( रोहित वेमुला की आत्महत्या के कारणों की अकादमिक जगत में व्याप्तता की पड़ताल कर रहे हैं , जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के शोधार्थी ‘चन्द्रसेन’. स्त्रीकाल ने वेमुला की आत्महत्या ( ह्त्या ) के दोषी लोगों पर राष्ट्रपति से कार्रवाई के अनुरोध के साथ हस्ताक्षर अभियान चलाया था. हम फरवरी के पहले सप्ताह में सारे नामों और हस्ताक्षरों के साथ राष्ट्रपति को अनुरोध पत्र भेजेंगे. राष्ट्रपति केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के विजिटर होते हैं . उनकी इस मसले पर चुप्पी दुखद है . )
‘सामाजिक और आर्थिक बराबरी के बिना राजनीतिक समानता का कोई मोल नहीं रह जाता है।’ डॉ. अंबेडकर ने यह वाक्य भारतीय सविंधान देश को भेंट करते समय चेतावनी के साथ बोला था कि ‘यदि हम आर्थिक और सामाजिक खाई को नहीं पाट पाए तो देश का शोषित तबका इस पूरी व्यवस्था को जला देगा (ब्लो अप)।’ अपने सबसे महत्वपूर्ण लेख ‘एनहिलेशन ऑफ कास्ट’ में उन्होंने हिन्दू धर्म को जाति का मूल आधार माना है जो शूद्रों, महिलाओं के लिए एक ‘वेरिटेबल चैंबर आफ हॉरर’ है।
डॉ. तुलसी राम भारत को दुनिया का सबसे पुराना ‘थेओक्रेटिक स्टेट’ मानते हैं। उनके अनुसार यह देश हिन्दू धर्म, उसकी स्मृतियों द्वारा वैदिक काल से ही शासित है। बाद में आकर आरएसएस के पुरोधाओं ने इसे हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के रूप में व्यख्यायित किया। समकालीन सरकार इसी हिन्दू राज को स्थापित करने के लिए कमर कस चुकी है। ‘अंबेडकर पेरियार स्टडी सर्कल’ को अवैध घोषित करना, अफजलगुरू, याकूब मेमन, को राष्ट्र-भावना पर फाँसी, अख़लाक की हत्या, प्रो. साँईं पर देशद्रोह का मुक़दमा, और रोहित की मौत ये सब इसके कुछ उदाहरण हैं।
रोहित वेमुला, हैदराबाद विश्वविद्यालय का एक मेधावी शोध-छात्र था। उसने ‘आम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन’ के बैनर तले, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक शोषण के खिलाफ मुहिम छेड़ी थी। भारतीय व्यवस्था में अछूत माने गए वर्ण से रोहित और उसके साथी आते हैं। एक दलित की सामाजिक हैसियत उसके जन्म से तय की जाती है और यही उसकी पहचान बना दी जाती है। यह पहचान उसके हर शोषण का कारण बनती है। भारतीय समाज जाति के आधार पर ही शाषित होता है। दुनिया की यह एक मात्र व्यवस्था है जहाँ व्यक्तिगत गुण का कोई मूल्य नहीं है और इसीलिए डॉ. तुलसी राम कहते हैं कि यहां व्यक्ति नहीं बल्कि जातियाँ अमीर-गरीब होती हैं वे ही (जातियाँ) शासन करती हैं। आज़ादी मिले हुए छह दशक हो गए है तब भी यह व्यवस्था जस-की-तस बनी हुई है और इसी तंत्र के तहत अनगिनत रोहित जान गंवा चुके हैं।
बुद्ध, फुले, पेरिया और आंबेडकर ने वर्ण-आधारित भारतीय समाजिक संरचना को बदलने की शुरुआत की थी। रोहित वेमुला जैसे छात्र भी इसी अमानवीय व्ववस्था को ख़त्म करना चाहते थे। लेकिन वे शम्बूक, एकलव्य और अनगिनत क्रांतिकारियों की तरह ब्राह्मणवादी व्यवस्था का शिकार हो गए। रोहित वेमुला की ही यदि बात करें तो, यह घटना को देखने में तो आत्म-हत्या लगती है, किंतु यह आधुनिक भारतीय राज्य द्वारा की गई हत्या है और इस हत्याकांड में सारा तंत्र साजिशन जुटा हुआ था। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा पांच-पांच चिठ्ठियाँ, वाइस-चांसलर और विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा रोहित और उसके साथियों का सामाजिक बहिष्कार, उनका फेलोशिप रोकना,लोकल बीजेपी और केंद्रीय मंत्रियों का हस्तक्षेप ही ऐसे कारण थे, जिन्होंने रोहित को मानसिक रूप से इतना परेशान किया कि उसने आत्महत्या कर ली।
भारतीय राज्य की यह विडम्बना ही है कि वह ग्रामीण क्षेत्रों में की जा रही दलित-हत्या और सामूहिक बहिष्कार को नहीं रोक पाया। लेकिन यह स्थिति सिर्फ गाँवों मे हो ऐसा भी नहीं है। देश के प्रतिष्ठित और आधुनिक संस्थानों में भी यही खेल खेला जा रहा है, रोहित की हत्या इसका ज्वलंत उदाहरण है। जातिवादी लोग यह कहते हुए नहीं अघाते हैं कि जाति की समस्या सिर्फ गांवों की है। कुछ महानुभाव तो यहां तक अपना ज्ञान उड़ेलते हैं कि आज जाति कोई समस्या नहीं रह गयी है। यह सब पुरानी बाते हैं| पिछले १० वर्षों से लगभग हर वर्ष इसी विश्वविद्यालय (हैदराबाद) का छात्र आत्म-हत्या कर रहा है। जो इस सवर्णवादी मानसिकता की पोल खोल देती है। साथ-ही-साथ पिछले एक दशक में AIIMS और IITS में २३ छात्रों ने अपने को मारा है और इन सबकी सामाजिक पृष्ठभूमि एक ही है|
