स्त्री मुक्ति का यथार्थ

कुमारी ज्योति गुप्ता 


चूकि कि यह समाज पुरुषप्रधान है इसलिए अधिकांश  स्त्रियां भी पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं। पुरुषों की मानसिकता को बदलना जितना जरूरी है, उससे ज्यादा जरूरी है खुद औरत की पुरुष दृष्टि से लैस मानसिकता को बदलना। रमणिका गुप्ता लिखती हैं-‘‘हमारे देश  में औरत खुद कैसे अपना उल्लास पर्व मनाती है, यह देखकर आश्चर्य  होता हैै, संघड़ चौथ  का व्रत वह इस कामना से रखती है कि भले अगले जन्म में वह ‘गधी’ का जन्म ले, किन्तु उसके पति व बच्चे सुरक्षित रहें। करवा चैथ का व्रत तो पति के लिए ही रखा जाता है।  स्त्री के सुख व सुरक्षा का कोई नियम- व्रत या पर्व किसी भी धर्म में निर्धारित नहीं है। इस्लाम में दो स्त्रियों की गवाही एक के बराबर मानी जाती है तथा इसाई धर्म में औरत आदिम की पसली से ही बनी या बनाई गई है।’’1 मैत्रेयी पुष्पा ने भी अपने एक साक्षात्कार में कहा था ‘‘करवाचैथ पतिव्रत होने का एक सर्टिफिकेट है जिसे हर साल रिन्यूल कराना पड़ता है।’’ तात्पर्य यह है कि औरत एक स्वतंत्र जीव है यह मानने को हमारा समाज तैयार ही नहीं है। उसके स्वतंत्र अस्तित्व की कहीं कोई चर्चा ही नहीं दिखती। कर्तव्यों के नाम पर स्त्री बलि का बकरा बनी हुई है। इसलिए प्रभा खेतान भी कहती हैं -‘‘ये परंपराएं स्त्री को घर सौंपती हैं, बच्चों का भरण – पोषण सौंपती हैं। मानवता के नाम पर वृद्ध और बीमारों के लिए उससे निःशुल्क सेवा लेती है और बदले में उसके द्वारा की गई सेवाओं का महिमा-मंडन कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेती हंै। स्त्री भूखी है या मर रही है , इसकी चिंता किसी को नहीं होती।’’2

स्त्री के पक्ष में जितने भी आंदोलन हुए वे सभी सुधारवादी आंदोलन हुए। औरतों की बदतर स्थिति में सुधार लाने का प्रयास कई विद्वानों ने किया जो कि सराहनीय है। स्त्री शिक्षित  हुई घर से बाहर निकली लेकिन स्वतंत्र नहीं हुई। स्त्री विमर्श  ने स्त्री को साचने समझने और निर्णय लेने की प्रेरणा दी। रमणिका गुप्ता ने लिखा है ‘‘स्त्री विमर्श  ने औरत में वस्तु से व्यक्ति बनने की समझ पैदा की है। स्त्री विमर्श  से स्त्रियों में आटोनामी यानी स्वायत्तता की इच्छा जगी है। उनमें निर्णय लेने की शक्ति पनपी है। हालांकि इतना ही काफी नहीं है क्योंकि अब भी और बहुत कुछ करना बाकी है। भारत की 99 प्रतिश त स्त्रियां सुहाग-भाग पति-परमेश्वर , पारिवारिक इज्जत की अवधारणओं से ग्रस्त हैं ये अवधारणाएं एक ग्रंथि की सीमा तक पहुंच चुकी है, उनके अन्तर्मन में कुंडली जमाकर बैठी हुई हैं। हमें इनसे निजात पानी है तो अपने को इनसे मुक्त करना ही होगा।’’3 अतः हम कह सकते हैं कि जब तक स्त्री अपने मन से मुक्त नहीं होगी तब तक असली मुक्ति की हकदार नहीं होगी। पितृसत्तात्मक समाज में आज भी औरत मनुष्य के रूप में नहीं जानी जाती। पिछले पचास-छाठ सालों में नारीवाद ने सोचने विचारने के तौर तरीकों में जितना परिवर्तन किया है उतना शायद ही किसी विचार ने किया हो। स्त्री आजा़दी, स्त्री सशक्तिकरण की मांग को अपने एजेंडे में ज्यातर संगठनों ने शामिल किया और करते हैं स्त्री से जुड़े प्रश्नों  पर बातचीत भी होती है लेकिन ऐसा क्या है कि एक ‘मनुष्य’ के रूप में स्त्री को जब सम्मान देने की बात आती है तो सारे प्रश्न  धरे के धरे रह जाते हैं। क्या स्त्रियों पर चर्चा तभी होगी जब उनका बलात्कार होगा , अबला दीन-हीन दुखी गरीब, दहेज की मारी , ससुराल की सताई स्त्री ही चर्चा का विषय बनती हैं। लाखों केस तो दर्ज होते हैं कुछ पर सुनवाई भी होती है लेकिन इंसाफ कितनों को मिलता है? महिलाओं के शारीरिक-मानसिक शोषण का सिलसिला निरंतर जारी है। बलात्कार, कन्या भ्रूण हत्या, छेड़छाड़ और दहेज जैसी घिनौनी समस्याएं कुछ भी कम नहीं हो रही हैं। योजनाएं तो बनती हैं पर वे स्त्रियों की जमीनी सच्चाई से कासों दूर होती हैं । गांव में आज भी स्त्रियों को पर्दे में रखा जाता है। स्त्री सशक्तिकरण, स्वतंत्रता, बराबरी, नागरिक के रूप में समान स्तर पर जीने का अधिकार न जाने कितने ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कोई सुनवाई नहीं है। लैंगिक असमानता हर जगह हावी है। ऐसी स्थिति में स्त्री दिवस की सफलता की यह विचित्र विफलता हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि पुरूषों की दुनियां के साथ एक मजबूत और प्रभावी गठजोर बनाने में हमें ‘अपेक्षित’ सफलता क्यों नहीें मिली।

