पेशे से प्राध्यापक नीलिमा ‘आँख की किरकिरी ब्लॉग का संचालन करती हैं. संपादित पुस्तक ‘बेदाद ए इश्क’ प्रकाशित संपर्क : neelimasayshi@gmail.com.
हमारे समाज में हमेशा से ही मातृत्व व स्त्रीत्व को एकदूसरे का पर्याय माना जाता रहा है । सभ्यता के विकास के तमाम दावे भी कभी इस सवाल से नहीं टकराना चाहते कि संतान को जन्म देने के बॉयोलॉजिकल दायित्व के अलावा संतान को पालने का पूरा दायित्व भी क्यों केवल स्त्री का ही होना चाहिए । पितृसत्त्तात्मक समाज ने बहुत सी सोची समझी नीति के तहत स्त्री को मातृत्व के तमाम दायित्वों से बांधकर रखा है । न केवल बांधा है बल्कि स्त्री के उस दायित्व का महिमामंडन भी किया है ।मातृत्व के सभी पैमाने भी समाज ने एकतरफा सोच के तहत बनाए और उन दायित्वों की पूर्ति के साथ स्त्री की पूरी की पूरी हस्ती को नत्थी कर दिया । समाज चाहे कितना भी प्रोग्रेसिव क्यों न हो गया हो और यहां स्त्री की मुक्ति के तमाम तामझाम क्यों न दिखाई देते हों मातृत्व की भूमिका पर कोई भी सवाल उठाया जाना अप्रत्याशित ही नहीं बल्कि निषिद्ध सा है । गर्भ के नौ महीनों में स्त्री का स्वास्थ्य और संतान के जन्म के बाद मां व संतान दोनों के स्वास्थ्य पोषण और न्यूट्रीशन के लिए समाज के एक तबके में जरूर जागरूकता दिखाई देती है। लेकिन यही वह तबका है , जिनमें मां बनने के बाद स्त्रीत्व के विकास की संभावनाओं के अवरुद्ध होने पर उपेक्षा या उसादीनता का रवैया दिखाई देता है ।
हमारे देश के सरकारी क्षेत्र के संगठनों में चाइल्ड केयर लीव के नये प्रावधान के जरिये समाज और राज्य ने पहली बार नौकरीपेशा स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता दिखाई है । सात सौ तीस दिन की सवैतनिक छुट्टियां बच्चे के 18 साल की आयु तक एकसाथ या कुछ भागों में स्त्री कर्मचारियों को दिये जाने के इस प्रावधान का नौकरीपेशा स्त्रियों , उनके परिवारों और स्त्री संगठनों ने स्वागत किया । लेकिन साथ ही इस नियम के अनुपालन और शर्तों को लेकर कुछ सवालात भी उभरते दिखाई दिए । इस प्रावधान का यह अर्थ तो है ही कि बच्चे की परवरिश को राज्य द्वारा भी केवल स्त्री का दायित्व मान लिया गया है । साथ ही इसका यह भी अर्थ है कि मातृत्व के बाद स्त्री अपने करियर के किसी के दौर में हो तब भी स्त्री को ही समझौता करना होग । मतलब पिता यानि पुरुष के करियर को संतान की परवरिश के दायित्व से आजाद ही रहने की सहूलियत पर सरकारी नियम का ठप्पा ।
सवाल यहां यह भी उठता है कि स्त्री और पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में बराबर की सहभागिता कर रहे हैं तो केवल स्त्री को ही बच्चे की परवरिश की सहूलियत देने के स्थान पर पुरुष को भी इस परवरिश का भागीदार बनाने का कोई उपक्रम राज्य को क्यों नहीं करना चाहिए । इस सवाल के साथ शायद हमारे समाज का पितृसत्तात्मक ढांचा पुरजोर तरीके से टकराव की हालत में चौकन्ना दिखाई देता है । दूसरे देशों की तरह यदि माता पिता दोनों को ही इस सुविधा के लिए नामजद कर दिया जाए तो यह पहल हमारे स्त्री -पुरुष बराबरी के दावों को तो सच्चा करार दे सकती है पर शायद इसके व्यावहारिक रूप में बहुत सी रुकावटें और रूढियां पेश आएंगी । अभी बच्चे के जन्म के समय पिता को मिलने वाली 15 दिन की पैटर्निटी लीव के दुरुपयोग के कई किस्से मांओं के द्वारा सुनने को मिलते हैं । यदि स्त्री के बजाए पुरुष पर बच्चे की परवरिश की जिम्मेदारी आएगी तो क्या पुरुष स्वयं को सामाजिक शर्मिंद्दगी के भाव से आजाद रख पाएगा । इन छुट्टियों का उद्देश्य बच्चे के स्वास्थ्य और परीक्षाओं के समय की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तावित किया गया था । जाहिर है कि इन छुट्टियों को दिये जाने का बच्चे को स्तनपान कराने और उसकी साफ सफाई से अलग उद्देश्य भी है । बच्चे की पढ़ाई के लिए पिता उतनी ही उपयोगी भूमिका निभा सकते हैं जितनी कि मां । फिर भी घर बैठने के टैबू और कार्यक्षेत्र की चहल पहल के आकर्षण और करियर की जद्दोजहद से समझौता करने के लिए पुरुषों की मानसिक तैयारी नहीं होती है । जेंडर की सामाजिक ट्रेनिंग के चलते यह चुनौती पूरी तरह से माँ की मानकर राज्य भी अधिक प्रयोगात्मक होने या विवादास्पद होने से बच जाता है ।