यह घटना इस बात की पुष्टि करती है कि किताबी ज्ञान और आर्थिक-तकनीकी परिवर्तन से सामाजिक मानसिकता नहीं बदल सकती। देश के विज्ञान और तकनीकी संस्थान एम्स में ‘यूथ फॉर इक्वालिटी’ जैसे जातिवादी संगठन का जन्म हुआ, जो आरक्षण, दलित और पिछड़ा विरोधी है। इन संस्थानों में दलितों द्वारा की जा रही आत्म-हत्याओं के मद्देनजर जो कमेटी बनायी गई थी उसके प्रावधानों और सुझावों को डस्टबिन में डाल दिया गया। प्रो. सुखदेव थोराट के नेतृत्व में २००७ में इस कमेटी का गठन हुआ। इसने पाया (५ मई २००७) कि इन महान संस्थाओं में पढ़ने वाले दलित/आदिवासी छात्रों का हर स्तर पर शोषण और सामाजिक बहिष्कार किया जा रहा है। लगभग 88 प्रतिशत छात्रों ने शिकायत थी कि यहां के प्रोफेसर उन्हें उतने मार्क्स नहीं दे रहे हैं जितनी उनकी योग्यता है। ८४ प्रतिशत छात्रों ने कहा कि प्रोफेसर ने उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि पूछी। जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उनके अकादमिक कैरियर पर असर पड़ा। जातिवादी रवैया और दृष्टिकोण छात्रों के मानसिक तनाव का कारण तो रहता ही है।
लगभग हर संस्थान से यह शिकायत होती है कि सवर्ण प्रोफेसर और प्रशासन दलितों के प्रति हमेशा बायस्ड रहता है। प्रैक्टिकल में कम नम्बर, फेलोशिप रोकना या न देना, रिसर्च टॉपिक चुनने में सुपरवाइजर की मनमानी हमेशा से दलितों के लिए एक बड़ी बाधा बनती है| शायद, इन्हीं सब अनियमितताओं को देखकर गांधीवादी विद्वान अशीष नंदी ने तर्क दिया होगा कि इस देश के सवर्ण प्रोफेसर अकादामिक करप्शन करते हैं। इसमें वे अपने लोगों को फेलोशिप, प्रोजेक्ट दिलवाते हैं, और विदेश भ्रमण करने-कराने में एक दूसरे की मदद करते हैं।
देश के सबसे लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय के लिए विख्यात दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय भी इससे अछूता नही है। मामला चाहे डायरेक्ट पी.एच.डी. प्रवेश या एम.फिल. के साक्षात्कार में दिए गए नम्बरो का हो वहां जातिगत और साम्प्रदायिक भेदभाव किया जाता है। फैकल्टी और विद्यार्थी आरक्षण, दोनों ही स्तरों पर विश्वविद्यालय प्रशासन संविधान की अवहेलना करता है। इससे हम अंदाजा लगा सकते हैं कि देश के अन्य विश्वविद्यालयों का क्या हाल होगा?
राष्ट्रपति से जातिवादी हत्यारों के खिलाफ कारवाई की मांग ( लिंक पर क्लिक कर अपना हस्ताक्षर दें )
राजनीतिशास्त्र-विद्वान, गोपाल गुरू का मानना है कि दलित शोध-छात्रों को अधिकांश दलित सुपरवाइजर दिए जाते हैं जिससे शोधार्थी और प्राध्यापक का उतना अकादमिक लाभ नहीं हो पाता है जो वो दूसरे बैकग्राउंड के होने से ले सकते थे। समाजशास्त्री विवेक कुमार का मानना है कि स्कूलों और विश्वविद्यालयों का पाठ्यक्रम वंचित समाज के यथार्थ और इतिहास से नहीं जुड़ता। यह पाठ्यक्रम इन तबकों के समाज, संस्कृति और इतिहास के खिलाफ भी है। यही कारण है कि इन समाजों से आने वाले छात्र इस पाठ्यक्रम विशेष में रूचि नहीं लेते हैं।
दलित साहित्यकारों द्वारा लिखे गए लेख, कहानी, आत्मकथा इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि किस तरह से दलितों को विद्यालय में प्रवेश मुश्किल से मिलता था। उनके लिए कक्षा में बैठने का स्थान अंतिम पंक्ति या दरवाजे के बाहर नियुक्त था। इन मेधावी छात्रों को जाति के नाम पर फेल तक किया गया। सवर्ण छात्र और अध्यापक इन्हें मारते-पीटते थे, जातिगत सम्बोधन आम बात थी। किताबें पानी में फेंकना, पीने का पानी दूर रखना जातिगत भेदभाव को दर्शाते हैं। उनसे स्कूलों की सफाई करवाई जाती थी। इन छात्रों के नाम स्कूल में दर्ज तो होते थे पर वह वास्तव में किताबी शिक्षा से दूर रखे जाते थे।
उपर्युक्त सब कारणों से दलित और आरक्षित तबके के विद्यार्थी अवसाद और अकेलेपन का शिकार बनते हैं। मानसिक तनाव उनके कैरियर और जिंदगी के लिए घातक होता है। अगर कोई छात्र रोहित जैसा है जो इस व्यवस्था की सडांध को समझ जाता है तो वह प्रशासन, पुलिस, और शासक-वर्ग का टारगेट बनता है। रोहित और उस जैसे अनेक एकलव्य रोज इसी सड़ी हुई, जातिवादी व्यवस्था का शिकार हो रहे हैं।
लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोध-छात्र हैं