प्रिय ऋचा,
मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय की भूतपूर्व छात्रा हूँ। मुझे महिला छात्रावास में (‘शताब्दी महिला छात्रावास’) रहने का अवसर मिला था। पाँच वर्ष उस छात्रावास में रही। बी॰ए॰ तक जूनियर ब्लॉक में थी। जब एम॰ ए॰ में पहुँची तो सीनियर ब्लॉक एलार्ट हो गया । वे सभी लड़कियाँ जो इलाहाबाद की(लोकल) नहीं थीं, मेरिट द्वारा अंकवितरण के अनुसार छात्रावासों में रहती थीं। और भी तमाम लड़कियाँ थीं जिनको छात्रावासों में रहने का अवसर नहीं मिला। वे बाहर कमरा लेकर मकान मालिकों के मनमाने नियमों-क़ानूनों का शिकार होती थीं। अभी भी होती होंगी। वैसे मेरे कई सम्बन्धी वहीं बगल में प्रयाग स्टेशन के पास रहते थे। मेरे मामा, मौसी, चाचा के लड़के थे। मेरे सगे भैया भी वहीं बगल में ही रहते थे। मेरे घर वाले चाहते थे, कि मैं भैया के साथ रहूँ। लेकिन भैया यह नहीं चाहते थे। मैं एक छोटे गाँव से आई थी, मेरे भीतर आत्मविश्वास की बहुत कमी थी, अभी भी है। लेकिन इस बीच थोड़ा धृष्ट हुई हूँ । भइया चाहते थे की मैं अनेक पृष्ठभूमि की लड़कियों के साथ रहूँगी तो मेरे व्यक्तित्त्व का विकास अलग तरह से होगा। परंतु कितना हुआ यह नहीं कह सकती । फ़िलहाल यह अलग बात है, इसे यहीं छोड़ती हूँ।
मुझे होली बहुत पसंद थी। मैं अपने छात्रावास के दिनों में लगातार पाँच वर्ष होली पर घर नहीं गयी। इसका एक तो कारण यह भी था कि, होली का समय परीक्षाओं का भी समय होता था। होली के चार दिन पहले से ही विभिन्न छात्रावासों के लड़के होली की झाकियाँ निकालते थे। वे महिला परिसर का पूरा गोल चक्कर लगाते । जब झांकियाँ निकलतीं, हम लड़कियाँ छत पर चढ़ जातीं थीं। एम॰ए॰ के दौरान तो हम लोगों ने अपने कई क्लासमेट को, जिनके देह पर कपड़े के नाम पर सिर्फ चड्डी थी, पहचान लिया था। बाद में उनका मज़ाक भी उड़ाती थीं।छत पर खड़ी हम लड़कियां निगाहों से परिसर की दीवाल गिरा देना चाहती । होली के दो दिन पहले से ही हमारे छात्रावास परिसर के मेन गेट पर ढेर-सारी पुलिस लगा दी जाती थी। हमारे गेट जल्दी बंद हो जाते थे। गेट तो पहले भी बंद होते थे, लेकिन इतना बुरा नहीं लगता था ,क्योंकि हमे रात 9 बजे के बाद परिसर मे जाने की आदत नहीं पड़ी थी । हाँ गर्मी मे लाइट जाने पर गेट पर बाहर से लटका ताला अखरता। छत बंद ,लॉन बंद,गेट बंद कहीं से हवा की कोई झिरखिरी नहीं।
लेकिन होली के दिन तो सुबह से ही गेट बन्द कर दिया जाता। परिसर के भीतर ही दूसरे छात्रावासों मे रहने वाली सहेलियों से भी हम नहीं मिल पाते थे। ऐसा लगता जैसे एक चहरदीवारी के भीतर पाँच कमरे हों और पाँचों में अलग-अलग हमें बन्द कर बाहर से ताला लगा दिया गया हो।कई दीवारों वाली सुरक्षा में उस दिन हमारी सांस फूल जाती। दोपहर दो बजे के आस-पास गिनकर खाने की थैलियाँ आतीं,उसमे चार चिप्स ,एक पापड़ ,खोखलू गुझिया कटहल की सब्जी और चार पुड़ियाँ होती । इसलिए हम न तो किसी सहेली को अपने कमरे में चोरी से रोक सकती थीं और न खुद अपनी सहेली के दूसरे छात्रावास में रुक सकती थीं। जब मैं वहाँ थी तब इतना बुरा नहीं लगता था। लेकिन अब होली का वह रंग सोचकर ही दम घुटने लगता है।
ऋचा! इस समय तुम पर कई सारे दबाव और ख़तरे हैं। तुम्हारे ख़तरों में हम सभी भूतपूर्व और वर्तमान अन्तःवासिनियां तुम्हारे साथ हैं। लेकिन ख़तरों के कारण तुमसे हमारी उम्मीदें तो कम नहीं हो जाती न ? मैं चाहती हूँ कि तुम हमारे लिए एक ख़तरा और लो कि होली के दिन परिसर के अन्दर के छात्रावासों के गेट पर दिन में कोई ताला न लटके। तुम यह भी सोच सकती हो कि खुद तो कुछ किया नहीं, अब सबकुछ की उम्मीदें मुझसे करती हैं। हाँ, तुम यह सोच सकती हो।
मैं चाहती थी कि यह अपनी और सबकी ‘सिया’ कहानी तुम्हें डाक से भेजूँ ,लेकिन होली तीन दिन बाद ही है और भावनाएँ उफ़ान पर। इसलिए तुम्हें यह ‘सिया कहानी’ ( होली की राम -कहानियां तो बहुत है ) तुम्हारी कुछ तस्वीरों के साथ, जो मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के गेट पर ‘पिंजड़ा तोड़’ वाली मीटिंग के दौरान ली थी, तुम्हें भेज रही हूँ।