प्रेम की सामर्थ्य देखनी हो तो संतों का स्मरण करना चाहिए| संतों में विशेषकर रविदास का| प्रेम की ऐसी बहुआयामी संकल्पना समय से बहुत आगे है| उनके समकालीनों में वैसा कोई नहीं दिखता| आधुनिक आलोचक भी उस प्रेम के समग्र स्वरूप को समझने में चूके| उसके मर्म तक पहुँच नहीं सके| प्रखर प्रेमाभा में आसानी से दृश्यमान एक-दो चीजों को देखकर उसे ही सब कुछ समझ लिया| आगे नहीं बढ़े| जो देखा उसी के दूसरे पहलू पर दृष्टि नहीं गई| मसलन रविदास की विनम्रता चर्चा में रही| इस विनम्रता को नख-दन्त-विहीन अबोध लचीलापन समझ लिया गया| जितनी विनम्रता उतनी दृढ़ता| मृदुभाषी मगर सत्याग्रही| मितभाषी किंतु एक-एक शब्द वजनदार| जिनकी बानी की मधुरता तिक्त औषधि पर मीठे लेपन की तरह है| ठीक बौद्ध महाकवि अश्वघोष के कथनानुरूप- “पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं हृदयं कथं स्यादिति|” ऐसी ही उदग्र ‘मधुवाणी’ वाला कवि डंके की चोट पर कह सकता है- ‘साधो का सास्त्रन सुनि कीजै|’ जो सभी धर्मग्रंथों को समान रूप से असहज पाता है- ‘बेद-कतेब, कुरान-पुराननि सहजि एक नहिं देखा|’ इसीलिए उसका सुझाव है- ‘थोथो जिनि पछोरो रे कोई| पछोरो जामे निज कन होई||’ ‘निज कन’ अर्थपूर्ण पद है| यह अन्न कण तो है ही, निजत्व का, आत्म का संकेतक भी है| जिस दर्पण में अपना चेहरा न दिखाई दे वह दर्पण किस काम का! जिस वाङ्मय में स्वानुभव (निज कन) न हो वह थोथा ही है| इस ‘निज कन’ की प्रतीति कैसे हो? ज्ञान से? ध्यान से? मगर ज्ञान-ध्यान तो अबूझ भी हो सकते हैं? किस पर भरोसा करें, किससे अबूझ का अर्थ बूझें? संत रैदास का समाधान है कि प्रेम ही वह माध्यम है जो इस उलझाव से निकाल सकता है| प्रेम रस ही ‘निज कन’ की प्रतीति करा सकता है-
ज्ञान ध्यान सबही हम जान्यो, बूझों कौन सों जाई|
हम जान्यो प्रेम प्रेमरस जाने, नौ बिधि भगति कराई||
कबीर |
वर्ण-जाति मनुष्य से उसका स्वत्व, निजत्व छीन लेते हैं| इसके बदले में वे जो पहचान देते हैं वह आत्महीनता को ढंकने का काम करती है| अपने ‘होने’ का बोध ही असंभव बनाती है| ऐसे मरुस्थल में लाके छोड़ती है जहां प्यासे ही मरना है| रैदास को मालूम है कि वर्ण-जाति के जंजाल से पार पाने की पद्धतियाँ उनके पूर्ववर्तियों ने अपने-अपने ढंग से खोजीं हैं| उनके समकालीन भी अपने-अपने तरीके से ऐसी पद्धति तलाश रहे हैं| वे इन पद्धतियों की सफलता और सीमा से परिचित भी हैं| वर्णवादी हिंसा से निपटने के लिए प्रतिहिंसा का सहारा लिया जाता है| जातिवादी मानसिकता जो ओछापन थोपती है उसकी प्रतिक्रिया में आक्रामकता को ढाल बनाया जाता है| यह प्रतिहिंसा और आक्रामकता मुख्यतः भाषा में अभिव्यक्त होती है| इसके व्यवहर्ता को एकबारगी ऐसा लग सकता है कि उसने जातिवादी प्रतिपक्षी को उसी के असलहों से परास्त कर दिया है| वस्तुतः होता इसके विपरीत है| प्रतिहिंसा और आक्रामकता जातिवाद की खुराक है| इसी खुराक के दम पर वह अपने को बनाए-बचाए रखती है| यह स्थिति उसके विरोधी को हताश उदास बनाती है| उसे अपना संघर्ष संदिग्ध लगने लगता है| ऐसे संघर्ष को उम्मीदभरी नज़रों से देखने वाला जनसमुदाय वर्ण-जाति की ‘सनातनता’ के दावे के समक्ष आत्मसमर्पण करने लगता है| इससे प्रभुत्व की संरचना को नवजीवन मिलता है| यह गुत्थी सबकी समझ में नहीं आती| समूचे मध्यकाल में संभवतः रविदास ही अकेले ऐसे चिंतक-रचनाकार हैं जो वर्ण-जाति के नैरन्तर्य की यह पहेली बूझते हैं| वही अकेले संत हैं जो इस संरचना के उन्मूलन में प्रेम की भूमिका समझते हैं| वे प्रत्याक्रमण से उपजी उदासी को, प्रतिहिंसा के विषण्ण उत्पाद को चीन्हते हैं| उनकी प्रेम में डूबी भक्ति भ्रम-पाश का उच्छेद इसीलिए कर पाती है-
अनेक जतन करि टारिये, टारे न टरै भ्रम पास|
प्रेम भगति नहिं ऊपजै, ताते जन रैदास उदास ||
रविदास की साधना-पद्धति में प्रेम को उच्च स्थान मिला हुआ है| इसे अष्टांग साधन कहा जाता है| गुरु-परंपरा-क्रम से प्राप्त आठ अंगों वाली इस साधना में शुरू के तीन वाह्य अंग है, बाद के तीन भीतरी अंग हैं और अंतिम दो उच्चतम अवस्था या पूर्ण संतावस्था के- 1.गृह, 2.सेवा, 3.संत, 4.नाम, 5.ध्यान, 6.प्रणति, 7.प्रेम और 8.विलय| रविदास की बानियों में जो विनम्रता व्याप्त है वह प्रेम की इसी केन्द्रीयता के चलते| उनकी उदात्तता का यही हेतु है| प्रेम उनके यहाँ साधन से बढ़कर है| यह पूर्णता का पर्याय है| स्नेहपूरित भाषा का सिद्ध प्रयोक्ता कवि जानता है कि मनुष्य के अंतरतम तक कैसे पहुंचा जा सकता है| और, यह भी कि कैसे मूल्यवान कथ्य तिक्त भाषा की संगति पाकर उल्टा असर कर देता है-
