कथाकार , कवि और आलोचक पूनम सिंह की कहानी , कविता और आलोचाना की कई किताबें प्रकाशित हैं . सम्पर्क : मो॰ 9431281949
‘सबलोग’ के संपादक किशन कालजयी ने अपनी पत्रिका में नियमित कॉलम के रूप में ‘ स्त्रीकाल ‘ को आमंत्रित कर हमारे साथ साझा पहल की शुरुआत की है. स्त्रीकाल, प्रिंट और ऑनलाइन, की ही तरह हम सबलोग के कालम में लेखिकाओं/ लेखकों की स्त्रीवादी रचनाओं को प्रकाशित करेंगे. ‘सबलोग ‘ , में स्त्रीकाल नामक इस कॉलम की शुरुआत करते हुए मैं एक विश्वास से भरा हूँ कि इसके पाठकों को इस कॉलम में हम स्त्री –लेखन के विविध आयामों से तो परिचित करवा पायेंगे ही साथ ही इसे स्त्रीवादी मुद्दों का एक सहज मंच भी बना पायेंगे. पिछले कई वर्षों से मेरे साथ एक संवेदनशील टीम स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच , नामक पत्रिका प्रकाशित करती रही है, जिसका नियमित प्रकाशन के साथ ऑनलाइन स्वरूप भी एक हस्तक्षेप की तरह समादृत है- स्त्रीकाल स्त्रीवादी मुद्दों और लेखन का विश्वसनीय मंच है. सबलोग में स्त्रीकाल कॉलम के तहत प्रकाशित रचनाएं/ लेख ऑनलाइन स्त्रीकाल में भी प्रकाशित होंगे . शुरुआत लोकगीतों की स्त्रीवादी व्याख्या के साथ पूनम सिंह के आलेख से. स्त्रियों की प्रारम्भिक अभिव्यक्ति के दस्तावेज रहे हैं लोक गीत / लोक-आख्यान .
लोकगीत की परम्परा हमारे देश में बहुत पुरानी है। लोकगीत लोकजीवन के अन्तस से उपजते हैं । वे किसी एक कंठ से निःसृत नहीं होते , वरन असंख्य कंठ उन्हें एक साथ असंख्य जगहों पर गाते हैं इसलिए लोकगीतों की व्यापकता निस्सीम है । लोककंठ से निःसृत ये गीत मूल रूप से मौखिक या श्रुति परम्परा का परिमार्जित और विकसित रूप हैं लेकिन ये गीत केवल ग्राम्यजीवन और आदिवासियों तक ही प्रचलित नहीं हैं, वरन नगरों के सुसंस्कृत समुदायों में भी इसका प्रचलन और महत्व है । ये गीत अनेक छोटे बड़े लौकिक विधानों और अनुष्ठानों पर आधारित होते हैं और लोक आस्थाओं को उसी प्रकार संपादित करते हैं जैसे द्विज परम्परा के शास्त्रीय विधानों को मंत्र ।
लोकगीतों की परम्परा वैदिक काल से ही मिलती है । प्राचीन वैदिक साहित्य में जिन गाथाओं का उल्लेख बार बार मिलता है , वे लोकगीत की पूर्वपीठिका है । ‘गाथा’ शब्द का अर्थ है पद्य या गीत और इसे गाने वालों के लिए ‘गाथिन’ शब्द का उल्लेख कई बार ऋग्वेद में किया गया है । ‘गाथिन’ शब्द से लोकगीतों की उस मौखिक और श्रुति परम्परा का बोध होता है जो असंस्कृत समुदायों द्वारा शुरू हुई और कलान्तर में जिसे सभ्य जातियों ने आत्मसात करके अपने पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक अनुष्ठानों का एक अनिवार्य अंग बना लिया ।
