उदारीकरण के प्रभाव में वर्तमान दौर से उपजी सामाजिक उथल-पुथल जिसके कारण विभिन्न सामाजिक तबकों की विविधता भरी जिंदगियों में तरह – तरह के बदलाव आये हैं जो सामान्यतः सकारात्मक से कहीं ज्यादा नकारात्मक हैं | इस वक़्त में कैसे हमारी जिंदगियों में बाजारी अंधी चकाचौंध प्रवेश कर जाती है और कैसे हमारे सामाजिक व्यक्तित्व को, व्यक्तिवादी अंधी सोच में तब्दील कर देती है और कब हम अपने ही भाई, अपने पड़ोसी के सामने उठ खड़े होते हैं, हमें अंदाजा भी नहीं होता | चारों तरफ से बाजारी हमलों से घिरी हुई हमारी वर्तमान पीढ़ी का,सामाजिक रूप से इन्हीं बेरहम सवालों से जूझते हुए उनके जबाव खोजने का रचनात्मक प्रयास है नाटक ‘सपने हर किसी को नहीं आते’ |
एक अदद ऑडिटोरियम के अभाव के बावजूद भी मथुरा में आधुनिक थिएटर एवं रंगमंचीय गतिविधियों का अलख जगाये रखने वाली ‘संकेत रंग टोली’की साथी एवं ‘कोवैलेंट ग्रुप’ की संस्थापक सदस्य ‘आशिया मदार’ के निर्देशन में ‘राजेश कुमार’ का यह नाटक भारतेंदु नाट्य अकादमी की पच्चीस दिवसीय कार्यशाला के समापन पर हाइब्रिड पब्लिक स्कूल के एच पी एस सभागार में 16 दिसम्बर 2015 को मंचित हुआ | ‘आशिया मदार’ खुद भारतेंदु नाट्य अकादमी से 2015 के बैच की पास-आउट हैं और व्यक्तिगत तौर पर यह उनकी पहली प्रस्तुति थी |इसलिए व्यावहारिक तौर पर कार्य शैली में किसी प्रोफेशनल निर्देशकीय दक्षता कम ही दिखाई दी किन्तु नाटक की डिजायन और प्रस्तुति को देखते हुए एक प्रशिक्षित व्यक्ति की कुशलता भी स्पष्ट दिखी | ज्यादातर नये लोगों के साथ काम करते और कराते हुए राजेश कुमार के बेहद संवेदनशील इस नाटक और नाटककार के मूल भाव को दर्शकों तक संप्रेषित करने में आशिया मदार बखूबी सफल रहीं |
यह कहने में गुरेज़ नहीं है कि फिलवक्त में राजेश कुमार ऐसे इकलौते हिंदी नाटककार हैं जो निरंतरता में ऐसे नाट्यालेखों को लिख रहे हैं जो यथा स्थिति ही बयान नहीं करते बल्कि वे एक चेतना भी पैदा करते हैं और प्रतिरोध भी | वर्तमान की ताज़ा सामाजिक राजनीतिक और मानसिक विसंगतियों पर मुकम्मल चर्चा के लिए न चाहते हुए भी नाटक में पात्रों की अधिकता कोई नई बात नहीं है | लेकिन मथुरा जैसे छोटे शहर में बड़ी कास्ट के नाटकों का चुनाव और चयन निश्चित ही एक चुनौती तो है ही और यह चुनौती आशिया मदार के सामने भी रही | चूँकि राजेश खुद सक्रिय रंगकर्म से जुड़े हैं तो उन दुश्वारियों को भी भले से समझते हैं जो हिन्दी नाटक कर रहे नाट्य दलों को हर दिन परेशान करती हैं |इसलिए उनके नाटक एक पात्र को कई – कई भूमिकाये निभाने की सहूलियत भी देते हैं | जो इस नाटक में भी हुआ |
नाटक की शुरूआत पूंजीवादी विकास की दिशा में निरंतर बढती राजधानी दिल्ली में एक अपार्टमेन्ट के एक कमरे में किराए पर रह रहे सात दोस्तों के उन जीवन अनुभवों से होती है जो प्रतीक रूप में विविधताओं से भरी भारतीय सामाजिक सांस्कृतिकता के वे पहरुए नजर आते हैं, जो खोई हुई महानगरीय दिशाओं से बचते हुए मैत्री में जीवन का रस तलाश रहे हैं | पहले दृश्य में ही सातों की आपसी चुहल, बहस और खिलंदड़पन इनके चारित्रिक विकास के साथ दर्शकों से कम्युनिकेट होने लगता है, किन्तु यहीं किसी सपने की तरह पूंजीवादी चकाचौंध के साथ,बाज़ार कब इनके बीच आकर अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर देता है इसकी भनक तक उनको नहीं हो पाती |