मूरिख मुख कमान है, कटुक बचन भयो तीर|
सांचरी मारे कान महि, साले सगल सरीर||
कबीर साहब अगर रविदास को सच्चे मार्ग का पता बताने वाला कहते हैं तो इस कथन के गूढ़ार्थ पर ध्यान जाना चाहिए| अपनी श्रद्धा प्रकट करते हुए कबीर ने उन्हें ‘संतनि में रविदास संत हैं’ कहा| ‘भक्तमाल’ में नाभादास ने लिखा है कि रविदास के चरणों की धूलि की वंदना लोग अपने वर्णाश्रमादि का अभिमान त्याग कर भी किया करते थे| रविदास की विमल वाणी संदेह की गुत्थियों को सुलझाने में परम सहायक है| स्वयं रविदास का साक्ष्य है- ‘अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति’ (-इस रविदास को अब मुखिया ब्राह्मण भी दंडवत करते हैं|)
संत रविदास के प्रेम का वैशिष्ट्य क्या है? इस प्रेम के अवधारणा में अन्तर्निहित तत्व कौन-से हैं? इस प्रेम की क्रियाशीलता कैसी है जिससे संदेह दूर होता है और मति निर्मल हो जाती है? रविदास के रचनाजगत में प्रेम एक विराट भाव है| उसके सभी अंगों-उपांगों को एक साथ देख पाना सरल नहीं है| जैसे जाति की जटिलता को समझ पाना मुश्किल है वैसे इस जटिलता को हटाने वाले प्रेम के तंतुओं को एक संश्लिष्ट इकाई के तौर पर अनुभूत करना कठिन है| जाति के रहते एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से जुड़ नहीं सकता- ‘रैदास न मानुष जुड़ सके जौ लौं जात न जात|’ अगर प्रेम को जोड़ने का दायित्व निभाना है तो उसकी कतिपय पूर्वशर्तें और पश्चात अपेक्षाएं होंगीं| रविदास की प्रेम संकल्पना का वितान फिर इस तरह बनता दिखाई देता है- प्रेम के लिए स्वाधीनता अनिवार्य पूर्वशर्त है| पराधीन पर दया की जा सकती है, प्रेम नहीं किया जा सकता| प्रेम दो (या दो से अधिक) स्वाधीन लोगों के बीच ही हो सकता है| प्रेम पाना है तो स्वाधीन होना पड़ेगा| प्रेम करना है तो पहले स्वतंत्रता का वरण करना होगा| जाति व्यवस्था पराधीन बनाने वाली व्यवस्था है| जाति से मुक्ति पराधीनता से मुक्ति है| पराधीनता से छुटकारा प्रेम का पथ प्रशस्त करता है| परतंत्र व्यक्ति अपने जाति-बाड़े में कैद होता है| न वह किसी से उन्मुक्त होकर मिल पाता है और न ही प्रेम करने या पाने की सोच पाता है| जिस समाज में दो व्यक्तियों का आपसी परिचय एक दूसरे की जाति जानने की बाध्यता से शुरू होता हो वहां खालिस मनुष्य-मनुष्य के रूप में पारस्परिक भरोसा कैसे पैदा होगा? इस भरोसे या प्रतीति के अभाव में प्रीति पनपेगी कैसे! पाप पुण्य जैसे पारंपरिक प्रत्ययों को अप्रत्याशित परंतु परम प्रभावशाली-गौरवपूर्ण अर्थ देते हुए संत रविदास कहते हैं-
पराधीनता पाप है जानि लेहु रे मीत|
रैदास दास प्राधीन सों कौन करे है प्रीत||
अनिता भारती |
मेरी सीमित जानकारी में समूचे आदिकाल और मध्यकाल में स्वाधीन पराधीन जैसे पदों का इस अर्थ में प्रयोग अपवाद स्वरूप ही हुआ है| ‘मीत’ संबोधन में निहित व्यंजकता गौर करने लायक है| यह कवि के लैंगिक रूप से संवेदनशील होने का प्रमाण है| प्रीति और पराधीनता का सहभाव संभव नहीं| इस तथ्य को अधीनस्थ तबकों से बेहतर कौन समझ सकता है? दलित और स्त्री ऐसे ही तबके हैं| जाति के नियम गैर अधीनस्थ तबकों को ही कहाँ बख्शतें हैं! वे अपने से नीचे वालों का दोहन कर सकते हैं, उन पर अपनी इच्छा लाद सकते हैं मगर प्रेम नहीं कर सकते| गैर बराबरी यह संभव नहीं होने देगी| पराधीनता में प्रेम का अवकाश नहीं बनेगा| पराधीन व्यक्ति हीन समझा जाता है| हीनता में पड़े हुए को कोई प्रेम नहीं करता| धर्माचरण या सदाचरण स्वातंत्र्य का अनुगामी है| जिसे स्वतंत्रता ही नहीं हासिल है उसके लिए सदाचरण का प्रश्न बेमानी है-
पराधीन को दीन क्या, पराधीन बेदीन|
रैदास दास प्राधीन को, सबहीं समझै हीन||
कबीर के यहाँ प्रेम पर पर्याप्त बल है लेकिन प्रेम और स्वाधीनता के अंतस्संबंध पर ख़ामोशी है| तुलसीदास के यहाँ पराधीनता की चर्चा है और ठीक उस अर्थ में जो रविदास को अभीष्ट है| पराधीन को सुख नहीं मिलता –ऐसा तुलसी अपने एक स्त्री पात्र से कहलवाते हैं| एक वर्ग के रूप में नारी इसीलिए सुख से वंचित है क्योंकि वह पराधीन है- “कत बिधि सृजी नारि जग मांहीं | पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं||” सुख का स्रोत है प्रेम –यह समझ उस समय के रचनाकारों में है| मंझन रचित प्रबंध ‘मधुमालती’ की पहली पंक्ति है- ‘प्रेम प्रीति सुखनिधि के दाता|’ पराधीनता-अप्रीति-असदाचरण-दुख की शृंखला का विवेक रविदास देते हैं| तुलसी अपने पराधीनता वाले प्रसंग के लिए रविदास के ऋणी हैं| स्त्री पराधीनता का मुद्दा रेखांकित करने के लिए तुलसी की उचित प्रसंसा करने वाले विद्वान इस विचार के स्रोत की तरफ ध्यान नहीं देते| वे कभी नहीं बताते कि पराधीनता का यह प्रश्न पहले रविदास ने उठाया था| लोक में यह समझदारी है| वह रविदास के प्रति तुलसी की श्रद्धा जाहिर करने के लिए कथा गढ़ लेती है| इस कथा के अनुसार गुरु की तलाश में मीरां ने तुलसीदास से संपर्क किया था| अपनी तजबीज के अनुरूप तुलसी ने रविदास को गुरु बनाने की सलाह दी थी| मीरां ने उनकी सलाह पर अमल भी किया था|
