देवेश ने हबीब जालिब की प्रसिद्द नज़्म “मैं नहीं मानता” के पाठ से शुरुआत की तो अशोक ने अहमद फराज़ की नज़्म “तुम अपनी अक़ीदत के नेज़े” पढ़ते हुए कहा कि यह पहल इस लिए कि इस देश में वे हालात कभी न आने पायें जो पाकिस्तान में हैं. कविता पाठ की शुरुआत यास्मीन खान से हुई. इसी बीच संगवारी के साथी आ गए और पंकज ने उन्हें जनगीतों के साथ आमंत्रित कर लिया. गोरख और फैज़ के गीतों ने वह समा बांधा की श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी और गीतों की टेक पर दूर खड़े लोग भी तालियों की संगत देने लगे.
इसके बाद वरिष्ठ कवि नीलाभ ने कवितायें और ग़ज़लें पढ़ीं. क्रम बढ़ता गया धीरे धीरे. राज़ देहलवी की ग़ज़लें हों या नवीन, सुमन केशरी की कविता या लीना द्वारा किया नागार्जुन का पाठ हो या निखिल आनंद गिरि की तंजिया ग़ज़ल हो, लोगों ने बहुत चाव के साथ सुना और सराहा. कुछ युवा साथियों ने भी कविता पढने की इच्छा जताई और उनमें से एक को मंच दिया गया.अब भी कुछ कवियों के नाम छूट रहे हैं.
तभी पंकज की नज़र भीड़ में बैठे हेम मिश्रा पर पड़ी. दो साल से अधिक जेल में काट कर आये हेम ने बहुत विनम्रता और प्रतिबद्धता के साथ अपनी बात रखते हुए एक अनुदित कविता सुनाई तो एम्पिथियेटर तालियों से गूँज उठा.
अंत से ठीक पहले अभिषेक ने यूजीसी भवन पर धरने पर बैठे छात्र साथियों के समर्थन में एक प्रस्ताव पेश किया जिसे ध्वनिमत से पारित किया गया.अंत में उज्ज्वल भट्टाचार्य अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए. राजा रोज कुरते बदलता है/लेकिन राजा नंगा है. दूर तक गयी बात और पंकज प्रेरित हुए अपना गीत “गुजरात का लला” प्रस्तुत करने के लिए जिसने माहौल को एकदम उत्तेजित कर दिया. अंत में मंच पर फिर आये संगवारी के साथी और इस आयोजन को हर महीने करने के संकल्प के साथ विदा ली गयी.