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ब्राहमण ग्रंथों के अनुशीलन से पता चलता है कि गाथाएँ ऋक , यज और साम से पृथक होती थी अर्थात गाथाओं का व्यवहार मंत्र रूप में नहीं किया जाता था । ये किसी विशिष्ट व्यक्ति के अवदान या पराक्रम को लक्षित करते हुए गीत रूप में गाये जाते थे । ये गाथाएँ महाभारत काल और रामायण काल में भी अक्षुण्ण दीख पड़ती हैं । राजसूय यज्ञ और विवाह के अवसर पर ये गाथाएँ गाने का विधान -मैत्रायणी संहिता’ में भी उपलब्ध है । संस्कृत ग्रंथों में भी गंधर्वों तथा यक्षों द्वारा लोकगीतों , लोकनृत्यों को दर्शाया गया है ।
गौतम बुद्ध के पूर्व जीवन से सम्बद्ध जो कथाएँ ‘जातक’ नाम से जानी गईं वे भी गाथाओं के ही गेय रूप का विस्तार है । आदिकवि वाल्मीकि ने रामायण में राम जन्म के समय तथा व्यास ने श्रीमदभागवत में कृष्ण जन्म के समय गंधर्वों द्वारा मंगलगीत गाने का उल्लेख किया है । प्राकृत भाषा में संग्रहित ‘गाथा सप्तशती’ के 700 गीतों अथवा अपभ्रंश काल के ‘भविस्स्थकहा’ में भी ऐसी अनेक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं , जिससे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन गथाओं का लोकगीतों की एक बड़ी जमीन तैयार करने में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है , साथ ही इससे यह भी उद्घाटित होता है कि इस जमीन का उर्वर बीज श्रमण लोककंठ से ही निःसृत हुआ था । बारहवीं शताब्दी की प्रसिद्ध कवयित्री बिज्जिका ने धान कुटने वाली स्त्रियों के द्वारा गीत गाने का जो वर्णन किया है , उसकी पृष्ठभूमि श्रमण परम्परा से ही जुड़ी हुई है ।
भारतीय समाज के लोकविश्वासों और लोकसंस्कृति में कोल , भील , किरात , किन्नर , यक्ष , गंधर्व , नाग ,शक , हूण ,द्रविण , आर्य आदि अनेक जातियों की संस्कृति का समावेश है । लोकगीत में लोकधर्म को विस्तार देने का काम सिद्धों , नाथों , संतों की परम्परा ने भी किया है । सिद्धों , नाथों , संतों की परम्परा में श्रमण समुदाय की संख्या सबसे अधिक है , जिन्होंने अपनी रचनाओं में शास्त्र सम्मत द्विज धर्म को नकार कर लोक धर्म को परिभाषित करने का काम किया जो कलान्तर में भारतीय लोकगीतों की अनुष्ठानिक स्वीकृति का
आधार बना ।
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श्रमण परम्परा की पृष्ठभूमि के कारण ही लोकगीतों की आनुष्ठानिक पद्यति में देवता का आह्वान भी है और जादू टोना का विधान भी । वहाँ देवलोक और पितरलोक के साथ धरती-प्रकृति , सूरज-चाँद ,
चिडि़या-चुनमुन , नदी-पहाड़ , भूत-भैरव सभी पूजनीय हैं । लोककंठ से निःसृत इस आदिम राग में जीवन और जगत का समग्र समाया हुआ है । लोकगीतों में क्रियाशील जीवन का उल्लास भरा स्वर होता है । उत्पादन में जुटे स्त्री पुरूष इन गीतों के किरदार होते हैं । इन गीतों का सामाजिक यथार्थ , जीवन संघर्ष और वर्ग चेतना यह दर्शाता है कि लोक संस्कृति का विकास उत्पादक वर्ग ही करता है । उपभोक्ता समाज उसका परिष्कार करता है । हमारे लोकगीतों की परम्परा उसी उत्पादक वर्ग से जुड़ी हुई है जो गीतों में श्रम सौंदर्य का नया प्रतिमान गढ़ते हैं और अपना सत्व उपभोक्ता को हस्तांतरित कर देते हैं ।
