सच है यह सवाल तो बनता है कि स्त्रीवादी नजरिये से दुर्गा के विरोध को कैसे देखा जाये. सवाल यह भी है कि स्त्रीवादी पुरुष के पोजीशन से मैं दुर्गा –महिषासुर प्रसंग को तो नहीं देख रहा हूँ, और अपने भीतर गहरे किसी कोने में छिपे पुरुष से संचालित होकर दुर्गा के अपमान में तो नहीं लगा हूँ . यह सवाल तब भी उठा था, जब 2014 में फॉरवर्ड प्रेस के अक्टूबर (बहुजन परम्परा) अंक ‘ में मेरा लेख छपा था. और उस अंक के खिलाफ हिंदुत्ववादी ताकतों की शिकायत के बाद पुलिस ने न सिर्फ फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के दफ्तर पर रेड किया था, बल्कि इनके संपादकों को गिरफ्तार करने के लिए जोर लगा दी थी, इस बीच संपादकों को कोर्ट से अग्रिम जमानत मिल गई.
मैं जिस स्त्रीवाद को समझता हूँ, और जिससे प्रेरणा ग्रहण करता हूँ , वह ‘दुर्गा –सरस्वती –काली’ आदि देवियों से कोई स्त्रीवादी ऊर्जा नहीं लेता, बल्कि वह समझता है कि इन मिथकों के माध्यम से भारतीय समाज में कभी मातृवंशात्मकता या मातृसत्तात्मकता के अस्तित्व और उसके स्वरुप को समझा जा सकता है, या यह समझा जा सकता है कि कैसे स्त्रियों की सामाजिक स्थिति दोयम, यानी पुरुष के बाद, निश्चित कर दिया गया और स्त्रियाँ भी अपनी इस सामाजिक स्थिति के प्रति अनुकूलित होती गईं. मेरे स्त्रीवाद की प्रेरणा ‘सावित्रीबाई फुले’ हैं और एक पुरुष स्त्रीवादी के रूप में मैं अपनी परम्परा महात्मा बुद्ध, महात्मा फुले और डा. आम्बेडकर में देखता हूँ. बल्कि मैं यह समझता हूँ कि पुरुष स्त्रीवादी को ही नहीं स्त्रीवाद को भी इन महापुरुषों की परम्परा से खुद को जोड़ना चाहिए. हालांकि दुखद है कि अभी तक ‘तथाकथित मुख्यधारा के स्त्रीवाद’ ने इनसे अपने को नहीं जोड़ा है, और शायद इसीलिए इनसे अलग होकर स्त्रीवाद की एक धारा बनती है, जिसे ‘दलित स्त्रीवाद’ कहा जाता है. मैं खुद को स्त्रीवाद की इसी धारा के साथ देखता हूँ, जो सबसे मुक्कमल दृष्टि रखती है, सामाजिक समता के लिए.
एक स्त्रीवादी के रूप में मैं खुद को उन मुहीमों से स्वाभाविक रूप से जुड़ा पाता हूँ, जो इस देश में ब्राह्मणवादी पुरुषसत्तात्मक वर्चस्व को समाप्त कर भारतीय समाज की लाइलाज बीमारियों को ठीक करने की मुहीमें हैं. ‘महिषासुर शाहदत दिवस’ उनमें से एक है. इसके आयोजक भारतीय त्योहारों में अनिवार्य रूप से नत्थी कर दिये गये ‘हत्याओं के जश्न’ के खिलाफ अपनी बात कहते हैं. इन जश्नों को बहुत भावुक आवरण भी दे दिया गया है -तथाकथित पाप पर पूण्य के विजय का आवरण. पाप और पूण्य की इस बायनरी(द्वैध) की एक ओर रक्तशुद्धता के आग्रह से संचालित ब्राह्मण –द्विज समुदाय हैं और दूसरी ओर वे वंचित समुदाय, जिनपर इन ब्राह्मण –द्विजों ने वर्चस्व स्थापित कर लिया है. पूण्य का पक्ष ब्राह्मण–द्विजों की ओर और पाप का पक्ष इन वंचित समुदायों की ओर. इस बौद्धिक बेईमानी के खिलाफ जब वंचित समुदायों ने विद्रोह कर दिया है तो ‘महिषासुर शाहदत’, ‘नरकासुर की जयंती’ जैसे आयोजन आकार ले रहे हैं. महात्मा फुले ने जब ‘बलिराजा’ की पुनर्व्याख्या की तो, ब्राह्मणवादी दर्शन का वर्चस्वशाली विचार ‘दशावतार’ का महिमंडन स्वतः ध्वस्त हो गया –ये समतामूलक चेतना है, समतामूलक अभियान. जे एन यू में ‘महिषासुर शाहदत दिवस’ के आयोजकों ने जब मुझे भी बोलने को बुलाया तो उन्होंने इस आयोजन की पद्धति भी बताई थी. इस दिन एक आचारसंहिता बनाई गई है कि यह पूजारहित आयोजन होगा. एक विचार गोष्ठी आयोजित की जायेगी, जिसकी अध्यक्षता कोई स्त्री करेगी.