सुशीला टाकभौरे |
दासता को जन्म देने वाले कारणों की आलोचना होनी चाहिए| जिसे दासता की जंजीरों में जकड़ दिया गया है, उसकी निंदा क्योंकर की जाए? रविदास में यह विरल विवेक है| वे इसीलिए नारी-निंदा में प्रवृत्त नहीं होते| मीरां के सामने और भी विकल्प थे मगर उन्होंने रविदास को ही अपना दीक्षा गुरु चुना| यह चुनाव अनायास नहीं है| भक्ति कविता के अध्येताओं को यह जांचना चाहिए कि सगुण (कृष्ण) भक्त मीरां जब अपने परवर्ती काल में रामभक्ति धारा से जुड़ती हैं तो उनकी कविता की अंतर्वस्तु में क्या फर्क आता है| मीरां की अंतर्मुखी आत्मकेंद्रित कविता यदि जीवन-जगत के सरोकारों से बाद के दिनों में थोड़ा जुड़ती है तो इसका कुछ श्रेय उनके दीक्षा गुरु को जाता है| मीरां ने खुले मन से गुरु के प्रति, उनका नाम लेकर अपनी कृतज्ञता व्यक्त की है- “गुरु मिलिया रैदास जी दीन्हीं ज्ञान की गुटकी|” तथा “रैदास संत मिले मोहि सतगुरु दीन्हा सुरत सहदानी”| अगर रविदास स्त्री को कमतर मानने वाले कवि होते, उनके यहाँ स्त्री अवमानना की अभिव्यक्तियाँ होतीं तो मीरां जैसी स्वाधीनचेता स्त्री उनकी शिष्या हरगिज न बनती| उनकी शिष्याओं में एक ‘झालीरानी’ का भी उल्लेख मिलता है| इस तरह और भी बहुत-सी स्त्रियां संत रविदास को अपना गुरु, प्रेरणास्रोत मानती होंगी| साक्ष्य न होने से हम सिर्फ अनुमान कर सकते हैं| इस अनुमान को लोकमत का पुख्ता आधार प्राप्त है| रविदास के चिंतन का स्वरूप लोकमत का निर्माता है|
संत रविदास अगोचर रहस्य में ज्यादा नहीं रमते| कुण्डलिनी जागरण में उनकी रुचि नहीं प्रतीत होती| सहस्रार चक्र के वेधन में उनकी साधना नहीं लगती| इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना-अनहदनाद जैसी शब्दमाला उनके यहाँ बमुश्किल व्यवहृत होती है| शून्य शिखर पर विराजने की उनकी मंशा शायद नहीं थी| उनका चिंतन शास्त्रवाद से छुटकारा दिलाना चाहता है| एक शास्त्रवाद से निकलकर दूसरे शास्त्रवाद में चले जाने से वे बचते हैं| अमूर्त अगम में विचरने की बजाए वे ठेठ दुनियावी मसले उठाते हैं| वे भूख की समस्या से टकराते हैं| भूख और दरिद्रता स्वाधीनता के लिए संकट है| स्वाधीनता का अभाव प्रेम की गुंजाइश ख़तम करता है| प्रेम भाव की कविता लिखने वाला कवि उस भौतिक परिवेश की भी परवाह करता है जिसमें यह भाव मुमकिन है| वह इसीलिए राजनीति का भी स्पर्श करता है| प्रजा को अन्न उपलब्ध कराना राज्य का जिम्मा है, ऐसी मान्यता निम्न दोहे से ध्वनित होती है-
ऐसा चाहूँ राज मैं मिले सबन को अन्न |
छोट बड़ो सभ संग बसैं रैदास रहें प्रसन्न||
बाद के दिनों में तुलसीदास ने भुखमरी को कर्मफलवाद से अलग रखकर उसे राजसत्ता का दायित्व बताया| उनके ‘पाइ सुराज सुदेस सुखारी’, ‘सुखी प्रजा जिमि पाइ सुनाजा’ जैसे कथनों में रविदास के उक्त सरोकार की अनुगूंज है| लेकिन एक महत्वपूर्ण बिंदु पर रविदास बहुत आगे दिखते हैं| यह है श्रम के महत्त्व का रेखांकन| स्वावलंबन स्वाधीनता के लिए अपरिहार्य है और और स्वावलंबन श्रम के बल पर निर्मित होता है| बेहद संवेदनशील स्वर में रविदास सलाह देते हैं- ‘रैदास स्रम करि खाइए जौ लौं पार बसाय|’ सुख-चैन ही स्वाधीनता है| यह श्रम के दम पर सुनिश्चित की जाती है| श्रम ही नेक कमाई का साधन है| बंगाल में दलितों के महानायक, मतुआ धर्म के संस्थापक श्री श्री हरिचांद ठाकुर ने नारा दिया था- ‘हाथे काम, मुखे नाम|’ श्रम करते हुए नाम स्मरण करना चाहिए| रविदास बहुत पहले कह चुके थे- ‘जिह्वा सों ओंकार जप, हत्थन सों कर वार|’ हाथ चलाते हुए ओंकार जपो| महात्मा गांधी सत्य को ईश्वर कहते थे| रविदास उनसे कहीं ज्यादा ठोस और क्रांतिकारी प्रस्ताव करते हैं| वे श्रम को ईश्वर बताते हैं| इसे संभवतः पूर्व-आधुनिक युग की कम्युनिस्ट वैचारिकी कहा जा सकता है-
स्रम को ईसर जानि कै जउ पूजहिं दिन रैन |
रैदास तिनहिं संसार में सदा मिलहिं सुख चैन ||
हेमलता माहिश्वर |