क्रियागीतों में भारत का वह वर्ग विभाजन भी स्पष्ट दिखाई देता है जो शुरूआती दौर में श्रम विभाजन था । ये क्रियागीत जाति विशेष के श्रम को रूपायित करते हैं । जतसार , रोपनी ,सोहनी ,और कोल्हू आदि के गीत भारतीय वर्ण व्यवस्था के सामाजिक अध्ययन का एक बड़ा आधार है । आल्हा , विजय मल्ल जो तेली समुदाय का गीत है इसमें संगीत के साथ कथा का भी एक बड़ा फलक है । आल्हा वीर रस की भंगिमा में जाति विशेष के द्वारा गले में ढोल बाँध कर ऊँचे स्वर में गाया जाता है । धोबी भी घाट पर कपड़ा धोते हुए एक विशेष प्रकार के गीत गाते हैं जिसे ‘धोबियट’ कहा जाता है ।
गाँव में दुसाध जाति के लोग ‘पचरा’ गाते हैं । यह ‘पचरा’ तंत्र मंत्र सिद्ध गीत है जो गाँव में भूत प्रेत , डाक डाकिन से पीडि़त व्यक्तियों को स्वस्थ करने हेतु गाया जाता है । इक्कीसवीं सदी में भी सुदूर देहातों में इसका प्रचलन लोकआस्था का विस्मयकारी दृष्टांत है । नेटुआ जनजाति के द्वारा ‘लोरकी’ गाया जाता है , जिसमें गेयता के साथ जनजाति से जुड़ा कथानक भी होता है ।
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भोजपुरी क्षेत्र में आज भी कहीं कहीं गोपीचंद और भरथरी के गीत सुनाई पड़ते हैं । इन गीतों को श्रमण समुदाय के लोग ही अधिक गाते हैं । यह उनकी जीविका का आधार है । इसी तरह कहार जाति ‘कहरवा’ गाते हैं जो संगीत का एक अति विशिष्ट राग है । कहा जा सकता है कि यह बहुजन श्रमण परम्परा का अभिजनवादी रूपांतरण है । इसी तरह का एक उदाहरण उत्तराखण्ड में भी देखा जा सकता है । वहाँ भी हरिजनों की बेड़ा या वाद्यी जाति गीत रचती और गाती है । लेकिन ये गीत विशेष समुदाय द्वारा रचित होकर भी समस्त लोक के होते हैं इसलिए इन्हें जाति का गीत कहना उचित नहीं है
लोकगीत जनपदीय संस्कृति की साझी विरासत है । ये गीत विषय की दृष्टि से विपुल हैं । जन्म से जीवनक्रम तक इसका प्रवाह अक्षुण्ण है । भदेसपन इन गीतों का अप्रतिम सौंदर्य है । सोहर , झुम्मर , चैती , बरहमासा जैसे गीतों में भदेसपन का यह सौंदर्य विविध रूपों में दिखाई देता है । ‘सोहर’ जनपदीय संस्कृति की जीवंत और प्राणवंत संवेदना से सिक्त गीत है । सोहर में ललना होरिलवा जैसे शब्द वात्सल्य के सुन्दर और सजीव बोल हैं । मैथिली के एक सोहर में प्रसवपीड़ा से तड़पती स्त्री परदेसी पिया को संदेश भेजने को व्याकुल है –
‘‘तलफी तलफी उठय जियरा कौना विधि बोधव हे
ललना हमरो बलमु परदेस संदेश न पावल हे ’’
सुसंस्कृत समुदाय में भी सोहर का प्रचलन और महत्व है । भोजपुरी सोहर में ननद और भावज के बीच प्रेम प्रतिदान का अंदाज ही निराला है –
‘‘जाहु तोरा ए भउजी होरिला होइले /तबे आइब तोरा अंगनवा
नथुनी भी लेबो / झुलनी भी लेबो / लेबो जड़ाऊ कंगनवा’’
इस गीत में गहरी भावप्रवनता और सरसता है ।
बुन्देलखण्ड के एक सोहर में भावज के घर ननद चगैंरी लेकर आती है तो भावज उलाहना देती हंई कहती है –
