आरती कुमारी की कविताएं

आरती कुमारी


युवा कवयित्री, ‘कैसे कह दूँ’ एक काव्य संग्रह, संपर्क: sartikumari707@gmail.com

1.  स्वयं से संवाद
कितना सुखद होता है
अपने होने को महसूस करना
और प्यार करना खुद को।
अलग-अलग रिश्तों में बँटकर
जैसे बँट जाती हूँ मैं ही कई हिस्सों में।
दूसरों की खुशी में कई बार घुलती मैं, जैसे अनचीन्ही
अन्जान हो गयी हूँ अपने ही अस्तित्व से।
मगर तभी कहीं सुदूर एकान्त में
कोई गा रहा होता है
स्नेहिल शब्दों का मधुर गीत
जहाँ सालों भर खिलते हैं फूल
जहाँ हमेशा गूँजता रहता है
कल-कल झरनों का संगीत
जहाँ नदियाँ अठखेलियाँ करती हैं नौकाओं के साथ।
जहाँ सूरज अपनी किरण बाँहे फैलाए
पुचकारता रहता है पेड़ पौधें को हमेशा
जहाँ रात होते ही रुपहली चाँदनी ढ़क लेती है
सबकुछ अपने आगोश में।
आखिर कौन है, जिसने अपनी साँस की लडि़यों में
पियोये हैं सुमधुर गीतों के शब्द।
वहाँ कोई दूसरा नहीं
पेड़ पौधें, , नदी झरनों
ओर सरज चन्द्रमा के साथ थिरक रहा है
मेरा अपनी ही अस्तित्व
उस नीरव एकान्त में।

2.  एक सवाल

क्या मैं लड़की हूँ इसलिए
तुम मुझे हर उस गलती का
जि़म्मेदार ठहरा सकते हो,
जो मैंने कभी किए हीं नहीं?
क्या मैं लड़की हूँ इसलिए
तुम अपनी सारी मुसीबतों की जड़
मुझे बता सकते हो ?
क्या मैं लड़की हूँ इसलिए
मुझ पर पाबंदियाँ लगाकर
मुझे चौके के-चूल्हे तक सीमित रख सकते हो?
क्या मैं लड़की हूँ इसलिए
मुझसे सपने देखने का अधिकार भी
तुम छिन सकते हो?
क्या मैं लड़की हूँ इसलिए
अपने पुरुषत्व  से
तुम मेरे अस्तित्व को
जब चाहे कुचल सकते हो?
या फिर मैं लड़की हूँ इसलिए
तुम्हें डर है समाज का,
लोक परम्परा का,
रीति -रिवाज का।
पर शायद तुम भूल रहे हो
की इस समाज की रचना
हमसे ही हुई है,
हम हैं तो स्नेह, दुलार, उल्लास-उमंग
धरती पर अब भी कायम है।
हम ही तुम्हारे हमसफर
हम ही तेरे हमराज हैं,
तुम्हारे अंतर्मन की शक्ति बन
हम मुश्किल  से लड़ते हैं,
तुम्हारा हौसला, गुरूर बन
हम बुलंदियों को छूते हैं।
इसलिए मत कोसो
हमें मत बांधो,
मत जकड़ो मसलो मत हमें,
मत रोको, मत टोको
मत कोख में मिटने दो हमें,
खुल कर जीने दो,
अपनी मंजिल छूने दो हमें।
लड़कों के साथ कदम दर कदम
सम्मान से बढ़ने दो हमें।

3. वह लड़की
रोज आती है
‘वह’ लड़की
गन्दे बोरे को
अपने कांधे पर उठाए
और चुनती है
अपनी किस्मत-सा
खाली बोतल, डिब्बे और शीशियाँ
अपने ख्वाबों से बिखरे
कुछ कागज के टुकडा़ें को
और ठूंस देती है उसे
जिंदगी के बोरे में

गरीबी की पैबन्दों का
लिबास ओढ़े
कई पाबन्दियों के साथ
उतरती है
संघर्ष के गन्दे नालों में
और बीनती है
साहस की पन्नियाँ
और गीली लकड़ी-सा
सुलगने लगती है
अन्दर ही अन्दर
जब देखती है
अपनी चमकीली आँखों से
स्कूल से निकलते
यूनिफाॅर्म डाले बच्चों को!

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ISSN 2394-093X
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