इस संक्षिप्त विवेचन से अंदाज लगाया जा सकता है कि रैदास की प्रेम परिकल्पना कितने व्यापक धरातल पर प्रतिष्ठित है| पराधीनता और दारिद्र्य निवारण पर बल देकर वे इसे समस्त मानवता के लिए मूल्यवान बना देते हैं| स्त्री की अवमानना करने वाली अभिव्यक्तियों से वे सचेत रूप से बचते हैं| इड़ा-पिंगला के शास्त्रवाद में नहीं उलझते| राजसत्ता के दायित्व का संज्ञान लेते हैं| श्रम और स्वावलंबन के रिश्ते पर रोशनी डालते हैं तथा श्रम की सर्वोपरिता रेखांकित करते हैं| सदाचार ही उनके यहाँ जीवनमूल्य है| नैतिकता को वे कर्मकांड का स्थानापन्न बनाते हैं| क्रोध और विनय के संतुलन पर उनकी दो-टूक असहमतियां प्रकट होती हैं| इसी का सुफल है कि ब्राह्मण सहित सभी सवर्ण उनकी शरण में जाते हैं| तमाम आचार्यों और संतों को दरकिनार कर मीरां जैसी प्रबुद्ध स्त्रियां उनकी शिष्या बनती हैं|
इन तमाम तथ्यों और ब्योरों के समेकित परिप्रेक्ष्य में उनकी इस स्वीकारोक्ति को समझना चाहिए- ‘हम जानौ प्रेम, प्रेम रस जाने’| इस उद्घोषणा की प्रतिध्वनि विलक्षण रूप से मार्टिन लूथर किंग जूनियर (1929-1968) के इस कथन में सुनाई पड़ती है- “आइ हैव डिसाइडेड टू लव” –मैंने प्रेम करने का फैसला किया है| संयुक्त राज्य अमरीका में ब्लैक समुदाय के मानवाधिकारों की प्राप्ति के लिए शुरू हुए सिविल राइट्स मूवमेंट (1955-1967) के अग्रणी नेता किंग ने स्पष्ट रूप से कहा कि प्रेम के अतिरिक्त किसी अन्य आधार पर खड़ी क्रांति विफल होगी| किंग के इस अहिंसक आंदोलन में तमाम उदार मत वाले गैर ब्लैक/वाइट विचारक, कार्यकर्ता भी शामिल हुए| यह आंदोलन सफल रहा| इसने क़ानून से समान सुरक्षा का अधिकार दिलाया, ब्लैक पुरुषों को मताधिकार मिला और दास प्रथा उन्मूलन की प्रक्रिया संपन्न हुई| ब्लैक स्त्रीवादी विचारक बेल हूक्स (1951) का मानना है कि अमरीका का सिविल राइट्स मूवमेंट इसलिए समाज को बदल सका क्योंकि यह मूलतः प्रेम की नैतिकता पर टिका था| इस आंदोलन के अगुआ मानते थे कि प्रेम के जरिए ही अधिकतम भलाई हासिल की जा सकती है| प्रेमाधारित अहिंसक आंदोलन ने पूरे (अमरीकी) समाज की मनुष्यता जागृत करने का लक्ष्य अपने सामने रखा| आंदोलन की प्रकृति सुधारवादी रही| मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या और इस आंदोलन के अन्य नेताओं की मृत्यु के साथ एक गहमागहमी से भरे एक युग का अंत हुआ| उनके समानधर्मा, सहयोगी श्वेत लोग भी दिवंगत हुए| समूचे परिवेश में एक नैराश्य व्याप्त हो गया| इस दौरान ब्लैक आंदोलनकारियों, बुद्धिजीवियों की नई पीढ़ी तैयार हो चुकी थी| इस पीढ़ी ने सुधारवादी आंदोलन से अपने को अलगाया और नए आंदोलन की शुरुआत की| यह क्रांतिकारी आंदोलन था| इसका मकसद मानवता का जागरण नहीं, ब्लैक समुदाय को पुरजोर आक्रामक तरीके से खड़ा करना था| यह ‘शक्ति’ केंद्रित आंदोलन था| इसे ‘ब्लैक पॉवर मूवमेंट’ कहा जाता है| इस आंदोलन को चलाने वाली युवा पीढ़ी साध्य-वादी थी| साधन की परवाह न करने वाली| इसका अनुभव जगत श्वेत समाज की नृशंसताओं से भरा था| इसकी स्मृतियों की दुनिया श्वेत प्रभुओं की क्रूरताओं से लबालब थी| अहिंसक मार्ग में यह साठोत्तरी पीढ़ी यकीन नहीं करती थी| उसे इंकलाब चाहिए था| इसने पूरे अमरीकी समाज को झकझोर कर रख दिया| इसकी उपलब्धियां ऐतिहासिक रहीं- चेतना के स्तर पर और कानून निर्माण के स्तर पर| लगभग दो दशक इसकी सक्रियता के रहे| इसके उपरांत ब्लैक स्त्रीवाद का उभार हुआ| इस नए आंदोलन ने पूर्ववर्ती आंदोलन की समीक्षा की| इसने रेखांकित किया कि सुधारवादी होने के कारण सिविल राइट्स मूवमेंट भले ही कई मामलों में बहुत सीमित रहा हो फिर भी उसमें व्यापक जनसमुदाय को प्रेरित करने की क्षमता थी क्योंकि वह गहरे में प्रेम नैतिकता पर अवस्थित था| दूसरी तरफ ब्लैक पॉवर मूवमेंट ने मुक्ति संघर्ष को सुधार से क्रांति की तरफ ला दिया| यह एक उल्लेखनीय राजनीतिक विकास था| साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद विरोध का स्वरूप रेडिकल हुआ| इस विरोध का एक वैश्विक परिप्रेक्ष्य इसी दौर में निर्मित हुआ| इन ऐतिहासिक उपलब्धियों के साथ यह भी सच है कि इस आंदोलन के नेतृत्व में पुंसवादी लैंगिक पूर्वग्रह गहरे में व्याप्त थे| इन पूर्वग्रहों ने प्रेमभाव को कुचला| इस आंदोलन के सारे लीडर पुरुष थे| पुरुषवादी भी| वे रेसिज्म के सख्त खिलाफ थे लेकिन स्त्रियों की यौन दासता के समर्थक थे| मर्दवादी आक्रामकता प्रेम को दुर्बलता से समीकृत करती थी| यह प्रभुत्व के उन्हीं उपकरणों का इस्तेमाल कर रही थी जो परंपरा से उसके ऊपर व्यवहृत होते आए थे|
कैलाश चंद चौहान |