स्त्री मुक्ति की मुहिम उसके अस्तित्व, अस्मिता, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भता के मुद्दों पर केन्द्रित है। दरअसल यह पुरूष, जाति, परिवार, समाज और घर की चौखट में जकड़ी औरत की आजा़दी की लड़ाई है इन बंधनों से मुक्ति ही उसकी वास्तविक मुक्ति है। उसे बोलना होगा, उसे लिखना होगा, अपनी खामाशी तोड़नी होगी। प्रभा खेतान ने लिखा है ‘‘मैं तहेदिल से स्वीकारती हूं कि स्त्री को अपनी खामोशी तोड़नी होगी, उसे वह सब लिखना होगा जो अब तक लिखा नहीं गया। उन पुरूष प्रधान मंचों पर जाना होगा जहां औरत को एक कुर्सीनुमा चीज दे दी जाती है और माइक थमा दिया जाता है आदेश  दिया जाता है बोलो, अपने बारे में, हर औरत के बारे में। मगर वह क्या बोले? कौन सा प्रलाप करे? क्या यही कि अब भी औरत मरती है, मर रही है, हिंसा की शिकार है, चाहे तंदूर में उसकी बेटियां सिंके या फिर गुजरात में उसे जिंदा आग में झोंक दिया जाए?’’4 अतः स्त्री आवाज़ तो उठाती है लेकिन हर नाजायज तरीके से उसे रोक दिया जाता है। इस दिशा में कई सामाजिक कार्यकर्ताएं आज भी संघर्षरत हैं । प्रश्न  वही है कि स्त्री दिवस की सफलता की यह विचित्र विफलता स्त्री को उसके हक, मान-सम्मान और नागरिक होने का अधिकार क्यों नहीं दिला पाई? व्यक्तित्व की लड़ाई स्त्रियां कब तक लड़ेंगी? लेखन हो या कोई और क्षेत्र स्त्रियां आज भी जद्दोजहद कर रही हैं। प्रभा खेतान ने लिखा भी है ‘‘हिंदी में सालों से प्रकाशित  महिला-लेखन को पढ़ने से यह बात स्पष्ट हो जायगी कि महिला लेखन ने बार-बार उस दबाव का जिक्र किया है जिसे कलम उठाते ही वह महसूस करती है। स्वतंत्र हाते हुए भी सबकुछ कहने की मनाही है, अतः दोयम रह जाना उसकी नियति है। व्यक्त मूल्यों एवं विचारों के इर्द-गिर्द सत्ता का संजाल पहले मौजूद है और सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि नारीवादी बौद्धिकता में उठाए गए मुद्दों में पुरुषों की रूचि नहीं। आडवानी की रथ यात्रा हो या नरेन्द्र मोदी की गौरव यात्रा, ये विजेता के प्रतीक चिन्ह हैं। इनके रथों केे पहियों में औरत उलझी हुई है, वह चक्के के नीचे कुचली गई एवं लहूलुहान है! कुछ भी कहने में असमर्थ।’’5 अतः तन और मन दोनों ही स्तर पर स्त्री समाज का, परिवार का अभिशाप झेलने को अभिश प्त है। पढ़ा लिखा आधुनिक समाज भी वैसी ही बहू पसंद करता है जो अपनी इच्छा मारकर परिवार की जी हजूरी करे। अपनी बात कहने वाली बहू खराब मानी जाती है चाहे वह कितनी ही पढ़ी-लिखी तर्कशील हो हमारा समाज आज भी ऐसी ही स्त्री को आदर्श  मानता है जो समाज द्वारा निर्धारित मर्यादा का पालन करती है, परंपरागत भूमिका से हटकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व की चाह नहीं रखती तथा जो परिवार को खुश  रखने के लिए झूठ बोलती हेै। ऐसी स्थ्तिि में महिला दिवस का जश्न  मनाना मुझे तो सार्थक नहीं लगता। औरत की वास्तविकता यह है कि वह मानवीय अधिकारों से लैस है। 99 प्रतिश त स्त्रियां बड़ी खुशी  से अपना दासता पर्व मना रही हैं। मुक्ति के नाम पर हम एक भ्रम में जी रहे है अपने निर्णय पर कायम रहने का खामियाजा हर स्त्री को भुगतना पड़ता है, जिस दिन स्त्रियों को सुना और समझा जाएगा उस दिन औरत स्वतंत्र होगी।