यूं देखा जाए तो स्त्री की उपेक्षा के माहौल में इस तरह की सुविधा स्त्री को अपने घर संतान और काम से बेहतर तरीके से न्याय करने का मौका देती है । नौ से पांच की नौकरी के साथ बच्चे के पालन स्वास्थ्य , पढाई के अलावा बच्चे को संस्कारित करने और बेहतर नागरिक बनाने का दायित्व केवल परिवार का ही नहीं है यह राज्य का भी बच्चे के प्रति पहला दायित्व है। इसलिए इन छुट्टियों को लेने के साथ जुड़ी शर्मिंदगी का माहौल खत्म किये जाने की पहल होनी चाहिए । इन छुट्टियों को पाने के लिए शर्तें और नियम लचीले होने चाहिए ताकि संगठनो में इनको पारित करने के नाम पर चलने वाली राजनीति और चूहेमारी कम हो सके । हम देखते हैं कि अक्सर महिला कॉलेजों में जहां 90 प्रतिशत स्त्रियां ही काम कर रही हैं वहां संगठन के हेड कई व्यवधान पैदा कर राजनीति खेलते हैं और जरूरतमंद कर्मचारी को इनका लाभ उठाने के लिए बहुत सी खींचातानी से गुजरना पडता है । अक्सर इस क्षेत्र की स्त्री कर्मचारियों को गर्भावस्था के दौरान ही नौकरी से त्यागपत्र देकर घर बैठना पड़्ता है और बच्चे के जन्म के बाद भी वे दायित्वों में इस तरह डूब-थक जाती हैं कि दोबारा नौकरी पाना या कर पाना उनके लिए दु:स्वप्न हो जाता है । इस तरह से हम अच्छी प्रतिभाओं को अवसरहीनता के अंधेरे कुएँ की ओर धकेलते हैं तथा साथ ही स्त्री स्वतंत्रता के दावों को भी धूमिल करते हैं ।
गैरसरकारी असंगठित क्षेत्रों में भी इन छुट्टियों का प्रावधान किए जाने के लिए राज्य को ही आगे आकर पहल करनी चाहिए और सामाजिक संगठनों के सहयोग से स्त्री श्रम को उचित देय दिये जाने की पहल होनी चाहिए । हमारे समाज में जहां न्यूनतम मजदूरी दर से भी कम पर श्रमिकों से काम लेने का प्रचलन है वहां खेत सड़कों और मिलों और घर घर जाकर काम करने वाली स्त्री श्रमिकों के मातृत्व का दायित्व बहुत अधिक क्रूर और अमानवीय दिखाई देता है । गर्भावस्था के दौरान ही नहीं शिशु जन्म के तुरंत बाद से ही निमनतर वर्ग की स्त्रियों को कठोर हालातों में श्रम करना पड़्ता है । जहां स्त्री स्वास्थ्य बच्चे का स्वास्थ्य और परवरिश की पूरी प्रक्रिया अभिशप्त माहौल में होती है । जहां ठेकेदार के द्वारा भवन निर्माण स्थल पर पेड़ के तले पड़े 6 माह के शिशु को कार द्वारा कुचल दिए जाने की घटनाएं भी हमें उद्द्वेलित नहीं कर पातीं : ऎसे में व्यवस्थित श्रम और स्त्री के लिए मातृत्व अधिकारों की मांग करना एक दुस्स्वप्न लगता है । हमारी ताकत का एक बहुत बड़ा हिस्सा और मजबूत इच्छा शक्ति और बेहतर समाज की जरूरत के खयाल के मद्देनज़र हमें इस दिशा में सोचने के लिए खुद को तैयार करना होगा ।
फिलवक्त तो हालात यह हैं कि इस तरह की पहलकदमियों के बावजूद भी युवावस्था में कदम रखती स्त्री के लिए एक बहुत बडी आशंका मातृत्व के समय अपने स्त्रीत्व और अस्तित्व की टकराह्ट की होती है । क्या ही अच्छा हो कि राज्य अपनी इस आधी आबादी के लिए बेहतर सुविधाओं अवसरों की समान उपलब्धता पर गौर फरमाए । साथ ही समाज व परिवार का ढांचा भी उदार बनाया जाना जरूरी है क्योंकि भौतिक सुविधाओं के अलावा व्यावहारिक स्तर पर भी स्त्री को बच्चे की परवरिश के लिए सहयोग और सामंजस्य का माहौल मिल सके । आखिर संतान अकेले स्त्री का ही नहीं समाज और राज्य दोनों का दायित्व है ।