भारतीय दलित आंदोलन के प्रसंग में यह प्रश्न विचारणीय है कि आंबेडकर के आंदोलन में स्त्रियों की जो बड़े पैमाने पर भागीदारी थी वह उनके बाद उभरे पैंथर आंदोलन में सिमट क्यों गई| क्या यहाँ भी पुरुषवादी मानसिकता ने आंदोलन को अपनी गिरफ्त में ले लिया? यह अनुमान निराधार नहीं है| पैंथर आंदोलन की उपलब्धियों को किसी भी तरह कमतर आंकने से बचकर यह तो कहा ही जा सकता है इसके नेतृत्व में स्त्री के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता नहीं थी| उसके लैंगिक पूर्वग्रह जगह-जगह देखे जा सकते हैं| इस आंदोलन के एक सर्वमान्य हस्ताक्षर नामदेव ढसाल की कुछ काव्य पंक्तियां उदाहरण के लिए उद्धृत की जा सकती हैं-
1) इस धमनी का रिद्म जरा सुनो तो,/ संभव है तुम्हारे बंध्या गर्भ से अंकुर फूटे| (‘जनरल वार्ड’)
2) इस विधवा मराठी भाषा को,/ फिर से सुहागिन होते हुए देखना है मुझे| (‘रमाबाई आंबेडकर’)
3) हम जिंदा हुए हैं/ तुम्हारे पापों का छिनाल घड़ा फोड़ने के लिए| (‘अँधेरे ने सूर्य देखा तब’)
आंबेडकर के बाद उभरी गुस्सैल युवा पीढ़ी की ऐसी अभिव्यक्तियों और पूर्वग्रहों ने दलित स्त्रियों को आंदोलन से विलग करने का काम किया| पैंथर आंदोलन के निर्माण के बाद दलित स्त्रियों की संगठित आवाज उभरने में लगभग तीन दशक लगे| दलित स्त्रीवाद अपने साथ कई छूटे हुए मुद्दे लेकर आया| प्रेमपरक नैतिकता की आंदोलन में वापसी हुई| मुक्ति आंदोलन सार्वजनीन, समावेशी, बहुकोणीय हुआ| कार्यसूची में प्रेम के प्रवेश से क्रांति की धार कतई कुंठित नहीं हुई| सुधार आंदोलन, जागृति युग और क्रांतिकाल के श्रेष्ठ तत्वों का सम्मिलन दलित स्त्री आंदोलन ने किया| संत रविदास और बाबासाहेब आंबेडकर के योगदान को नए सिरे से समझने का माहौल भी तभी बना|
रचना के एक विषय-वस्तु के रूप में प्रेम के चयन का क्या अर्थ है? यह विषय-वस्तु (थीम) कृति पर, कृतिकार पर, पाठक समुदाय पर, आंदोलन पर क्या असर डालती है? इन प्रश्नों के समुचित जवाब कुछ समय बाद ही दिए जा सकेंगे| जब प्रेम केंद्रित रचनाओं की संख्या में वृद्धि होगी, उनकी गुणवत्ता में परिष्कार के कई प्रयोग होंगे, ऐसी रचनाओं को जांचने के प्रतिमानों का निर्माण होगा, आलोचना में प्रेम की थीम पर कुछ कसौटीगत सहमतियाँ बनेंगी, दलित आंदोलन में इस विषय पर बहस का स्वरूप थोड़ा और निथरेगा तब कहीं जाकर मूल्य-निर्धारक टिप्पणियां की जा सकेंगी| अभी सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि आंदोलनधर्मी साहित्य में प्रेम का आगमन परिवर्तन की मंशा का पूरक बनने जा रहा है| प्रेम की उपस्थिति दलित आंदोलन को उसकी समृद्ध परंपरा से जोड़ने का काम करेगी| इस परंपरा में एक तरफ तो ‘भवतु सब्ब मंगलम’ का उद्घोष है तो दूसरी तरफ सबके मंगल में अवरोधक मानव विरोधी ताकतों की पहचान है और उनके विरुद्ध अनमनीय संघर्ष चेतना है| शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के प्रयास को मात्र भौतिक पक्ष तक सीमित रखने से उसकी पहुँच और सफलता संदिग्ध रहती है| इससे एक नैतिक खोखल का निर्माण होता है| धर्म (बेशक वह बौद्धधम्म क्यों न हो) इस खोखल को ढंकने का काम करता है| उसके रिचुअल्स खोखल का प्रकटीकरण स्थगित करते रहते हैं, उसे हावी होने से रोकते रहते हैं| जो रिचुअल्स के पार देखने की शक्ति अर्जित कर लेता है उसमें अनिवार्यतः एक छटपटाहट जन्म लेती है| मध्ययुग में भक्ति ने इस छटपटाहट से निपटने की चेष्टा की थी| लेकिन, बहुत जल्दी भक्ति का अपना कर्मकांड विकसित हो गया| फिर यह विकल्प भी रीत गया| समय के आर-पार देखने की क्षमता वाले संत रविदास ने यह आशंका बिलकुल शुरू में ही भांप ली थी| उन्होंने इसीलिए प्रेम-भगति का विकल्प दिया| एक समय के बाद भक्ति सांचे में ढल सकती है, अपनी अर्थवत्ता खो सकती है मगर प्रेम को सांचे में नहीं ढाला जा सकता| उसे पुनर्नवा ही होते रहना है- “प्रेम भगति नहिं ऊपजै ताते जन रैदास उदास|” नैतिक खोखल से उपजी उदासी से प्रेम ही बचा सकता है| संघर्ष-चेतना को वही कायम रख सकता है| धर्म के विरुद्ध भावना अध्यात्म की ओर ले जाती है| अध्यात्म उन्मुख व्यक्ति तनहाई की ओर जा सकता है, अकेलेपन का वरण कर सकता है| प्रेम में यह खतरा न्यूनतम है| वह अध्यात्म का सुरक्षित विकल्प है| प्रेम समुदाय से, संघर्ष के कारवां से जोड़े रखता है| जिजीविषा से भरी आंतरिकता प्रेम की बदौलत ही प्राप्त होती है| समृद्ध अंतस आत्मीयता रचता है| वह ‘अन्य’ के प्रति उदार बनाता है| उससे जुड़ने और उसे जोड़ने का परिवेश निर्मित करता है| प्रेम की नैतिकता के बगैर हम वर्चस्व की किसी न किसी