पुरुषवादी समाज भारतीय नारीवाद के विभिन्न रूपों को कैसे अपनाता है, उसके प्रति उसका नज़रिया सकारात्मक है या नहीं, भूमंडलीकरण, स्त्री सश क्तिकरण जैसे मुद्दों पर सार्थक पहल होगी कि नहीं इत्यादि  प्रश्नों  के जवाब से ही स्त्री दिवस की सार्थकता तय होगी। अपनी बात मैं प्रभा खेतान की महत्वपूर्ण पंक्तियों के साथ समाप्त करना चाहूंगी-‘‘स्त्री का सवाल और राष्ट्रीय एकता का सवाल एक दूसरे के खिलाफ रखकर नहीं देखा जाना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे स्त्री हो या पुरुष, पक्षधरता के कारण यथास्थिति से मिलने वाली सुविधाओं को छोड़ना पड़ता है, कीमत देनी पड़ती है जिसके लिए कोई तैयार नहीं है। स्त्री के हक सर्वसम्मति से नहीं दिए जा सकते। समकालीन जगत में स्त्री का प्रसंग एक नैतिक जिम्मेदारी की मांग करता है। आंकड़े उठाकर देख लिजीए: शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति, रोजगार और व्यापार-जगत, हर जगह स्त्री-श्रम की कीमत पुरुष-श्रम से कम है। क्या इस आधार पर जनतांत्रिक मूल्यों का विकास संभव है? कार्य-जगत में यौन भेद-भाव और यौन-हिंसा भी कम नहीं है। स्त्री को पुरुष की तरह वोट का अधिकार है। पर स्त्रियों का प्रतिनिधित्व पुरुष वर्ग ही करना चाहता है । राजनीतिक जीवन में स्त्री की सक्रिय भागीदारी नहीं है। दुनिया के सारे सांसदों का दस प्रतिशत हिस्सा ही स्त्रियां हैं ओर केवल चार प्रतिशत स्त्रियां मंत्रालयों में हैं। केवल गरीबी ही स्त्री के लिए बाधक नहीं है। गरीब तो पुरुष भी है, अर्थाभाव तो वह भी झेलता है,जातिवाद का शिकार वह भी है। मगर पितृसत्तात्मक समाज की स्त्री-विरोधी परंपराओं का आयाम पूरी तरह विशिष्ट  है।’’6 अतः स्त्रियां पंचायतों में आरक्षण के कारण पद तो पा लेती हैं लेकिन हकीकत में वे पुरुषों के हाथ का रबड़ बैंड ही बन कर रह जाती हैं क्योंकि सारे फैसले पुरुष ही लेते हैं महिला के नाम का तो केवल इस्तेमाल होता है।

संदर्भ – सूची
1. गुप्ता रमणिका – स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास , संस्करण – 2014, सामयिक प्रकाशन , नई दिल्ली, पृ0 सं0-62.63
2. खेतान प्रभा – उपनिवेश  में स्त्री, पहला संस्करण-2003, तीसरी आवृत्ति-2010,राजकमल प्रकाश न प्रा0 लि0, नई दिल्ली, पृ0 सं0-14
3. गुप्ता रमणिका – स्त्री मुक्ति संघर्ष और इतिहास , संस्करण – 2014, सामयिक प्रकाशन , नई दिल्ली, पृ0 सं0-66
4. खेतान प्रभा – उपनिवेश  में स्त्री, पहला संस्करण-2003, तीसरी आवृत्ति-2010,राजकमल प्रकाश न प्रा0 लि0, नई दिल्ली, पृ0 सं0-55
5. खेतान प्रभा – उपनिवेश  में स्त्री, पहला संस्करण-2003, तीसरी आवृत्ति-2010,राजकमल प्रकाश न प्रा0 लि0, नई दिल्ली, पृ0 सं0-56-57
6. खेतान प्रभा – उपनिवेश  में स्त्री, पहला संस्करण-2003, तीसरी आवृत्ति-2010,रजकमल प्रकाशन प्रा0 लि0, नई दिल्ली, पृ0 सं0-14

लेखिका डा. भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय में शोधरत हैं . 

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