हिंदी – मराठी में समान रूप से लेखन एवं इस क्षेत्र में लगभग ४५ वर्षों से सक्रिय
हिंदी मराठी की अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ,रिपोतार्ज,आलेख, साक्षात्कार प्रकाशित. संपर्क :alknanda31@gmail.com
१.
मैं अक्सर स्त्री विमर्श की बात करती हूँ
मैं बताती रहती हूँ सरेआम
कि मेरे घर के पुरुष
काम में हाथ नहीं बंटाते
कि मुझे एकाध बार लेना पड़ती है
कहीं जाने की अनुमति
कि बच्चे की बीमारी में
रुकना पड़ता है मुझे ही घर पर
या कि मेहमानों का जिम्मा होता है
अंतत:मुझ पर .
रिश्तेदारी निभाना
लगती है मुझे महति जिम्मेदारी
मुझे ही देखना पड़ता है
कितना बाकी है महीना
और कितनी शेष है
दाल-चावल,भाजी-तरकारी.
पृथ्वी की तरह
अपनी ही धुरी पर
आत्म मुग्ध घूमती रहती हूँ
और सूर्य के आसपास रहने से
मिलती है जो ऊर्जा,ऊष्मा
उसे ताप कहकर खारिज करती रहती हूँ
उस समय मुझे नहीं याद आती
गढ़ चिरोली के जंगलों में रहनेवाली
वह आदिवासिन
जो हर महीने उन दिनों
चिथड़ों में रेत भरकर बांधती है
सृजन की रक्तिम बूंदों को
और निकल पड़ती है लकड़ी बीनने
मैं कमाठीपुरा की
उन औरतों को भी भूल जाती हूँ
जो बिकती हैं, सब्जी-भाजी की तरह
उन्हें बैठने की अनुमति नहीं होती
मेरे हमाम से भी कम जगह में
ठूंस-ठूंसकर खड़ा किया जाता है उन्हें
और आवाज दे-देकर
बिकवाती हैं खुद ही, खुद को ताजा कह-कहकर
मैं भूल जाती हूँ उस औरत को भी
जिसका आदमी उसकी योनि पर
ताला लगाकर जाता है दिहाड़ी पर
मैं अपने घर से निकलकर पहुँच जाती हूँ
कहीं भी इत्मीनान से
भाषण झाड़ने, जोश खरोश से
गिनवाती हूँ अपनी तकलीफें
वृहद आकार में
और बटोरती हूँ तालियां दर्जनों में
क्या मैं सचमुच जानती हूँ स्त्री के दुःख को
क्या मुझे पता है
कैसे होता है
बिना घर के, बिना दीवार के
बिना प्रेम के, बिना सुरक्षा के रहना
बिना आशा के, बिना विश्वास के जीना
बेहद आसान है
अख़बार के शीर्षकों में बने रहना
पर बिलकुल भी आसान नहीं है
मुड़ी-तुड़ी चिन्दियों की तरह
किसी अँधेरे कोने में पड़े रहना
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साभार गूगल |
२.
मैं कम्प्यूटर पर काम करती हूँ
तब वह अपने पल्लू को
बेवजह ठीक करते हुए
झांककर देखती है स्क्रीन को
और मेरा प्रोफाइल फोटो देखकर
खुश हो जाती है.