संरचना- प्रतिउपनिवेशवाद, नवसाम्राज्यवाद, बाजारवाद, लिंगवाद, प्रजातिवाद, उलट-जातिवाद, वर्गवाद में फंसे रहते हैं| हम ताउम्र एक वर्चस्व के विरुद्ध संघर्ष करते हुए दूसरे वर्चस्व को अनदेखा करते रह सकते हैं| उस वर्चस्व का मुखर समर्थन करते हुए भी देखे जा सकते हैं| कोई प्रभुत्व हमें तब नागवार लगता है जब वह हमारे स्वार्थ पर चोट करता है| प्रेम हमें इस संकुचित दृष्टि से मुक्त करता है| हम दूसरे के दुख के विरुद्ध, भले ही हमारा निजी स्वार्थ प्रभावित हो रहा हो, प्रेम की प्रेरणा से सन्नद्ध होते हैं| इससे हमें अपने अंध-बिन्दुओं को पहचानने की कूवत आती है| अपनी अस्मिता को अतिक्रांत करते हुए हम अपने सरोकारों का विस्तार करते हैं| तभी हममें यह सलाहियत आती है कि हम वर्चस्व की राजनीति को समग्रता में समझ सकें और न्याय की लड़ाई को सार्वभौमिक बना सकें, न्याय के दूसरे संघर्षों में भी शामिल हो सकें| जिस क्षण हम प्रेम करने का निर्णय करते हैं उसी क्षण हम वर्चस्व के विरोध में खड़े हो जाते हैं| जाहिर-सी वजह है कि वर्चस्व प्रेम को सहन नहीं करता| प्रेम स्वाधीनता का उद्घोषक है| वर्चस्व की संस्कृति के लिए आजादी नाकाबिले बर्दाश्त है| वह खुद को बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेती है| हिंसा की निरंतरता अपने साये में रहने वालों की प्रेम करने की क्षमता ही सोख लेना चाहती है| बहुधा सोख लेती है| तब बहुत से लोग खुद को या दूसरे को प्रेम करने में असमर्थ पाते हैं| उन्हें पता ही नहीं होता कि प्रेम क्या हैं| ऐसे में प्रेम का अभ्यास स्वतंत्रता का अभ्यास बन जाता है| खोए हुए आत्म की पुनर्प्राप्ति का माध्यम प्रेम ही ठहरता है| आत्म की यह पुनर्प्राप्ति आंतरिक आलोचना से संपृक्त रहती है| जातिवादी दबंगई निजत्व का नाश करती चलती है| इस संस्कृति में खुद से प्रेम करना भी खतरे से खाली नहीं रहता| ऐसे में प्रेम करने का फैसला राजनीतिक जागरूकता की मांग करता है| स्वतंत्रता के अभ्यास की पीठिका के तौर पर| प्रभुत्व की कार्यप्रणाली समझने की जरूरत इसी समय महसूस होती है| अपनी जिंदगी, उसे निर्धारित करने वाली परिस्थितियां, थोपी गई पहचान आदि के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि का निर्माण प्रेम की मनोदशा करती है| प्रभुत्वशाली संस्कृति के जिन मूल्यों का आत्मसातीकरण हुआ है, उसे समझ पाने और उससे मुक्त हो पाने की प्रक्रिया अब प्रारंभ होती है| आतंरिक उपनिवेशीकरण से छुटकारा पाने की गुंजाइश बनती है| अन्य से नफरत और आत्मघृणा दोनों का आभ्यंतरीकरण साथ-साथ हो सकता है| इनसे मुक्त हुए बिना न सहज हुआ जा सकता है और न वैकल्पिक संस्कृति के बारे में सोचा जा सकता है| प्रेम यह दायित्व भी निभाता है| वह प्रेमी को अन्तःप्रज्ञा से संपन्न करता है| आत्म पर लगे घाव पूरने शुरू होते हैं| पीड़ा से मुकाबला करने की शक्ति आती है| अन्य को पीड़ा न पहुंचाने की संकल्पात्मक वृत्ति निर्मित होती है| प्रेमपूर्ण समाज इसी बुनियाद पर खड़ा हो सकता है| संत रविदास ने इसे ही बेगमपुरा कहा है|
हीरालाल राजस्थानी |
दलित प्रेम कहानी से हमारी वही मुराद है जिसकी रूपरेखा ऊपर देने की कोशिश की गई है| दलित स्त्री के परिदृश्य में आने से संभव हुई यह चर्चा जाति के साथ पितृसत्ता उन्मूलन के सवाल को गूंथकर ही आकार लेती है| वर्ग और पारिवारिक पृष्ठभूमि का मुद्दा भी इससे जुड़ा होता है| जो दलित रचनाकार सरोकारों के इस संश्लिष्ट विधान से जुड़े हुए हैं वहीं मुक्ति के साधन के रूप में प्रेम कहानी लिखने में सफल हो पा रहे हैं| बनती हुई स्त्री, उस स्त्री के व्यक्तित्व का सम्मान करने वाला नया पुरुष, खुद मुख्तार होने में दलित स्त्री की दुश्वारियां, अपने संस्कारों को पहचान कर उससे लड़ने वाला दलित युवा और स्त्री की बाड़ेबंदी करने वाले नए स्मृतिकारों की पहचान किए बिना अब सार्थक प्रेम कहानी लिखना मुश्किल है| अस्मितावादी विमर्श और मुक्तिकारी संघर्ष दोनों ही धाराओं से प्रेम कहानियां आ रही हैं| इनके बीच का फर्क समझना जरूरी है| यहाँ यह कह देना अभीष्ट है कि निकष बनने वाली प्रेम कहानियां नई पीढ़ी के रचनाकार ही दे रहे हैं| इन रचनाकारों में दलित स्त्रियां अग्रिम पंक्ति में हैं|