‘‘ननद विरहुलिया झंगुलिया न ल्याई / टोपी न ल्याई / कतैया न ल्याई / पै दरजी को यार संगइ लैके आई / — अलना न ल्याई / पलना न ल्याई / बढ़ई को यार संगइ लैके आई / ननद विरहुलिया — ’’
ननद भाभी का यह हास परिहास भदेस भाषा के विन्यास में रिश्तों को एक अपूर्व माधुर्य से भर देता है ।
जनपदीय संस्कृति में ‘सोहर’ के साथ ‘सउरी’ का भी उल्लेख होता है । सूतिकागृह को सउरी कहा जाता है , जहाँ कई तरह की वर्जनाएं हैं । सउरी के दरवाजे पर बोरसी में निरन्तर आग सुलगती रहती है , जिसमें अनिष्टकारी परछाईयों को राई मिर्चा से निहुंच कर जला दिया जाता है । सउरी से छः दिन या बारह दिन के नहान के बाद ही प्रसुति घर से बाहर निकलती है । नहान की यह विधि बहुजन से अभिजन तक बिहार , उत्तर प्रदेश , राजस्थान , बुन्देलखण्ड आदि कई जगहों पर अभी भी प्रचलन में है।
बुन्देलखण्ड के एक सोहर में प्रसूता नहान की एक बड़ी मनोरम झाँकी है । प्रसूत महिला कुँए की पूजा करके और जल भर के सहेलियों के साथ बच्चे को गोद में लिए घर के दरवाजे पर आकर कहती है –
‘‘हम पैंरे मूंगन की माला / हमरी कोउ गगरी उतारो / कहाँ गए मोरे सइयाँ गुसईंयाँ / कहाँ गये वारे लाला / एक हात मोरी गगरी उतारो / दूजे से ललना संभारो / हमारी कोऊ —–’’
‘सोहर’ में एक ओर मन का उल्लास होता है तो दूसरी ओर कहीं लिंगभेद का त्रास भी । एक गीत में इसे इस रूप में दर्शाया गया है –
‘‘जाहु हम जनितीं धियवा कोखी रे जनमिहें / पितिहों में मरिच झराई रे /
मरिच के झाके झुके धियवा मरि रे जाइति / छुटि जाइये गरूवा संताप रे ’’
गर्भ में ही मादा भ्रण हत्या की यह मंशा प्राचीन काल से आज तक मातृत्व को जहाँ कठघरे में खड़ा करती है वहीं समाज में स्त्री की दोयम दर्जे की नागरिकता को भी जन्म से ही परिभाषित करती है । लोकगीत में लिंगभेद के कई ऐसे उद्धरण हैं जिनका समाजशास्त्रीय अध्ययन स्त्री अस्मिता के बड़े प्रश्न से जुड़ा है । पराया धन कही जाने वाली बेटियाँ जन्म से ही लिंगभेद की त्रासदी को झेलती हैं । एक गीत में बेटी और बाबा के इस संवाद को गौर करें —
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‘‘बाबा हो कौने नगरिया जुअवा खेल अइलऽ / हमरो के हार अइले हो /
बेटी गे ओहिरे नगरिया जुअवा खेल अइलीं / तोरो के हार अइलीं हो /
बाबा हो बेटवा के दाँव न लगइलऽ / हमरो के काहे हार अइल हो /
बेटी गे बेटवा त कुल के तारण / तू त अनकर धन हो /’’
बेटी की विदाई में मिथिला में जो गीत गाया जाता है उसे समदाऊनी कहा जाता है जिसकी पीर असहनीय होती है –
‘‘गैया जे हुंकरय दुहान के वेर / बेटी के माय हुंकरय रसोइया केर वेर /
धियिवा के कनइत में गंगा बढि़ गेल / दमदा के हंसइत में चादरि उडि़ गेल’’
ग्रामगंधी चेतना ने लोकगीतों की संवेदना को एक उदात्त भूमि दी है । लोक जीवन में त्योहारों का विशेष महत्व होता है और भारतीय पर्व त्योहार ऋतु विशेष से संबंधित होते हैं । माघ पंचमी मे ंहरी भरी कृषि संपदा को बाँटने का एक प्रसंग गढ़वाली लोकगीत में इस प्रकार है –