मेरे पैरों के नीचे से
आहिस्ता से झाड़ू निकालते हुए
कहती है-आपका अख़बार में छपा फोटु
दिखाया था तेरह नंबर वाली दीदी ने
मैं धीरे से, नपी तुली मुस्कान के साथ
गर्दन हिलाती हूँ
तभी घनघनाती है घंटी
कहती हूँ– जरा उठाना उसे
उठाकर देते हुए उसकी नजर
मेरे कीमती मोबाईल,
नर्म मुलायम हथेली
और नेल पेंट से रंगे नाखूनों पर होती है
यकायक बोल उठती है,
नाटक के स्वगत की तरह
मुझे भी पढ़ना था
पर नहान आते ही
भेज दिया उन लोगों ने यहाँ
पढाई की बात को इम्प्रोवाइज करती है
और बताने लगती है
जेठ-ननदोई की बुरी नजर के बारे में
उसके सारे सम्बोधन
सिमटे रहते हैं
‘इन लोग’ और ‘उन लोग’ में
उसे भरम है
कि पढ़ी लिखी होती
तो शायद ‘इनका’ और ‘उनका’
विरोध कर पाती
बुरी नजर से बची रह पाती
मैं उसका भरम तोडना नहीं चाहती
उसे नहीं बताती
कि नहान आने पर
उसके लोगों में और मेरे लोगों में
कोई फ़र्क़ नहीं रह जाता
नर्म, मुलायम,रंगी-पुती उँगलियाँ
की बोर्ड पर चले या चकले पर
कुत्तों और भेड़ियों की नजर नहीं बदलती
अख़बार में छपा फोटो
सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं देता
मैं उसे यह भी नहीं बताती
कि उनकी समाजवादी नजर में
उसके और मेरे अलग होने का कोई अर्थ नहीं होता
साक्षर/निरक्षर होना कोई मायने नहीं रखता
उनके लिए
नहान आने के बाद
लड़की का स्त्री में बदल जाना ही
सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है
३.
सोचती हूँ
किसी दिन निकल जाऊं
घर छोड़कर
बहुत हुआ भटकना
मन के बियाबान में
अब काया को दिखाऊं
असलीवाला जंगल
और पता करूँ
कैसे होता है, बिना छत के रहना
सोचती हूँ
किसी दिन कुछ भी न पकाऊं
सो जाऊं ऐसे ही
घुटने पेट के पास मोड़कर
महसूस करूँ भूख को
जिसे बहुत पढ़ा है
अख़बारों में, किताबों में,कहानियों में
सोचती तो यह भी हूँ
कि जब भी निकलूं घर से
निर्वसन ही रहूँ
जानूं कि कैसे होता है
धूप में जलना, बारिश में भींगना,
ठण्ड से सिहरना
बहुत बखान सुना है
रोटी,कपड़ा और मकान का
पर जानती हूँ
भूखी तो रह लूंगी कुछ दिन
और बिना छत के भी
पर निर्वस्त्र होना आसान नहीं है
बहुत मुश्किल होता है
वर्धमान से महावीर हो पाना !!!
४.
परिवहन निगम की
बसों की तरह
जब ठसाठस भर गईं अलमारियां
तो किताबें चुपचाप बाहर निकल आईं
और अपने लिए जगह बना ली
पलंग के कोने पर
खाने की मेज पर
सोफे के हत्थों पर
यहाँ तक कि फ्रिज पर भी
और रच बस गईं सहजता से
जैसे रम जाता है कोई आप्रवासी
नए शहर में
किताबों को पता था
कि रेशमी साड़ियां और असली-नकली गहने
अविव्य* की तरह
अलमारियों में भले जगह पा लें
पर रास नहीं आएगी उन्हें
बाहर की दुनिया
अविव्य बंद रहेंगे सदा खोल में
और किताबें, आम आदमी की तरह
घूमेंगी निर्द्वंद्व पूरे जगत में
उन्हें जरूरत नहीं होगी
किसी प्रहरी की
साडी और गहने बाहर निकले भी तो
बनी रहेगी हमेशा एक दूरी,
किताबों के लिए आसान होता है
साधारण आदमी की तरह घुलना-मिलना
और ह्रदय से सम्मानित होना
एक अनपढ़ भी
सर माथे रखता है किताबों को
और ख़ौफ़ खाता है
आभूषण और आभरणों से
किताबें नहीं घबराती परिवर्तन से
बाहर नहीं होती कभी चलन से
उनका स्थान पक्का होता है
और पक्का होता है मान-सम्मान
उनका पुराना होते जाना
किसी बुजुर्ग-सी हैसियत पाता है
और उन्हें भय नहीं होता
जीर्ण होते जाने का
यहाँ-वहां बिखरी किताबें
और उनका साथ
निर्भय बनाता है हमें
गहरी नींद में सुलाता है
गहने डराते हैं, सोने नहीं देते
इन दिनों मैंने ख़ारिज कर दिया है
किताबों के लिए एक अलग
अलमारी का प्रस्ताव
मुझे नापसंद है किसी का
अवि होते जाना !!!