‘नीला पहाड़ लाल सूरज’ कहानी में अनिता भारती ने एक स्थगित लेकिन नाजुक और महत्वपूर्ण मुद्दे को पूरी शिद्दत से उठाया है| यह है ग्लानि बोध जागृत करके आत्म प्रक्षालन कराना| अधिकार बोध की कहानियाँ अस्मिता विमर्श में केंद्रीय थीं| ‘अन्य’ को अवकाश देने का अवकाश नहीं था| एक प्रविधि के रूप में ग्लानिबोध की इस ‘डोमेन’ में कोई गुंजाइश नहीं थी| अनिता ने यह गुंजाइश बनाई| उनकी कहानी का नायक समर (गैर दलित) है| उसने प्रज्ञा से प्रेम विवाह किया है| यह प्रेम मजदूर आंदोलन में साथ-साथ काम करते पनपा है| विवाह के लंबे अरसे बाद समर के संस्कार उसके व्यक्तित्व पर दस्तक देते हैं| उसका पुरुष अहं प्रज्ञा को अपनी सेवा में न पा चोटिल होता है| सामाजिक कार्यों में प्रज्ञा की निरंतर भागीदारी समर को भन्नाए रखती है| वह उसके आचरण पर भी शक करता है| कहानी के उत्तरार्ध में विप्लव नामक पात्र की एंट्री समर को मौका देती है कि वह अपनी मनोरचना की छानबीन करे| अपने किए पर समर में पश्चाताप का उदय हुआ- “सोचते-सोचते समर ने खुद को कठघरे में पाया|…उसे प्रज्ञा पर गुस्सा क्यों आया?… उसकी उन्मुक्त बौद्धिकता, उसकी ईमानदारी, सच्चाई…वह इन गुणों की बहुत कद्र करता था| अब उसे इन्हीं गुणों से चिढ़ क्यों है?… आसपास की चुप्पी में गूँज रहे ये सवाल एक-एक करके दीवारों से टकरा के वापस आ रहे थे और समर को घायल कर रहे थे|… उसकी आँखों से ग्लानि बहने लगी थी|” मुक्तिकामी विमर्श के लिए यह ग्लानि बहुत मूल्यवान है| इससे विचारधारात्मक सांचावाद टूटता है|
हेमलता महिश्वर की कहानी ‘राग की रागी रागिनी’ दो भिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों से आए युवाओं के बीच पनपे प्रेम की कथा है| समीर ब्राह्मण परिवार से है और रागिनी शूद्र परिवार से| विश्वविद्यालय परिसर दोनों की जातिगत पहचान को पीछे रखकर उनके बीच स्वस्थ प्रेम को अंकुरित करता है| प्रेम का अंकुरण उस समय हो रहा है जिस समय जारसत्ता वाले और विमर्शकार फतवा दे रहे हैं कि ‘ब्राह्मण अपना दिल ब्राह्मण से लगाए और शूद्र शूद्र से|’ फतवे की अनुगूंज कहानी में भी है| परिवार और समाज से टक्कर लेते दोनों युवा साथ रहने का निर्णय लेते हैं| समीर को उचित ही नया नाम मिलता है- ‘राग’| वह डिप्टी कलक्टर बनता है और रागिनी प्रोबेशनरी अफसर| समीर के पिता प्रतिशोध लेते हैं| समीर मनोचिकित्सालय में गुमनामी का जीवन काट रहा है| पच्चीस वर्ष से! एक अच्छी कहानी अविश्वसनीय बंद पर आकर समाप्त होती है|
चंद्रकांता की बड़ी संवेदनशील कहानी है ‘शेड्यूल कास्ट’| जिस नई दलित स्त्री की चर्चा की गई यह कहानी उसके निर्माण पर रोशनी डालती है| इसमें एक तरफ तो दलित स्त्री को छलने के लिए सवर्ण चालबाजियों का दर्शन कराया गया है दूसरी तरफ दलित परिवार में मौजूद पितृसत्तात्मक मूल्यों का रेखांकन हुआ है| कहानी की नायिका मीरा शिड्यूल कास्ट की है| इसका बोध उसे सातवीं कक्षा में सरकारी स्कूल में कराया जाता है| परिवार में मीरा दादी के पुरुषवादी रवैए का शिकार बनती है| युवती मीरा को ठगता है प्रेम का नाट्य रचने वाला अभिषेक तिवारी| जितना जरूरी विश्वसनीय चरित्रों को सामने लाना है उससे कहीं ज्यादा जरूरी अभिषेक जैसे छलिया पात्रों की पहचान कराना है| कहानी मीरा के आत्म-उन्मीलन पर आकर संपन्न होती है- “प्रेम की पीड़ा का उत्सव मनाने का समय अब नहीं था| वह तो अपने अस्तित्व की दीपशिखा को प्रज्वलित कर रही थी|…सदियों से मन में सुलगता सूरज आज उसके चेहरे पर जो उग आया था|” दलित स्त्री के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया को दर्शाने वाली एक और कहानी है प्रियंका शाह की ‘अश्रुधारा’| कहानी की नायिका अश्रु अध्यापिका है| सिलीगुड़ी नामक छोटे शहर में अकेली रहती है| लेकिन वह अकेली है कहाँ? अतीत का एक कचोटता प्रसंग उसके साथ रहता है| कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में नितिन और उसकी जोड़ी मशहूर थी| यह जोड़ी स्थायित्व प्राप्त करती इससे पहले नितिन के पिता सौम्यदीप मुखर्जी के जातिवादी मानस ने अपनी विध्वंसक भूमिका निभाई| विस्तार में न जाकर कहानी संकेतों में बहुत कुछ कह देती है| एक कौंध की तरह उसे एक दिन नितिन का ख्याल आता है| पिता द्वारा थोपी जिंदगी से मुक्त हो वह अश्रु की स्मृतियों के सहारे जीवन काट रहा है| अब अश्रु अपनी चुनी हुई तनहाई को घुला देने का निर्णय करती है| अपनी मितभाषिता में कहानी बड़ी मार्मिक बन पड़ी है|
कैलाश वानखेड़े |
