त्योहारों का सांस्कृतिक महत्व है. वे भाईचारे, प्रेम व एकता के प्रतीक माने जाते हैं. इनमें से कई सिन्धु घाटी की सभ्यता के काल के, बौद्धकालीन व अब्राह्मण परंपरायें हैं. इन त्योहारों में हम प्रकृति, पशुओं, वृक्ष आदि के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। लेकिन आर्यों व ब्राह्मणों ने इन त्योहारों पर वैदिकता थोप दी. इतिहास में जाकर खोज की जाए तो उसके अवशेष हमें मिलते हैं, जो धीरे-धीरे ब्राह्मण अपसंस्कृति के शिकार हुए. इस लेख में हम दोनों तरह से तीन त्योहारों की चर्चा कर रहे हैं, उनकी जो बहुजनों के त्योहार हैं और उनकी भी जो बहुजनों के खिलाफ मनाये जाते हैं. उनसे जुडी मान्यताओं के बहुजन पाठ भी शामिल किये गये हैं.
नागपंचमी : सावन महीने में आनेवाला नागपंचमी सापों, नागों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का त्योहार है इसलिए उस दिन कागज पर नाग की प्रतिमा बनाकर उसे पूजा जाता है और सपेरे नागों का खेल दिखाते है, उन्हे दूध पिलाते हैं. नाग नाम की असुर परंपरा भी है. यह त्योहार भी उनका है. इसमें हम पांच नाग के चित्र बनाते हैं. नाग ‘टोटेम’ रखनेवाले पांच पराक्रमी नाग राजाओं से संबंधित चलन है यह। उनकी गणतांत्रिक राज्यव्यवस्था थी। अनंत नामक सबसे बड़े नाग राजा का राज्य कश्मीर में था, अनंतनाग नामक शहर उनकी याद दिलाता है। दूसरा, वासुधी नामक नागराजा कैलाश मानसरोवर क्षेत्र का प्रमुख था. तीसरा नाग राजा तक्षक था, जिसकी स्मृति में (पाकिस्तान में) तक्षशिला है। चौथा था नागराज करकोटक और पाचवाँ ऐरावत, जो रावी नदी के किनारे का राजा था. इन पाँच नाग राज्यों के गणराज्य एक दूसरे के पडोस मे थे। इनकी याद में यह उत्सव है. यज्ञवादी लेखकों ने इसे बदलकर सिर्फ साॅंपो की पूजा का त्यौहार बना दिया।
रक्षाबंधन: रक्षाबंधन वैदिक संस्कृति और ब्राह्मणों का त्यौहार है। पौराणिक काल में ब्राह्मण , क्षत्रियों को नीले रंग का धागा बांधते थे और ब्राह्मणों की रक्षा का उनसे वचन लेते थे।
येन बद्धो बळी राजा,
दान्वेंद्र्म महाबली,
तेन त्वां अहम बद्धामि ,
माचल, माचल माचल …!
बहुजनों के राजा बली का अपमान है यह, जो कहता है कि जिस प्रकार बली राजा को बांधा गया, वैसे ही तुम्हें बाँध रहे हैं. यह कब भाई -बहन का त्योहार बना, इसका कोई पता नहीं है. सन १९६० के दशक में एक फिल्म आयी थी, शायद इसका श्रेय उस सिनेमा को जाता है.
दशहरा: ईसा पूर्व 150 से 100 के कालखंड में रामायण की रचना बताई जाती है। इसकी रचना मौर्य राजघराने की क्रांति के विरोध में प्रतिक्रान्ति का प्रयत्न है. मौर्य वंश में चंद्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक, कुणाल, सम्प्रति दशरथ, शाली थूक, देववर्म, शातधना, बृहद्रथ आदि कुल 10 सम्राटो ने बहुजनों की कल्याणकारी राजव्यवस्था चलायी. पुष्यमित्र शुंग नामक कपटी ब्राह्मण सेनापति ने मौर्य राजघराने के सम्राट बृहद्रथ की ईसा पूर्व 185 में ह्त्या कर दी. दस मुंह का आदमी – रावण, इन दस मौर्य बौद्धवादी राजाओं का प्रतीक है। दशहरा मतलब दस मुख वाला, हरा मतलब हारा हुआ. इस प्रकार मौर्य साम्राज्य को नष्ट करने वाले पुष्यमित्र शुंग को राम का किरदार बनाया गया और दशमुखी रावण मतलब इन 10 राजाओं को जलाने की प्रतीकात्मकता खड़ी की गई.
दूसरी ओर आदिवासी समाज में रावण को नायक माना गया है। रायपुर (छत्तीसगढ़), असम के मेलघाट में रावण को गोंड राजा मानकर प्रेरणादायी समझा जाता है। इस पर्व से जुडी विचित्र मान्यतायें भी बहुजनों के विरोध में बनी हैं, जैसे दशहरा में दशमी के दिन सीमा पार नहीं जाने की मान्यता. दरअसलए मौर्य राजाओं ने ब्राह्मणों के सीमा-उल्लंघन निषेध को न मानते हुए बौद्ध धर्म का प्रचार समुद्र के पार तक किया और दशहरा उनकी पराजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है, इसलिए दशमी के दिन सीमा उल्लंघन निषिद्ध किया गया है.
आज इस मौके पर ‘सेना’ लूटा जाता है। शमी या आपटा नामक वृक्ष की पत्तियाँ प्रतीकत्मक रूप से सोना समझकर एक-दूसरे को दी जाती हैं. यह वृक्ष औषधि युक्त है। बहुत से रोगों में यह वृक्ष उपयोगी है। अथर्ववेद (7.11.1) में इसके बारे में लिखा गया है कि ‘वैदिक यज्ञ में मंथन करके इससे अग्नि उत्पन्न की जाती थी।’लेकिन दशहरे के दिन इस की सारी पत्तियाँ तोड कर पर्यावरण को हानि पहुचाई जाती हैं.
महात्मा जोतिबा फुल नेे, ‘गुलामगिरी’ में इसके बारे में लिखा है। बली को वामन ने (वैदिक ब्राम्हण) ने युद्ध में हरा डाला. इससे वामन मदमस्त हो गया. फिर बळी की मुख्य राजधानी में कोई भी पुरुष बचा नहीं. यह देखकर आश्विन शुक्ल दशमी के दिन प्रातःकाल में शहर में घुस कर सब के घरों का सोना लूट लिया गया. इसे शिलंगणा का सोना लुटना’ कहा गया। जब वह शहर में आया, तो जो एक महिला ने आटे से बनाया हुआ एक बलीराजा दरवाजे के चैखट पर रख दिया और बोली कि ‘देखो हमारा पराक्रमी बलीराजा फिर से आपसे युद्ध करने आ गया है.’ तो उसे पैर से लात मार कर वामन उसके घर में घुस आया. तभी से आज तक ब्राह्मणों के घरों में आटे का या चावल का बळी बनाकर उसपर दायां पैर रखकर शमी के वृक्ष की टहनी से उसका पेट काटते हैं । फिर घर में घुसते है।
बहुजन महिलायें बळीराजा बनाकर ‘ईडा पिडा यानी द्विजों का (ब्राह्मणो का)) अधिकार जाये और बळी का राज आये का आवाहन करती हैं. ‘इडा पिडा टले जाऐ और बळी राज आवे’ बोला जाता है.
फॉरवर्ड प्रेस से साभार
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