वाली नोर्थईस्ट की लडकी को नोर्थ इण्डिया के लड़के का एक दिन भावुक होकर ठेकुआ देना प्रेम कहानी का अंत कर देता है। ये शहर के अलबम की प्रेम के कैमरे से खिंची अलग अलग तस्वीरें हैं।
‘हर आदमी मे होते हैं दस बीस आदमी ‘ ऐसे ही एक शहर में कई शहर बसते हैं उसे देखना होताहै कई कई बार। शहर का टाइम और स्पेस भी वर्गीय आधारों पर बंट जाता है। उन सबके बीच जिनका सपना है जोर बाग में घर होना,या साउथ दिल्ली में बसना , औकात की लड़ाई का हथियार अंग्रेज़ी को बना लेना , या ब्रांडेड टीशर्ट और जींस खरीद कर खुश होने वाले या जो बस मे बैठ कर स्कॉडा का सपना देख रहे हैं सोचते हुए कि “कुछ तो ड्रीम कर यारss …” वहाँ शहर में प्रेम का वर्गीय चरित्र उभरता है। प्रेम कुछेक प्रतीकों में परिभाषित होकर रह जाता है। आप ढिन चैक म्यूज़िक वाली कार मे हाईवे पर उड़ेंगे या 620 नम्बर की बस में, जो सीधी चलती है तो भी ऐसे लहराती है मानो कोई मोड़ मुड़ रही हो, और प्रेमी पीछे की सीट पर कंधों से कंधों के टकराने में खुश हो लेंगे।
प्रेम कहाँ पोलिटिक्स से भी एकदम परे है ! इसी दुनिया की चीज़ है प्रेम और इसी दुनिया के आर्थिक संबंधों , राजनीति और जातीय समीकरणों से प्रभावित भी होती है। एक प्रेमिका पूछती है – कितना पोलिटिक्स पॉलिटिक्स करते हो , हम प्रेम में हैं या पॉलिटिक्स में? तो एक अन्य कथा में प्रेमिका सियासत और इश्क़ के इम्तिहान में सियासत को चुन लेती है बावजूद इसके कि –क्या चाहती हूँ ?प्यार या पॉलिटिक्स ? की दुविधा में वह फंसी ही दिखती है। वहीं एक युगल अम्बेडकर की किताब के साथ एक जातिविहीन समाज का स्वप्न देखता है। जहाँ इतनी खाप हैं कि जामुन भी गिरता है तो प्रेमियों को लगता है गोली चली है वहाँ आम्बेडकर की किताब से, डेमोक्रेसी से इन्हें उम्मीद है कि इनके स्वप्न पूरे होंगे।
“यह नीले कोटवाला किताब को छाती से लगाए क्यों खड़ा है? इश्क़ के लाजवाब क्षणों में ऐसे सवालों में उलझ जाना उसकी फितरत रही है। इसलिए वह चुप रहा। उसके बालों में उंगलियों को उलझाने लगा।बेचैन होती साँसें जातिविहीन समाज बनाने की अम्बेडकर की बातों से गुज़रने लगीन – देखना यही किताब हमें हमेशा के लिए मिला देगी। ”
जो दिल्ली इन लघु प्रेम कथाओं में बन रही है वह एक बारगी दही चूड़ा खाने वाले को डराती हैरान ज़रूर करती है। इससे उबरने के लिए ज़रूरी है वह करना जो रवीश ने किया है – भटकना ! भजनपुरा में फैक्टरी में ब्रा बनते हुए देखने से लेकर कनॉट प्लेस के चायनीज़ रेस्त्राँ में बैठने तक। वे लिखते हैं- “किशोर उम्र के बहुत से लोग कपड़े में जिस्म देखा करते थे। कपड़े को कपड़ा समझने के लिए उसका बनते देखना ज़रूरी है।”
यह दिल्ली इतिहासकारों की दिल्ली नही है, कवि की भी नही। यह शहर के स्पेस में अपना स्पेस रचते लोगों की है। ‘चीड़ों पर चांदनी ‘में निर्मल वर्मा ने लिखा था – हर शहर का अपना आत्मसम्मान होता है। आप उसे यू ही छूकर गुज़रना चाहोगे तो वह कभी नही अपनाएगा। उसके करीब जाकर उसे प्यार करना होता है। यह इश्क़ में शहर हो जाना ही तो है कि लेखक जब देखता है शहर तो फेसबुक भी एक शहर हो जाता है और प्रेम के लिए दिल्ली में स्पेस ढूँढते लोगों बीच उन्हीं के शहर को खोजता है और ऐसे बन गया है शहर एक किताब ।
खुद रवीश के शब्दों में -यह दो लोगों की किताब है । विक्रम नायक ,चित्रकार और कार्टूनिस्ट ,ने रवीश के साथ साथ अपनी पेंसिल से अपना शहर चित्रित किया है।किताब के बनने से पहले दोनो के बीच कोई मुलाकात नही हुई और शहर को न सिर्फ शब्दों मे बल्कि रेखाओं मे भी पढा जा सकता है।विक्रम का काम बेहद अर्थपूर्ण बना देता है इन लघु प्रेम कथाओं को। सच है विक्रम के काम के बिना किताब वह नही हो पाती जो वह अब है।यहाँ तकनीक भी है, भाषा भी, शहर भी है और कला भी। प्रिंट में आना लप्रेक जैसी विधा के लिए गौण है। वे फेसबुक स्टेट्स के रूप में भी पूर्ण विधा हैं।