‘महिषासुर शहादत दिवस’ की आचारसंहिता स्त्री को ब्राह्मणवादी वर्चस्व के लिए अनुकूलित करने की विचारधारा के बरक्स स्त्री की बौद्धिकता और एजेंसी को केंद्र में लाने की आचारसंहिता है. दुर्गा –काली से जोड़कर शक्ति का स्रोत ढूँढने वाले स्त्रीवाद और हिंदुत्ववादी स्त्री संगठन ‘दुर्गावाहिनी’ के विचारों में बहुत ही कम फर्क है- दोनों की जड़ें ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से जुडी हैं. हालांकि दुर्गा अनिवार्य रूप से उत्पीडक छवि नहीं है. मराठी विद्वान् इसे गणनायिका बताते हैं, आदि गणनायिका ‘नैऋति’ की नातिन. इस तरह इस सिद्धांत में मातृवंशात्मकता के इतिहास को समझने और उसके आदर्शों को व्याख्यायित करने का प्रयास है. देखना यह होगा कि विविधताओं से भरे इस देश में देशव्यापी स्वीकार्यता और उपस्थिति वाले महिषासुर और दुर्गा के बीच में संघर्ष की कथाएं, मिथ कैसे बनते गये. यह किन बौद्धिक बेईमानियों या षड्यंत्रों से संभव हुआ कि इन सारी परम्पराओं पर हावी ब्राह्मणवादी – वैष्णव परम्परा तो ‘न्याय और वर्चस्व’ की कुर्सी हथियाती गई, और दूसरी परम्पराओं के आपसी टकराव और एक दूसरे को समाप्त करने के संकेत पाप-पूण्य की बायनरी में बंट गये.
एक स्त्रीवादी पुरुष के रूप में मैं ब्राह्मणवादी षड्यंत्र के खिलाफ खुद को पाता हूँ, जिसने कुछ स्त्रियों को ‘अच्छी’ के टैग से अपने वर्चस्व को पुष्ट करने की मुहीम से जोड़ लिया और कुछ को ‘ बुरे’ के टैग के साथ तथाकथित ‘असुरों’ राक्षसों के साथ जोड़कर एक बायनरी बना दिया, अन्यथा तत्कालीन समाज के अनुरूप एक प्रेमी को प्रेम का प्रस्ताव देने वाली शूर्पनखा का क्या अपराध कि वह एक बुरी स्त्री हो गई . उसे कैसे पता चला कि आर्य-वैष्णवों की एक पीढी पहले तीन रानियों के परिवार (दशरथ) के बाद एक पत्नी ( राम) का चलन स्थापित हो गया है. संघ के द्वारा ‘आधुनिक हिन्दू छवि’ के निर्माण में कुछ और ही आक्रामक ब्राह्मणवादी विचार केंद्र में आता गया है . अन्यथा कोई कारण नहीं है कि दुर्गा सप्तशती में जिस भाषा का नियमित पाठ किया जाता है वह किसी स्मृति इरानी की समझ से अश्लील हो जाती है. एक संथाली लोककथा की दृष्टि से महिषासुर –दुर्गा की कथा को दक्षिणपंथी छात्र संगठन एबीवीपी और उसके वैचारिक पार्टी तथा संगठन के लोग एक तरह से, एक भाषा में और एक विचार में सोचते हैं. यह ब्राहमण –वैष्णव विचार के आधिपत्य का प्रयास है.
मेरी जानकारी में स्मृति इरानी जिस पैम्फलेट को संसद में पढ़ रही थीं, वह ‘महिषासुर शाहदत’ के आयोजकों के विचारों का दक्षिणपंथी- ब्राह्मण सोच से अश्लील पुनर्पाठ भर है –उसे एबीवीपी ने ही लिखा था. वह पर्चा संथाल कथा और चर्चित विचारक एवं लेखक ‘प्रेमकुमार मणि’ के लेख ‘ किसकी पूजा कर रहे हैं बहुजन(!)’ की उनकी समझ से डिकोडिंग भर है. वे पिछले दो सौ साठ सालों में बनी आक्रामक दुर्गा की छवि से ये जमातें इतनी बद्ध हैं कि इन्हें यह भी समझ में नहीं आयेगा कि कैसे देवियों और देव परम्परा कहीं –कहीं पत्नी –पति के रूप में संयुक्त होती गई, खुद ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर प्रसिद्ध विद्वान् डी डी कोसांबी कुछ कथाओं में दुर्गा को महिषासुर की पत्नी भी बताते हैं.
इसीलिए मैं दुर्गा और स्मृति ईरानी दोनो का स्त्री होने के नाते उतना ही आदर करता हूँ , जितना कि ब्राह्मणवादी -हिंदुत्व के एजेंट होने के कारण उनका विरोध.
स्त्रीकाल के सम्पादक , सम्पर्क : themarginalised@gmail.com