अनुपमा तिवाड़ी की कविताएँ

अनुपमा तिवाड़ी


कविता संग्रह “आइना भीगता है“ 2011 में बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित. संपर्क : anupamatiwari91@gmail.com

1. प्यार
प्यार तुम कितने सुन्दर हो.
तुम्हारे हाथ पैर होते
तो मैं
तुमसे लिपट – लिपट जाती
छोडती ही नहीं तुम्हें.
मुझे पता है
तुम पर लगती रही हैं तोहमतें
कभी पश्चिमी संस्कृति की,
तो कभी चरित्रहीनता की.
परन्तु,
तुम तो सदा थे
हो
और रहोगे.
सात समुन्दर पार भी धडकते रहोगे दिलों में चुप – चुप.
बहते रहोगे अविरल आँखों से
रात के अंधेरों में.
प्यार, मुझे पता है
तुम कुचले जाते रहे हो
कभी इज्ज़त की दुहाई दे कर
तो कभी न जाने क्यों – क्यों?
प्यार, तुम जब भी कुचले जाते हो
मेरे गाल पर एक तमाचा लग कर बोलते  हो
जाओ! तुम्हारी दुनिया में हमें स्वीकार करने की हिम्मत ही कहाँ ?
लेकिन प्यार,
तुम हमेशा जिंदा रहोगे
नहीं मरोगे
हारोगे भी नहीं
जीतते ही रहोगे
हर बार – हर बार !

2. तुम्हारा आना 
तुम आए जीवन में
तो जैसे आँखों में दिए जल गए.
आलोकित हो गई मैं
होठ गुनगुनाने लगे
कान भी आहटें सुनने लगे
अंगुलियां उकेरने लगीं
केनवास पर तुमको.
पैर भी पंख बन कर उड़ने लगे.
एक दिन तुम चले गए
चुप से
सब कुछ हो गया
जैसे चुप – चुप.
पर अब भी तुम्हारे इंतजार में
मेरे बाल अंगुल – अंगुल बड़े हो रहे हैं.

3. स्त्रियों का प्रेम 
स्त्रियाँ प्रेम करती हैं,
धोखा खाती हैं…..
प्रेम करती हैं,
धोखा खाती हैं….
स्त्रियाँ प्रेम करती हैं

4. रिश्ता
कच्चे धागे सा रिश्ता
मेरा तुम्हारा
टूट सकता है
एक झटके से.
इसमें नहीं बहती
खून की नस कोई
सिरों पर बंधन की कोई गांठ भी तो नहीं.
पर, यह धागा आज भी उतना ही रंगीन है
उतना चमकीला
जितना पहले दिन था.
बांधता है मुझे,
तुमसे
सात जन्मों के बाद तक के बंधन में.

5.  सिक्का – सिक्का यादें 
समझ सकती हूँ
कितना मुश्किल था
तुम्हारे लिए
ये कहना कि
जा रहा हूँ महानगर
तुम्हारा शहर छोड़ कर.
अब नहीं लौटूंगा
बस गया हूँ यहीं.
मेरे शहर में तुम्हारी आखिरी शाम से
मैं सिक्का– सिक्का यादें
गुल्लक में डाल रही हूँ
गुल्लक से निकाल रहीं हूँ
गुल्लक में डाल रही हूँ
गुल्लक से निकाल रही हूँ
न गुल्लक भरती है,
न खाली होती है.

6. तुम्हारी बिंदी 
उस दिन छूट गई थी
जो मेरे कंधे पर
तुम्हारी बिंदी
वो मुस बन कर उग आई है
मेरे कंधे पर.
और तुम्हारे बालों की एक लट
जो छोड़ गई थींतुम
मेरी घड़ी की चेन में,
वो मनी प्लांट बन झूल रही है मेरे आँगन में.
जब भी होता हूँ
तुम्हारी बातों के साथ
देखकर रह जाता हूँ
अपने कंधे के मुस को
और फंसा देता हूँ
अपनी अंगुलियाँ
मनीप्लांट की बेल में.

7.  तुम्हारी कसम 
आज खाई तुमने
कसम
उनसे न बतियाने की
पर, ये तुम हो न !
जो उन्हें सामने न पा कर भी
उनसे बतियाते हो.
और वो – वो हैं
जो कभी नहीं होते फुर्सत में
तुमसे बतियाने की.
चाहे तुम उन्हें कसम दे दो
उनसे न बतियाने की

8.  इंतज़ार 
महीने थे
जो गुज़र गए,
सप्ताह दिन और घंटे हैं
कि बड़े होते जाते हैं.

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