‘‘आई पंचमी मऊ की , बाँटी हरियाली जऊ की ’’
कृषि संस्कृति का यह सौहार्द बिहार के लोकगीतों में चैता बरहमासा के रूप में झंकृत होता है । चैता का एक कसक भरा स्वर पति पत्नी के दाम्पत्य को प्रेम के एक प्रगाढ़ रंग में रंग जाता है –
‘‘सठिया कुटिय भात रिन्हितों / मुंगिय दरी दलिया हो राम /
ओहो रामा , मोरे प्रभु अइतें जेवनमां /नयन भरी देखितों हो राम ’’
धान कूट कर भात दाल बनाने और सामने बिठाकर पिया को खिलाने की यह तमन्ना कभी पूरी नहीं होती क्योंकि पिया पैसे कमाने परदेस गया है । जीवनोपार्जन की खातिर पति पत्नी का यह विछोह बरहमासा की दो पंकितयों में द्रष्टव्य है –
‘‘एके मुट्टी चनवां बरस दिन खनवां / दुबर भैले ना / मोर पिया परदेशिया दुबर भइले ना ’’
लोकगीतों में स्त्री मन के बहुत सारे गवाक्ष खुलते हैं । वहाँ प्रेमी के लिए पागल हुआ स्त्री मन पोथी पतरा , बाभन कागा सबको नकारता है –
‘‘झूठो भइले सधुआ ,झूठ वियफइया / झूठे भइले कगवा के बोल /
झूठ भइले बभना के पतरा ओ पोथिया / कि सैया नाहीं अइलै मोर ’’
इन गीतों में अभिवंचित समुदाय की अभावग्रस्तता प्रेम की एकरूपता में एकाकार होकर जीवनधर्मी आवेग के साथ प्रकट होती है । वहाँ अनगढ़ भाषा हृदय की तरह स्पंदित होती है । एक पूर्वी गीत में विछोह का दर्द आसक्ति भरे जुड़ाव में कैसे व्यक्त होता है , इसे सुनिए –
उड़ल उड़ल सुगा गइले कलकतवा / कि जाइके बइठेना , मोर सामी जी के पगिया /
कि जाइके बइठे ना /पगड़ी उतारि सामी जांघ बइठइले /
कि कह सुगा ना , मोरे घर के कुसलिया / कि कह सुगा ना — ’’
देश का सुग्गा परदेशी पिया के पास प्रणय दूत बनकर जाता है और उस दूत पर जिस तरह परदेशी बालम अपना प्यार लुटाता है , वह प्रेम के एक गहरे अविच्छन्न संबंध सूत्र से जुड़े होने का प्रमाण है । लोकगीतों में साधारण जन के सुख दुःख समाहित होते हैं इसलिए उसमें एक तरलता और प्रवाह मौजूद होता है ।
लोकगीत समष्टि की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की एक जीवंत विद्या है । संस्कृति विकसित होती है इसलिए लोकगीत भी परिवर्तित संदर्भ में नया अभिप्राय अर्जित करता है । कालगत अनुकूलन के कारण ही लोकगीतों में धार्मिक , सांस्कृतिक आस्था के अतिरिक्त राष्ट्रीय चेतना की भी एक सुदृढ़ परम्परा रही है । आल्हा , विजयमल के गीत से लेकर गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन तक उसे देखा जा सकता है । भोजपुरी के एक बिरहा में अंग्रेजी शासन को ललकारा गया है –
‘‘गांधी के लड़इया नाहीं जितबे फिरंगिया / चाहे करू केतनो उपाय
भलभल मजवा उड़ौले एहि देसवा में / अब जइहे कोठिया बिकाय’’
इस तरह लोकगीत अनुभवी तथ्यों से जुड़कर संस्कृति का विकास करते हैं । उसमें लोकजीवन का एक सघन और उर्वर अरण्य लहलहाता है जहाँ से हमारी आदिम सभ्यता और जातीय संस्कृति की जड़ों की खोज शुरू होती है । लोकगीत लोकसंस्कृति के सौंदर्य और श्रमण परम्परा की अदम्य जिजीविषा का अख्यान है ।