इसके बाद जो होता है, बाहरी तौर पर बेहद सहज दिखतीं घटनाएं, परिस्थितियाँ और वातावरण दृश्य दर दृश्य नाटक को गति प्रदान करते हुए अंत तक ले जाते हैं जहाँ रंगकर्मी‘समीर’ (कलीम ज़फर) प्यार, मोहब्बत और रोमांस की अंधी अभिजनवादी दौड़ का शिकार होकर खुद को पुनः खुद में ही खोजने को विवश होता है | वहीँ नव धनाढ्य पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करता गैर-संवेदनशील ‘रजत’ (अन्तरिक्ष शर्मा) स्वार्थ केन्द्रित आधुनिकता के साथ दोस्तों को छोड़ कर अमेरिका शिफ्ट हो जाता है | जबकि सिस्टम में रहकर ही उसे बदलने का स्वपन देखने वाला ‘सफल’ (रवि) खुद ही सिस्टम की अव्यवस्थित और भ्रष्ट कार्यप्रणाली का शिकार होकर आत्महत्या कर लेता है | वामपंथी रुझान और स्पष्ट समझ के साथ ‘अभय’ (सनीफ मदार) जब इस दमन तंत्र का विरोध करता है तो उसे भी उसके पिता की तरह ही मार दिया जाता है |
सीधा-सपाटजीवन जीता और किसी प्राइवेट कंपनी में काम करता ‘इरफ़ान अंसारी’ (पुलकित फिलिप) शक भरी एक ख़ास मानसिकता के चलते बेवज़ह गिरफ्तारी के चलते अपने दोस्तों के बीच ही खुद को अजनबी और असुरक्षित महसूस करने लगता है| डिजिटल इंडिया में अल्पसंख्यक होने का दंश उसे उस कमरे रुपी घर को छोड़कर ‘घेटों’ में जा बसने को मजबूर कर देता है | वहीँ 84 के सिख विरोधी मानसिकता का शिकार, अब घर-घर जाकर वाटर प्यूरीफायर बेचते हुए वर्तमान बेरोजगारी से जूझता युवा ‘सरदार जोगेन्दर सिंह उर्फ़ जोगी’ (कपिल कुमार ) और साहित्यिक रुझान वाले‘कबीर’ (जितेन्द्र सिंह कर्दम) को कोई भी घटना भावुकता में बहा नहीं ले जा पाती बल्कि अंत में अकेले या कम संख्या में होने के बावजूद भी कबीर का एकसंवाद-“वे खतरनाक या ताकतवर तभी तक हैं जब तक हम समझते हैं |” इंसानी हकों के लिए निरंतर संघर्ष करने कीओर इशारा करता है | यहाँ आकर नाटक में प्रयुक्त की गई “पाश” की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी उदास मौसम के खिलाफ ….|’ बेहद अर्थपूर्ण और जरूरी लगती है |
मिस इंडिया, मिस वर्ल्ड, मिस यूनिवर्स या रैम्प पर कैटवाक करती मॉडल के रूप में बाजारी गुलामी को ही स्त्री, मुक्ति और आज़ादी समझ रही है |बाजारी सेल्स गर्ल के प्रतीक रूप में मंच पर उतरती ‘मॉडलस’ (शालिनी श्रीवास्तव, शबाना मदार, पूनम कुमारी, टीना फिलिप) के साथ स्त्री की शारीरिक संरचना को नाप-तौलके पैमाने में आकर्षण की व्याख्या देता बाज़ार का प्रतिनिधि‘डी के’ (सूरजचौहान )नाटकके पहले दृश्य से स्पष्ट भाषा के साथ एक नया स्त्री विमर्श रचता है | ‘श्रेया’ (बोबीना)के रूप में खुद को आधुनिक समझती एक ऐसी लड़की का किरदार, जो प्रेम के नाम पर इंसानी ज़ज्बातों से खेलने को टाइम पास कह कर यह स्पष्ट करती है कि इंसानी प्रेम और संवेदना को आकार देने का जिम्मा भी अब बाज़ार ने ही उठा रखा है |