*अति विशिष्ट व्यक्ति
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साभार गूगल |
5.
मेरे सलोने चेहरे को
और सुन्दर बनाने के लिए
ठुड्डी पकड़कर ,
माँ ने लगा दी थी छोटी-सी बिंदी
तब तुम कहीं आस-पास भी नहीं थे
पिता की उंगली पकड़कर मेले में घूमते हुए
जब मै मचली थी
कांच की रंगीन चूड़ियों के लिए
तुम तब भी कहीं नहीं थे
फिर मेरी बिंदी और चूड़ियों का स्वामित्व
तुम्हारे पास कैसे चला गया ?
6.
तुम आते रहे हमेशा मेरे द्वार
अलग-अलग स्वांग रचाकर
कभी सूरज, कभी चंदा,
कभी विष्णु,कभी शिव
कभी राम, कभी कृष्ण
कभी याज्ञवल्क्य , तो कभी गौतम
तुम्हारे लिए मै कभी अदिति बनी, कभी रोहिणी
कभी लक्ष्मी बनी, कभी पार्वती
कभी सीता बनी तो कभी राधा
कभी गार्गी, कभी अहल्या
और मुझे जबाला बनाना तो सबसे आसान रहा तुम्हारे लिए
हर युग में तुमने मुझे तदर्थ ही लिया
और मै निभाती रही संविदा की तरह
तुम्हारे नियमों को
कभी सोचो मुझे देह से परे
और जान लो
कि इक्कीस ग्राम की आत्मा
रहती है मुझमें भी
7.
लड़की जात हो—-ठठाकर मत हँसो
लड़की जात हो—-पैर फैलाकर मत बैठो
लड़की जात हो—-तनकर मत चलो
लड़की जात हो—-सबके बीच बाल मत औन्छो
लड़की जात हो —-गर्दन नीची रखो
लड़की जात हो —-नजरें झुकाए रखो
लड़की जात हो —–थोडा-सा करो और ज्यादातर मत करो
देह कन्या से बूढ़ी हो गई
पर दिमाग से नहीं गई—- लड़की जात …
8.
अ’ अनार का सीख रही थी
तभी दौड़ते-भागते
‘ड’ आ पहुंचा डर लेकर
और माँ ने पकड़ा दिया
‘स’ सुरक्षा का
सुगन्धित फूल की तरह खिल रहा स्त्रीत्व
अपने साथ ‘ल’ लज्जा का लेकर आया
और साथ-साथ चलते रहे ‘ड’ और ‘स’ भी
‘ड’ के साथ कई बार जोड़ना चाहा ‘नि’ को
निडर बनाने के लिए
पर यह न हो सका
‘स’ के साथ ‘अ’ जरूर जुड़ गया
अनजाने, अनचाहे
और ‘स’ सुरक्षा का असुरक्षित हो गया
हाँफते – हाँफते ,
थकी-मांदी
चढ़ ही गई किसी तरह कितने ही दशकों की सीढ़ियां
‘अ’ अनार का पीछे छूट गया था
धीरे -धीरे ‘ड’ डर का
और ‘स’ सुरक्षा का , जिसमें ‘अ’ जुड़ गया था
वह भी भूल गई मैं
‘ल’ लज्जा का भी कहीं गुम हो गया
अब मेरे साथ था
‘म’ मुक्त का
‘ब’ बेहिचक का
‘ग’ गरिमा का
‘प’ प्रणाम का
सब कुछ नया था
बस पुराना था तो अपने भीतर का
भरपूर स्त्रीत्व
उससे भी निवृृत्ति पाकर
मैं चलना चाहती थी
व्यक्ति के ‘व’ को साथ लेकर
लेकिन जल्दी ही जान गई
कि सब कुछ छोड़ा जा सकता है
पर अपने स्त्रीत्व को नहीं
याद दिलाता ही रहता है हर वक्त कोई न कोई
बहत्तर साल की उस नन के मुकाबले
अभी भी युवा हूँ मैं
और कितने ही कमज़र्फ़
घूम रहे हैं मेरे आस-पास भी