दो वरिष्ठ कथाकारों- सुशीला टाकभौरे (‘वह नज़र’) और कावेरी (अंतर्द्वंद्व’) की कहानियां एक ढर्रे की हैं| ये कहानियाँ विवाह संस्था के परे जाकर प्रेम का परीक्षण करती हैं| इनमें एक साहसिक प्रयोगशीलता दिखाई देती है| ये प्रयोग दलित प्रेम कहानी का दायरा विस्तृत करते हैं| ‘वह नज़र’ की मुख्य पात्र एक कॉलेज में प्रोफ़ेसर है| उसकी क्लास का एक छात्र प्रोफ़ेसर से रागात्मक रिश्ता रखता है| यह आकर्षक से बढ़कर है| इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दिया जा सकता| नाम देने के मजबूरी भी नहीं है| औपचारिक संबंधों से मुक्त इस ‘प्रेम’ कहानी में निर्बंध बयार बही है| कावेरी ने शोध छात्रा शालु को केंद्र में रखकर कहानी रची है| किस्कू शादीशुदा आदिवासी अफसर है| पांच बेटियों और दो बेटों का पिता| सभी संतान बालिग़| आदिवासी संस्कृति पर अपने शोधकार्य के दौरान शालु किस्कू से मिलती है| उनमें प्रेम पनपता है- “इसमें बुराई क्या है? प्रेम को बुरा मनुष्य ने बनाया है| शुद्धता और जाति बंधन के नाम पर जकड़ दिया है| शालु को लगा प्रेम तो सहज स्वानुभूति है|” किस्कू पहले तो शालु की प्रेमाभिव्यक्ति पर मौन रहता है लेकिन कहानी के अंत में विवेकानंद और सिस्टर निवेदिता के अनाम (प्रेम) संबंध से आगे बढ़कर घोषणा करता है- “मैं समाज सेवा करूंगा| शालु देवी है उसकी पूजा करूँगा||”
कैलाश वानखेड़े बहुत संवेदनशील और सधे हुए कहानीकार हैं| उनकी कहानी ‘महू’ उच्च शिक्षा में पसरे जातिवाद को फोकस करती है| प्रज्ञा और नरेश दोनों दलित समुदाय से हैं| उनके बीच पनपता प्रेम जातिवादी हिंसा के खिलाफ आकार लेता एक अग्निधर्मी अभियान जैसा दिखता है| प्रज्ञा की क्लासमेट रागिनी सवर्ण मानस का विद्रूप चेहरा है| यह सवर्ण मानसिकता ही विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, इंजीनियरिंग, मेडिकल संस्थानों में दलित विद्यार्थियों की हत्याएं कर रही है| इन हत्याओं को आत्महत्या का नाम दिया जाता है| दलित युवा पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में प्रज्ञा और नरेश बाबासाहेब की संघर्ष की विरासत को और गति प्रदान करना चाहते है| वे तहरीर चौक का विकल्प महू के रूप में देखते हैं| यह कहानी अपने सुगठित शिल्प के कारण भी यादगार बन पड़ी है|
हीरालाल राजस्थानी की कहानी ‘हड्डल’ दो भिन्न वजहों से उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण मानी जा सकती है| यह शायद पहली कहानी है जो कला महाविद्यालय में पहुंचे दलित विद्यार्थियों का चित्र उकेरती है| दूसरी वजह यह कि कहानी पुरख़ुलूस ढंग से आतंरिक जातिवाद का मुद्दा उठाती है| रचित और तूलिका डिपार्टमेंट ऑफ़ फाइन आर्ट्स के विद्यार्थी हैं| दोनों दलित समुदाय से| दीर्घ साहचर्य उनमें प्रेम उपजाता है| रचित कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से है जबकि तूलिका की पारिवारिक पृष्ठभूमि किंचित बेहतर है| रचित की मां मजदूरी करती हैं| पिता नहीं रहे| दोनों विवाह करना चाहते हैं| इसमें कोई बाधा नहीं होनी चाहिए| मगर बाधा है, विकट बाधा| बाधा यह कि रचित खटीक जाति का है जबकि तूलिका जाटव| रचित अपनी मां को समझाता है, दोनों पक्ष शिड्यूल कास्ट के हैं, यह तर्क देता है| मां पर इसका कोई असर नहीं होता| वह उलटे बेटे को डांटती है- “अरे तू पागल हो गया है जो अपना धर्म भ्रष्ट करने पर तुला है!” दूसरी ओर तूलिका के घर वाले उसकी पिटाई करते हैं और उसे घर में ही कैद कर लेते हैं| जातिवादी समाज में प्रेम कितना आत्मघाती है, कहानी इस तथ्य को बखूबी उजागर करती है|
कैलाश चंद चौहान की पहचान मंजे हुए कहानीकार के तौर पर उभर रही है| उनकी कहानी ‘प्यार जिसे कहते हैं’ पुरुष मानसिकता का उद्घाटन करती है| प्रेम के जिस सिलसिले को पुरुष जीवन की स्वाभाविक गति बताकर स्वीकार्य बनाता है, रंचमात्र भी वैसी छूट स्त्री को नहीं देना चाहता| आत्मकथात्मक शैली में लिखी कहानी का नायक दलित समुदाय से है| उसके जीवन में पहली बार पारुल आती है| कॉलेज के दिनों में| पारुल खुद ही विवाह का प्रस्ताव रखती है| कथा नायक की मां को कोई दिक्कत नहीं लेकिन पिता इस संबंध को मंजूरी नहीं दे सकते| पारुल की जाति ब्राह्मण जो है! मजबूर नायक का विवाह शिखा से हो जाता है| वह दो बच्चों का बाप है| पत्नी से बेतरह प्रेम करता है| ऑफिस आते-जाते उसका परिचय मान्या से होता है| मान्या भी नौकरीपेशा है और इस अर्थ में स्वतंत्र| नायक उससे प्रेम करने लगता है| पहल यद्यपि मान्या ही करती है| दोनों इस प्रेम को विवाह में नहीं बदलते| इधर शिखा नायक की सहमति से एक एन.जी.ओ. ज्वाइन कर लेती है| हफ्ते में दो दिन जाना है| एक शाम उसे लौटने में थोड़ी देर हो जाती है| नायक की उद्विग्नता तब चरम पर पहुँचती है जब वह अपने घर के छज्जे से शिखा को कार से उतरते और कार चालक एनजीओ के मालिक पुष्पेंद्र को विदा करते देखता है| इधर मान्या का फोन लगातार आ रहा है उधर नायक का मूड उखड़ चुका है| प्रेम की ‘स्वाभाविक’ शृंखला चरमरा चुकी है|