प्रथमदृष्टया यथास्थितिवादी लगने वाला यह नाटक दरअसल बाहरी तौर पर किसी भी प्रतिरोध को थोपने के बजाय आंतरिक रूप से मज़बूत, चेतनशील और परिवर्तनगामी होनेकी बात कहता है क्योंकि इस ठन्डे, संवेदनहीन और अंधी सामाजिकता में ‘सपने हर किसी को नहीं आते’ |
हालांकि नाटक को सम्पूर्णता और दृश्यों को साफ़ करने में ज़फर अंसारी, टीकम सिंह, प्रदीपकुमार, अनिरुद्ध गुप्ता, नीरज चौधरी, सनीफ मदार और सूरज चौहान ने कई- कई चरित्रों को बखूबी अंजाम दिया | निर्देशकी की लाख कोशिशों के बावजूद भी कुछ कलाकारों के साथ भाषाई व्याकरणीय अशुद्धता और उच्चारण की गलतियां एवं नाटक का अनुपयुक्त जगहों पर अधिक लाउड हो जाने जैसी खामियां, जहाँ रंगमंच में बृज भाषाई लोगों के साथ भाषाई स्तर पर लम्बी रिहर्सल की मांग करतीं हैं वहीँ निर्देशक के लिए अगली प्रस्तुतियों में एक चुनौती के रूप में खड़ी होतीं हैं |
संसाधनों की कमी और अकादमी के बेहद सीमित बजट के बाद भी ‘अयान मदार’ के सहयोग से तैयार किया गया सैट भी दर्शकों के आकर्षण का केंद्र बना रहा | संगीत संकलन और संचालन भी श्रमसाध्य काम दिखा जिसे ‘पुलकित फिलिप’के सहयोग से खुद‘आशिया मादार’ ने अंजाम दिया | ‘एम्० गनी’ खासी मेहनत और मशक्कत के बाद भी प्रकाश परिकल्पना में खल रहे साधनों के अभाव को छुपा पाने में पूरी तरह सफल नहीं हो पाए |
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आशिया मदार |
अंत में अभीप्सा शर्मा, अरबाज़ खान, किशन सिंह, विपिन शर्मा, अनीता चौधरी, पुश्किन सफी, की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ सम्पूर्णता में यह नाट्य प्रस्तुति,दर्शनीय और दर्शकों को पूरी तरह से कम्युनिकेट करने में सफल रही | अंत में नाटक की इस सफलता पर भारतेंदु नाट्य अकादमी के सहनिदेशक रमेश चन्द्र गुप्ता के साथ उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के पूर्व उपाध्यक्ष मोहन स्वरुप भाटिया एवं संकेत रंग टोली के अध्यक्ष राहुल गुप्ता तथा उपाध्यक्ष निर्मल पूनिया के द्वारा निर्देशक आशिया मदार को सम्मानित किया गया|
निदेशक आशिया मदार के बारे में
रंगमंच आपकी रगों में रचा बसा है | होश संभालते ही अपने घर में हो रही रंग गतिविधियों में संलग्नता | रंगकर्म की शुरूआत बचपन से‘संकेत बाल रंग टोली’ के साथ बाल रंगकर्म से, एम० गनी व सनीफ मदार के सानिध्य में | “कोवैलेंट ग्रुप” की संस्थापक सदस्य | अनेक नाटकों में अभिनय के साथ बैक स्टेज की कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को सम्भाला |
2015 में ‘भारतेंदु नाट्य अकादमी, लखनऊ’ से नाट्य कला में परास्नातक डिप्लोमा |
अकादमी द्वारा आयोजित इस प्रस्तुति परक नाट्य कार्यशाला में नाटक “सपने हर किसी को नहीं आते” पहला निर्देशित नाटक |
संपर्क : ईमेल- 30madaar30@gmail.com
समीक्षक हनीफ मदार कहानियां लिखते हैं . सामाजिक -सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय, ऑनलाइन मैगजीन हमरंग के संपादक. संपर्क: 08439244335